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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

विचाराधीन कैदियों के लिये ज़मानत

 08-Jul-2024

जावेद गुलाम शेख बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य

“समय के साथ, ट्रायल कोर्ट और उच्च न्यायालय विधि के एक बहुत ही स्थापित सिद्धांत को भूल गए हैं कि दण्ड के तौर पर ज़मानत नहीं रोकी जानी चाहिये”।

न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां और न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला की पीठ ने कहा कि अभियुक्त को शीघ्र सुनवाई का अधिकार है तथा दण्ड के तौर पर उसकी ज़मानत नहीं रोकी जा सकती।

  • उच्चतम न्यायालय ने जावेद गुलाम शेख बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य मामले में यह निर्णय दिया।

जावेद गुलाम नबी शेख बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • इस मामले में अपीलकर्त्ता को मुंबई पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और उसके पास से 2000 रुपए मूल्यवर्ग के जाली नोट बरामद हुए।
  • अपीलकर्त्ता के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 489B, 489C, 120B सहपठित धारा 34 के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई थी।
  • अंततः जाँच का कार्य राष्ट्रीय जाँच एजेंसी को सौंप दिया गया।
  • यह अपील बॉम्बे उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश से उत्पन्न हुई है, जिसमें अविधिक गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम, 1967 (UAPA) के प्रावधानों के अधीन अभियोजन के संबंध में अपीलकर्त्ता को ज़मानत पर रिहा करने से प्रतिषेध कर दिया गया था।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने निम्नलिखित तीन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अपीलकर्त्ता को ज़मानत प्रदान की:
    • अपीलकर्त्ता पिछले चार वर्षों से विचाराधीन कैदी के रूप में जेल में है।
    • ट्रायल कोर्ट आज तक आरोप तय नहीं कर सका है।
    • अभियोजन पक्ष कम-से-कम अस्सी साक्षियों से पूछताछ करना चाहता है।
  • न्यायालय ने कहा कि संविधान के अंतर्गत अभियुक्त को शीघ्र सुनवाई का अधिकार है।
  • यह विधि का एक सुस्थापित सिद्धांत है कि दण्ड के तौर पर ज़मानत नहीं रोकी जा सकती।
  • न्यायालय ने कहा कि यदि राज्य शीघ्र सुनवाई (जो कि भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 21 के अधीन एक मौलिक अधिकार है) प्रदान नहीं कर सकता है, तो राज्य को इस आधार पर ज़मानत की याचिका का विरोध नहीं करना चाहिये कि किया गया अपराध गंभीर है।
  • इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने कहा कि शीघ्र सुनवाई के अधिकार का उल्लंघन किया जा सकता है, जिससे संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होता है।

ज़मानत क्या है?

  • दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) के अंतर्गत ज़मानत शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है।
  • संहिता की धारा 2(a) के अंतर्गत केवल ज़मानती अपराध’ और ‘गैर-ज़मानती अपराध’ शब्दों को परिभाषित किया गया है।

ज़मानत के विभिन्न प्रकार क्या हैं?

  • नियमित ज़मानत: न्यायालय, गिरफ्तार व्यक्ति को ज़मानत राशि के रूप में भुगतान करने के बाद पुलिस अभिरक्षा से रिहा करने का आदेश देता है। कोई भी आरोपी CrPC की धारा 437 और 439 (BNSS की धारा 480 और धारा 483) के अंतर्गत नियमित ज़मानत के लिये आवेदन कर सकता है।
  • अंतरिम ज़मानत: यह न्यायालय द्वारा अभियुक्त को अस्थायी और अल्पकालिक ज़मानत प्रदान करने का प्रत्यक्ष आदेश है, जब तक कि उसकी नियमित या अग्रिम ज़मानत याचिका न्यायालय के समक्ष लंबित है।
  • अग्रिम ज़मानत: किसी गैर-ज़मानती अपराध के लिये गिरफ्तारी की आशंका वाले व्यक्ति CrPC की धारा 438 (BNSS की धारा 482) के अधीन उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय में अग्रिम ज़मानत के लिये आवेदन कर सकते हैं।

BNSS की धारा 479 के अधीन विचाराधीन कैदी को अधिकतम कितनी अवधि के लिये अभिरक्षा में रखा जा सकता है?

  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 479 (1) में प्रावधान है कि जहाँ किसी व्यक्ति ने किसी विधि के अधीन अपराध (ऐसा अपराध नहीं है जिसके लिये उस विधि के अधीन मृत्यु या आजीवन कारावास का दण्ड निर्दिष्ट किया गया है) की इस संहिता के अधीन जाँच, पूछताछ या परीक्षण की अवधि के दौरान उस विधि के अधीन उस अपराध के लिये निर्दिष्ट कारावास की अधिकतम अवधि के आधे तक की अवधि के लिये अभिरक्षा में रखा है, तो उसे न्यायालय द्वारा ज़मानत पर रिहा कर दिया जाएगा:
    • परंतु जहाँ ऐसा व्यक्ति प्रथम बार अपराधी है (जिसे पूर्व में कभी किसी अपराध के लिये दोषसिद्ध नहीं किया गया है) उसे न्यायालय द्वारा बॉण्ड पर रिहा कर दिया जाएगा, यदि वह उस विधि के अधीन ऐसे अपराध के लिये निर्दिष्ट कारावास की अधिकतम अवधि के एक-तिहाई तक की अवधि के लिये निरुद्ध रह चुका है;
    • आगे यह भी प्रावधान है कि न्यायालय, लोक अभियोजक को सुनने के पश्चात् तथा उसके द्वारा लिखित में अभिलिखित किये जाने वाले कारणों से, ऐसे व्यक्ति को उक्त अवधि के आधे से अधिक अवधि के लिये निरंतर अभिरक्षा में रखने का आदेश दे सकता है या उसे उसके बॉण्ड  के स्थान पर ज़मानत बॉण्ड पर रिहा कर सकता है।
    • यह भी प्रावधान है कि किसी भी मामले में ऐसे व्यक्ति को अन्वेषण, जाँच या विचारण की अवधि के दौरान उस विधि के अधीन उक्त अपराध के लिये उपबंधित कारावास की अधिकतम अवधि से अधिक के लिये निरुद्ध नहीं किया जाएगा।
    • स्पष्टीकरण- ज़मानत स्वीकार करने के लिये इस धारा के अधीन निरुद्धि की अवधि की गणना करते समय, अभियुक्त द्वारा कार्यवाही में किये गए विलंब के कारण बिताई गई निरुद्धि की अवधि को अपवर्जित कर दिया जाएगा।
  • खंड (2) में यह प्रावधान है कि: उपधारा (1) में किसी बात के होते हुए भी, और उसके तीसरे परंतुक के अधीन रहते हुए, जहाँ किसी व्यक्ति के विरुद्ध एक से अधिक अपराधों या अनेक मामलों में जाँच, पूछताछ या विचारण लंबित है, उसे न्यायालय द्वारा ज़मानत पर रिहा नहीं किया जाएगा।
  • खंड (3) में यह प्रावधान है कि जहाँ अभियुक्त व्यक्ति निरुद्ध है, वहाँ का जेल अधीक्षक, उपधारा (1) में उल्लिखित अवधि का आधा या एक तिहाई पूरा हो जाने पर, जैसा भी मामला हो, ऐसे व्यक्ति को ज़मानत पर रिहा करने के लिये उपधारा (1) के अंतर्गत कार्यवाही करने के लिये न्यायालय को लिखित में आवेदन करेगा।

BNSS की धारा 479 और CrPC धारा 436A के बीच तुलना:

  • दोनों प्रावधानों के बीच तुलना इस प्रकार है:

CrPC की धारा  436A

BNSS की धारा 479

(1) जहाँ किसी व्यक्ति ने किसी विधि के अधीन अपराध के लिये इस संहिता के अधीन जाँच, पूछताछ या विचारण की अवधि के दौरान (ऐसा अपराध नहीं है जिसके लिये उस विधि के अधीन दण्डों में से एक के रूप में मृत्युदण्ड  निर्दिष्ट किया गया है) उस विधि के अधीन उस अपराध के लिये निर्दिष्ट कारावास की अधिकतम अवधि के आधे तक की अवधि के लिये अभिरक्षा में रखा है, उसे न्यायालय द्वारा उसके निजी बॉण्ड पर ज़मानत के साथ या उसके बिना रिहा कर दिया जाएगा।

बशर्ते कि न्यायालय, लोक अभियोजक को सुनने के पश्चात् तथा उसके द्वारा लिखित में अभिलिखित किये जाने वाले कारणों से, ऐसे व्यक्ति को उक्त अवधि के आधे से अधिक अवधि के लिये निरंतर अभिरक्षा में रखने का आदेश दे सकता है या उसे ज़मानत सहित या रहित व्यक्तिगत मुचलके के स्थान पर ज़मानत पर रिहा कर सकता है।

आगे यह भी प्रावधान है कि किसी भी मामले में ऐसे व्यक्ति को अन्वेषण, जाँच या विचारण की अवधि के दौरान उस विधि के अधीन उक्त अपराध के लिये उपबंधित कारावास की अधिकतम अवधि से अधिक के लिये निरुद्ध नहीं किया जाएगा।

स्पष्टीकरण- ज़मानत स्वीकार करने के लिये इस धारा के अधीन निरुद्धि  की अवधि की गणना करते समय, अभियुक्त द्वारा कार्यवाही में किये गए विलंब के कारण बिताई गई निरुद्धि की अवधि को अपवर्जित कर दिया जाएगा।

(1) जहाँ किसी व्यक्ति ने किसी विधि के अधीन अपराध के लिये इस संहिता के अधीन जाँच, पूछताछ या परीक्षण की अवधि के दौरान (ऐसा अपराध नहीं है जिसके लिये उस विधि के अधीन दण्ड के रूप में मृत्यु या आजीवन कारावास का दण्ड निर्दिष्ट किया गया है) उस विधि के अधीन उस अपराध के लिये निर्दिष्ट कारावास की अधिकतम अवधि के आधे तक की अवधि के लिये अभिरक्षा में रखा है, तो उसे न्यायालय द्वारा ज़मानत पर रिहा कर दिया जाएगा।

 

बशर्ते कि जहाँ ऐसा व्यक्ति प्रथम बार अपराधी है (जिसे पहले कभी किसी अपराध के लिये दोषी नहीं ठहराया गया है) उसे न्यायालय द्वारा बॉण्ड पर रिहा कर दिया जाएगा, यदि वह उस विधि के अधीन ऐसे अपराध के लिये निर्दिष्ट कारावास की अधिकतम अवधि के एक-तिहाई तक की अवधि के लिये अभिरक्षा में रहा है।

आगे यह भी प्रावधान है कि न्यायालय, लोक अभियोजक को सुनने के पश्चात् तथा उसके द्वारा लिखित में अभिलिखित किये जाने वाले कारणों से, ऐसे व्यक्ति को उक्त अवधि के आधे से अधिक अवधि के लिये निरंतर अभिरक्षा में रखने का आदेश दे सकता है या उसे उसके व्यक्तिगत बॉण्ड   के स्थान पर ज़मानत बॉण्ड पर रिहा कर सकता है।

यह भी प्रावधान है कि किसी भी मामले में ऐसे व्यक्ति को अन्वेषण, जाँच या विचारण की अवधि के दौरान उस विधि के अधीन उक्त अपराध के लिये उपबंधित कारावास की अधिकतम अवधि से अधिक के लिये निरुद्ध नहीं किया जाएगा।

स्पष्टीकरण- ज़मानत स्वीकार करने के लिये इस धारा के अधीन निरुद्धि की अवधि की गणना करते समय, अभियुक्त द्वारा कार्यवाही में किये गए विलंब के कारण बिताई गई निरुद्धि की अवधि को अपवर्जित कर दिया जाएगा।

(2) उपधारा (1) में किसी बात के होते हुए भी, और उसके तीसरे परंतुक के अधीन रहते हुए, जहाँ किसी व्यक्ति के विरुद्ध एक से अधिक अपराधों या अनेक मामलों में अन्वेषण, जाँच या विचारण लंबित है, वहाँ उसे न्यायालय द्वारा ज़मानत पर रिहा नहीं किया जाएगा।

(3) उस जेल का अधीक्षक, जहाँ अभियुक्त व्यक्ति निरुद्ध है, उपधारा (1) में उल्लिखित अवधि का आधा या एक तिहाई पूरा हो जाने पर, ऐसे व्यक्ति को ज़मानत पर रिहा करने के लिये उपधारा (1) के अधीन कार्यवाही करने के लिये न्यायालय को लिखित में आवेदन करेगा।

 BNSS की धारा 479 द्वारा प्रस्तुत नई विशेषताएँ क्या हैं?

  • BNSS की धारा 479 द्वारा प्रस्तुत नई विशेषताएँ इस प्रकार हैं:
    • पहली बार अपराध करने वाले व्यक्तियों को रिहा करने का प्रावधान है, यदि उन्होंने ऐसे अपराध के लिये निर्दिष्ट कारावास की अधिकतम अवधि के एक तिहाई तक की अवधि तक अभिरक्षा में रखा हो।
    • उपधारा 2 के माध्यम से एक नया प्रावधान यह जोड़ा गया है कि यदि किसी विचाराधीन कैदी के विरुद्ध एक से अधिक अपराधों या अनेक मामलों में जाँच, पूछताछ या वाद लंबित है तो उसे ज़मानत पर रिहा नहीं किया जाएगा।
    • इसके अतिरिक्त, उप-धारा 3 जोड़ी गई है, जिसमें प्रावधान है कि जेल अधीक्षक की रिपोर्ट पर ज़मानत दी जा सकती है।

इस मामले में कौन-सी ऐतिहासिक निर्णयज विधियाँ उद्धृत की गईं हैं?

  • गुरबख्श सिंह सिब्बिया बनाम पंजाब राज्य (1980):
    • यह अग्रिम ज़मानत का ऐतिहासिक मामला है।
    • इस मामले में न्यायालय ने माना कि ज़मानत का उद्देश्य अभियुक्त की वाद में उपस्थिति सुनिश्चित करना है।
    • यह निर्धारित करते समय कि ज़मानत दी जानी चाहिये या नहीं, उचित परीक्षण यह है कि क्या यह संभावना है कि पक्षकार अपना वाद चलाने के लिये उपस्थित होगा।
  • हुसैनारा खातून बनाम गृह सचिव बिहार राज्य (1980):
    • इस मामले में न्यायालय ने घोषणा की कि आपराधिक आरोपों का सामना कर रहे अपराधियों के शीघ्र सुनवाई का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 की व्यापकता और विषय-वस्तु में अंतर्निहित है।
  • अब्दुल रहमान अंतुले बनाम आर. एस. नायक (1992):
    • राज्य या शिकायतकर्त्ता का यह दायित्व है कि वे मामले को उचित तत्परता के साथ आगे बढ़ाएँ।
    • किसी मामले में जहाँ अभियुक्त शीघ्र सुनवाई की मांग करता है और उसे शीघ्र सुनवाई नहीं दी जाती है, तो यह उसके पक्ष में एक प्रासंगिक कारक हो सकता है।
  • सतेंद्र कुमार अंतिल बनाम केंद्रीय जाँच ब्यूरो (2022):
    • न्यायालय ने कहा कि CrPC की धारा 436 A में निहित प्रावधान किसी विशिष्ट प्रावधान के अभाव में विशेष अधिनियमों पर भी लागू होंगे।
    • न्यायालय ने यह भी कहा कि न्यायालयों, प्राधिकारियों और पुलिस अधिकारियों से कुछ ज़िम्मेदारी तथा उत्तरदायित्व की अपेक्षा की जाती है, ताकि वे निर्दोषता की धारणा का पालन करें, जिसका तात्पर्य यह है कि दोषी सिद्ध होने तक किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने से कोई उद्देश्य पूर्ण नहीं होता है।

आपराधिक कानून

आजीवन कारावास के दण्ड का निलंबन

 08-Jul-2024

भूपतजी सरताजी जबराजी ठाकोर बनाम गुजरात राज्य

प्रथम दृष्टया असंतुलित दोषसिद्धि के आधार पर आजीवन कारावास के दण्ड का निलंबन”।

न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां

स्रोत:  उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां की पीठ ने आजीवन कारावास के दण्ड को निलंबित करने के लिये कड़े मानदंड निर्धारित किये हैं तथा निर्णय दिया है कि ऐसी राहत प्रथम दृष्टया दोषसिद्धि के अस्थिर होने के साक्ष्य तथा सफल अपील की उच्च संभावना पर निर्भर है।

  • उच्चतम न्यायालय ने भूपतजी सरताजी जबराजी ठाकोर बनाम गुजरात राज्य के मामले में यह टिप्पणी की।
  • इस न्यायिक घोषणा से आजीवन कारावास के दण्ड के निलंबन की संभावना अत्यंत कम हो गई है तथा इससे भारतीय आपराधिक न्यायशास्त्र में दोषसिद्धि के उपरांत राहत के परिदृश्य में संभावित रूप से परिवर्तन आ सकता है।

भूपतजी सरताजी जबराजी ठाकोर बनाम गुजरात राज्य की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • याचिकाकर्त्ता (भूपतजी सरताजी जबराजी ठाकोर) और एक सह-अभियुक्त पर भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 302 के अधीन हत्या के लिये सत्र न्यायालय में वाद चलाया गया।
  • वाद के दौरान याचिकाकर्त्ता ज़मानत पर बाहर था।
  • निचले न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता को दोषी करार देते हुए आजीवन कारावास का दण्ड दिया, जबकि सह-आरोपी को दोषमुक्त कर दिया।
  • यह दण्ड एक प्रत्यक्षदर्शी की साक्षी पर आधारित था।
  • याचिकाकर्त्ता ने ट्रायल कोर्ट द्वारा दिये गए दण्ड को चुनौती देते हुए उच्च न्यायालय में आपराधिक अपील दायर की।
  • उच्च न्यायालय ने अपील स्वीकार कर ली।
  • याचिकाकर्त्ता ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 389 के अधीन एक विविध आपराधिक आवेदन भी दायर किया, जिसमें आजीवन कारावास के दण्ड को निलंबित करने की मांग की गई।
  • उच्च न्यायालय ने आजीवन कारावास के दण्ड को निलंबित करने के आवेदन को अस्वीकार कर दिया।
  • याचिकाकर्त्ता ने अब वर्तमान याचिका के साथ सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया है।
  • याचिकाकर्त्ता के अधिवक्ता ने कुछ परिस्थितियों का उदाहरण दिया है।
  • याचिकाकर्त्ता को अपनी विधवा बहू और उसके तीन नाबालिग बच्चों का भरण-पोषण करना है।
  • परिवार कठिन आर्थिक स्थिति में है।
  • वर्ष 2023 की अपील पर सुनवाई होने में काफी समय लगने की संभावना है।
  • उच्चतम न्यायालय ने इन परिस्थितियों के आधार पर ज़मानत की याचिका पर उत्तर देने के लिये गुजरात राज्य को नोटिस जारी किया है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने निश्चित अवधि के दण्ड एवं आजीवन कारावास के निलंबन के लिये अलग-अलग मानदंड निर्धारित किये हैं तथा आजीवन कारावास के लिये अधिक कठोर परीक्षण अनिवार्य कर दिया है।
  • न्यायालय ने कहा कि आजीवन कारावास के लिये निलंबन केवल तभी उचित है जब प्रथम दृष्टया साक्ष्य मौजूद हो कि दोषसिद्धि विधिक रूप से स्थिर नहीं है तथा इसके लिये साक्ष्य का पुनः मूल्यांकन आवश्यक नहीं है।
  • पीठ ने स्पष्ट किया कि अपीलीय न्यायालय निश्चित अवधि के दण्ड को निलंबित करने में उदारतापूर्वक विवेकाधिकार का प्रयोग कर सकती है, परंतु आजीवन कारावास के निलंबन के लिये अपील पर दोषसिद्धि के संभावित उलटफेर का स्पष्ट संकेत आवश्यक है।
  • इस विधिक परीक्षण को वर्तमान मामले में लागू करते हुए, न्यायालय ने निलंबन से उच्च न्यायालय के प्रतिषेध को यथावत् रखा तथा यह निष्कर्ष निकालने के लिये कोई ठोस आधार नहीं पाया कि दोषसिद्धि अस्थिर थी या अपीलकर्त्ता के पास सफल अपील की पर्याप्त संभावना थी।
  • यह निर्णय आजीवन कारावास के दण्ड के निलंबन के लिये एक उच्च सीमा निर्धारित करता है तथा साक्ष्य की पुनः जाँच के बजाय दोषसिद्धि में स्पष्ट विधिक खामियों की आवश्यकता पर बल देता है।

आजीवन कारावास क्या है?

  • भारतीय न्याय संहिता 2023 (BNS) की धारा 4(B) आजीवन कारावास को परिभाषित करती है।
  • BNS की धारा 6 में कहा गया है कि दण्ड की अवधि के अंशों की गणना करते समय, आजीवन कारावास को बीस वर्ष के कारावास के बराबर माना जाएगा, जब तक कि अन्यथा प्रावधान न किया गया हो।
  • इससे पहले भारतीय दण्ड संहिता की धारा 55 में कहा गया था कि प्रत्येक मामले में जिसमें आजीवन कारावास का दण्ड दिया गया हो, समुचित सरकार अपराधी की सहमति के बिना, उस दण्ड को चौदह वर्ष से अधिक अवधि के कारावास में परिवर्तित कर सकती है।
    • राज्य सरकार कुछ शर्तों और सीमाओं के अधीन, CrPC की धारा 432 तथा 433 के अधीन दण्ड में छूट दे सकती है या उसे कम कर सकती है।

इसमें प्रासंगिक विधिक  प्रावधान क्या हैं?

  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 430:
    • BNSS की धारा 430 अपील लंबित रहने तक दण्ड के निलंबन; अपीलकर्त्ता को ज़मानत पर रिहा करने से संबंधित है।
    • इससे पहले यह मामला CrPC की धारा 389 के तहत निपटाया जाता था।
    • धारा की उपधारा (1) में कहा गया है कि किसी दोषी व्यक्ति द्वारा अपील लंबित रहने पर, अपीलीय न्यायालय, उसके द्वारा लिखित रूप में दर्ज किये जाने वाले कारणों से, आदेश दे सकता है कि जिस दण्ड या आदेश के विरुद्ध अपील की गई है, उसका निष्पादन निलंबित कर दिया जाए और, यदि वह कारावास में है, तो उसे ज़मानत पर या अपने स्वयं के बॉण्ड  या ज़मानत बॉण्ड पर रिहा किया जाए:
      • परंतुक (1) में यह प्रावधान है कि अपीलीय न्यायालय, किसी ऐसे दोषसिद्ध व्यक्ति को, जो मृत्युदण्ड या आजीवन कारावास या कम-से-कम दस वर्ष की अवधि के कारावास से दण्डनीय किसी अपराध के लिये दोषसिद्ध है, अपने स्वयं के बॉण्ड या ज़मानत बॉण्ड पर रिहा करने से पहले, लोक अभियोजक को ऐसी रिहाई के विरुद्ध लिखित में कारण बताने का अवसर देगा;
      • परंतुक (2) में यह भी प्रावधान किया गया है कि ऐसे मामलों में जहाँ किसी दोषी व्यक्ति को ज़मानत पर रिहा किया जाता है, वहाँ लोक अभियोजक ज़मानत रद्द करने के लिये आवेदन दायर कर सकता है।
    • उपधारा (2) में कहा गया है कि इस धारा द्वारा अपीलीय न्यायालय को प्रदत्त शक्ति का प्रयोग उच्च न्यायालय द्वारा भी किसी दोषसिद्ध व्यक्ति द्वारा अपने अधीनस्थ न्यायालय में की गई अपील के मामले में किया जा सकता है।
    • उपधारा (3) में कहा गया है कि जहाँ दोषी व्यक्ति उस न्यायालय को संतुष्ट कर देता है जिसके द्वारा उसे दोषी ठहराया गया है कि वह अपील प्रस्तुत करने का आशय रखता है, तो न्यायालय—
      • जहाँ ऐसे व्यक्ति को ज़मानत पर रहते हुए तीन वर्ष से अधिक अवधि के कारावास का दण्ड दिया गया हो; या
      • जहाँ वह अपराध, जिसके लिये ऐसे व्यक्ति को दोषसिद्ध किया गया है, ज़मानती है और वह ज़मानत पर है, वहाँ आदेश दे सकेगी कि दोषसिद्ध व्यक्ति को, जब तक कि ज़मानत देने से प्रतिषेध करने के लिये विशेष कारण न हों, ज़मानत पर ऐसी अवधि के लिये रिहा किया जाए जो अपील प्रस्तुत करने और उपधारा (1) के अधीन अपील न्यायालय के आदेश प्राप्त करने के लिये पर्याप्त समय दे सके; और कारावास का दण्डादेश, जब तक वह इस प्रकार ज़मानत पर रिहा रहता है, निलंबित समझा जाएगा।
    • उपधारा (4) में कहा गया है कि जब अपीलकर्त्ता को अंततः एक अवधि के लिये कारावास या आजीवन कारावास का दण्ड दिया जाता है, तो जिस अवधि के दौरान उसे रिहा किया जाता है, उसे उस अवधि की गणना करने में शामिल नहीं किया जाएगा जिसके लिये उसे दण्ड दिया गया है।

दोषसिद्धि के निलंबन से संबंधित निर्णयज विधियाँ क्या हैं?

  • ओमप्रकाश साहनी बनाम जय शंकर चौधरी एवं अन्य (2023):
    • उच्चतम न्यायालय ने माना है कि CrPC की धारा 389 के अधीन दण्ड के मूल आदेश को निलंबित करने के लिये, रिकॉर्ड के सामने कुछ स्पष्ट बात होनी चाहिये, जिसके आधार पर न्यायालय प्रथम दृष्टया इस निष्कर्ष पर पहुँच सके कि दोषसिद्धि स्थिर रखने योग्य नहीं हो सकती है।
  • राजस्थान राज्य बनाम सलमान सलीम खान, (2015):
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि दोषसिद्धि के निलंबन की शक्ति का प्रयोग केवल असाधारण परिस्थितियों में किया जाएगा, जहाँ दोषसिद्धि पर रोक लगाने में विफलता से अन्याय एवं अपरिवर्तनीय परिणाम होंगे तथा इस प्रकार कोई विदेशी देश इस आधार पर उक्त देश में जाने की अनुमति नहीं दे रहा है कि अभियुक्त को किसी अपराध के लिये दोषसिद्धि दी गई है और भारतीय विधि के अंतर्गत दण्ड दिया गया है, उक्त आदेश दोषसिद्धि के आदेश पर रोक लगाने का आधार नहीं हो सकता।
  • तमिलनाडु राज्य बनाम ए. जगन्नाथन, (1996):
    • उच्चतम न्यायालय ने अपील या पुनरीक्षण के लंबित रहने के दौरान दोषसिद्धि एवं दण्ड के निलंबन के लिये विवेकाधिकार का प्रयोग करने में पालन किये जाने वाले दिशा-निर्देश निर्धारित किये हैं। कुछ सरकारी कर्मचारियों को गंभीर आपराधिक अपराधों (धारा 392, 218 एवं 466 IPC) के लिये दोषसिद्धि दी गई थी। दोषियों की नैतिक कमियों पर विचार किये बिना दोषसिद्धि एवं दण्ड को निलंबित करना विवेकाधिकार का उचित प्रयोग नहीं माना गया।

पारिवारिक कानून

विवाह का अपूरणीय विघटन

 08-Jul-2024

महेंद्र कुमार सिंह बनाम रानी सिंह

"केवल तभी इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि विवाह पूरी तरह से विघटित हो चुका है, जब यह देखा जाए कि पक्षों में से एक ने दूसरे को स्वेच्छा से त्याग दिया है तथा पक्षकार लंबे समय तक उस स्थिति में बने रहे हैं, जिससे न्यायालय को यह संकेत मिलता है कि विवाह में कोई सार नहीं है”।

न्यायमूर्ति सौमित्र दयाल सिंह एवं न्यायमूर्ति दोनादी रमेश

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने महेंद्र कुमार सिंह बनाम रानी सिंह के मामले में यह माना है कि यह अनुमान लगाने के लिये कि क्या इस आधार पर विवाह पूरी तरह से विघटित हो चुका है कि पक्षकार लंबे समय तक एक साथ नहीं रह रहे हैं, केवल मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों पर विचार करके ही लगाया जाना चाहिये।

महेंद्र कुमार सिंह बनाम रानी सिंह मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में, दोनों पक्षों ने वर्ष 1999 में विवाह किया तथा उनके दो बच्चे हुए।
  • कुछ वर्षों के बाद अपीलकर्त्ता के पिता की मृत्यु हो गई तथा उसके बाद अपीलकर्त्ता को मिर्ज़ापुर में तैनात कर दिया गया, जबकि उसकी पत्नी एवं बच्चे अपीलकर्त्ता की माँ की मृत्यु तक वाराणसी में उसकी माँ के साथ रहे।
  • अपीलकर्त्ता ने बाद में पारिवारिक न्यायालय में विवाह-विच्छेद के लिये अर्जी दायर की।
  • अपीलकर्त्ता ने कहा कि उसके एवं उसकी पत्नी (प्रतिवादी) के मध्य अच्छे संबंध थे, क्योंकि उसकी पत्नी उसकी माँ की देखभाल करती थी तथा उसकी माँ ने भी प्रतिवादी के पक्ष में वसीयत की थी।
  • अपीलकर्त्ता ने तर्क दिया कि प्रतिवादी उसे उसके माता-पिता से मिलने से रोककर, उसके माता-पिता का अंतिम संस्कार करने से रोककर उसके साथ क्रूरता करता था।
  • अपीलकर्त्ता ने यह भी तर्क दिया कि चूँकि दंपति लंबे समय से अलग-अलग रह रहे थे, इसलिये विवाह में ऐसी दरार आ गई है जिसे सुधारा नहीं जा सकता।
  • पारिवारिक न्यायालय ने विवाह के अपरिवर्तनीय विघटन के आधार पर विवाह-विच्छेद की याचिका को खारिज कर दिया तथा कहा कि अपीलकर्त्ता के विरुद्ध प्रतिवादी द्वारा क्रूरता का कृत्य सिद्ध करने के लिये कोई साक्ष्य नहीं है।
  • इसके बाद अपीलकर्त्ता ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष अपील दायर की।

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के अंतर्गत क्रूरता की अवधारणा

  • HMA, 1995 की धारा 13 के अनुसार क्रूरता विवाह-विच्छेद लेने का एक आधार है।
  • क्रूरता शारीरिक एवं मानसिक दोनों हो सकती है।
  • क्रूरता की गंभीरता एवं प्रकृति का निर्धारण न्यायालयों द्वारा निर्णय देने से पहले मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करके किया जाना चाहिये।
  • मानसिक क्रूरता की अवधारणा अभी भी उभर रही है तथा मानसिक क्रूरता पर आधारित निर्णयों के माध्यम से इसकी परिधि व्यापक होती जा रही है।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने पाया कि अधीनस्थ न्यायालय के निष्कर्ष युक्तियुक्त हैं।
  • उच्च न्यायालय ने यह भी पाया कि विवाह-विच्छेद देने से पहले विवाह के अपूरणीय रूप से टूटने के आधारों की सूक्ष्मता से जाँच की जानी चाहिये, क्योंकि इस तरह के पृथक्करण का कारण प्रत्येक मामले के अनुसार भिन्न हो सकता है।
  • उच्च न्यायालय ने कहा कि वर्तमान मामले में अलग रहने का कारण यह था कि पति नौकरी पर चला गया था तथा पत्नी अपनी माँ की देखभाल के लिये उसके साथ रह रही थी, इसे विवाह के अपूरणीय रूप से विघटन का आधार नहीं माना जा सकता।
  • उच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि कोई साक्ष्य नहीं है, कोई उचित समय एवं तिथि नहीं है तथा न ही कोई प्रासंगिक साक्ष्य है जो पति के विरुद्ध पत्नी द्वारा क्रूरता को सिद्ध करता हो और उसके पति की माँ के प्रति उसके व्यवहार को सिद्ध करता हो।
  • इसलिये, उच्च न्यायालय ने अपील को खारिज कर दिया।

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के अंतर्गत विवाह-विच्छेद की अवधारणा क्या है?

विवाह विच्छेद:

  • शाब्दिक अर्थ में, "विवाह-विच्छेद " का तात्पर्य दो व्यक्तियों के मध्य विवाह के विधिक विघटन से है।
  • महत्त्वपूर्ण रूप से, हिंदू धर्म शास्त्र में, विवाह को एक पवित्र एवं अविभाज्य बंधन के रूप में देखा जाता था, जिसमें वर्ष 1955 में हिंदू विवाह अधिनियम (HMA) के अधिनियमन तक विवाह-विच्छेद का कोई प्रावधान नहीं था।
  • इस अधिनियम में धारा 13 के अधिनियम में विवाह-विच्छेद के लिये आधार प्रस्तुत किये गए हैं, जो पक्षों को विवाह-विच्छेद के आदेश के लिये सक्षम न्यायालय में याचिका दायर करने की अनुमति देता है।
  • विवाह-विच्छेद के लिये पति या पत्नी में से किसी एक को ऐसे व्यवहार का दोषी पाया जाना आवश्यक है जो मूल रूप से विवाह को कमज़ोर करता हो।

विवाह-विच्छेद के प्रकार:

  • विवाह-विच्छेद के निम्न प्रकार हैं:
    • विवादित विवाह-विच्छेद:
      • जब कोई भी पक्ष विवाह-विच्छेद प्राप्त कर सकता है।
      • जब पत्नी अकेले विवाह-विच्छेद प्राप्त कर सकती है।
      • विवाह का अपूरणीय विघटन
      • आपसी सहमति से विवाह-विच्छेद
      • रूढ़ियों के माध्यम से विवाह-विच्छेद

विवाह-विच्छेद  का आधार:

  • HMA की धारा 13 विवाह-विच्छेद के आधारों से संबंधित है—
    • इस अधिनियम के लागू होने से पहले या बाद में संपन्न कोई भी विवाह, पति या पत्नी में से किसी एक द्वारा प्रस्तुत याचिका पर, विवाह-विच्छेद की डिक्री द्वारा इस आधार पर विघटित किया जा सकेगा कि दूसरा पक्ष-
      • विवाह संपन्न होने के बाद, अपने पति या पत्नी के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति के साथ स्वैच्छिक यौन संबंध बनाए हैं; या
      • विवाह संपन्न होने के बाद, याचिकाकर्त्ता के साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया है; या
      • याचिका प्रस्तुत करने से ठीक पहले कम-से-कम दो वर्ष की निरंतर अवधि के लिये याचिकाकर्त्ता को छोड़ दिया हो; या
      • किसी अन्य धर्म में धर्मांतरण करके हिंदू नहीं रहा हो; या
      • असाध्य रूप से अस्वस्थ मानसिक स्थिति में हो या लगातार या रुक-रुक कर इस तरह के मानसिक विकार से पीड़ित रहा हो तथा इस सीमा तक कि याचिकाकर्त्ता से उचित रूप से प्रतिवादी के साथ रहने की उम्मीद नहीं की जा सकती हो।

व्याख्या— इस खंड में-

"मानसिक विकार" का अर्थ है मानसिक रोग, मस्तिष्क का रुका हुआ या अधूरा विकास, मनोरोगी विकार या दिमाग का कोई अन्य विकार या विकलांगता एवं इसमें सिज़ोफ्रेनिया भी शामिल है;

  • "मनोरोगी विकार" का अर्थ मन का निरंतर विकार या विकलांगता है (चाहे इसमें बुद्धि की अवसामान्यता निहित हो या न हो) जिसके परिणामस्वरूप दूसरे पक्ष की ओर से असामान्य रूप से आक्रामक या गंभीर रूप से गैर-ज़िम्मेदाराना आचरण होता है और चाहे उसे चिकित्सा उपचार की आवश्यकता हो या न हो, या संचारी रूप में यौन रोग से पीड़ित होना, या
    • किसी धार्मिक उद्देश्य की पूर्ति के लिये सांसारिक जीवन का त्याग कर दिया हो, या
    • सात वर्ष या उससे अधिक समय से उसके जीवित होने के विषय में उन व्यक्तियों द्वारा नहीं सुना गया हो, जो स्वाभाविक रूप से इसके विषय में सुनते, यदि वह पक्ष जीवित होता,

स्पष्टीकरण– इस उपधारा में, "अभित्याग" पद का अर्थ विवाह के दूसरे पक्षकार द्वारा बिना उचित कारण के और ऐसे पक्षकार की सहमति के बिना या उसकी इच्छा के विरुद्ध याचिकाकर्त्ता का अभित्याग है तथा इसके अंतर्गत विवाह के दूसरे पक्षकार द्वारा याचिकाकर्त्ता की जानबूझकर की गई उपेक्षा भी है और इसके व्याकरणिक रूपांतर तथा दण्ड तीय पदों का तद्नुसार अर्थ लगाया जाएगा।

  • किसी विवाह का कोई भी पक्षकार, चाहे वह इस अधिनियम के प्रारंभ से पहले या बाद में अनुष्ठापित हुआ हो, इस आधार पर विवाह-विच्छेद की डिक्री द्वारा विवाह के विघटन के लिये याचिका प्रस्तुत कर सकता है-
    • कि विवाह के पक्षकारों के मध्य किसी कार्यवाही में, जिसमें वे पक्षकार थे, न्यायिक पृथक्करण के लिये डिक्री पारित होने के पश्चात् एक वर्ष या उससे अधिक की अवधि तक वैवाहिक संबंध की पुनर्स्थापना न हुई हो, या
    • कि विवाह के पक्षकारों के मध्य किसी कार्यवाही में, जिसमें वे पक्षकार थे, वैवाहिक अधिकारों के प्रत्यास्थापन के लिये डिक्री पारित होने के पश्चात् एक वर्ष या उससे अधिक की अवधि तक वैवाहिक अधिकारों की कोई पुनर्स्थापना नहीं हुई है।
  • पत्नी विवाह-विच्छेद की डिक्री द्वारा अपने विवाह के विघटन के लिये इस आधार पर याचिका भी प्रस्तुत कर सकती है–
    • इस अधिनियम के प्रारंभ से पूर्व संपन्न किसी विवाह के मामले में, पति ने ऐसे प्रारंभ से पूर्व पुनः विवाह कर लिया था या पति की कोई अन्य पत्नी, जिसने ऐसे प्रारंभ से पूर्व विवाह किया था, याचिकाकर्त्ता के विवाह के अनुष्ठान के समय जीवित थी।
    • बशर्ते कि दोनों ही मामलों में याचिका प्रस्तुत करने के समय दूसरी पत्नी जीवित हो, या
    • पति विवाह के बाद से बलात्संग, गुदामैथुन या पशुगमन का दोषी रहा है, या
    • हिंदू दत्तक ग्रहण एवं भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 18 के अंतर्गत किसी वाद में या दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के अंतर्गत किसी कार्यवाही में, पति के विरुद्ध, जैसा भी मामला हो, पत्नी को भरण-पोषण देने के लिये डिक्री या आदेश पारित किया गया है, भले ही वह अलग रह रही हो तथा ऐसी डिक्री या आदेश पारित होने के बाद से, पक्षों के मध्य एक वर्ष या उससे अधिक समय तक शारीरिक संबंध पुनः स्थापित न हुआ हो।
    • यह कि उसका विवाह (चाहे वह संपन्न हुआ हो या नहीं) उसकी पंद्रह वर्ष की आयु प्राप्त करने से पूर्व संपन्न हुआ था तथा उसने उस आयु के पश्चात् किंतु अठारह वर्ष की आयु प्राप्त करने से पूर्व विवाह का परित्याग कर दिया है।
    • स्पष्टीकरण– यह खण्ड लागू होता है, चाहे विवाह विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम, 1976 के प्रारंभ से पूर्व संपन्न हुआ हो या उसके पश्चात्।

विवाह-विच्छेद  एवं न्यायिक पृथक्करण के मध्य अंतर:

विवाह-विच्छेद

न्यायिक पृथक्करण

इसे विवाह के एक वर्ष बाद ही दाखिल किया जा सकता है।

इसे विवाह के बाद किसी भी समय दायर किया जा सकता है।

विवाह-विच्छेद का आदेश पारित होने के बाद कोई भी व्यक्ति पुनर्विवाह कर सकता है।

एक बार न्यायिक पृथक्करण आदेश के बाद पुनर्विवाह नहीं किया जा सकता।

यह विवाह का स्थायी समापन है।

यह विवाह का निलंबन है।

यह दो चरणों वाली प्रक्रिया है: सुलह एवं पुनः विवाह-विच्छेद ।

यह बिना किसी समझौते के प्रदान किया जाता है।

 विवाह के अपूरणीय विघटन की अवधारणा क्या है?

उत्पत्ति:

  • यह अवधारणा वर्ष 1921 में न्यूज़ीलैंड में लोडर बनाम लोडे के महत्त्वपूर्ण निर्णय के माध्यम से उत्पन्न हुई थी।

अर्थ:

  • विवाह का अपूरणीय विघटन एक ऐसी स्थिति है जिसमें पति एवं पत्नी बहुत समय से अलग-अलग रह रहे हैं तथा उनके पुनः साथ रहने की कोई संभावना नहीं है।
  • इससे तात्पर्य है कि विवाह में सामंजस्य स्थापित करने की कोई संभावना नहीं है तथा अगर सामंजस्य स्थापित हो जाता है और विवाह-विच्छेद नहीं दिया जाता है तो यह क्रूरता होगी।

वैधानिकता:

  • इस सिद्धांत ने अनौपचारिक वैधता प्राप्त कर ली है क्योंकि इसे विवाह-विच्छेद देने वाले कई न्यायिक निर्णयों में उद्धृत किया गया है।
  • भारत में, HMA में विवाह-विच्छेद के लिये इस तरह के आधार को शामिल करना अभी तक नहीं किया गया है, लेकिन विभिन्न विधि आयोग की रिपोर्टों में इसका दृढ़ता से सुझाव दिया गया है तथा इस संबंध में संसद में विवाह विधि (संशोधन) विधेयक, 2010 नामक एक विधेयक प्रस्तुत किया गया था।

भारतीय संविधान, 1950 का अनुच्छेद 142:

  • यह अवधारणा भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत भी शामिल है, जहाँ उच्चतम न्यायालय को पृथक्करण के कारण, पृथक्करण के समय एवं अन्य कारकों पर विचार करने के बाद विवाह के अपरिवर्तनीय विघटन के आधार पर विवाह-विच्छेद देने की विवेकाधीन शक्ति प्राप्त है।

निर्णयज विधियाँ:

  • नवीन कोहली बनाम नीलू कोहली (2006), इस मामले में यह माना गया कि जब विवाह में कोई सार नहीं रह जाता है तो इसे पूरी तरह से टूटा हुआ कहा जाता है।
  • कंचन देवी बनाम प्रमोद कुमार मित्तल (2010), दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस सिद्धांत को दोहराया कि यदि विवाह पूरी तरह से विघटित हो चुका है तथा पति-पत्नी के एक साथ आने की कोई संभावना नहीं है, तो यह विवाह-विच्छेद के लिये एक वैध आधार है।
  • शिल्पा शैलेश बनाम वरुण श्रीनिवासन (2023) मामले में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि विवाह विच्छेद होने पर विवाह संहिता का अनुच्छेद 142 पक्षकारों को विवाह-विच्छेद का अधिकार नहीं देता है, बल्कि यह विवेक का मामला है जिसका प्रयोग केवल उच्चतम न्यायालय ही विभिन्न कारकों का विश्लेषण करके कर सकता है। इन कारकों में पृथक्करण की अवधि, पक्षों द्वारा लगाए गए आरोपों की प्रकृति, कितनी बार न्यायालयों ने हस्तक्षेप किया है, आदि शामिल हो सकते हैं।