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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

प्रकटीकरण निवेदन

 12-Aug-2024

अल्लारक्खा हबीब मेमन बनाम गुजरात राज्य

“भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 27 के अधीन परिस्थिति अस्वीकार्य है क्योंकि अपराध स्थल पुलिस को पहले से ही ज्ञात था।”

न्यायमूर्ति बी.आर. गवई, न्यायमूर्ति संदीप मेहता

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति बी.आर. गवई एवं न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने कहा कि घटनास्थल की पहचान संबंधी परिस्थिति अस्वीकार्य है, क्योंकि अपराध स्थल पुलिस को पहले से ही ज्ञात था।

  • उच्चतम न्यायालय ने अल्लारखा हबीब मेमन बनाम गुजरात राज्य मामले में यह निर्णय दिया।

अल्लारखा हबीब मेमन बनाम गुजरात राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • आरोपी जिस क्षेत्र में रहता था, वहाँ पानी की आपूर्ति को लेकर कुछ विवाद था।
  • इसी विवाद को लेकर आरोपी एवं पीड़ित के मध्य विवाद हो गया।
  • आरोपियों ने षड्यंत्र रचा तथा इसके अंतर्गत पीड़ित पर धारदार हथियार से हमला कर दिया, जिससे उसके सिर एवं सीने पर चोटें आईं।
  • उपरोक्त के आधार पर प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) प्रथम सूचक द्वारा दर्ज की गई थी।
  • ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 302 के साथ धारा 120A के अंतर्गत दोषी ठहराया।
  • गुजरात उच्च न्यायालय की खंडपीठ के आदेश के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की गई।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • न्यायालय के समक्ष मुद्दा यह था कि क्या अभियुक्तों को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 के साथ धारा 120B के अधीन उत्तरदायी ठहराया जाना चाहिये।
  • न्यायालय ने सबसे पहले साक्षियों द्वारा दिये गए कई बयानों के बीच विसंगतियों की ओर इशारा किया।
  • इसके अतिरिक्त अभियोजन पक्ष ने चिकित्सा अधिकारी के समक्ष अभियुक्तों द्वारा दिये गए बयानों पर बहुत अधिक विश्वास किया।
    • चिकित्सा अधिकारी के समक्ष दिये गए बयान के संबंध में न्यायालय ने माना कि आरोपी व्यक्ति को गिरफ्तार किये जाने के बाद पुलिस अधिकारी द्वारा अस्पताल में प्रस्तुत किया गया था, इसलिये यह बयान भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 26 के अंतर्गत आएगा।
  • इसके अतिरिक्त अभियोजन पक्ष ने IEA की धारा 27 के अधीन किये गए प्रकटन पर भी विश्वास किया। इसे भी न्यायालय ने स्वीकार नहीं किया।
    • न्यायालय ने माना कि घटनास्थल आरोपी को पहले से ही ज्ञात था, इसलिये प्रकटन अप्रासंगिक है।
  • परिणामस्वरूप, इस मामले में न्यायालय ने आरोपियों को संदेह का लाभ देते हुए दोषमुक्त कर दिया।

प्रकटीकरण विवरण क्या है?

  • परिचय:
    • प्रकटीकरण विवरण IEA की धारा 27 के अधीन प्रदान किया गया है।
    • यह खंड बाद की घटनाओं द्वारा पुष्टि के सिद्धांत पर आधारित है।
      - दी गई सूचना के परिणामस्वरूप वास्तव में एक तथ्य की खोज की जाती है, जिसके परिणामस्वरूप एक भौतिक वस्तु की वसूली होती है।
  • IEA की धारा 27:
    • यह अन्य प्रावधानों के लिये प्रावधान के रूप में है।
    • तथ्य का पता किसी अपराध के आरोपी व्यक्ति से प्राप्त सूचना के परिणामस्वरूप लगाया जाना चाहिये।
    • आरोपी पुलिस की अभिरक्षा में होना चाहिये।
    • उतनी सूचना सिद्ध की जा सकती है जितनी कि पता लगाए गए तथ्य से स्पष्ट रूप से संबंधित हो।
    • यह इस बात पर ध्यान दिये बिना है कि बयान संस्वीकृति के तुल्य है या नहीं। o पुलुकुरी कोट्टाया बनाम सम्राट (1947) के मामले में, सर जॉन ब्यूमोंट ने माना कि धारा 27 IEA की केवल धारा 26 के लिये प्रावधान है।
    • हालाँकि हाल के दिनों में जफरुद्दीन बनाम केरल राज्य (2022) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना है कि धारा 27 पूर्ववर्ती धाराओं, विशेष रूप से धारा 25 एवं धारा 26 के लिये एक अपवाद है।
  • IEA की धारा 27 को लागू करने के लिये आवश्यक अनिवार्यताएँ:
    • यह कथन प्रीउमल राजा उर्फ पेरुमल बनाम पुलिस निरीक्षक द्वारा प्रतिनिधित्व किया गया राज्य (2023) के मामले में निर्धारित की गई थी, जहाँ न्यायालय ने निम्नलिखित बात कही थी:
      • सबसे पहले, तथ्य की खोज होनी चाहिये। तथ्य आरोपी व्यक्ति से प्राप्त सूचना के परिणामस्वरूप प्रासंगिक होने चाहिये।
      • दूसरे, ऐसे तथ्य की खोज के लिये गवाही होनी चाहिये। इससे तात्पर्य यह है कि तथ्य पहले से पुलिस को पता नहीं होना चाहिये।
      • तीसरा, सूचना प्राप्ति के समय अभियुक्त पुलिस की अभिरक्षा में होना चाहिये।
      • अंत में, केवल उतनी ही सूचना स्वीकार्य होगी जो खोजे गए तथ्य से स्पष्ट रूप से संबंधित हो।
    • इस खोजे गए तथ्य में निम्नलिखित शामिल होंगे:
      • वह “स्थान” जहाँ से वस्तु का उत्पादन किया गया; और
      • इस विषय में अभियुक्त का ज्ञान।
  • प्रकटीकरण विवरण देते समय साक्षियों की अनिवार्य उपस्थिति:
    • हिमाचल प्रदेश राज्य बनाम जीत सिंह (1999) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि यह आवश्यक नहीं है कि बयान दिये जाने के समय साक्षी उपस्थित हों।
    • मोहम्मद आरिफ बनाम राज्य (NCT दिल्ली) (2011) के मामले में भी यही कथन दोहराया गया।
  • प्रकटीकरण विवरण का कौन-सा भाग स्वीकार्य है?
    • इस पहलू को प्रिवी काउंसिल द्वारा पुलुकुरी कोट्टाया बनाम एम्परर (1947) मामले में स्पष्ट किया गया था।
    • न्यायालय ने माना कि यदि कथन यह है कि “मैं अपने घर की छत में छुपाया हुआ चाकू प्रस्तुत करूँगा जिससे मैंने A को चाकू मारा”।
    • यहाँ, न्यायालय ने माना कि “मैं अपने घर की छत में छुपाया हुआ चाकू प्रस्तुत करूँगा” शब्द धारा 27 के अंतर्गत आएंगे। हालाँकि “जिससे मैंने A को चाकू मारा” शब्द स्वीकार्य नहीं हैं क्योंकि वे जाँच से संबंधित नहीं हैं।
    • इसलिये, सूचना “स्पष्ट रूप से खोजे गए तथ्य से संबंधित होनी चाहिये”।
  • धारा 27 के अंतर्गत अभिरक्षा:
    • इस बिंदु पर हाल ही में पेरुमल राजा उर्फ पेरुमल बनाम राज्य प्रतिनिधि पुलिस निरीक्षक द्वारा (2023) मामले में चर्चा की गई थी।
    • इस मामले में न्यायालय ने माना कि धारा 27 के अधीन "अभिरक्षा" शब्द का अर्थ औपचारिक अभिरक्षा नहीं है। इसमें पुलिस द्वारा किसी भी तरह का संयम, प्रतिबंध या निगरानी भी शामिल है।
    • यदि सूचना देने के समय अभियुक्त को औपचारिक रूप से गिरफ्तार नहीं किया गया था, तो भी सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिये अभियुक्त को पुलिस की अभिरक्षा में माना जाना चाहिये।
    • इसके अतिरिक्त, उत्तर प्रदेश राज्य बनाम देवमन उपाध्याय (1961) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने माना है कि प्रतिबंध प्रभावी होने के लिये अभियुक्त को उस समय किसी अपराध का आरोपी होना आवश्यक नहीं है जब उसने संस्वीकृति की थी।
  • यदि पुलिस को पहले से ही पता हो कि वस्तुएँ कहाँ छिपाई गई हैं तो क्या डिस्कवरी स्टेटमेंट को अमान्य कर दिया जाएगा?
    • जाफर हुसैन दस्तगीर बनाम महाराष्ट्र राज्य (1934) के मामले में, उच्चतम न्यायालय की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने माना था कि यदि पुलिस को अभियुक्त के अतिरिक्त किसी अन्य माध्यम से छिपने के स्थान के विषय में सूचना थी, तो तथ्य का कोई पता नहीं चलता।
  • क्या प्रकटीकरण विवरण को दोषसिद्धि का एकमात्र आधार बनाया जा सकता है?
    • मनोज कुमार सोनी बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (2023) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि प्रकटीकरण विवरण दोषसिद्धि के लिये एक महत्त्वपूर्ण योगदान कारक है लेकिन यह दोषसिद्धि का एकमात्र आधार नहीं हो सकता है।
  • IEA की धारा 27 एवं भारतीय साक्षात् अधिनियम, 2023 (BSA) की धारा 23 के मध्य तुलना?

IEA की धारा 27

BSA की धारा 23

अभियुक्त से प्राप्त सूचना में से कितनी मात्रा में सिद्ध की जा सकेगी। परंतु जब किसी तथ्य के बारे में यह अभिसाक्ष्य दिया जाता है कि वह किसी अपराध के अभियुक्त व्यक्ति से, जो पुलिस अधिकारी की अभिरक्षा में है, प्राप्त जानकारी के परिणामस्वरूप खोजा गया है, तब ऐसी जानकारी में से उतनी जानकारी, चाहे वह संस्वीकृति हो या न हो, जो उससे खोजे गए तथ्य से सुस्पष्टतः संबंधित है, साबित की जा सकेगी।

(1) किसी पुलिस अधिकारी के समक्ष किया गया कोई भी संस्वीकृति किसी अपराध के आरोपी व्यक्ति के विरुद्ध सिद्ध नहीं किया जाएगा।

(2) किसी व्यक्ति द्वारा पुलिस अधिकारी की अभिरक्षा में रहते हुए किया गया कोई भी संस्वीकृति, जब तक कि वह मजिस्ट्रेट की तत्काल उपस्थिति में न किया गया हो, उसके विरुद्ध सिद्ध नहीं किया जाएगा।

परंतु जब किसी तथ्य के विषय में यह अभिसाक्ष्य दिया जाता है कि वह किसी अपराध के अभियुक्त व्यक्ति से, जो पुलिस अधिकारी की अभिरक्षा में है, प्राप्त सूचना के परिणामस्वरूप खोजा गया है, तब ऐसी सूचना में से उतनी जानकारी, चाहे वह संस्वीकृति हो या न हो, जो खोजे गए तथ्य से सुस्पष्टतः संबंधित है, सिद्ध की जा सकेगी।

  • यह ध्यान देने योग्य है कि भारतीय साक्षरता अधिनियम, 2023 (BSA) की धारा 23, IEA की धारा 25, धारा 26 एवं धारा 27 का समामेलन है।
  • IEA की धारा 27 को अब BSA की धारा 23 (2) के प्रावधान के रूप में देखा जा सकता है।
  •  • यह ध्यान देने योग्य है कि BSA में इस संबंध में कोई परिवर्तन नहीं किया गया है।

आपराधिक कानून

POCSO के अधीन महिला भी हो सकती है अपराधी

 12-Aug-2024

सुंदरी गौतम बनाम दिल्ली NCT राज्य

"प्रवेशक यौन हमले एवं गंभीर प्रवेशक यौन हमले की परिभाषा बलात्संग के अपराध तक सीमित नहीं है।"

न्यायमूर्ति अनूप जयराम भंभानी

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने सुंदरी गौतम बनाम दिल्ली राज्य के मामले में माना है कि लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम 2012 (पाॅक्सो) के अधीन अपराध केवल पुरुष अपराधियों तक ही सीमित नहीं हैं।

सुंदरी गौतम बनाम दिल्ली राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्तमान मामले में, कथित घटना के चार वर्ष बाद याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध पाॅक्सो अधिनियम की धारा 6 के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई थी।
  • महिलाओं के विरुद्ध पाॅक्सो अधिनियम की धारा 6 की परिधि से बाहर जाकर मामला दर्ज किया गया था।
  • ट्रायल कोर्ट ने याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध पाॅक्सो अधिनियम की धारा 6 के अधीन आरोप तय किये।
  • याचिकाकर्त्ता ने दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 (CrPC) की धारा 482 के साथ धारा 397 के अधीन एक पुनरीक्षण याचिका दायर की।
  • o याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि FIR दर्ज करने में चार वर्ष का विलंब हुआ।
  • o याचिकाकर्त्ता ने यह भी तर्क दिया कि जाँच के माध्यम से यह निष्कर्ष नहीं निकला है कि याचिकाकर्त्ता का बच्चे के विरुद्ध कोई यौन कृत्य करने का कोई आशय था।
  • o यह भी तर्क दिया गया कि POCSO अधिनियम की धारा 3 किसी महिला पर लागू नहीं होती है, POCSO अधिनियम की धारा 5 जो केवल धारा 3 के अधीन अपराध के गंभीर रूप को संदर्भित करती है, वह भी केवल पुरुष पर लागू हो सकती है, महिला पर नहीं।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि किये गए अपराध की गंभीरता के आधार पर FIR दर्ज करने में विलंब कार्यवाही को रद्द करने का आधार नहीं हो सकती।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि पाॅक्सो अधिनियम की धारा 5 के अधीन गंभीर लैंगिक उत्पीड़न की परिभाषा पाॅक्सो अधिनियम की धारा 3 के अधीन परिभाषित यौन उत्पीड़न की परिभाषा का परिणाम है।
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि पाॅक्सो अधिनियम बच्चों को यौन अपराधों से सुरक्षा प्रदान करने के लिये बनाया गया था, भले ही अपराध किसी पुरुष या महिला द्वारा किया गया हो, न्यायालय को विधि के किसी भी प्रावधान की ऐसी व्याख्या नहीं करनी चाहिये जो विधायी आशय एवं उद्देश्य से विरत हो।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि पाॅक्सो अधिनियम की धारा 3(a), 3(b), 3(c) एवं 3(d) में प्रयुक्त शब्द "वह" की व्याख्या इस प्रकार नहीं की जानी चाहिये कि उन धाराओं में शामिल अपराध केवल "पुरुष" तक ही सीमित हो जाए।
  • o इसलिये यह कहना पूरी तरह से अतार्किक होगा कि उन प्रावधानों में परिकल्पित अपराध केवल लिंग के प्रवेश को संदर्भित करता है।
  • o दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह भी माना था कि धारा 3 के अधीन प्रवेशक यौन हमले एवं और POCSO अधिनियम की धारा 5 में गंभीर प्रवेशक यौन हमले की परिभाषा बलात्संग के अपराध तक सीमित नहीं है।
  • o भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375 की प्रारंभिक पंक्ति, जो बलात्संग को परिभाषित करती है, विशेष रूप से एक “पुरुष” को संदर्भित करती है, जबकि POCSO अधिनियम की धारा 3 की प्रारंभिक पंक्ति एक “व्यक्ति” को संदर्भित करती है।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध गंभीर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया जा सकता है, भले ही वह एक महिला हो।

POCSO के अधीन प्रवेशक यौन हमला क्या है?

  • परिचय:
    • भारत में बालकों के विरुद्ध यौन अपराधों से निपटने के लिये 19 जून 2012 को POCSO अधिनियम बनाया गया था तथा 14 नवंबर 2012 को लागू किया गया था।
    • यह यौन उत्पीड़न के विभिन्न रूपों को परिभाषित करता है, कठोर दण्ड निर्धारित करता है तथा ऐसे अपराधों की रिपोर्टिंग, जाँच एवं अभियोजन के लिये बच्चों के अनुकूल प्रक्रियाओं की रूपरेखा तैयार करता है।
    • POCSO के अधीन कवर किये गए सबसे गंभीर अपराधों में से एक बच्चों के विरुद्ध यौन उत्पीड़न है।
  • प्रवेशक यौन हमला:
    • POCSO अधिनियम की धारा 3 में प्रवेशक यौन हमले को परिभाषित किया गया है।
    • इसमें बच्चे की योनि, मूत्रमार्ग, गुदा या मुँह में कोई वस्तु या शरीर का अंग डालना या बच्चे के उन्हीं अंगों पर मुँह लगाना शामिल है।
    • इसमें बच्चे से अपराधी या किसी अन्य व्यक्ति पर ऐसे कृत्य करवाना भी शामिल है। किसी भी तरह का प्रवेशक यौन हमला, चाहे वह कितना भी सामान्य क्यों न हो, माना जाता है।
  • गंभीर प्रवेशक यौन हमला:
    • धारा 5 में कुछ ऐसी स्थितियों की सूची दी गई है जो प्रवेशात्मक यौन हमले को एक "गंभीर" अपराध बनाती हैं जिसके लिये और भी अधिक सज़ा का प्रावधान है:
      • पुलिस अधिकारी, सशस्त्र बलों के सदस्य, लोक सेवक, बाल गृह/अस्पताल के कर्मचारी द्वारा हमला।
      • 12 वर्ष से कम आयु के बच्चे पर हमला।
      • शारीरिक/मानसिक अक्षमता, गर्भावस्था, यौन संचारित रोग के परिणामस्वरूप हमला।
      • एक ही बच्चे पर बार-बार हमला।
      • बच्चे के परिवार के सदस्य/रिश्तेदार/विश्वासपात्र व्यक्ति द्वारा किया गया हमला।
      • हमले के दौरान घातक हथियारों का प्रयोग, जलाना, एसिड अटैक आदि।
  • POCSO के अंतर्गत दण्ड का प्रावधान:
    • प्रवेशक यौन हमले के लिये, POCSO अधिनियम की धारा 4 में कम-से-कम 10 वर्ष के कठोर कारावास का प्रावधान है, जिसे अर्थदण्ड के साथ आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है।
    • गंभीर प्रवेशक यौन हमले के मामले में, धारा 6 में न्यूनतम सज़ा को बढ़ाकर 20 वर्ष का कठोर कारावास निर्धारित किया गया है, जिसे आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है।

पाॅक्सो अधिनियम के विधिक प्रावधान:

धारा 3: प्रवेशक यौन हमला:

  • किसी व्यक्ति को “प्रवेशक यौन हमला” करने वाला कहा जाता है यदि—
  • वह किसी भी सीमा तक अपने लिंग को बच्चे की योनि, मुँह, मूत्रमार्ग या गुदा में प्रवेश कराता है या बच्चे को अपने साथ या किसी अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा करने के लिये विवश करता है।
  • वह किसी भी सीमा तक बच्चे की योनि, मूत्रमार्ग या गुदा में लिंग के अतिरिक्त कोई वस्तु या शरीर का कोई अंग प्रवेश कराता है या बच्चे को अपने साथ या किसी अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा करने के लिये विवश करता है।
  • वह बच्चे के शरीर के किसी भी अंग को योनि, मूत्रमार्ग, गुदा या बच्चे के शरीर के किसी भी अंग में प्रवेश करने के लिये प्रेरित करता है या बच्चे को अपने साथ या किसी और के साथ ऐसा करने के लिये कहता है।
  • वह बच्चे के लिंग, योनि, गुदा, मूत्रमार्ग पर अपना मुंह लगाता है या बच्चे को ऐसे व्यक्ति या किसी अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा करने के लिये कहता है।

धारा 5: गंभीर प्रवेशक यौन हमला

  • जो कोई भी, पुलिस अधिकारी होते हुए, किसी बालक पर प्रवेशक लैंगिक हमला करता है-
    • उस पुलिस थाने या परिसर की सीमा के अंदर, जहाँ वह नियुक्त है।
    • किसी भी थाने के परिसर में, चाहे वह उस पुलिस थाने में स्थित हो या न हो, जहाँ वह नियुक्त है।
    • अपने कर्त्तव्यों के दौरान या अन्यथा।
    • जहाँ वह पुलिस अधिकारी के रूप में जाना जाता है या पहचाना जाता है।
  • जो कोई सशस्त्र बलों या सुरक्षा बलों का सदस्य होते हुए किसी बालक पर प्रवेशक लैंगिक हमला करता है—
    • उस क्षेत्र की सीमाओं के अंदर जहाँ व्यक्ति कार्यरत है।
    • सेना या सशस्त्र बलों की कमान के अधीन किसी भी क्षेत्र में।
    • अपने कर्त्तव्यों के दौरान या अन्यथा।
    • जहाँ उक्त व्यक्ति को सुरक्षा या सशस्त्र बलों के सदस्य के रूप में जाना जाता है या पहचाना जाता है।
    • जो कोई लोक सेवक होते हुए किसी बालक पर प्रवेशक लैंगिक हमला करता है।
    • जो कोई किसी जेल, रिमांड होम, संरक्षण गृह, अवलोकन गृह या किसी अन्य विधि के अधीन स्थापित अभिरक्षा या देखभाल एवं संरक्षण के स्थान के प्रबंधन या कर्मचारियों में होते हुए, ऐसे जेल, रिमांड होम, संरक्षण गृह, अवलोकन गृह या अभिरक्षा या देखभाल एवं संरक्षण के अन्य स्थान के कैदी किसी बालक पर प्रवेशन लैंगिक हमला करता है; या
    • जो कोई किसी अस्पताल, चाहे वह सरकारी हो या निजी, का प्रबंधन या स्टाफ में होते हुए उस अस्पताल में किसी बालक पर प्रवेशन लैंगिक हमला करता है।
    • जो कोई किसी शैक्षणिक संस्था या धार्मिक संस्था का प्रबंधन या स्टाफ में होते हुए उस संस्था में किसी बालक पर प्रवेशन लैंगिक हमला करता है।
    • जो कोई किसी बालक पर सामूहिक प्रवेशक लैंगिक हमला करता है।
    • स्पष्टीकरण- जब किसी बालक पर किसी समूह के एक या अधिक व्यक्तियों द्वारा उनके सामान्य आशय को अग्रसर करने के लिये लैंगिक हमला किया जाता है, तब ऐसे प्रत्येक व्यक्ति के विषय में यह समझा जाएगा कि उसने इस खंड के अर्थ में सामूहिक प्रवेशक लैंगिक हमला किया है तथा ऐसे प्रत्येक व्यक्ति उस कार्य के लिये उसी प्रकार उत्तरदायी होगा, मानो वह कार्य उसके द्वारा अकेले किया गया हो।
    • जो कोई भी घातक हथियारों, आग, गर्म पदार्थ या संक्षारक पदार्थ का उपयोग करके किसी बच्चे पर प्रवेशात्मक यौन हमला करता है।
    • जो कोई भी बच्चे के यौन अंगों को गंभीर चोट या शारीरिक नुकसान और चोट या क्षति पहुँचाते हुए प्रवेशात्मक यौन हमला करता है।
  • जो कोई किसी बालक पर प्रवेशक लैंगिक हमला करता है, जो—
    • बालक को शारीरिक रूप से अक्षम बनाता है या बालक को मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम, 1987 (1987 का 14) की धारा 2 के खंड (l) के अंतर्गत परिभाषित मानसिक रूप से बीमार बनाता है या किसी प्रकार की हानि पहुँचाता है जिससे बालक अस्थायी या स्थायी रूप से नियमित कार्य करने में असमर्थ हो जाता है।
    • बालिका के मामले में, यौन उत्पीड़न के परिणामस्वरूप बालिका गर्भवती हो जाती है।
    • बालिका को मानव इम्यूनोडेफिशिएंसी वायरस या कोई अन्य जानलेवा बीमारी या संक्रमण हो जाता है, जो उसे अस्थायी या स्थायी रूप से शारीरिक रूप से अक्षम या मानसिक रूप से बीमार बनाकर नियमित कार्य करने में असमर्थ बना सकता है।
    • बालिका की मृत्यु का कारण बनता है।

सांविधानिक विधि

राहत देने से प्रतिषेध करने का सिद्धांत

 12-Aug-2024

गोविंद कोंडिबा तानपुरे एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य

“अस्पष्टीकृत विलंब या अति विलंब के कारण जनहित याचिकाएँ अस्वीकृत की जा सकती हैं, क्योंकि ऐसे आधारों पर राहत देने से प्रतिषेध करने का सिद्धांत जनहित याचिकाओं पर भी समान रूप से लागू होता है”।

मुख्य न्यायाधीश देवेंद्र कुमार उपाध्याय और न्यायमूर्ति अमित बोरकर 

स्रोत : बॉम्बे उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

बॉम्बे उच्च न्यायालय ने हाल ही में इस तथ्य पर प्रकाश डाला कि विलंब एवं असावधानी जनहित याचिका (PIL) की स्वीकार्यता को प्रभावित कर सकती है। एक मामले में जहाँ याचिकाकर्त्ताओं ने भूमि आवंटन को रद्द करने और कथित अनियमितताओं की जाँच की मांग की थी, न्यायालय ने ज़ोर देकर कहा कि जनहित याचिका दायर करने में विलंब के विषय में स्पष्टीकरण दिये बिना, वह भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 226 के अंतर्गत अपनी विवेकाधीन शक्ति का प्रयोग करने से प्रतिषेध कर सकता है। यह समय पर दाखिल करने और जनहित याचिका मामलों में न्यायालय के विवेक के महत्त्व पर ज़ोर देता है।

  • मुख्य न्यायाधीश देवेंद्र कुमार उपाध्याय और न्यायमूर्ति अमित बोरकर की खंडपीठ ने गोविंद कोंडिबा तानपुरे एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य मामले में निर्णय दिया।

गोविंद कोंडिबा तानपुरे एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • यह मामला पुणे ज़िले के भोर तालुका के धनगावडी गाँव में गाटा संख्या 237 की 14 हेक्टेयर और 35 एयर ज़मीन से संबंधित है।
  • वर्ष 1993-1994 में इस भूमि के कुछ भागों को मुस्लिम कब्रिस्तान के लिये आरक्षित कर दिया गया और इसे टेलीफोन विभाग के डिवीज़नल इंजीनियर को आवंटित कर दिया गया।
  • दिसंबर 1994 में ज़िला कलेक्टर ने ग्राम विस्तार योजना के अंतर्गत अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिये 2 हेक्टेयर 92 एयर भूमि आरक्षित करने की योजना को स्वीकृति दी। वर्ष 1995 में 110 भूखंडों का सीमांकन किया गया, परंतु उन्हें सौंपा नहीं गया।
  • मई 1994 में प्रतिवादी संख्या 4 (अनंतराव एन. थोपटे) ने शैक्षिक उद्देश्यों के लिये भूमि आवंटन के लिये आवेदन किया।
    • इसे प्रारंभ में अस्वीकार कर दिया गया था।
  • जून 1999 में, राज्य सरकार ने प्रतिवादी संख्या 5 (एक शैक्षिक ट्रस्ट) को शैक्षिक उद्देश्यों के लिये नाममात्र किराये पर 2 हेक्टेयर 90 एयर ज़मीन आवंटित की।
  • वर्ष 2008 में इंजीनियरिंग और प्रबंधन अध्ययन को शामिल करने के लिये भूमि उपयोग को संशोधित किया गया।
    • नवंबर 2008 में अतिरिक्त 5 हेक्टेयर 40 एयर भूमि आवंटित की गई। • प्रतिवादी संख्या 5 (राजगढ़ ज्ञानपीठ) ने वर्ष 2000 और 2009 में भूमि पर कब्ज़ा लेने के उपरांत उस पर शैक्षणिक भवनों का निर्माण किया।
  • याचिकाकर्त्ताओं ने सूचना के अधिकार के अंतर्गत आवेदन किया और फिर अगस्त 2013 में आवंटन को चुनौती देते हुए यह जनहित याचिका दायर की।
  • यह याचिका मार्च 2015 में पंजीकृत की गई थी और जनवरी 2018 में पहली बार न्यायालय में प्रस्तुत की गई थी।
  • याचिकाकर्त्ताओं ने आवंटन प्रक्रिया में अनियमितताओं और प्रतिवादी संख्या 5 द्वारा भूमि को गिरवी रखकर पट्टे की शर्तों का उल्लंघन करने का आरोप लगाया।
  • याचिकाकर्त्ता ने इसी के लिये वर्तमान जनहित याचिका दायर की है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • अति विलंब एवं असावधानी के आधार पर राहत देने से प्रतिषेध करने का सिद्धांत जनहित याचिका पर भी समान रूप से लागू होता है तथा अस्पष्टीकृत विलंब या असावधानी के कारण जनहित याचिका भी अस्वीकार की जा सकती है।
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 के अंतर्गत रिट क्षेत्राधिकार विवेकाधीन है तथा यदि कोई याचिकाकर्त्ता अस्पष्टीकृत विलंब के उपरांत न्यायालय में आवेदन करता है तो न्यायालय इस क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने से प्रतिषेध कर सकता है।
  • न्यायालय, याचिकाकर्त्ताओं द्वारा दिये गए किसी भी स्पष्टीकरण के अभाव में विलंब और असावधानी को क्षमा करने के लिये स्पष्टीकरण की पर्याप्तता पर विचार करने के लिये बाध्य नहीं है।
  • ऐसे मामलों में जहाँ विलंब की अवधि के दौरान की गई कार्यवाहियों के कारण हस्तक्षेप करना अनुचित और अन्यायपूर्ण होगा, न्यायालय राहत देने से प्रतिषेध कर सकता है, भले ही याचिकाकर्त्ताओं के पास गुण-दोष के आधार पर एक सुदृढ़ मामला हो।
  • न्यायालय को राहत देने या न देने में न्याय के संतुलन का मूल्यांकन करते समय विलंब की अवधि और अंतराल के दौरान किये गए कार्यों की प्रकृति पर विचार करना चाहिये।
  • जहाँ किसी पक्ष के आचरण या उपेक्षा ने दूसरे पक्ष को ऐसी स्थिति में पहुँचा दिया है जहाँ उन्हें उनकी मूल स्थिति में वापस लाना अनुचित होगा, समय की चूक और विलंब, राहत देने से प्रतिषेध करने में महत्त्वपूर्ण विचार बन जाते हैं।

राहत देने से प्रतिषेध करने का सिद्धांत क्या है?

  • न्यायसंगत न्यायालय ऐसे वादी को राहत देने से प्रतिषेध कर सकते हैं जिसने अपने अधिकारों का दावा करने में अनुचित रूप से विलंब किया है, जहाँ ऐसे विलंब से विरोधी पक्ष को नुकसान पहुँचा है।
  • यह सिद्धांत इस विधिक सूत्र पर आधारित है कि "न्यायसंगतता सतर्क लोगों की सहायता करती है, न कि उन लोगों की जो अपने अधिकारों के प्रति असावधान हैं।"
  • न्यायालय न्यायसंगत उपचार देने से प्रतिषेध कर सकता है, जहाँ राहत मांगने में वादी के विलंब के परिणामस्वरूप परिस्थितियों में ऐसा परिवर्तन हो गया हो, जिससे मांगी गई राहत अन्यायपूर्ण या असमान हो जाए।
  • राहत देने से प्रतिषेध इस धारणा पर आधारित है कि पक्षों को उनकी लापरवाही या निष्क्रियता से लाभ उठाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये।
  • यह सिद्धांत प्रतिवादियों को अनुचित पूर्वाग्रह से बचाता है जो पुराने दावों के अभियोजन से उत्पन्न हो सकता है।
  • अति विलंब के आधार पर राहत देने से प्रतिषेध करने के लिये न्यायालय का विवेकाधिकार, परिस्थितियों की समग्रता को ध्यान में रखते हुए प्रयोग किया जाता है, जिसमें विलंब की अवधि, विलंब के कारण तथा प्रतिवादी को होने वाली संभावित हानि शामिल है।
  • इस सिद्धांत का अनुप्रयोग केवल समय बीतने पर निर्भर नहीं है, बल्कि पक्षों के आचरण और अन्याय की संभावना के न्यायसंगत मूल्यांकन पर भी निर्भर है।
  • इस सिद्धांत का प्रयोग करते हुए, न्यायालयों का उद्देश्य विधिक प्रक्रिया की अखंडता को बनाए रखना और पक्षों को दूसरों के नुकसान के लिये अपने अधिकारों का दुरुपयोग करने से हतोत्साहित करना है।

अति विलंब (लैचेस) का सिद्धांत क्या है?

परिचय: 

  • अति विलंब का सिद्धांत एक विधिक सिद्धांत है जो किसी पक्ष को न्यायसंगत राहत प्राप्त करने से रोकता है यदि उन्होंने अपने अधिकारों को लागू करने में अनुचित रूप से विलंब किया है, जिससे विरोधी पक्ष के प्रति पूर्वाग्रह उत्पन्न हो रहा है।
  • यह उन स्थितियों में राहत देने से प्रतिषेध करता है जब किसी पक्ष ने अपने अधिकारों का दावा करने में अनुचित रूप से विलंब किया हो।
  • इस विलंब से विरोधी पक्ष को नुकसान पहुँचा हो।
  • न्यायालय निष्पक्षता को बढ़ावा देने तथा पुराने दावों के परिणामस्वरूप होने वाले अन्याय को रोकने के लिये इस सिद्धांत को लागू करते हैं।
  • परिसीमा विधियों के विपरीत, अति विलंब सिद्धांत एक लचीला सिद्धांत है जिसे न्यायालय अपने विवेकानुसार लागू करता है।
  • इस सिद्धांत का प्रयोग सामान्यतः न्यायसंगत उपचार मांगने वाले मामलों में किया जाता है, यद्यपि कुछ न्यायक्षेत्रों में इसका अनुप्रयोग विस्तारित हो गया है।
  • अति विलंब के सिद्धांत का अर्थ: 

अति विलंब (लैचेस) का सिद्धांत, लैटिन शब्द 'लैक्सारे' से लिया गया है, जिसका अर्थ है 'हारना', पारंपरिक रूप से किसी पक्ष द्वारा उस के विधिक दायित्वों को पूरा करने में असावधानी से हुई विफलता को दर्शाता है।

  • न्यायशास्त्र में, लैचेस को एक उचित समय-सीमा के भीतर विधिक अधिकार या विशेषाधिकार का दावा करने या उसका प्रयोग करने में विफलता के रूप में परिभाषित किया गया है।
  • यह सिद्धांत लैटिन विधिक सूत्र "विजिलेंटिबस नॉन डॉर्मिएंटिबस एक्विटास सबवेनिट" पर आधारित है, जिसका अनुवाद है "समानता सतर्क लोगों की सहायता करती है, न कि उनकी जो अपने अधिकारों के प्रति असावधान हैं।"
  • यह सिद्धांत स्थापित करता है कि न्यायसंगत न्यायालय उन पक्षों को राहत नहीं देंगे जिन्होंने अपने विधिक दावों को आगे बढ़ाने में लापरवाही प्रदर्शित की है, बल्कि उन पक्षों को लाभ देंगे जो अपने अधिकारों की रक्षा करने में तत्परता दिखाते हैं।
  • किसी वादी को अति विलंब का दोषी तब माना जा सकता है जब वह विधिक कार्यवाही आरंभ करने में अनुचित या पूर्वाग्रहपूर्ण विलंब के उपरांत अपने अधिकारों को लागू करने के लिये न्यायिक हस्तक्षेप की मांग करता है।
  • अति विलंब के सिद्धांत का अनुप्रयोग विवादों के समयबद्ध समाधान को बढ़ावा देने और पुराने दावों को आगे बढ़ाने से रोकने में सहायता करता है, जिससे विधिक प्रणाली की अखंडता बनी रहती है।

अति विलंब के सिद्धांत का उद्देश्य: 

  • इस सिद्धांत का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि वाद दायर करने में अनुचित विलंब को उचित नहीं ठहराया जा सकता। याचिकाकर्त्ता को विलंब के लिये एक उचित बयान देना होगा। फिर भी, विलंब के बाद भी, याचिकाकर्त्ता भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 32 के अंतर्गत न्यायालय की शरण ले सकता है, परंतु यह राहत देने के लिये न्यायाधीश के निर्णय को प्रतिबंधित नहीं करता है।
  • यह सिद्धांत प्रतिवादी के मामले में तब सहायता करता है जब साक्ष्य अनुपस्थित हो, या साक्षी भाग गया हो तथा सिद्ध करने का भार याचिकाकर्त्ता पर होता है।
  • इस सिद्धांत का उद्देश्य आवेदकों द्वारा फॉर्म भरने में किये जाने वाले अनुचित विलंब को रोकना है।

अति विलंब के सिद्धांत और परिसीमा की विधियों के बीच क्या अंतर हैं?

अंतर

अति विलंब का सिद्धांत

परिसीमा अधिनियम, 1963

परिसीमा

यह ऐसे व्यक्ति को सीमित करता है जो अपने अधिकारों के प्रति लापरवाह है या उनके विषय में जानता है परंतु उचित समय अवधि के भीतर कोई कार्यवाही नहीं करता है।

यह किसी व्यक्ति को उसके अधिकार क्षेत्र के आधार पर, निर्धारित समयावधि से आगे वाद दायर करने से रोकता है।

निर्वचन

संबंधित विधि का सख्ती से पालन अनिवार्य है।

यह न्यायाधीश के विवेक पर निर्भर है कि वह विलंब को उचित मानता है या अनुचित।

व्युत्पत्ति

यह सिद्धांत पूर्णतः समानता के सिद्धांत पर आधारित है।

यह विधि लोक नीति पर आधारित है।

बचाव की प्रकृति

यह तथ्य-आधारित बचाव है।

यह विधि आधारित बचाव है।

COI का अनुच्छेद 226 क्या है?

  • संविधान के भाग V के अंतर्गत अनुच्छेद 226 निहित है जो उच्च न्यायालय को रिट जारी करने का अधिकार देता है।
  • संविधान के अनुच्छेद 226(1) में कहा गया है कि प्रत्येक उच्च न्यायालय को मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन और अन्य उद्देश्यों के लिये किसी व्यक्ति या सरकार को बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा तथा उत्प्रेषण सहित आदेश या रिट जारी करने की शक्तियाँ होंगी।
  • अनुच्छेद 226(2) में कहा गया है कि उच्च न्यायालय को किसी भी व्यक्ति, सरकार या प्राधिकरण को रिट या आदेश जारी करने की शक्ति है-
  • इसके अधिकारिता के भीतर स्थित या
  • इसके स्थानीय अधिकारिता के बाहर यदि कार्यवाही के कारण की परिस्थितियाँ पूरी तरह या आंशिक रूप से इसके क्षेत्राधिकार के अंदर उत्पन्न होती हैं।
  • अनुच्छेद 226(3) में कहा गया है कि जब किसी पक्ष के विरुद्ध उच्च न्यायालय द्वारा निषेधाज्ञा, स्थगन या अन्य माध्यम से अंतरिम आदेश पारित किया जाता है, तो वह पक्ष ऐसे आदेश को रद्द करने के लिये न्यायालय में आवेदन कर सकता है तथा ऐसे आवेदन का न्यायालय द्वारा दो सप्ताह की अवधि के अंदर निपटान किया जाना चाहिये।
  • अनुच्छेद 226(4) कहता है कि इस अनुच्छेद द्वारा उच्च न्यायालय को दी गई शक्ति अनुच्छेद 32 के खंड (2) द्वारा उच्चतम न्यायालय को दिये गए अधिकार का न्यूनीकरण नहीं करनी चाहिये।
  • यह अनुच्छेद सरकार सहित किसी भी व्यक्ति या प्राधिकरण के विरुद्ध जारी किया जा सकता है।
  • यह एक संवैधानिक अधिकार है, मौलिक अधिकार नहीं है और इसे आपातकाल के दौरान भी निलंबित नहीं किया जा सकता।
  • मौलिक अधिकारों के मामले में अनुच्छेद 226 अनिवार्य प्रकृति का है तथा “किसी अन्य उद्देश्य” के लिये जारी किया गया हो तो विवेकाधीन प्रकृति का है।
  • यह न केवल मौलिक अधिकारों को लागू करता है, बल्कि अन्य विधिक अधिकारों को भी लागू करता है।