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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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सांविधानिक विधि

राज्य की अनुसूचित जाति सूची में परिवर्द्धन करने की शक्ति

 16-Jul-2024

डॉ. भीम राव अंबेडकर विचार मंच बिहार, पटना बनाम बिहार राज्य एवं अन्य।

“उच्चतम न्यायालय ने बिहार सरकार के अनुसूचित जाति सूची में परिवर्द्धन करने के प्रयास को निरस्त कर दिया, कहा कि राज्यों के पास अनुच्छेद 341 के अंतर्गत अधिकार नहीं है”।

न्यायमूर्ति विक्रम नाथ एवं प्रशांत कुमार मिश्रा

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने डॉ. भीम राव अंबेडकर विचार मंच बिहार, पटना बनाम बिहार राज्य एवं अन्य के मामले में बिहार सरकार के वर्ष 2015 के प्रस्ताव को अनुच्छेद 341 के अंतर्गत प्राधिकार की कमी का हवाला देते हुए, अत्यंत पिछड़ी जातियों की सूची से "तांती/तंतवा" समुदाय को अनुसूचित जाति की सूची में विलय करने को अवैध करार दिया है।

  • न्यायालय ने राज्य की कार्यवाही को दुर्भावनापूर्ण बताते हुए उसकी आलोचना की तथा निर्देश दिया कि प्रस्ताव के अंतर्गत की गई नियुक्तियों को अनुसूचित जाति कोटे में वापस कर दिया जाए।
  • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि अनुसूचित जातियों की सूची में किसी भी बदलाव के लिये संसदीय विधि की आवश्यकता होती है, न कि कार्यकारी आदेश की।

डॉ. भीम राव अंबेडकर विचार मंच बिहार, पटना बनाम बिहार राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्ष 1950 में संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश में बिहार में 'पान' को अनुसूचित जाति के रूप में सूचीबद्ध किया गया।
  • वर्ष 1956 में इसे 'पान या स्ववासी' नाम दिया गया।
  • वर्ष 2002 में इसे और अधिक लोकप्रिय बनाकर 'पान, सवासी, पनार' कर दिया गया।
  • बिहार सरकार ने वर्ष 1992 में 'तांती/तंतवा' को अत्यंत पिछड़ा वर्ग के रूप में सूचीबद्ध किया।
  • वर्ष 2011 में बिहार ने केंद्र सरकार से 'तांती/तंतवा' को अनुसूचित जाति की सूची में 'पान, सवासी, पनार' के पर्याय के रूप में शामिल करने की अनुशंसा की थी।
  • केंद्र सरकार ने वर्ष 2013 में इस अनुशंसा को स्वीकृति नहीं दी तथा बिहार से आगे का औचित्य पूछा।
  • 1 जुलाई 2015 को, केंद्रीय अनुमोदन के बिना, बिहार ने एक अधिसूचना जारी की:
    • अत्यंत पिछड़ा वर्ग की सूची से 'तांती-तंतवा' को हटाया जाए।
    • अनुसूचित जाति की सूची में 'तांती/तंतवा' को 'पान/सवासी' के साथ मिलाया जाए।
  • इस अधिसूचना को पटना उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई, जिसने अप्रैल 2017 में इसकी वैधता को यथावत् रखा।
  • वर्तमान अपील उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध था, जिसमें तर्क दिया गया था कि राज्य सरकार के पास संसदीय अनुमोदन के बिना अनुसूचित जातियों की सूची को संशोधित करने का संवैधानिक अधिकार नहीं है।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • बिहार सरकार के वर्ष 2015 के प्रस्ताव को असंवैधानिक करार देकर रद्द कर दिया गया, जिसमें "तांती/तंतवा" को अनुसूचित जाति की सूची में शामिल किया गया था।
    • न्यायालय ने निर्णय दिया कि राज्य सरकारों को संविधान के अनुच्छेद 341 के अंतर्गत प्रकाशित अनुसूचित जाति सूचियों को संशोधित करने का कोई अधिकार नहीं है।
    • केवल संसद के पास अधिनियमित विधि के माध्यम से अनुसूचित जातियों की सूची में संशोधन, जोड़ने, हटाने या परिवर्द्धित करने की शक्ति है।
  • न्यायालय ने राज्य की कार्यवाही को दुर्भावनापूर्ण एवं संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन माना।
  • न्यायालय ने राज्य की आलोचना की कि वह अनुसूचित जाति के वैध सदस्यों को उनके लाभ से वंचित करके उन्हें अयोग्य समुदाय तक पहुँचा रहा है।
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि राज्य पिछड़ा आयोग की अनुशंसा केवल अत्यंत पिछड़े वर्गों पर लागू होती हैं, अनुसूचित जातियों पर नहीं।
    • नियुक्तियों को अवैध पाए जाने के बावजूद, न्यायालय ने व्यक्तिगत लाभार्थियों को दण्डित करने से बचने के लिये उन्हें अमान्य नहीं किया।
    • न्यायालय ने निर्देश दिया कि वर्ष 2015 से "तांती/तंतवा" समुदाय के सदस्यों द्वारा भरे गए अनुसूचित जाति कोटा पदों को अनुसूचित जाति श्रेणी में वापस कर दिया जाए।
    • न्यायालय ने आदेश दिया कि प्रभावित "तांती/तंतवा" समुदाय के सदस्यों को उनकी मूल अत्यंत पिछड़ा वर्ग श्रेणी में समायोजित किया जाए।

  भारतीय संविधान का अनुच्छेद 341 क्या है?

  • परिचय:
    • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 341 अनुसूचित जातियों के विनिर्देशन से संबंधित है।
    • यह राष्ट्रपति को सार्वजनिक अधिसूचना के माध्यम से विशिष्ट राज्यों या केंद्रशासित प्रदेशों के लिये कुछ जातियों, नस्लों या जनजातियों को अनुसूचित जातियों के रूप में नामित करने का अधिकार देता है।
    • यह केवल संसद को अधिनियमित विधि के माध्यम से राष्ट्रपति की अधिसूचना में निर्दिष्ट अनुसूचित जातियों की सूची को संशोधित (शामिल या बहिष्कृत) करने का अधिकार देता है।
    • यह बाद की अधिसूचनाओं द्वारा राष्ट्रपति की अधिसूचना में किसी भी परिवर्तन को प्रतिबंधित करता है, यह सुनिश्चित करते हुए कि परिवर्तन केवल संसदीय विधि के माध्यम से ही किये जा सकते हैं।
    • इस प्रकार यह अनुच्छेद अनुसूचित जातियों की सूची की पहचान करने एवं उसमें संशोधन करने के लिये एक संवैधानिक तंत्र स्थापित करता है तथा इस शक्ति को राष्ट्रीय सरकार के पास केंद्रीकृत करता है, ताकि इसमें एकरूपता बनी रहे और स्वैच्छिक परिवर्द्धन को रोका जा सके।
  • विधिक प्रावधान:
    • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 341 अनुसूचित जातियों से संबंधित है।
    • इसमें कहा गया है कि राष्ट्रपति किसी राज्य या संघ राज्य क्षेत्र के संबंध में और जहाँ वह राज्य है, वहाँ उसके राज्यपाल के परामर्श के पश्चात् सार्वजनिक अधिसूचना द्वारा उन जातियों, मूलवंशों या जनजातियों अथवा जातियों, मूलवंशों या जनजातियों के भागों या समूहों को विनिर्दिष्ट कर सकेगा, जिन्हें इस संविधान के प्रयोजनों के लिये उस राज्य या संघ राज्य क्षेत्र के संबंध में, जैसा भी मामला हो, अनुसूचित जातियाँ माना जाएगा।
    • उप अनुच्छेद (2) के अनुसार संसदीय विधि द्वारा खंड (1) के अधीन जारी की गई अधिसूचना में विनिर्दिष्ट अनुसूचित जातियों की सूची में किसी जाति, मूलवंश या जनजाति अथवा किसी जाति, मूलवंश या जनजाति के भाग या समूह को सम्मिलित कर सकेगी या उसमें से निकाल सकेगी, किंतु जैसा पूर्वोक्त है उसके सिवाय उक्त खंड के अधीन जारी की गई अधिसूचना में किसी पश्चातवर्ती अधिसूचना द्वारा परिवर्तन नहीं किया जाएगा।
  • प्रक्रिया:
    • राज्य सरकार आमतौर पर किसी समुदाय को अनुसूचित जाति की सूची में शामिल करने या बाहर करने का प्रस्ताव शुरू करती है।
    • इसके बाद यह प्रस्ताव सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय को भेजा जाता है।
    • मूल्यांकन के बाद, यदि उपयुक्त पाया जाता है, तो प्रस्ताव को स्वीकृति के लिये भारत के महापंजीयक को भेजा जाता है।
    • एक बार स्वीकृति प्राप्त होने के बाद इसे राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग को उनकी अनुशंसा के; लिये भेजा जाता है।
    • अंत में, सूची में संशोधन के लिये संसद में एक विधेयक प्रस्तुत किया जाता है।

निर्णयज विधियाँ:

  • महाराष्ट्र राज्य बनाम मिलिंद (2001): उच्चतम न्यायालय ने माना कि केवल अनुच्छेद 341 के अंतर्गत राष्ट्रपति के आदेश में उल्लिखित जातियों को ही अनुसूचित जाति माना जा सकता है। राज्य सरकारें इस सूची का विस्तार नहीं कर सकतीं।
  • ई.वी. चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (2004): न्यायालय ने निर्णय दिया कि आरक्षण के उद्देश्य से अनुसूचित जातियों का उप-वर्गीकरण असंवैधानिक है, क्योंकि अनुच्छेद 341 सभी अनुसूचित जातियों को एक ही समरूप समूह मानता है।
  • बीर सिंह बनाम दिल्ली जल बोर्ड (2018): न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अनुसूचित जाति का दर्जा पाने का दावा करने वाले व्यक्ति को अनुच्छेद 341 के तहत राष्ट्रपति के आदेश में उस विशेष राज्य के लिये निर्दिष्ट जाति से संबंधित होना चाहिये।
  • पंजाब राज्य एवं अन्य बनाम दविंदर सिंह एवं अन्य, (2024): पीठ ने तर्क दिया कि अनुसूचित जातियों के भीतर उप-वर्गीकरण संविधान में निहित समानता के अधिकार का उल्लंघन होगा।
    • पीठ ने यह भी कहा कि इंद्रा साहनी एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (1992) मामले में पृष्ठ 725 पर उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि क्रीमी लेयर की चर्चा केवल अन्य पिछड़े वर्गों तक ही सीमित है तथा अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के मामले में इसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है।
    • न्यायालय ने कहा कि उक्त विधि के माध्यम से राज्य ने आरक्षण एवं नियुक्तियों के प्रयोजनों के लिये राष्ट्रपति अधिसूचना में निर्दिष्ट समरूप समूह को पुनः समूहीकृत करने का प्रयास किया है।

सिविल कानून

CPC के आदेश II का नियम 2

 16-Jul-2024

यूनीवर्ल्ड लॉजिस्टिक्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम इनडेव लॉजिस्टिक्स प्राइवेट लिमिटेड

“आदेश II नियम 2 सीपीसी के अंतर्गत किराये एवं क्षतिपूर्ति के बकाया के लिये दूसरा वाद वर्जित नहीं होगा”।

न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति पी.बी. वराले

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति पी.बी. वराले की पीठ ने कहा कि बकाया किराये और क्षतिपूर्ति के लिये दूसरा वाद सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश II नियम 2 के अंतर्गत वर्जित नहीं होगा।

  • उच्चतम न्यायालय ने यूनीवर्ल्ड लॉजिस्टिक्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम इंदेव लॉजिस्टिक्स प्राइवेट लिमिटेड के मामले में यह निर्णय दिया।

यूनीवर्ल्ड लॉजिस्टिक्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम इनडेव लॉजिस्टिक्स प्राइवेट लिमिटेड मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • इस मामले में अपीलकर्त्ता एक गोदाम का लाइसेंसधारी था जो गोदाम प्रतिवादी का था।
  • कुल चार वाद थे और दोनों पक्षों ने एक दूसरे के विरुद्ध दो-दो वाद पेश किये थे। एक वाद वापस ले लिया गया था, अतः कुल तीन वाद लंबित थे।
  • दो विवादित वाद निम्न प्रकार थे।
  • प्रतिवादी ने स्थायी निषेधाज्ञा के लिये वाद प्रस्तुत किया और यहाँ उसने विशेष रूप से दलील दी कि वह बकाया किराये तथा संपत्ति के अवैध उपयोग एवं कब्ज़े के कारण क्षतिपूर्ति का दावा करने का अधिकार रखता है।
    • यह वाद इसलिये दायर किया गया क्योंकि भंडारण शुल्क के भुगतान में चूक हुई थी।
  • प्रतिवादी ने भंडारण, गोदाम शुल्क और क्षतिपूर्ति के बकाया की वसूली के लिये वर्ष 2016 में एक और वाद संख्या 323 दायर किया।
  • यहाँ अपीलकर्त्ता ने शिकायत को अस्वीकार करने के लिये CPC के आदेश II नियम 2 के साथ आदेश VII नियम 11 (d) के अंतर्गत एक आवेदन दायर किया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने माना कि किसी भी स्तर पर दावे का त्याग नहीं किया गया था तथा राहत का दावा करने में भी कोई चूक नहीं हुई थी।
  • न्यायालय ने कहा कि दोनों ही वाद के कारण (हेतुक) भिन्न-भिन्न हैं तथा दूसरा वाद स्पष्ट रूप से स्वीकार्य है।
  • न्यायालय ने कहा कि अपीलकर्त्ता अनावश्यक रूप से वाद की प्रगति में विलंब करने का प्रयास कर रहा है।

 आदेश II नियम 2 क्या है?

  • CPC के आदेश II नियम 2 का उद्देश्य विधि के प्रमुख सिद्धांत पर आधारित है कि प्रतिवादी को एक ही कारण से दो बार तंग नहीं किया जाना चाहिये।
  • इस सिद्धांत का उद्देश्य दो बुराइयों का प्रतिकार करना है, अर्थात् (i) दावों का विभाजन और (ii) उपचारों का विभाजन।
  • CPC के आदेश II नियम 2 में प्रावधान है कि वाद में संपूर्ण दावा शामिल होना चाहिये।
  • आदेश II नियम 2(1) में यह प्रावधान है कि प्रत्येक वाद में वह संपूर्ण दावा सम्मिलित होगा जिसे वादी, वाद के कारण के संबंध में करने का अधिकारी है; परंतु वादी अपने दावे के किसी भाग को किसी न्यायालय के क्षेत्राधिकार में लाने के लिये त्याग सकता है।
  • आदेश II नियम 2(2) दावे के भाग को त्यागने का प्रावधान करता है।
    • जहाँ कोई वादी अपने दावे के किसी भाग के संबंध में वाद लाने का लोप कर देता है या जानबूझकर उसका त्याग कर देता है, वहाँ वह बाद में छोड़े गए या त्यागे गए भाग के संबंध में वाद नहीं लाएगा।
  • आदेश II नियम 2 (3) कई राहतों में से एक के लिये वाद दायर करने में चूक का प्रावधान करता है।
    • एक ही वाद के कारण के संबंध में एक से अधिक राहत प्राप्त करने का अधिकारी कोई व्यक्ति ऐसे सभी या किन्हीं राहतों के लिये वाद ला सकेगा; परंतु यदि वह न्यायालय की अनुमति के बिना ऐसी सभी राहतों के लिये वाद लाने में चूक करता है तो वह तत्पश्चात् ऐसी त्यागी गई किसी राहत के लिये वाद नहीं लाएगा।
    • स्पष्टीकरण: इस नियम के प्रयोजनों के लिये, किसी दायित्व और उसके निष्पादन के लिये संपार्श्विक प्रतिभूति तथा उसी दायित्व के अंतर्गत उत्पन्न होने वाले क्रमिक दावों को क्रमशः एक ही वाद का कारण माना जाएगा।

CPC के आदेश II नियम 2 की प्रयोज्यता के लिये क्या शर्तें हैं?

  • इसके लिये जो तीन शर्तें पूरी होनी चाहिये थी, जो निम्नवत हैं:
    • दूसरा वाद उसी वाद के कारण के संबंध में होना चाहिये जिस पर पिछला वाद आधारित था।
    • उस वाद के संबंध में वादी एक से अधिक राहत का अधिकारी था।
    • इस प्रकार राहत का अधिकारी होने के कारण वादी ने, न्यायालय की अनुमति के बिना उस राहत के लिये वाद दायर करने में चूक की जिसके लिये दूसरा वाद दायर किया गया था।

रेस ज्युडिकाटा और CPC के आदेश II नियम 2 के बीच क्या अंतर है?

रेस ज्युडिकाटा

CPC का आदेश II नियम 2

रेस ज्युडिकाटा वादी के अपने दावे के समर्थन में वाद के सभी आधारों को प्रकट करने के कर्त्तव्य से संबंधित है।

इसमें केवल यह अपेक्षा की जाती है कि वादी एक ही वाद-कारण से उत्पन्न होने वाली सभी राहतों का दावा करेगा।

यह दोनों पक्षों को संदर्भित करता है तथा वाद के साथ-साथ प्रतिवाद को भी रोकता है।

यह केवल वादी को संदर्भित करता है तथा वाद दायर करने पर रोक लगाता है।

CPC के आदेश II नियम 2 को नियंत्रित करने वाले सिद्धांत क्या हैं?

  • आदेश II नियम 2 को नियंत्रित करने वाले सिद्धांत मोहम्मद खलील बनाम महबूब अली मियाँ (1949) के मामले में प्रिवी काउंसिल द्वारा निर्धारित किये गए थे:
    • यहाँ सही परीक्षण यह है कि क्या नए वाद में दावा उस वाद-कारण से भिन्न है जो पूर्ववर्ती वाद का आधार था।
    • वाद-कारण से तात्पर्य उस प्रत्येक तथ्य से है जो वादी को न्यायालय द्वारा निर्णय पाने के उसके अधिकार का समर्थन करने के लिये आवश्यक होगा।
    • यदि दोनों दावों के समर्थन में साक्ष्य भिन्न-भिन्न हैं तो कार्यवाही का कारण भी भिन्न-भिन्न होगा।
    • दो वादों में वाद का कारण एक ही माना जा सकता है यदि वे मूलतः समान हों।
    • वाद-कारण का उस प्रतिवाद से कोई संबंध नहीं है जो स्थापित किया जा सकता है और न ही यह वादी द्वारा मांगी गई राहत की प्रकृति पर निर्भर करता है।
    • वाद-कारण वह माध्यम है जिसके आधार पर वादी न्यायालय से अपने पक्ष में निष्कर्ष पर पहुँचने का अनुरोध करता है।

क्या अंतःकालीन लाभ के लिये दावा और कब्ज़े के लिये दावा भिन्न-भिन्न वाद के कारण हैं?

  • राम करण सिंह बनाम नकछड़ अहीर (1931) के मामले में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ ने माना कि कब्ज़े के लिये कार्यवाही का कारण आवश्यक रूप से अंतःकालीन लाभ की वसूली के लिये वाद-कारण के समान नहीं है।
  • आदेश II नियम 4 के प्रावधानों से संकेत मिलता है कि विधायिका ने कब्ज़े की वसूली के लिये एक दावे के साथ अंतःकालीन लाभ के लिये दावे को जोड़ने का प्रावधान करना आवश्यक समझा।
  • इस निर्णय का उदाहरण उच्चतम न्यायालय के 2 न्यायाधीशों की पीठ द्वारा मेसर्स भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड बनाम एटीएम कंस्ट्रक्शन प्राइवेट लिमिटेड (2023) के मामले में दिया गया।
  • CPC के आदेश II नियम 4 में प्रावधान है कि केवल कुछ दावों को ही अचल संपत्ति की वसूली के लिये जोड़ा जा सकता है।
    • कोई भी वाद-कारण, न्यायालय की अनुमति के बिना, अचल संपत्ति की वसूली के लिये वाद के साथ नहीं जोड़ा जाएगा, सिवाय इसके कि—
      • दावा की गई संपत्ति या उसके किसी भाग के संबंध में अंतःकालीन लाभ या किराये के बकाया के लिये दावे;
      • किसी ऐसी संविदा के उल्लंघन के लिये क्षतिपूर्ति का दावा जिसके अधीन संपत्ति या उसका कोई भाग धारित है; तथा
      • ऐसे दावे जिनमें मांगी गई राहत एक ही वाद-कारण पर आधारित है।

 महत्त्वपूर्ण निर्णयज विधियाँ:

  • गुरबक्स सिंह बनाम भूरालाल (1964)
    • उच्चतम न्यायालय ने निर्धारित किया कि CPC के आदेश II नियम 2 के अंतर्गत एक याचिका सफल होनी चाहिये यदि निम्नलिखित तथ्य प्रकट होते हैं:
      • दूसरा वाद भी उसी वाद-कारण के संबंध में था जिस पर पिछला वाद आधारित था।
      • उस वाद-कारण के संबंध में वादी एक से अधिक राहत का अधिकारी था।
      • इस प्रकार एक से अधिक राहत पाने का अधिकारी होने के कारण वादी ने न्यायालय से अनुमति प्राप्त किये बिना उस रहत के लिये वाद दायर करने में चूक की जिसके लिये दूसरा वाद दायर किया गया था।
  • ब्रह्म सिंह बनाम भारत संघ (2020)
    • न्यायालय ने कहा कि CPC के आदेश II नियम 2 का प्रतिबंध रिट याचिकाओं पर लागू नहीं हो सकता।
  • जीवन बीमा निगम बनाम संजीव बिल्डर्स प्राइवेट लिमिटेड (2022)
    • इस मामले में उचतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि आदेश II नियम 2 के प्रावधान केवल “अनुवर्ती वाद” पर लागू होते हैं।
    • अतः न्यायालय ने माना कि यह प्रावधान दलीलों में संशोधन पर लागू नहीं होता।
    • इस प्रकार, CPC के आदेश II नियम 2 द्वारा संशोधन पर रोक लगाने की दलील गलत है और इसे अनुमति नहीं दी जा सकती।

पारिवारिक कानून

हिंदू विवाह के प्रमाणन हेतु आर्य समाज प्रमाण-पत्र की वैधता

 16-Jul-2024

श्रुति अग्निहोत्री बनाम आनंद कुमार श्रीवास्तव

"एक हिंदू विवाह के लिये आवश्यक प्रथागत संस्कारों एवं समारोहों के रूप में एक वैध विवाह की पूर्व शर्तों का कभी पालन नहीं किया गया और उक्त प्रमाण-पत्रों का विधि की दृष्टि में कोई महत्त्व नहीं है तथा वे स्वयं ऐसे विवाह को सिद्ध नहीं करते हैं”।

न्यायमूर्ति राजन रॉय एवं न्यायमूर्ति ओम प्रकाश शुक्ला

स्रोत: इलाहबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में श्रुति अग्निहोत्री बनाम आनंद कुमार श्रीवास्तव के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने माना है कि विवाह प्रमाण-पत्र में सप्तपदी का उल्लेख न होना विवाह के अनुष्ठान का प्रमाण नहीं है।

श्रुति अग्निहोत्री बनाम आनंद कुमार श्रीवास्तव मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्तमान मामले में, अपीलकर्त्ता अप्राप्तवय थी तथा प्रतिवादी लखनऊ में एक गुरु था।
  • अपीलकर्त्ता एवं उसका परिवार अपने पिता को छोड़कर प्रतिवादी गुरुजी के अनुयायी थे।
  • अपीलकर्त्ता ने आरोप लगाया कि एक दिन प्रतिवादी ने उसे एवं उसकी माँ को प्रसाद दिया तथा इसे खाने के बाद वे बेहोश हो गईं तथा उस दौरान प्रतिवादी ने उनसे कुछ दस्तावेज़ों पर हस्ताक्षर करवाए।
  • घटना के ठीक दो दिन बाद प्रतिवादी ने अपीलकर्त्ता के पिता को फोन करके बताया कि अपीलकर्त्ता और वह विवाहित हैं तथा उन्होंने विवाह पंजीकृत करा लिया है।
  • इसके बाद अपीलकर्त्ता के पिता ने धारा 419, 420, 496 भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराई।
  • अपीलकर्त्ता ने प्रतिवादी के विरुद्ध हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) की धारा 12 के अंतर्गत वाद संस्थित किया क्योंकि वह प्रतिवादी के साथ विवाह करने के लिये कभी सहमत नहीं हुई।
  • प्रतिवादी ने वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिये HMA, 1955 की धारा 9 के अंतर्गत वाद संस्थित किया।
  • ट्रायल कोर्ट ने प्रतिवादी के पक्ष में विवाह का निर्णय दिया क्योंकि साक्षियों के बयानों में विरोधाभास था तथा साथ ही बेटी एवं माँ के लिये कोई मेडिकल जाँच नहीं कराई गई थी कि क्या उन्होंने प्रसाद खाया था जिससे वे अचेत हो गई थीं।
  • साथ ही, अपीलकर्त्ता यह सिद्ध नहीं कर सकी कि वह उस समय आर्य समाज में उपस्थित नहीं थी जब कथित विवाह संपन्न हुआ था।
  • ट्रायल कोर्ट के निर्णय से व्यथित होकर अपीलकर्त्ता ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपील दायर की।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि अपीलकर्त्ता ने कभी इस बात पर सहमति नहीं जताई कि विवाह संपन्न हुआ था, तथा इस आरोप को विवाह की स्वीकृति नहीं माना जा सकता।
  • उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि पिता के कथनों पर विश्वास करना, जो घटना के समय उपस्थित नहीं थे, अपीलकर्त्ता एवं उसकी माँ के कथन पर बाध्यकारी नहीं हो सकता।
  • इसके अतिरिक्त उच्च न्यायालय ने यह भी माना कि विवाह हिंदू रीति-रिवाज़ों एवं संस्कारों के आधार पर संपन्न हुआ था, यह सिद्ध करने का भार प्रतिवादी पर है।
  • उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि आर्य समाज से प्राप्त प्रमाण-पत्र इस बात का पर्याप्त प्रमाण नहीं है कि विवाह हिंदू रीति-रिवाज़ों एवं विवाह के सभी संस्कारों का पालन करके संपन्न हुआ था।
  • इसलिये उच्च न्यायालय ने अपील को स्वीकार कर लिया तथा निर्णय दिया कि विवाह एक छल कृत्य किया था तथा विवाह को अमान्य घोषित कर दिया।

आर्य समाज क्या है?

  • परिचय:
    • आर्य समाज स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा स्थापित एक हिंदू सुधार आंदोलन है।
    • इसका उद्देश्य श्रेष्ठ समाज बनाने के लिये वेद, धर्म एवं सत्य को बढ़ावा देना है।
    • यह पहला मानव संगठन है जिसने नागरिक अधिकार आंदोलन को बढ़ाने के लिये कार्य किया।
  • आर्य समाज विवाह:
    • विवाह वैदिक रीति-रिवाज़ों के अनुसार संपन्न होते हैं।
    • यह हिंदू रीति-रिवाज़ों के लिये विवाह का एक वैकल्पिक तरीका है।
    • यह विवाहित जोड़ों के लिये बहुत महत्त्व रखता है।
  • आर्य समाज मंदिर के लिये पात्रता:
    • लड़की की आयु कम-से-कम 18 वर्ष एवं लड़के की आयु कम-से-कम 21 वर्ष होनी चाहिये।
    • आर्य समाज विवाह संपन्न करने के लिये दंपत्ति का हिंदू, सिख, बौद्ध या जैन धर्म से होना आवश्यक है।
    • मुस्लिम, जैन, ईसाई या पारसी धर्म से संबंधित व्यक्ति आर्य समाज विवाह संपन्न नहीं कर सकता।
    • अंतर्जातीय विवाह एवं अंतरधार्मिक विवाह भी आर्य समाज में संपन्न किये जाते हैं, यदि उनमें से कोई भी व्यक्ति ईसाई, पारसी, यहूदी या मुस्लिम नहीं है।
    • मुस्लिम, ईसाई, पारसी या यहूदी धर्म से संबंधित व्यक्ति भी आर्य समाज विवाह कर सकते हैं, यदि वे स्वेच्छा से शुद्धि नामक अनुष्ठान करते हैं।
  • आर्य समाज विवाह प्रमाण-पत्र की वैधता:
    • आर्य समाज विवाह प्रमाण-पत्र वैध हैं।
    • प्रमाण-पत्र के आधार पर विवाह को सिद्ध नहीं किया जा सकता।
    • वैध विवाह के प्रमाण के लिये समारोह एवं प्रमाण-पत्र जारी करने के साथ हिंदू रीति-रिवाज़ व संस्कार जुड़े होने चाहिये।

आर्य समाज विवाह पर महत्त्वपूर्ण निर्णय क्या हैं?

  • आशीष मोर्य बनाम अनामिका धीमान (2022): इस मामले में, उच्च न्यायालय ने माना कि आर्य समाज का विवाह प्रमाण-पत्र वैध विवाह का साक्ष्य नहीं है।
  • डॉली रानी बनाम मनीष कुमार चंचल (2024): इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि जब उनके मध्य कोई हिंदू विवाह नहीं हुआ था, तो उक्त प्रमाण-पत्र जारी करने का कोई महत्त्व नहीं था।

श्रुति अग्निहोत्री बनाम आनंद कुमार श्रीवास्तव मामले में HMA, 1955 के प्रावधान क्या हैं?

  • धारा 7: हिंदू विवाह के लिये समारोह:
    • खंड (1) में कहा गया है कि हिंदू विवाह किसी भी पक्ष के प्रथागत संस्कारों एवं समारोहों के अनुसार संपन्न किया जा सकता है।
    • खंड (2) में कहा गया है कि जहाँ ऐसे संस्कारों एवं समारोहों में सप्तपदी (अर्थात् पवित्र अग्नि के समक्ष वर एवं वधू द्वारा संयुक्त रूप से सात पग उठाना) निहित है, वहाँ सातवाँ कदम उठाए जाने पर विवाह पूर्ण एवं बाध्यकारी हो जाता है।
  • धारा 9 : दांपत्य अधिकार का प्रत्यास्थापन
    • इसमें कहा गया है कि जब पति या पत्नी में से कोई एक, बिना किसी उचित कारण के, दूसरे के साथ से अलग हो जाता है, तो पीड़ित पक्ष, ज़िला न्यायालय में याचिका द्वारा, दांपत्य अधिकारों का प्रत्यास्थापन के लिये आवेदन कर सकता है तथा न्यायालय, ऐसी याचिका में दिये गए कथनों की सत्यता के विषय में संतुष्ट होने पर तथा यह कि आवेदन को स्वीकार न करने का कोई विधिक आधार नहीं है, तद्नुसार दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन का आदेश दे सकता है।
    • स्पष्टीकरण--जहाँ यह प्रश्न उठता है कि क्या समाज से हटने के लिये कोई उचित कारण था, वहाँ उचित कारण सिद्ध करने का भार उस व्यक्ति पर होगा जो समाज से हट गया है।
  • धारा 12: शून्यकरणीय विवाह—
    • खंड (1) में कहा गया है कि इस अधिनियम के प्रारंभ से पहले या बाद में किया गया कोई भी विवाह शून्यकरणीय होगा तथा निम्नलिखित में से किसी भी आधार पर शून्यता की डिक्री द्वारा अपास्त किया जा सकता है, अर्थात्-
      • प्रतिवादियों के नपुंसकत्व के कारण विवाह सम्पन्न नहीं हुआ है।
      • यह विवाह धारा 5 के खंड (ii) में निर्दिष्ट शर्त का उल्लंघन है।
      • कि याचिकाकर्त्ता की सहमति, या जहाँ याचिकाकर्त्ता के विवाह में संरक्षक की सहमति धारा 5 के अधीन अपेक्षित थी, जैसा कि बाल विवाह अवरोध (संशोधन) अधिनियम, 1978 (1978 का 2) के प्रारंभ से ठीक पहले थी], ऐसे संरक्षक की सहमति समारोह की प्रकृति के विषय में या प्रत्यर्थी से संबंधित किसी भी महत्त्वपूर्ण तथ्य या परिस्थितियों के विषय में बलपूर्वक या छल द्वारा प्राप्त की गई थी।
        प्रतिवादी विवाह के समय याचिकाकर्त्ता के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति से गर्भवती थी।
    • खंड (2) में कहा गया है कि उपधारा (1) में किसी तथ्य के होते हुए भी, विवाह को शून्य करने के लिये कोई याचिका-
      • उपधारा (1) के खंड (ग) में विनिर्दिष्ट आधार पर विचार किया जाएगा, यदि—
        • याचिका डिक्री मिल जाने या, जैसा भी मामला हो, छल का पता चल जाने के एक वर्ष से अधिक समय बाद प्रस्तुत की गई हो।
        • याचिकाकर्त्ता ने, अपनी पूर्ण सहमति से, बल के बंद हो जाने या, जैसा भी मामला हो, छल का पता चल जाने के बाद विवाह के दूसरे पक्ष के साथ पति या पत्नी के रूप में निवास किया हो।
      • उपधारा (1) के खंड (घ) में विनिर्दिष्ट आधार पर तब तक विचारणीय नहीं होगा जब तक कि न्यायालय संतुष्ट न हो जाए-
        • कि याचिकाकर्त्ता विवाह के समय आरोपित तथ्यों से अनभिज्ञ था।
        • कि इस अधिनियम के प्रारंभ से पूर्व सम्पन्न विवाह के मामले में कार्यवाही ऐसे प्रारंभ के एक वर्ष के अंदर तथा ऐसे प्रारंभ के पश्चात् संपन्न विवाह के मामले में विवाह की तिथि से एक वर्ष के अंदर संस्थित की गई है।
        • याचिकाकर्त्ता द्वारा उक्त आधार के अस्तित्व की खोज के बाद से याचिकाकर्त्ता की सहमति से वैवाहिक संभोग नहीं हुआ है।

पारिवारिक कानून

प्रसांत कुमार साहू बनाम चारुलता साहू 2023 INSC 319

 16-Jul-2024

परिचय:

इस मामले में, उच्चतम न्यायालय ने सभी पक्षों द्वारा हस्ताक्षर न किये जाने के कारण निपटान विलेख को अवैध घोषित कर दिया।

तथ्य:

  • इस मामले में, स्वर्गीय श्री प्रसांत कुमार साहू के तीन संतान थे, सुश्री चारुलता (बेटी), सुश्री शांतिलाल (बेटी) एवं श्री प्रफुल्ल (पुत्र)।
  • सुश्री चारुलता ने अपने पिता की पैतृक संपत्ति के बँटवारे के लिये ट्रायल कोर्ट में वाद संस्थित किया, जिसमें ट्रायल कोर्ट ने आदेश दिया।
    • श्री साहू की पैतृक संपत्ति का 1/6वाँ हिस्सा और स्व-अर्जित संपत्ति का 1/3 हिस्सा दोनों बेटियों के पक्ष में अंतःकालीन लाभ के साथ।
    • श्री साहू की पैतृक संपत्ति का 4/6वाँ हिस्सा और स्व-अर्जित संपत्ति का 1/3 हिस्सा बेटे के पक्ष में अंतःकालीन लाभ के साथ।
  • ट्रायल कोर्ट के निर्णय के अनुपालन में याचिकाकर्त्ता (पुत्र) ने उड़ीसा उच्च न्यायालय की खंडपीठ के समक्ष एक अपील दायर की जिसमें कहा गया कि श्री प्रशांत कुमार साहू की सभी संपत्तियाँ केवल पैतृक संपत्ति थीं।
  • अपील के लंबित रहने के दौरान वादी एवं सुश्री शांतिलाल ने एक समझौता किया, जिसमें सुश्री शांतिलाल ने संयुक्त संपत्ति में अपना पूरा हिस्सा 50,000 रुपए के बदले में वादी के पक्ष में छोड़ दिया।
  • हालाँकि प्रतिवादी (बेटी: सुश्री चारुलता) द्वारा समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किये गए थे।
  • प्रतिवादी ने समझौता विलेख की वैधता पर प्रश्न करते हुए उच्च न्यायालय के समक्ष समानांतर अपील दायर की।
  • वादी ने समझौता याचिका दायर की तथा उच्च न्यायालय ने समझौता विलेख को वैध ठहराया।
  • वादी द्वारा उड़ीसा उच्च न्यायालय की खंडपीठ के समक्ष एक लेटर्स पेटेंट अपील इसी मुद्दे के साथ दायर की गई थी कि श्री साहू की सभी संपत्तियाँ केवल पैतृक संपत्ति थीं, जिसका पहले की अपीलों में निपटान नहीं किया गया था।
  • उच्च न्यायालय ने अपील को खारिज कर दिया तथा निपटान विलेख को अमान्य कर दिया।
  • उच्च न्यायालय के निर्णय से असंतुष्ट वादी ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपील दायर की।

शामिल मुद्दे:

  • क्या हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की प्रतिस्थापित धारा 6 उन मामलों में लागू होगी जहाँ संशोधन अधिनियम, 2005 के लागू होने से पहले ही पुरुष सहदायिक की मृत्यु हो चुकी थी?
  • क्या संयुक्त संपत्ति में सभी पक्षों को विलेख पर हस्ताक्षर करना आवश्यक है, भले ही केवल दो पक्षों के मध्य अधिकार का अंतरण या निपटान हो?

टिप्पणी:

  • उच्चतम न्यायालय ने विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा एवं अन्य (2020) के निर्णय पर ज़ोर दिया, जिसमें कहा गया था कि यदि अपील के लंबित रहने के दौरान या प्रारंभिक डिक्री या अंतिम डिक्री पारित होने के बीच प्रचलित विधि में कोई संशोधन किया जाता है तो न्यायालय द्वारा अंतिम डिक्री बनाते समय संशोधन प्रावधानों पर विचार किया जा सकता है।
  • उच्चतम न्यायालय ने सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश XXIII नियम 3 के अनुसार देखा कि कोई भी समझौता या निपटान लिखित रूप में होना चाहिये तथा सभी पक्षों द्वारा हस्ताक्षरित होना चाहिये।

निष्कर्ष:

  • उच्चतम न्यायालय ने 2005 के संशोधन के आधार पर अंतिम निर्णय में बदलाव किया।
  • उच्चतम न्यायालय ने सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश XXIII नियम 3 के अनुसार संयुक्त संपत्ति में सभी सह-स्वामियों द्वारा हस्ताक्षर न किये जाने पर विलेख को अविधिक माना।