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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

BSA की धारा 7

 12-Jul-2024

पी. शशिकुमार बनाम राज्य प्रतिनिधि, पुलिस निरीक्षक

“बिना पहचान परेड के अपरिचित आरोपी की पहचान के लिये ट्रायल कोर्ट द्वारा सावधानीपूर्वक जाँच की आवश्यकता होती है”।

न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया एवं प्रसन्ना बी. वराले  

स्रोत:  उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

पी. शशिकुमार बनाम राज्य प्रतिनिधि पुलिस निरीक्षक के मामले में उच्चतम न्यायालय ने आपराधिक वादों में पहचान परेड (TIP) के महत्त्व पर ज़ोर दिया है, जिसमें कहा गया है कि न्यायालय में अभियुक्त की पहचान, विशेषकर जब अभियुक्त, साक्षी के लिये एक अपरिचित हो एवं कोई पहचान परेड आयोजित नहीं की गई हो, तो दोषसिद्धि के लिये प्रबल साक्ष्य के रूप में इस पर भरोसा नहीं किया जा सकता है।

  • इस निर्देश का उद्देश्य निष्पक्ष एवं सटीक पहचान प्रक्रिया सुनिश्चित करना, संभावित गलत पहचान को रोकना तथा ऐसे मामलों में सावधानीपूर्वक न्यायिक जाँच की आवश्यकता पर ज़ोर देना है।

पी. शशिकुमार बनाम राज्य प्रतिनिधि पुलिस निरीक्षक मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • यह मामला 13 नवंबर 2014 को एक 14 वर्षीय लड़की की उसके घर के अंदर नृशंस हत्या से जुड़ा है।
  • दो आरोपियों पर आरोप लगाए गए- आरोपी नंबर 1 (युगाधिथन) और आरोपी नंबर 2 (पी. शशिकुमार, इस मामले में अपीलकर्त्ता)।
  • अभियोजन पक्ष का मामला मुख्यतः परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर आधारित था, क्योंकि हत्या का कोई प्रत्यक्षदर्शी साक्षी नहीं था।
  • 13 नवंबर 2014 की शाम लगभग 7:15 बजे पीड़िता के पिता (PW-1) घर लौटे तो उन्होंने अपनी बेटी को अत्यधिक घायल अवस्था में खून बहता हुआ पाया।
    • उन्होंने हेलमेट पहने एक आदमी को सीढ़ियों से नीचे आते देखा।
  • PW-5 (एक पड़ोसी) ने दावा किया कि उसने दो लोगों को शाम 6:30-6:40 बजे के आस-पास पीड़िता के घर में घुसते देखा- एक ने हेलमेट पहना हुआ था और दूसरे ने हरे रंग की मंकी कैप पहन रखी थी।
  • 15 नवंबर 2014: दोनों आरोपियों को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया।
  • अभियुक्त के बयानों के आधार पर हथियार, कपड़े और वाहन सहित अन्य सामान बरामद किया गया।
  • पहचान संबंधी समस्याएँ:
    • PW-1 और PW-5 ने घटना से पहले अपीलकर्त्ता (अभियुक्त संख्या 2) को नहीं देखा था।
    • उन्होंने दावा किया कि उन्होंने उसे हरे रंग की मंकी कैप पहने देखा था, जिससे उसका अधिकांश चेहरा ढका हुआ था।
    • पुलिस द्वारा कोई पहचान परेड (TIP) आयोजित नहीं की गई।
    • साक्षियों ने आरोपियों की पहचान चिकित्सालय में की, जब वे पुलिस अभिरक्षा में थे।
    • बाद में, उन्होंने सुनवाई के दौरान न्यायालय में आरोपी की पहचान की।
  • ट्रायल कोर्ट ने दोनों आरोपियों को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 (हत्या) सहित विभिन्न धाराओं के अधीन दोषी ठहराया।
  • उच्च न्यायालय ने अपीलकर्त्ता (अभियुक्त संख्या 2) की दोषसिद्धि को यथावत् रखा।
  • अपीलकर्त्ता ने अपनी दोषसिद्धि को मुख्यतः संदिग्ध पहचान के आधार पर उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि जब आरोपी साक्षी से अपरिचित हो तो पहचान परेड (TIP) की ज़रूरत होती है। इसने इस बात पर ज़ोर दिया कि TIP के बिना की गई पहचान, न्यायालय में अपराध स्थापित करने के लिये विश्वसनीय साक्ष्य के रूप में काम नहीं कर सकती।
  • न्यायालय ने कहा कि ऐसे मामलों में जहाँ कोई TIP नहीं किया गया है और अभियुक्त, साक्षी के लिये अपरिचित है, वहाँ परीक्षण न्यायालय को वाद में की गई पहचान को निर्णायक साक्ष्य के रूप में स्वीकार करने से पहले अत्यधिक सावधानी बरतनी चाहिये।
  • न्यायालय ने कहा कि वर्तमान मामले में TIP का अभाव पुलिस जाँच में गंभीर त्रुटि के समान है। इस चूक ने वाद के दौरान आरोपी की पहचान की विश्वसनीयता पर संदेह उत्पन्न किया।
  • न्यायालय ने कहा कि आपराधिक मामलों में, उचित संदेह से परे अभियुक्त की पहचान सिद्ध करने का दायित्व अभियोजन पक्ष का होता है। न्यायालय ने पाया कि अभियोजन पक्ष TIP के अभाव में इस दायित्व को पूरा करने में विफल रहा।
  • न्यायालय ने वर्तमान मामले को पूर्व के निर्णयों से अलग करते हुए कहा कि अपर्याप्त पुष्टिकरण तथा अपीलकर्त्ता की पहचान के विषय में संदेह के कारण अविश्वसनीय साक्ष्य के आधार पर दोषसिद्धि नहीं हो सकती।
  • न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति प्रसन्ना बी. वराले की पीठ ने निष्कर्ष निकाला कि अपीलकर्त्ता की पहचान के संबंध में संदेह के कारण उसे दोषमुक्त किया जाना चाहिये तथा इस सिद्धांत को रेखांकित किया कि संदेह से अभियुक्त को लाभ होना चाहिये।

परीक्षण पहचान परेड (TIP) क्या है? 

परिचय:

  • अभियुक्त की पहचान स्थापित करने में साक्षी की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण होती है। पहचान स्थापित करने के तरीकों में से एक टेस्ट आइडेंटिफिकेशन परेड (TIP) है जो भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 9 के तहत प्राप्त की जाती है।
  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 में धारा 7 के अंतर्गत यह प्रावधान दिया गया है।

BSA की धारा 7:

  • यह खंड प्रासंगिक तथ्यों को स्पष्ट करने या प्रस्तुत करने के लिये आवश्यक तथ्यों से संबंधित है।
  • इसमें कहा गया है कि वे तथ्य जो किसी विवाद्यक तथ्य या सुसंगत तथ्य को स्पष्ट करने या प्रस्तुत करने के लिये आवश्यक हैं, या जो किसी विवाद्यक तथ्य या सुसंगत तथ्य द्वारा सुझाए गए अनुमान का समर्थन या खंडन करते हैं, या जो किसी वस्तु या व्यक्ति की पहचान स्थापित करते हैं जिसकी पहचान सुसंगत है, या वह समय या स्थान निश्चित करते हैं जब कोई विवाद्यक तथ्य या सुसंगत तथ्य घटित हुआ, या जो उन पक्षकारों के संबंध को दर्शित करते हैं जिनके द्वारा कोई ऐसा तथ्य संव्यवहारित किया गया, वहाँ तक ​​सुसंगत हैं जहाँ तक ​​वे उस प्रयोजन के लिये आवश्यक हैं।

TIP का उद्देश्य:

  • परेड का उद्देश्य, साक्षी की सत्यता का परीक्षण करना है, इस प्रश्न पर कि क्या वह कई लोगों में से किसी अज्ञात व्यक्ति को पहचानने में सक्षम है, जिसे उसने किये गए अपराध के संदर्भ में देखा था।
  • इसके दो प्रमुख उद्देश्य हैं:
    • जाँच अधिकारियों को संतुष्ट करने के लिये, एक ऐसे व्यक्ति को अपराध में शामिल किया गया था, जिसे साक्षी पहले से नहीं जानते थे।
    • संबंधित साक्षी द्वारा न्यायालय के समक्ष दी गई साक्षी की पुष्टि के लि ये साक्ष्य प्रस्तुत करना।

TIP का तरीका:

  • जहाँ तक ​​संभव हो सके, जेल में न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा पहचान परेड आयोजित की जाएगी।
  • परेड की व्यवस्था करने के बाद पुलिस अधिकारियों को उस स्थान से पूरी तरह से हट जाना चाहिये तथा वास्तविक पहचान की कार्यवाही का कार्य मजिस्ट्रेट पर छोड़ देना चाहिये।
  • जब कोई साक्षी कहता है कि वह आरोपी व्यक्तियों या जाँच के अधीन मामले से जुड़े अन्य लोगों की पहचान कर सकता है, तो जाँच अधिकारी निम्नलिखित बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए केस डायरी में उनका विवरण विस्तार से दर्ज करेगा:
    • उनका विवरण
    • अपराध के समय प्रकाश की सीमा (दिन का प्रकाश, चाँदनी, मशालों की चमक, केरोसिन, बिजली या गैस की रोशनी)।
    • अपराध के समय अभियुक्त को देखने के अवसरों का विवरण तथा अभियुक्त के चरित्र या आचरण में कोई ऐसी बात जिसने उसे प्रभावित किया हो (पहचानकर्त्ता)।
    • वह दूरी जहाँ से उसने अभियुक्त को देखा।
    • वह समय-सीमा जिसके दौरान उसने अभियुक्त को देखा।
  • जब किसी व्यक्ति या व्यक्तियों की पहचान के लिये किसी साक्षी द्वारा परेड आयोजित की जानी हो तो ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों को साक्षियों की दृष्टि से सावधानीपूर्वक दूर रखा जाएगा तथा उन्हें समान वर्ग के अन्य व्यक्तियों की पर्याप्त संख्या के साथ मिलाया जाएगा।
  • परेड का संचालन करने वाले मजिस्ट्रेट या अन्य व्यक्तियों को स्वयं संतुष्ट होना चाहिये कि कोई भी पुलिस अधिकारी इस कार्यवाही में भाग नहीं ले रहा है।
  • पहचान परेड के दौरान पहचान करने वाले साक्षी द्वारा दिये गए बयानों को कार्यवाही में दर्ज किया जाना चाहिये। अगर कोई साक्षी गलती भी करता है तो उसे दर्ज किया जाना चाहिये।
  • पहचान परेड पूरी होने और कार्यवाही की रूपरेखा तैयार होने के बाद, एक प्रमाण-पत्र जारी किया जाना चाहिये जिस पर परेड का संचालन करने वाले मजिस्ट्रेट द्वारा हस्ताक्षर किये गए हों।

TIP का साक्ष्यात्मक मूल्य:

  • TIP का विधि में स्थान प्रबल साक्ष्य के रूप में नहीं है और इसका उपयोग केवल संबंधित साक्षी द्वारा न्यायालय में दिये गए साक्ष्य की पुष्टि या खंडन के लिये ही किया जा सकता है।

निर्णयज विधियाँ:

  • रामकिशन बनाम बॉम्बे राज्य (1955) में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जाँच के दौरान पुलिस को पहचान परेड करवानी चाहिये। ये परेड साक्षी को अपराध के केंद्र में रहने वाली संपत्तियों या अपराध में शामिल व्यक्तियों की पहचान करने में सक्षम बनाने के उद्देश्य से की जाती है।
  • जॉर्ज बनाम केरल राज्य (1996) में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि TIP में पूर्व पहचान के साक्ष्य के अभाव में न्यायालय में अभियुक्त की पहचान की स्वीकार्यता प्रभावित नहीं होती है।
  • जयन बनाम केरल राज्य (2021) में न्यायालय ने कहा कि यदि साक्षी के साक्ष्य के लिये पर्याप्त पुष्टि थी तो न्यायालय में आरोपी की पहचान करने वाले साक्षी के साक्ष्य को केवल इसलिये अस्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि परीक्षण पहचान परेड आयोजित नहीं की गई थी। न्यायालय ने कहा कि चूँकि अपीलकर्त्ता की पहचान संदेह में थी और साक्षी के साक्ष्य के लिये पर्याप्त पुष्टि नहीं थी, इसलिये अपीलकर्त्ता की पहचान के विषय में बहुत ही संदिग्ध साक्ष्य के आधार पर अपीलकर्त्ता को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

पारिवारिक कानून

बालक का संरक्षकत्व

 12-Jul-2024

अमित शर्मा बनाम सुगंधा शर्मा

"अप्राप्तवय बच्चे के संरक्षकत्व के मामलों में, न्यायालय को बच्चे के सर्वोत्तम हित को ध्यान में रखना होगा।"

न्यायमूर्ति अमित बंसल एवं न्यायमूर्ति राजीव शकधर

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति अमित बंसल एवं न्यायमूर्ति राजीव शकधर की पीठ ने कहा कि संरक्षकत्व के मामलों में, बच्चे के संरक्षकत्व के बिना माता-पिता को अपने बच्चे से मिलने का अधिकार है, ताकि वे अपने बच्चे के साथ संबंध बनाए रख सकें।

  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने अमित शर्मा बनाम सुगंधा शर्मा मामले में यह निर्णय दिया।

अमित शर्मा बनाम सुगंधा शर्मा मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • वर्तमान मामले में अपीलकर्त्ता (पति) एवं प्रतिवादी (पत्नी) विवाहित थे तथा उनका एक बेटा था। बाद में उनका विवाह हो गया।
  • पारिवारिक न्यायालय ने निर्देश दिया कि अपीलकर्त्ता को प्रत्येक महीने के पहले एवं तीसरे शनिवार को दोपहर 3 बजे से शाम 4 बजे तक द्वारका न्यायालय के निर्दिष्ट कमरे में बच्चे से मिलने की अनुमति दी जाएगी।
  • प्रतिवादी ने इस पर आपत्ति जताई लेकिन इसे खारिज कर दिया गया तथा न्यायालय ने एक परामर्शदाता की उपस्थिति में कमरे में बच्चों के संग बैठकें आयोजित करने का निर्देश दिया।
  • अपीलकर्त्ता ने अपनी शिकायत व्यक्त की कि विभिन्न तिथियों पर परामर्शदाता की अनुपस्थिति के कारण उपरोक्त बैठकें नहीं हो सकीं।
  • इस शिकायत का समाधान इस न्यायालय द्वारा संबंधित कुटुंब न्यायाधीश को यह सुनिश्चित करने का निर्देश देकर किया गया कि बच्चे एवं अपीलकर्त्ता के मध्य ऐसी सभी वार्तालाप में एक परामर्शदाता उपस्थित रहे।
  • पारिवारिक न्यायालय परामर्शदाता द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में यह पाया गया कि बच्चा पिता से मिलने के लिये तैयार नहीं था तथा आशंकित था।
  • एक स्वतंत्र NGO द्वारा एक अंतरिम रिपोर्ट भी प्रस्तुत की गई थी जिसमें कहा गया था कि बच्चे ने अपनी वार्तालाप में कहा था कि वह अपने पिता से मिलना या नियमित रूप से न्यायालय जाना पसंद नहीं करता क्योंकि इससे उसे असहजता महसूस होती है।
  • न्यायालय के समक्ष मुद्दा यह था कि क्या अपीलकर्त्ता को बच्चे का अंतरिम संरक्षकत्व दी जानी चाहिये।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि विधि की यह स्थापित स्थिति है कि संरक्षकत्व के मामलों में न्यायालय को बच्चे के सर्वोत्तम हितों को ध्यान में रखना चाहिये।
    • बच्चे के सर्वोत्तम हित का निर्धारण सभी प्रासंगिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिये।
  • इस तथ्य पर भी विवाद नहीं किया जा सकता कि अप्राप्तवय बच्चे को अपने माता-पिता दोनों के प्यार एवं स्नेह की आवश्यकता होती है।
  • इसलिये, भले ही बच्चे का संरक्षकत्व एक माता-पिता के पास हो, लेकिन दूसरे माता-पिता के पास बच्चे से मिलने-जुलने का अधिकार होना चाहिये, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि बच्चा दूसरे माता-पिता के साथ संपर्क बनाए रखे।
  • न्यायालय ने कहा कि संयुक्त पालन-पोषण आदर्श है तथा यदि न्यायालय इससे विरत रहता है, तो उसे इसके लिये स्पष्ट कारण उल्लिखित करने चाहिये। न्यायालय ने कहा कि यह स्पष्ट है कि अपीलकर्त्ता की उपस्थिति में बच्चा असहज था।
  • बच्चे की कम उम्र को देखते हुए न्यायालय ने कहा कि अपीलकर्त्ता को बच्चे की अंतरिम संरक्षकत्व नहीं दी जानी चाहिये।

बच्चे की अंतरिम संरक्षकत्व  से संबंधित विधियाँ क्या है?

संरक्षक एवं प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 की धारा 12

  • यह धारा अप्राप्तवय को प्रस्तुत करने तथा उसके शरीर एवं संपत्ति की अंतरिम सुरक्षा के लिये अंतरिम आदेश देने की शक्ति से संबंधित है।
  • इस धारा की उपधारा (1) में यह प्रावधान है कि न्यायालय यह निर्देश दे सकता है कि अप्राप्तवय का संरक्षकत्व प्राप्त करने वाला व्यक्ति, यदि कोई हो, उसे ऐसे स्थान एवं समय पर तथा ऐसे व्यक्ति के समक्ष प्रस्तुत करेगा या प्रस्तुत कराएगा जिसे वह नियुक्त करे, तथा अप्राप्तवय के शरीर या संपत्ति का अस्थायी संरक्षकत्व एवं सुरक्षा के लिये ऐसा आदेश दे सकता है जिसे वह उचित समझे।
  • इस धारा की उपधारा (2) में यह प्रावधान है कि यदि अप्राप्तवय महिला है, जिसे सार्वजनिक रूप से उपस्थित होने के लिये बाध्य नहीं किया जाना चाहिय, तो उपधारा (1) के अधीन उसे प्रस्तुत करने के निर्देश में उसे देश की प्रथाओं एवं रीति-रिवाजों के अनुसार प्रस्तुत करने की अपेक्षा की जाएगी।
  • उपधारा (3) में यह प्रावधान है कि इस धारा का कोई भी प्रावधान निम्नलिखित को अधिकृत नहीं करेगी-
    • न्यायालय द्वारा किसी अप्राप्तवय लड़की को ऐसे व्यक्ति की अस्थायी संरक्षकत्व में रखना जो उसका पति होने के आधार पर उसका अभिभावक होने का दावा करता है, जब तक कि वह अपने माता-पिता, यदि कोई हो, की सहमति से पहले से ही उसकी संरक्षकत्व में न हो, या
    • कोई भी व्यक्ति, जिसे किसी अवयस्क की संपत्ति का अस्थायी संरक्षकत्व एवं संरक्षण सौंपा गया है, वह विधि के सम्यक् अनुक्रम के अतिरिक्त किसी अन्य तरीके से उस संपत्ति पर कब्ज़ा रखने वाले किसी भी व्यक्ति को बेदखल कर सकता है।

बाल कल्याण का सिद्धांत क्या है?

  • हिंदू अप्राप्तवयता एवं संरक्षकता अधिनियम, 1956 (HMGA) की धारा 13
    • इस धारा में यह प्रावधान है कि न्यायालय द्वारा किसी व्यक्ति को हिंदू अवयस्क का संरक्षक नियुक्त या घोषित करते समय अवयस्क का कल्याण सर्वोपरि माना जाएगा।
  • संरक्षक एवं प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 की धारा 17
    • यह धारा संरक्षक नियुक्त करते समय विचार किये जाने वाले मामलों का प्रावधान करती है।
    • धारा 17 (1) में यह प्रावधान है कि किसी अप्राप्तवय के संरक्षक की नियुक्ति या घोषणा करते समय न्यायालय, इस धारा के प्रावधानों के अधीन रहते हुए, इस बात से निर्देशित होगा कि अप्राप्तवय जिस विधि के अधीन है, उसके अनुरूप परिस्थितियों में अप्राप्तवय के कल्याण के लिये क्या प्रतीत होता है।
    • धारा 17 (2) में यह प्रावधान है कि अप्राप्तवय के कल्याण के विषय में विचार करते समय न्यायालय को अप्राप्तवय की आयु, लिंग एवं धर्म, प्रस्तावित अभिभावक के चरित्र व क्षमता तथा अप्राप्तवय से उसके संबंधियों की निकटता, मृतक माता-पिता की इच्छाएँ, यदि कोई हों और प्रस्तावित अभिभावक के अप्राप्तवय या उसकी संपत्ति के साथ मौजूदा या पिछले संबंधों को ध्यान में रखना होगा।
    • धारा 17 (3) में प्रावधान है कि यदि अप्राप्तवय इतना वयस्क है कि वह बुद्धिमानी से अपनी पसंद बना सके, तो न्यायालय उस पसंद पर विचार कर सकता है।
    • धारा 17 (5) में प्रावधान है कि न्यायालय किसी व्यक्ति को उसकी इच्छा के विरुद्ध अभिभावक नियुक्त या घोषित नहीं करेगा।

बच्चे के संरक्षकत्व से संबंधित मामले क्या हैं?

  • शाजिया अमन खान एवं अन्य बनाम उड़ीसा राज्य (2024):
    • बच्चे की प्रतिभा और व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के लिये बच्चे की स्थिरता एवं सुरक्षा एक आवश्यक घटक है।
    • विधि का एक और सिद्धांत जो बच्चे की संरक्षकत्व के संदर्भ में तय किया गया है, वह है बच्चे की इच्छा, अगर वह सक्षम है।
    • न्यायालय ने कहा कि बच्चे के कल्याण को देखा जाना चाहिये न कि पक्षों के अधिकारों को।
  • आशीष रंजन बनाम अनुपम टंडन (2010):
    • यह एक सुस्थापित सिद्धांत है कि संरक्षकत्व के प्रश्न का निर्धारण करते समय बच्चे के कल्याण को सर्वोच्च महत्त्व दिया जाना चाहिये , न कि विधि के अधीन माता-पिता के अधिकारों को।
    • बच्चे के कल्याण पर विचार करते समय, "बच्चे के नैतिक कल्याण के साथ-साथ उसकी शारीरिक हित को भी न्यायालय द्वारा परीक्षण किया जाना चाहिये"।
    • बच्चे को संपत्ति या वस्तु के रूप में नहीं माना जा सकता है तथा इसलिये, ऐसे मुद्दों को न्यायालय द्वारा प्रेम, स्नेह एवं भावनाओं के साथ मानवीय स्पर्श के साथ सावधानी एवं सतर्कता के साथ संभाला जाना चाहिये।
  • कर्नल रमनीश पाल सिंह बनाम सुगंधी अग्रवाल (2024):
    • न्यायालय ने कहा कि संरक्षकत्व के विषय पर निर्णय निम्नलिखित कारकों को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिये:
      • अप्राप्तवय बच्चों को उपलब्ध कराए जाने वाले सामाजिक-आर्थिक एवं शैक्षिक अवसर;
      • बच्चों की स्वास्थ्य सेवा एवं समग्र कल्याण बढ़ते किशोरों के लिये अनुकूल भौतिक परिवेश प्रदान करने की क्षमता, लेकिन अप्राप्तवय बच्चों की प्राथमिकता को भी ध्यान में रखना चाहिये।

पारिवारिक कानून

दांपत्य अधिकारों का प्रत्यास्थापन

 12-Jul-2024

X बनाम Y

"विवाह-विच्छेद की याचिका इस आधार पर प्रस्तुत की जा सकती है कि दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के लिये डिक्री पारित होने के बाद एक वर्ष एवं उससे अधिक की अवधि के लिये       विवाह के पक्षकारों के मध्य दांपत्य अधिकारों का कोई प्रत्यास्थापन नहीं हुआ है"।

न्यायमूर्ति अभय एस. ओका एवं न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयाँ

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने X बनाम Y के मामले में माना है कि दांपत्य अधिकार के प्रत्यास्थापन के गैर-अनुपालन को न्यायालय द्वारा विवाह-विच्छेद देने का आधार माना जा सकता है।

X बनाम Y मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्तमान मामले में, पति (अपीलकर्त्ता) एवं पत्नी (प्रतिवादी) का विवाह वर्ष 1999 में हुआ था। उनके दो बच्चे थे, जो अब वयस्क हैं।
  • वर्ष 2006 में, दंपति के मध्य विवाद उत्पन्न हुआ, जिसके बाद पति ने वर्ष 2008 में दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के लिये आवेदन किया।
  • ट्रायल कोर्ट ने दांपत्यन अधिकारों की बहाली का आदेश पारित किया तथा पत्नी को 3 महीने के अंदर पति के संग रहने का निर्देश दिया।
  • पत्नी ने पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय में भी अपील दायर की जिसे न्यायालय ने खारिज कर दिया और दांपत्य अधिकारों का प्रत्यास्थापन का ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित आदेश की पुष्टि की।
  • पति ने वर्ष 2016 में पुनः विवाह-विच्छेद के लिये वाद संस्थित किया क्योंकि पत्नी ने क्रूरता एवं परित्याग के आधार पर पारिवारिक न्यायालय, बरनाल में आदेश का पालन नहीं किया, जिसने पति के पक्ष में आदेश पारित किया तथा विवाह-विच्छेद को स्वीकृति दी।
  • दोनों पक्षों के मध्य दो अन्य वाद भी संस्थित थे:
    • पत्नी ने ट्रायल कोर्ट में भरण-पोषण के लिये याचिका दायर की, जिसे बच्चों के भरण-पोषण के संबंध में कोर्ट ने आंशिक रूप से स्वीकार कर लिया तथा पत्नी के भरण-पोषण के लिये याचिका खारिज कर दी, क्योंकि उसने बिना किसी पर्याप्त कारण के दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के आदेश का पालन करने से मना कर दिया।
    • पत्नी ने न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 406 एवं धारा 498 A के प्रावधानों के अधीन एक अतिरिक्त वाद दायर किया, जिसे न्यायालय ने खारिज़ कर दिया। प्रतिवादी ने एक पुनरीक्षण याचिका दायर की, जिसे अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने भी खारिज कर दिया।
  • विवाद को उच्चतम न्यायालय मध्यस्थता केंद्र को भेजा गया, जो रिपोर्ट बनाने में भी विफल रहा तथा इस तरह की मध्यस्थता के बाद भी कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सका।
  • पति ने विवाह-विच्छेद के आदेश को रद्द करने के उच्च न्यायालय के निर्णय से व्यथित होकर उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यह विवाह 16 वर्षों से मृत विवाह था।
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि बिना किसी उचित कारण के दांपत्य अधिकारों की प्रत्यास्थापन के संबंध में उच्च न्यायालय द्वारा पारित डिक्री का प्रतिवादी द्वारा अनुपालन न किया जाना, आदेश या डिक्री पारित करते समय ध्यान में रखा जाना चाहिये।
  • यह भी ध्यान देने योग्य है कि वर्ष 2008 से लेकर विवाह-विच्छेद की याचिका दाखिल करने तक प्रतिवादी अपीलकर्त्ता के साथ नहीं रह रहा है, जो परित्याग है।
  • इसलिये, उच्चतम न्यायालय ने परित्याग के आधार पर विवाह-विच्छेद को स्वीकृति दे दी क्योंकि पक्षों के मध्य दांपत्य अधिकारों का कोई प्रत्यास्थापन नहीं हुआ था तथा इसलिये, उच्च न्यायालय के निर्णय को पलट दिया।

दांपत्य अधिकारों का प्रत्यास्थापन क्या है?

  • परिचय:
    • दांपत्य अधिकारों का प्रत्यास्थापन का अर्थ है दांपत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना, जो पक्षकारों को पहले प्राप्त थे।
    • हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) की धारा 9 के अंतर्गत दांपत्य अधिकारों का प्रत्यास्थापन प्रावधानित किया गया है।
  • HMA की धारा 9:
    • धारा 9 का उद्देश्य संस्थित विवाह की पवित्रता एवं विधिकता की रक्षा करना है।
    • इस धारा में कहा गया है कि जब पति या पत्नी में से कोई एक बिना किसी उचित कारण के दूसरे से अलग हो जाता है, तो पीड़ित पक्ष ज़िला न्यायालय में याचिका के माध्यम से दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के लिये आवेदन कर सकता है तथा न्यायालय, ऐसी याचिका में दिये गए कथनों की सत्यता से संतुष्ट होने पर और यह कि आवेदन को स्वीकार न करने का कोई विधिक आधार नहीं है, तद्नुसार दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन का आदेश दे सकता है।
    • स्पष्टीकरण- जहाँ यह प्रश्न किया जाता है कि क्या किसी से पृथक होने के लिये कोई उचित कारण था, वहाँ उचित कारण सिद्ध करने का भार उस व्यक्ति पर होगा जो समाज से अलग हुआ है।
  • अनुप्रयोज्यता:
    • यदि पति या पत्नी को बिना किसी उचित आधार के दूसरे साथी की संगति से पृथक कर दिया जाता है, तो पीड़ित पक्ष दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के लिये ज़िला न्यायालय में आवेदन कर सकता है।
    • साक्ष्य का भार उस व्यक्ति पर है जिसने दूसरे व्यक्ति की संगति से पृथक होने का निर्णय लिया है, ताकि यह सिद्ध किया जा सके कि पृथक होने का कोई उचित कारण था।
  • आवश्यक तत्त्व:
    • पक्षों को एक दूसरे से विधिक रूप से विवाहित होना चाहिये।
    • किसी एक को दूसरे के सामाजिक परिधि से स्वयं को पृथक रखना चाहिये।
    • यह कृत्य वैध औचित्य के बिना की जानी चाहिये।
    • यह दावा कि डिक्री को अस्वीकार करने का कोई विधिक औचित्य नहीं है, न्यायालय की संतुष्टि के लिये सिद्ध किया जाना चाहिये।
  • महत्त्वपूर्ण निर्णय:
    • सरोज रानी बनाम सुदर्शन कुमार चड्ढा (1984) में उच्चतम न्यायालय ने हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9 की संवैधानिक वैधता को यथावत् रखा क्योंकि यह धारा किसी भी मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं करती है।
    • आर. नटराजन बनाम सुजाता वासुदेवा (2010) में यह माना गया कि पत्नी द्वारा अपने पति के समाज को छोड़ने का निर्णय, क्योंकि उसे अपने पति के माता-पिता के साथ रहना मुश्किल लगता है, ऐसा करने का कोई उचित कारण नहीं है।

इस मामले में भारतीय दण्ड संहिता के किन प्रावधानों का उल्लेख किया गया है?

IPC की धारा 406:

  • यह धारा आपराधिक विश्वासघात के लिये दण्ड से संबंधित है।
  • इसमें कहा गया है कि जो कोई भी आपराधिक विश्वासघात करता है, उसे तीन वर्ष तक की अवधि के लिये कारावास या अर्थदण्ड या दोनों से दण्डित किया जाएगा।
  • अब यह भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) की धारा 316 (2) है।

IPC की धारा 498-A:

  • वर्ष 1983 में प्रस्तुत इस धारा में उन स्थितियों के संबंध में प्रावधान हैं जब किसी महिला का पति या उसके रिश्तेदार उसके साथ क्रूरता करते हैं। इसमें कहा गया है कि-
    जो कोई, किसी स्त्री का पति या पति का नातेदार होते हुए, ऐसी स्त्री के साथ क्रूरता करेगा, उसे तीन वर्ष तक के कारावास से दण्डित किया जाएगा तथा वह अर्थदण्ड से भी दण्डनीय होगा।
    स्पष्टीकरण- इस धारा के प्रयोजनों के लिये क्रूरता से अभिप्रेत है।
    (a) कोई भी जानबूझकर किया गया आचरण जो ऐसी प्रकृति का हो जिससे महिला को आत्महत्या करने के लिये प्रेरित करने या महिला के जीवन, अंग या स्वास्थ्य (मानसिक या शारीरिक) को गंभीर चोट या खतरा उत्पन्न करने की संभावना हो, या
    (b) महिला का उत्पीड़न, जहाँ ऐसा उत्पीड़न उसे या उसके किसी संबंधित व्यक्ति को किसी संपत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति की किसी अवैध मांग को पूरा करने के लिये विवश करने के उद्देश्य से किया जाता है या उसके या उसके किसी संबंधित व्यक्ति द्वारा ऐसी मांग को पूरा करने में विफलता के कारण किया जाता है।
  • दिनेश सेठ बनाम दिल्ली राज्य (2008) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-A का दायरा व्यापक है तथा यह उन सभी मामलों को शामिल करती है, जिनमें पत्नी को उसके पति या पति के रिश्तेदार द्वारा क्रूरता का सामना करना पड़ता है, जिसके परिणामस्वरूप आत्महत्या के माध्यम से मृत्यु हो सकती है या जीवन, अंग या स्वास्थ्य (मानसिक या शारीरिक) को गंभीर चोट या खतरा हो सकता है या यहाँ तक ​​कि महिला या उसके किसी भी संबंधित व्यक्ति को संपत्ति की किसी भी अवैध मांग को पूरा करने के लिये विवश करने के उद्देश्य से उत्पीड़न किया जा सकता है।