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आपराधिक कानून
1 जुलाई 2024 के उपरांत दायर सभी अपीलों पर केरल उच्च न्यायालय के दिशा-निर्देश
19-Jul-2024
अब्दुल खादर बनाम केरल राज्य “लागू विधि का निर्णय उसके प्रथम प्रस्तुतीकरण की तिथि के संदर्भ में किया जाएगा न कि उसके प्रतिनिधित्व के आधार पर”। न्यायमूर्ति पी.जी. अजितकुमार |
स्रोत: केरल उच्च्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में केरल उच्च न्यायालय ने अब्दुल खादर बनाम केरल राज्य के मामले में माना है कि 1 जुलाई 2024 को या उसके बाद दायर याचिका पर भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता 2023 (BNSS) के प्रावधानों के अनुसार कार्यवाही की जाएगी।
अब्दुल खादर बनाम केरल राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में अपीलकर्त्ता को ट्रायल कोर्ट द्वारा दोषी ठहराया गया था।
- ट्रायल कोर्ट में कार्यवाही दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) के प्रावधानों के अनुसार की गई।
- ट्रायल कोर्ट के निर्णय से व्यथित अपीलकर्त्ता ने 10 जुलाई 2024 को CrPC की धारा 374(2) के प्रावधानों को लागू करते हुए अपील दायर की।
- प्रश्न यह था कि यह अपील CrPC या BNSS में से किस के अधीन दायर की जाए।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- केरल उच्च न्यायालय ने BNSS की धारा 531 (1) और 531 (2) (a) का अवलोकन किया।
- इन प्रावधानों से यह निष्कर्ष निकाला गया कि अपीलकर्त्ता को अपील करने का अधिकार है, परंतु अपील दायर करने के लिये अपनाई जाने वाली प्रक्रियात्मक विधि के संबंध में उसे निहित अधिकार नहीं है, जब तक कि किसी विधान में स्पष्ट रूप से इसका प्रावधान न किया गया हो।
- इस मामले में अपीलकर्त्ता को अपील करने का अधिकार था।
- न्यायालय ने माना कि 1 जुलाई 2024 को जारी कार्यवाही के लिये CrPC के प्रावधान लागू होंगे, जबकि यदि कार्यवाही 1 जुलाई 2024 से पूर्व समाप्त हो गई है तो BNSS के प्रावधान लागू होंगे।
BNSS की प्रयोज्यता पर केरल उच्च न्यायालय के दिशा-निर्देश क्या हैं? ● 01.07.2024 को या उसके उपरांत दायर की गई अपील BNSS के अधीन प्रदान की गई प्रक्रिया द्वारा शासित होगी, न कि CrPC के प्रावधानों द्वारा। ● चाहे दोषसिद्धि का निर्णय 01.07.2024 से पहले या बाद में आया हो, यदि अपील 01.07.2024 को या उसके बाद दायर की जाती है, तो उसे BNSS के प्रावधानों में निहित प्रक्रिया का पालन करते हुए दायर किया जा सकता है। ● 01.07.2024 से पहले दायर सभी आवेदन और अपीलों में उठाए गए चरण CrPC के तहत होंगे। ● जब कोई अपील/आवेदन दाखिल करने संबंधी दोषों को ठीक करने के बाद प्रस्तुत किया जाता है तो उसकी दाखिल करने की तिथि उसकी पहली प्रस्तुति की तिथि से संबंधित होनी चाहिये। |
BNSS की धारा 531 (1) और (2) (A) क्या है?
- निरसन:
- धारा 531 का खंड (1) CrPC को निरस्त करता है।
- संरक्षण खंड:
- खंड (2), निरस्त CrPC के कुछ आयामों को संरक्षित करते हुए एक बचाव प्रावधान प्रस्तुत करता है।
- लंबित मामले:
- खंड (2)(a) विशेष रूप से लंबित विधिक कार्यवाहियों को संबोधित करता है, जिसमें निम्नलिखित बिंदु शामिल हैं:
- अपीलें
- आवेदन
- विचारण
- जाँच
- विवेचना
- खंड (2)(a) विशेष रूप से लंबित विधिक कार्यवाहियों को संबोधित करता है, जिसमें निम्नलिखित बिंदु शामिल हैं:
- लंबित मामलों की निरंतरता:
- BNSS लागू होने से ठीक पहले लंबित कोई भी कार्यवाही पुराने विधान के अधीन जारी रहेगी।
- इन मामलों का निपटारा, जारी रखना, आयोजित करना या CrPC के प्रावधानों के अनुसार किया जाएगा।
- पुराने विधान का अनुप्रयोग:
- इन लंबित मामलों पर CrPC लागू होगी, जैसा कि BNSS के प्रारंभ होने से ठीक पहले लागू होता था।
- यह अनुप्रयोग इस प्रकार होता है मानो BNSS लागू ही न हुआ हो।
BNSS के अंतर्गत दोषसिद्धि के विरुद्ध अपील से संबंधित प्रावधान क्या है?
- ये प्रावधान BNSS की धारा 415 के अधीन दिये गए है जबकि CrPC में धारा 374 के अधीन दिया गया है:
- उच्चतम न्यायालय में अपील:
- उच्च न्यायालय द्वारा अपने असाधारण आपराधिक मूलक्षेत्राधिकार में दोषी ठहराए गए व्यक्ति पर लागू।
- उच्च न्यायालय में अपील:
- सत्र न्यायाधीश या अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश द्वारा दोषी ठहराए गए व्यक्तियों पर लागू।
- किसी भी न्यायालय द्वारा दोषी ठहराए गए व्यक्तियों पर लागू है जहाँ कारावास के दण्ड की अवधि सात वर्ष से अधिक है।
- सत्र न्यायालय में अपील:
- प्रथम श्रेणी या द्वितीय श्रेणी के मजिस्ट्रेट द्वारा दोषी ठहराए गए व्यक्ति अपील कर सकते हैं।
- धारा 364 के अंतर्गत दण्ड पाए व्यक्ति अपील कर सकते हैं।
- जिन व्यक्तियों के विरुद्ध किसी मजिस्ट्रेट द्वारा धारा 401 के अंतर्गत आदेश या दण्ड पारित किया गया है, वे अपील कर सकते हैं।
- अपवाद:
- उप-धारा (3), "उप-धारा (2) में अन्यथा प्रावधान के सिवाय" से प्रारंभ होती है।
- इससे यह संकेत मिलता है कि यदि मामला उपधारा (2) के अंतर्गत आता है तो सत्र न्यायालय में अपील के प्रावधान लागू नहीं होंगे।
- पदानुक्रमित अपील संरचना:
- यह धारा, दोषी ठहराने वाले न्यायालय और दण्ड की गंभीरता के आधार पर अपील के लिये एक स्पष्ट पदानुक्रम स्थापित करती है।
- अपील का अधिकार:
- यह धारा यह सुनिश्चित करती है कि दोषी व्यक्तियों को अपने मामले की परिस्थितियों के आधार पर प्राप्त दण्ड के विरुद्ध उच्चतर न्यायालय में अपील करने का अधिकार है।
- नोट:
- नए प्रावधान के अंतर्गत “मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट या सहायक सत्र न्यायाधीश” को इससे बाहर रखा गया है।
- उच्चतम न्यायालय में अपील:
निर्णयज विधियाँ:
- XXX बनाम संघ राज्यक्षेत्र चंडीगढ़ और अन्य (2024): ये दिशा-निर्देश पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय द्वारा जारी किये गए हैं:
- 1 जुलाई 2024 को या उसके बाद दायर की गई अपील BNSS द्वारा शासित होगी।
- चाहे दोषसिद्धि 1 जुलाई 2024 को या उससे पहले दी गई हो या अपील 1 जुलाई 2024 को या उसके बाद दायर की गई हो, BNSS का पालन किया जाना चाहिये।
- 1 जुलाई 2024 से पहले दायर सभी आवेदन और अपील में उठाए गए कदम CrPC द्वारा शासित होंगे।
- जब कोई अपील/आवेदन के दोषों को दूर करने के बाद पुनः प्रस्तुत किया जाता है, तो उसके दाखिल करने की तिथि, उसके प्रथम प्रस्तुतीकरण की तिथि मानी जाएगी।
- CrPC के तहत 1 जुलाई 2024 को या उसके उपरांत दायर कोई भी अपील/संशोधन/आवेदन/संशोधन गैर-अनुरक्षणीय होगा और उसे खारिज/अस्वीकार कर दिया जाएगा।
- अनूप के.ए. @ अनूप @ अनु बनाम भारत संघ (2021): इस मामले में न्यायालय ने माना कि प्रक्रियागत संशोधन पूर्वव्यापी रूप से लागू होते हैं, जब तक कि अन्यथा स्पष्ट रूप से प्रावधान न किया गया हो।
सिविल कानून
काम नहीं तो वेतन नहीं
19-Jul-2024
दिनेश प्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य “आरोपों से मुक्त एवं बहाल किया गया कर्मचारी पूर्ण वेतन पाने का अधिकारी है।” न्यायमूर्ति सलिल कुमार राय |
स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति सलिल कुमार राय की पीठ ने कहा कि जिस कर्मचारी को आरोपों से पूर्ण रूपेण मुक्त कर दिया गया है तथा बहाल कर दिया गया है, वह उस अवधि के लिये पूर्ण वेतन पाने का अधिकारी है, जब वह सेवा से निलंबित था।
- इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने दिनेश प्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में यह निर्णय दिया।
दिनेश प्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?
- याचिकाकर्त्ता उत्तर प्रदेश पुलिस में कर्मचारी है।
- उत्तर प्रदेश पुलिस अधीनस्थ अधिकारी (दण्ड एवं अपील) नियमावली 1991 के नियम 14 के अधीन याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही प्रारंभ की गई।
- उसके विरुद्ध आरोप-पत्र निर्गत किया गया कि उसने 2 दिन की अनाधिकृत छुट्टी ली थी।
- जाँच में याचिकाकर्त्ता को उसके विरुद्ध लगाए गए सभी आरोपों में दोषी पाया गया तथा बाद में उसे सेवा से अपदस्थ कर दिया गया।
- याचिकाकर्त्ता ने अपदस्थ करने के आदेश के विरुद्ध अपील दायर की। अपीलीय प्राधिकारी ने याचिकाकर्त्ता को उसके विरुद्ध लगाए गए आरोपों से मुक्त कर दिया तथा परिणामस्वरूप उसे सेवा में बहाल कर दिया गया।
- वित्तीय पुस्तिका खंड II भाग II से भाग IV के नियम 73 के अधीन उसे कारण बताओ नोटिस निर्गत किया गया कि जब वह सेवा से निलंबित था, उस अवधि के लिये उसकी सेवाओं को ‘काम नहीं तो वेतन नहीं' के सिद्धांत पर वेतन का भुगतान किये बिना नियमित क्यों न किया जाए।
- उपरोक्त को उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई।
न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?
- उच्च न्यायालय ने कहा कि जिस कर्मचारी को उसके विरुद्ध आरोपों से पूरी तरह मुक्त कर दिया गया है तथा बाद में उसे बहाल कर दिया गया है, वह वित्तीय पुस्तिका खंड-II के नियम 54 के आधार पर उस अवधि के लिये पूर्ण वेतन पाने का अधिकारी है, जब वह सेवा से निलंबित था।
- यह माना गया कि एकमात्र स्थिति जिसमें ऐसे कर्मचारी को वेतन देने से मना किया जा सकता है, वह यह है कि जिस अवधि में वह सेवा से निलंबित था, उस दौरान वह किसी रोज़गार में था और वह उस राशि से अधिक या उसके समतुल्य अर्जित कर रहा था जिसका वह अधिकारी है।
- न्यायालय ने कहा कि वित्तीय पुस्तिका खंड II के नियम 54 (2) एवं 54 (3) के आधार पर याचिकाकर्त्ता निर्दिष्ट अवधि के लिये पूर्ण वेतन एवं भत्ते का अधिकारी है।
- यह स्पष्ट है कि अपदस्थ करने या निलंबन के आदेश को अपास्त करने के बाद बहाल होने पर किसी सरकारी कर्मचारी को सेवा से निलंबित रहने की अवधि के लिये संपूर्ण वेतन एवं भत्ते देने से मना नहीं किया जा सकता।
वित्तीय पुस्तिका खंड II में सिद्धांत से संबंधित प्रावधान क्या हैं?
- वॉल्यूम II?
- उत्तर प्रदेश सरकार के प्राधिकरण द्वारा जारी वित्तीय पुस्तिका के नियम 73 में यह प्रावधान है कि:
- कोई सरकारी कर्मचारी जो अपने अवकाश की समाप्ति के उपरांत भी अनुपस्थित रहता है, उसे ऐसी अनुपस्थिति की अवधि के लिये कोई अवकाश-वेतन नहीं मिलेगा तथा वह अवधि उसके अवकाश खाते से इस प्रकार डेबिट की जाएगी मानो वह आधे औसत वेतन पर छुट्टी हो, जब तक कि सरकार द्वारा उसकी छुट्टी बढ़ाई न जाए।
- छुट्टी की समाप्ति के बाद ड्यूटी से जानबूझकर अनुपस्थित रहना नियम 15 के प्रयोजन के लिये कदाचार माना जाएगा।
- नियम 54 में यह प्रावधान है कि सरकारी कर्मचारी पूर्ण वेतन एवं भत्ते पाने का अधिकारी है, जो उसे तब मिलता यदि,
- वह सरकारी कर्मचारी जिसे सेवा से अपदस्थ करना या निलंबन के आदेश के अपील या समीक्षा में खारिज कर दिये जाने के बाद सेवा में बहाल कर दिया गया है, और
- उसे आरोपों से पूरी तरह दोषमुक्त कर दिया गया है
सेवा नियम का सिद्धांत “काम नहीं तो वेतन नहीं” क्या है?
- काम नहीं तो वेतन नहीं का सिद्धांत यह दर्शाता है कि अगर कर्मचारी ने काम नहीं किया है, तो उसे भुगतान नहीं किया जाएगा।
- यह सिद्धांत औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 (IDA) एवं मज़दूरी भुगतान अधिनियम, 1936 (PWA) जैसे कई भारतीय विधियों में अपनी उत्पत्ति पाता है।
- राजेंद्र शर्मा बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (2021) के मामले में, छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने माना कि यह सिद्धांत "रोज़गार के संविदा विधि में मौलिक अवधारणा" पर आधारित है।
- ‘काम नहीं तो वेतन नहीं’ के सिद्धांत ने कर्मचारियों की अनाधिकृत अनुपस्थिति, अवज्ञा एवं काम न करने को हतोत्साहित करने तथा व्यावसायिक परिचालन में व्यवधान को कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
- यह न्यायिक उदाहरणों के माध्यम से विकसित हुआ है तथा सेवा नियमों में भी इसका स्थान है।
'काम नहीं तो वेतन नहीं' सिद्धांत पर महत्त्वपूर्ण मामले क्या हैं?
- जे.एन. श्रीवास्तव बनाम भारत संघ (2012):
- "काम नहीं तो वेतन नहीं" का सिद्धांत उस स्थिति में लागू नहीं होता जब कर्मचारी काम करने के लिये तैयार एवं इच्छुक हो, लेकिन नियोक्ता उसे अपने कर्त्तव्य (यानी काम) करने से रोकता है।
- उक्त सिद्धांत उस मामले में लागू नहीं किया जा सकता जिसमें किसी कर्मचारी को नियोक्ता के कदाचार या चूक के कारण ड्यूटी से दूर रखा जाता है या अयोग्य घोषित कर दिया जाता है।
- हिमाचल प्रदेश राज्य बनाम सीता देवी (2020):
- हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने माना कि किसी भी महिला को मातृत्व लाभ से वंचित करना, चाहे उसकी नौकरी की स्थिति कुछ भी हो, संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन होगा।
- इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि मातृत्व लाभ मौलिक अधिकार का एक हिस्सा है।
- मुख्य क्षेत्रीय प्रबंधक, यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम सिराज उद्दीन खान (2019):
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने इस स्थापित सिद्धांत को दोहराया कि किसी को भी उस अवधि के लिये वेतन का दावा करने का निर्देश नहीं दिया जा सकता, जब वह बिना छुट्टी या बिना किसी औचित्य के अनुपस्थित रहा हो।
- राष्ट्रीय श्रमिक अघाड़ी बनाम महाराष्ट्र राज्य (2020):
- बॉम्बे उच्च न्यायालय की औरंगाबाद पीठ ने कहा कि कोविड-19 महामारी के समय में नियोक्ताओं द्वारा “काम नहीं तो वेतन नहीं” का सिद्धांत लागू नहीं किया जा सकता।
- शोभा राम रतूड़ी बनाम हरियाणा विद्युत प्रसारण निगम लिमिटेड (2016):
- ‘काम नहीं तो वेतन नहीं’ का सिद्धांत ज़्यादातर उन मामलों में लागू हो सकता है, जहाँ कर्मचारी स्वेच्छा से एवं अनाधिकृत रूप से कार्य से अनुपस्थित रहते हैं।
- सांविधिक छुट्टियों या नियोक्ता द्वारा स्वीकृत सवेतन अवकाश के कारण अनुपस्थिति भी इस सिद्धांत का एक सामान्य अपवाद है।
सिविल कानून
आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 151 की स्वीकृति
19-Jul-2024
उमंग महेंद्र शाह बनाम भारत संघ एवं अन्य “आयकर अधिनियम की धारा 151 के अधीन उचित स्वीकृति के अभाव में निर्गत किया गया धारा 148 A (d) आदेश प्रारंभ से ही अमान्य एवं विधिक रूप से निष्क्रिय है”। न्यायमूर्ति जी.एस. कुलकर्णी एवं न्यायमूर्ति सोमशेखर सुंदरेशन |
स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में उमंग महेंद्र शाह बनाम भारत संघ एवं अन्य के मामले में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने एक महत्त्वपूर्ण विधिक मुद्दे पर प्रकाश डाला, जहाँ आयकर अधिनियम की धारा 148A(d) के अधीन एक आदेश, धारा 151(2) के अधीन उचित स्वीकृति के अभाव में, धारा 148 के अधीन आदेश और उसके बाद प्रेषित नोटिस, दोनों को अवैध बना देता है। यह निर्णय वर्ष 2016-17 के लिये कर पुनर्मूल्यांकन मामलों में प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं के महत्त्वपूर्ण पालन को रेखांकित करता है।
उमंग महेंद्र शाह बनाम भारत संघ एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- याचिकाकर्त्ता ने कर निर्धारण वर्ष 2016-17 में आयकर अधिनियम की धारा 148 के अधीन निर्गत नोटिस (अधिसूचना) को चुनौती दी।
- यह नोटिस धारा 148A(b) के अधीन पूर्व नोटिस एवं धारा 148A(d) के अधीन आदेश पर आधारित था, जिसे भी चुनौती दी गई थी।
- 148A(d) आदेश के लिये अनुमोदन प्रधान आयकर आयुक्त द्वारा धारा 151(i) के अधीन दिया गया था।
- हालाँकि संबंधित कर निर्धारण वर्ष की समाप्ति के बाद 3 वर्ष से अधिक समय बीत चुका था, इसलिये उच्च अधिकारियों से धारा 151 (ii) के अधीन अनुमोदन प्राप्त किया जाना चाहिये था।
- याचिकाकर्त्ता ने सीमेंस फाइनेंशियल सर्विसेज़ मामले में बॉम्बे उच्च न्यायालय के पूर्व निर्णय का उदाहरण देते हुए तर्क दिया कि इससे स्वीकृति एवं उसके बाद के नोटिस अवैध हो गए।
- न्यायालय ने सहमति व्यक्त की कि जिन मामलों में 3 वर्ष से अधिक समय बीत चुका है, उनके लिये अनुमोदन धारा 151 (ii) के अधीन होना चाहिये , न कि 151 (i) के अधीन।
न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?
- न्यायालय ने कहा कि धारा 148A(d) के अधीन आदेश पारित करने के लिये धारा 151 के खंड (ii) के अधीन स्वीकृति प्राप्त करना आवश्यक था।
- यह आवश्यकता तब लागू होती है जब प्रासंगिक कर निर्धारण वर्ष की समाप्ति के बाद तीन वर्ष से अधिक समय बीत चुका हो।
- इस मामले में, प्रासंगिक मूल्यांकन वर्ष 2016-17 था, इसलिये वास्तव में तीन वर्ष से अधिक समय बीत चुका था।
- हालाँकि स्वीकृति दोषपूर्ण तरीके से धारा 151 के खंड (ii) के बजाय खंड (i) के अधीन प्राप्त की गई थी।
- न्यायालय ने सीमेंस फाइनेंशियल सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड बनाम आयकर उपायुक्त मामले में पिछले खंड पीठ के निर्णय का हवाला दिया।
- सीमेंस मामले के आधार पर, न्यायालय ने माना कि यदि धारा 148A(d) के अधीन कोई आदेश धारा 151 के अधीन उचित स्वीकृति के बिना पारित किया जाता है, तो उसे अवैध घोषित किया जाना चाहिये।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि धारा 148A(d) के अधीन आरोपित आदेश एवं धारा 148 के अधीन परिणामी नोटिस दोनों ही अवैध थे।
- न्यायालय ने उठाए गए अन्य मुद्दों पर विचार किये बिना, इस सीमित आधार पर याचिका को अनुमति देने का निर्णय किया।
आयकर अधिनियम की धारा 148 क्या है?
आयकर अधिनियम की धारा 148 उस स्थिति में नोटिस जारी करने से संबंधित है, जब आयकर अध्यारोपण से बच गई हो। इस धारा के मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं:
- नोटिस की आवश्यकता:
- धारा 147 के अधीन मूल्यांकन, पुनर्मूल्यांकन या पुनर्गणना करने से पहले, मूल्यांकन अधिकारी द्वारा करदाता को नोटिस देना होता है।
- नोटिस में करदाता को निर्दिष्ट अवधि के अंदर प्रासंगिक कर निर्धारण वर्ष के लिये आय का विवरण प्रस्तुत करने की आवश्यकता होती है।
- रिटर्न हेतु निर्देश:
- रिटर्न निर्धारित प्रपत्र में होना चाहिये तथा निर्धारित तरीके से सत्यापित होना चाहिये।
- इसमें अधिनियम द्वारा निर्धारित अन्य विवरण भी शामिल होने चाहिये।
- अधिनियम का अनुप्रयोग:
- आयकर अधिनियम के प्रावधान इस रिटर्न पर उसी प्रकार लागू होंगे जैसे कि यह धारा 139 के अधीन अपेक्षित रिटर्न हो।
- नोटिस की वैधता:
- विशिष्ट परिस्थितियों में दिये गए कुछ नोटिस वैध माने जाते हैं, भले ही वे सामान्य 12 महीने की अवधि की समाप्ति के बाद दिये गए हों।
- यह इस धारा के अधीन नोटिस के प्रत्युत्तर में 1 अक्टूबर, 1991 एवं 30 सितंबर, 2005 के मध्य प्रस्तुत रिटर्न पर लागू होता है।
- समय-सीमा:
- नोटिस की वैधता का आकलन, पुनर्मूल्यांकन या पुनर्गणना करने के लिये धारा 153 की उपधारा (2) में निर्दिष्ट समय-सीमा के अधीन है।
- धारा 148A:
- वर्ष 2021 के बजट में प्रस्तुत किया गया यह खंड भारत में कराधान में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन लाता है।
- यह आयकर अधिकारियों को यह अधिकार देता है कि वे आय को छुपाए जाने का संदेह होने पर पुनर्मूल्यांकन कार्यवाही प्रारंभ कर सकते हैं।
- धारा 148A(d) विशेष रूप से ऐसी सूचना के अस्तित्व तक सीमित है जो यह सुझाव देती है कि कर योग्य आय मूल्यांकन से बच गई है।
आयकर अधिनियम की धारा 151 क्या है?
- आयकर अधिनियम की धारा 151: नोटिस जारी करने की स्वीकृति का प्रावधान।
- नोटिस जारी करने की समय-सीमा:
- धारा 148 के अधीन कोई भी नोटिस प्रासंगिक कर निर्धारण वर्ष की समाप्ति से चार वर्ष उपरांत जारी नहीं किया जा सकता।
- अपवाद: जब उच्च अधिकारी कर निर्धारण अधिकारी द्वारा दर्ज किये गए कारणों से संतुष्ट हों।
- प्राधिकरण आवश्यकताएँ:
- चार वर्ष की सीमा से परे के मामलों के लिये:
- प्रधान मुख्य आयुक्त, मुख्य आयुक्त, प्रधान आयुक्त या आयुक्त से अनुमोदन आवश्यक है।
- अन्य मामलों के लिये:
- संयुक्त आयुक्त से अधीनस्थ स्तर के मूल्यांकन अधिकारियों को संयुक्त आयुक्त से अनुमोदन की आवश्यकता होती है।
- चार वर्ष की सीमा से परे के मामलों के लिये:
- उच्च अधिकारियों की संतुष्टि:
- उल्लिखित उच्च अधिकारियों को कर निर्धारण अधिकारी द्वारा दर्ज किये गए कारणों से संतुष्ट होना चाहिये।
- उन्हें धारा 148 के अधीन नोटिस जारी करने के लिये इसे उचित मामला समझना चाहिये।
- नोटिस जारी करने का प्रतिनिधिमंडल:
- मूल्यांकन अधिकारी के कारणों से संतुष्ट होने के बाद उच्च अधिकारियों को स्वयं नोटिस जारी करने की आवश्यकता नहीं होती।
- मूल्यांकन अधिकारी आवश्यक स्वीकृति प्राप्त करने के बाद नोटिस जारी कर सकता है।
- अनुभाग का उद्देश्य:
- यह धारा मूल्यांकन अधिकारी की शक्तियों पर अंकुश लगाती है।
- यह सुनिश्चित करती है कि पुनर्मूल्यांकन के लिये नोटिस केवल योग्य मामलों में ही जारी किये जाएँ, विशेषकर पुराने मूल्यांकन वर्षों के लिये।