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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

क्रूरता

 26-Aug-2024

  • वैशाली गवांडे बनाम महाराष्ट्र राज्य
  • “चूँकि आवेदक, शिकायतकर्त्ता के पति का रिश्तेदार नहीं है, इसलिये भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-A लागू नहीं होगी ”।
  • न्यायमूर्ति विभा कंकनवाड़ी और न्यायमूर्ति वृषाली जोशी

स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने कहा है कि पति के रिश्तेदार के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति पर क्रूरता का आरोप नहीं लगाया जा सकता तथा पति की प्रेमिका को उसका रिश्तेदार नहीं माना जा सकता।

  •  उपर्युक्त टिप्पणी वैशाली गवांडे बनाम महाराष्ट्र राज्य के मामले में की गई थी।

वैशाली गवांडे बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्तमान मामले में प्रतिवादी नीलेश की पत्नी थी और याचिकाकर्त्ता वह महिला थी जिसके साथ नीलेश का कथित रूप से विवाहेतर संबंध था।
  • प्रतिवादी और नीलेश का विवाह वर्ष 2007 में हुआ था तथा नीलेश के विवाहेतर संबंध से उत्पन्न हुई एक बेटी भी थी।
  • प्रतिवादी ने नीलेश के विरुद्ध उसे प्रताड़ित करने का आरोप लगाते हुए शिकायत दर्ज कराई कि इस व्यवहार का कारण याचिकाकर्त्ता के साथ नीलेश का प्रेम संबंध है।
  • प्रतिवादी ने अपने पति के विरुद्ध प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज कराई और जाँच के दौरान बयान दर्ज किये गए।
  • जाँच में पाया गया कि उत्पीड़न का कारण नीलेश का याचिकाकर्त्ता के साथ प्रेम प्रसंग था, इसलिये याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध आरोप-पत्र भी दाखिल किया गया।
  • याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि चूँकि वह नीलेश की रिश्तेदार नहीं है और इसलिये उस पर भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 498 A के अधीन मामला दर्ज नहीं किया जा सकता।
  • याचिकाकर्त्ता ने यह भी तर्क दिया कि वह एक विवाहित महिला है और उसके विरूद्ध मिथ्या आरोप लगाए गए हैं।
  • इस मामले में याचिकाकर्त्ता ने ट्रायल कोर्ट में लंबित मामले में धारा 498 A के अधीन अपने विरुद्ध लगाए गए आरोपों को अस्वीकार करने के लिये आवेदन किया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • बॉम्बे उच्च न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498A के प्रावधान का अवलोकन किया।
  • बॉम्बे उच्च न्यायालय ने कहा कि किसी व्यक्ति के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498 A के अधीन मामला दर्ज करने के लिये उस व्यक्ति को पति का रिश्तेदार होना चाहिये।
  • बॉम्बे उच्च न्यायालय ने माना कि याचिकाकर्त्ता नीलेश की रिश्तेदार नहीं है और केवल याचिकाकर्त्ता के साथ प्रतिवादी के पति के विवाहेतर संबंध होने के आरोपों के आधार पर उस पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498 A के अधीन आरोप नहीं लगाया जा सकता।
  • बॉम्बे उच्च न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध आरोपों को अस्वीकार कर दिया और कहा कि पत्नी द्वारा पति के साथ-साथ पति की प्रेमिका पर दहेज़ या क्रूरता के अपराध का आरोप नहीं लगाया जा सकता।

क्रूरता क्या है?

परिचय:

  •  विवाहित महिलाओं को पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा की जाने वाली क्रूरता से बचाने के लिये वर्ष 1983 में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498 A लागू की गई थी।
  • इसमें कहा गया है कि यदि किसी महिला के पति या पति के रिश्तेदार ने ऐसी महिला के साथ क्रूरता की तो उसे 3 वर्ष तक के कारावास का दण्ड दिया जा सकता है और अर्थदण्ड भी लगाया जा सकता है।
  • इस धारा के अंतर्गत अपराध संज्ञेय एवं गैर-ज़मानती अपराध है।
  •  धारा 498 A के अंतर्गत शिकायत अपराध से पीड़ित महिला या उसके रक्त, विवाह या दत्तक ग्रहण से संबंधित किसी भी व्यक्ति द्वारा दर्ज की जा सकती है और यदि ऐसा कोई रिश्तेदार नहीं है, तो राज्य सरकार द्वारा इस संबंध में अधिसूचित किसी भी लोक सेवक द्वारा शिकायत दर्ज की जा सकती है।
  • धारा 498 A के अधीन अपराध का आरोप लगाते हुए शिकायत कथित घटना के 3 वर्ष के भीतर दर्ज की जा सकती है। हालाँकि धारा 473 दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) न्यायालय को सीमा अवधि के उपरांत भी अपराध का संज्ञान लेने का अधिकार देती है, अगर वह संतुष्ट है कि न्याय के हित में ऐसा करना आवश्यक है।

क्रूरता का अर्थ:

  •  BNS की धारा 86 के अनुसार क्रूरता के साधन:
  •  कोई भी जानबूझकर किया गया आचरण जो ऐसी प्रकृति का हो जिससे महिला को आत्महत्या करने के लिये प्रेरित करने या महिला के जीवन, अंग या स्वास्थ्य (मानसिक या शारीरिक) को गंभीर चोट या संकट उत्पन्न करने की संभावना हो; या
  •  महिला का उत्पीड़न, जहाँ ऐसा उत्पीड़न उसे या उसके किसी संबंधित व्यक्ति को किसी संपत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति की किसी अवैध मांग को पूरा करने के लिये बाध्य करने के उद्देश्य से किया जाता है या उसके या उसके किसी संबंधित व्यक्ति द्वारा ऐसी मांग को पूरा करने में विफलता के कारण किया जाता है।

आवश्यक तत्त्व:

  •  IPC की धारा 498A के अधीन अपराध करने के लिये निम्नलिखित आवश्यक तत्त्वों की पूर्ति आवश्यक है:
    •  महिला विवाहित होनी चाहिये;
    •  उसे क्रूरता या उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा हो;
    • ऐसी क्रूरता या उत्पीड़न या तो महिला के पति द्वारा या उसके पति के रिश्तेदार द्वारा की गई हो।

BNS के अंतर्गत स्थिति:

  • धारा 85: किसी महिला के पति या पति के रिश्तेदार द्वारा उसके साथ क्रूरता करना
  • जो कोई, किसी स्त्री का पति या पति का रिश्तेदार होते हुए, ऐसी स्त्री के साथ क्रूरता करेगा, उसे तीन वर्ष तक के कारावास से दण्डित किया जाएगा और वह अर्थदण्ड से भी दण्डनीय होगा।

हिंदू विधि के अंतर्गत स्थिति:

  •  हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) में 1976 के संशोधन द्वारा क्रूरता को धारा 13(1)(ia) के अंतर्गत तलाक का आधार बनाया गया।
  • धारा 13 – तलाक—
  •  खंड (1) में कहा गया है कि इस अधिनियम के लागू होने से पहले या बाद में संपन्न कोई भी विवाह, पति या पत्नी द्वारा प्रस्तुत याचिका पर, इस आधार पर तलाक की डिक्री द्वारा विघटित किया जा सकता है कि दूसरा पक्ष—
  • विवाह संपन्न होने के पश्चात् याचिकाकर्त्ता के साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया है; या
  •  वर्ष 1976 से पहले क्रूरता केवल HMA की धारा 10 के अंतर्गत न्यायिक पृथक्करण का दावा करने का आधार थी।
  •  धारा 10 - न्यायिक पृथक्करण—
  • खंड (1) में कहा गया है कि विवाह का कोई भी पक्षकार, चाहे वह इस अधिनियम के प्रारंभ से पहले या बाद में संपन्न हुआ हो, धारा 13 की उपधारा (1) में निर्दिष्ट किसी भी आधार पर न्यायिक पृथक्करण के लिये डिक्री की प्रार्थना करते हुए याचिका प्रस्तुत कर सकता है और पत्नी के मामले में भी उपधारा (2) में निर्दिष्ट किसी भी आधार पर, जिस आधार पर तलाक के लिये याचिका प्रस्तुत की जा सकती थी। खंड (2) में कहा गया है कि जहाँ न्यायिक पृथक्करण का आदेश पारित किया गया है, वहाँ याचिकाकर्त्ता के लिये प्रत्यर्थी के साथ रहना अनिवार्य नहीं होगा, परंतु न्यायालय किसी भी पक्ष की याचिका द्वारा आवेदन पर और ऐसी याचिका में दिये गए कथनों की सत्यता से संतुष्ट होने पर, आदेश को रद्द कर सकता है, यदि वह ऐसा करना न्यायसंगत एवं उचित समझता है।

निर्णयज विधियाँ:

  • अरुण व्यास बनाम अनीता व्यास, (1999): उच्चतम न्यायालय ने माना कि धारा 498-A में अपराध का सार क्रूरता है। यह एक सतत् अपराध है और प्रत्येक अवसर पर जब महिला के साथ क्रूरता की गई, तो उसके लिये सीमा का एक नया प्रारंभिक बिंदु होगा।
  • मंजू राम कलिता बनाम असम राज्य (2009): उच्चतम न्यायालय ने माना कि IPC की धारा 498 A के अधीन किसी आरोपी को दोषी ठहराने के लिये, यह स्थापित करना होगा कि महिला को लगातार या कम-से-कम शिकायत दर्ज करने के समय क्रूरता का सामना करना पड़ा है तथा छोटे-मोटे झगड़ों को IPC की धारा 498 A के प्रावधानों को आकर्षित करने के लिये क्रूरता नहीं कहा जा सकता है।
  •  सारा मैथ्यू बनाम इंस्टीट्यूट ऑफ कार्डियो वैस्कुलर डिज़ीज़ (2014): इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि धारा 468 CrPC के अंतर्गत परिसीमा की अवधि की गणना के लिये, प्रासंगिक तिथि, शिकायत दर्ज करने की तिथि या अभियोजन के प्रारंभ होने की तिथि है, न कि वह तिथि जिस दिन मजिस्ट्रेट संज्ञान लेता है।
  •  जापानी साहू बनाम चंद्रशेखर मोहंती (2007): इस मामले में यह माना गया कि परिसीमा अवधि की गणना करने के प्रयोजन के लिये, प्रासंगिक तिथि को शिकायत दर्ज करने या आपराधिक कार्यवाही आरंभ करने की तिथि के रूप में माना जाना चाहिये, न कि मजिस्ट्रेट द्वारा संज्ञान लेने या न्यायालय द्वारा आदेश जारी करने की तिथि के रूप में।

सिविल कानून

प्रवर्तन विरोधी निषेधाज्ञा

 26-Aug-2024

होसाना कंज्यूमर लिमिटेड बनाम RSM जनरल ट्रेडिंग LLC

"जहाँ किसी विदेशी न्यायालय में कार्यवाही से भारत में प्रारंभ की जाने वाली मध्यस्थता प्रक्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की आशंका हो, वहाँ विदेशी कार्यवाही पर रोक लगाने के लिये निषेधाज्ञा पारित की जा सकती है।"

न्यायमूर्ति सी. हरि प्रसाद

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति सी. हरि प्रसाद की पीठ ने कहा कि धारा 9 न्यायालय के पास प्रवर्तन-विरोधी निषेधाज्ञा देने की शक्ति है, जहाँ विदेशी कार्यवाही संविदा में विशेष अधिकार क्षेत्र के खंड का उल्लंघन करती है।

होसाना कंज्यूमर लिमिटेड बनाम RSM जनरल ट्रेडिंग LLC मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  •  इस मामले में याचिकाकर्त्ता एवं प्रतिवादी ने एक अधिकृत वितरक संविदा किया, जिसके अंतर्गत प्रतिवादी को याचिकाकर्त्ता के उत्पादों को मध्य पूर्व एवं अफ्रीका में वितरित करना था।
  • संविदा में विशेष रूप से प्रावधान किया गया था कि उत्पन्न होने वाले किसी भी विवाद का समाधान माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 (A&C अधिनियम) द्वारा शासित मध्यस्थता द्वारा किया जाएगा, जिसमें मध्यस्थता स्थल नई दिल्ली होगा।
  • संविदा में यह भी निर्दिष्ट किया गया था कि भारतीय विधि, शासकीय एवं न्यायिक विधि दोनों है (अर्थात् संविदा की व्याख्या भारतीय विधि के अनुसार की जानी चाहिये)।
  • हालाँकि प्रतिवादी ने याचिकाकर्त्ता पर उल्लंघन का आरोप लगाते हुए दुबई के प्रथम दृष्टांत न्यायालय में वाद संस्थित किया। इसलिये, प्रतिवादी के पास दुबई के प्रथम दृष्टांत न्यायालय से एक डिक्री है।
  • याचिकाकर्त्ता ने A&C अधिनियम की धारा 9 के अंतर्गत दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका संस्थित कर प्रतिवादी के विरुद्ध दुबई न्यायालय की डिक्री को लागू करने से निषेधाज्ञा मांगी है ताकि याचिकाकर्त्ता विवादों को हल करने के लिये मध्यस्थता के उपचार को लागू कर सके। इस प्रकार, न्यायालय के समक्ष मुद्दा यह था कि क्या A&C अधिनियम की धारा 9 के अंतर्गत प्रवर्तन-विरोधी निषेधाज्ञा जारी की जा सकती है।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • न्यायालय ने माना कि A&C अधिनियम की धारा 9 का दायरा व्यापक है।
  • न्यायालय ने आगे कहा कि धारा 9 के अधीन शक्तियाँ पूर्ण हैं तथा 1996 के अधिनियम में या अन्यत्र कोई प्रतिबंध नहीं हैं।
  • न्यायालय ने कहा कि जहाँ विदेशी न्यायालय में कार्यवाही से भारत में सक्षम रूप से प्रारंभ की जा सकने वाली मध्यस्थता प्रक्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने या उसे पटरी से उतारने की धमकी मिलती है, वहाँ धारा 9 के पास विदेशी कार्यवाही शुरू करने वाले पक्ष को निषेधाज्ञा देने की शक्ति है।
  • न्यायालय ने आगे कहा कि न्यायालयों की विनम्रता का सिद्धांत उन मामलों में लागू नहीं होगा, जहाँ किसी विदेशी न्यायालय ने स्पष्ट रूप से अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर काम किया हो।
  • न्यायालय ने कहा कि धारा 9 के अनुसार, न्यायालय के पास प्रवर्तन-विरोधी निषेधाज्ञा देने की शक्ति है, जहाँ विदेशी कार्यवाही पक्षों के मध्य संविदा में विशेष अधिकार क्षेत्र खंड का उल्लंघन करती है।

A&C अधिनियम की धारा 9 क्या है?

  • A&C अधिनियम की धारा 9 में न्यायालय द्वारा अंतरिम उपाय आदि प्रदान करने की शक्ति प्रदान की गई है।
  • निम्नलिखित परिस्थितियों में पक्ष के आवेदन पर न्यायालय द्वारा अंतरिम उपाय प्रदान किया जा सकता है:
    •  माध्यस्थम कार्यवाही से पहले
    •  माध्यस्थम कार्यवाही के दौरान
  •  माध्यस्थम निर्णय दिये जाने के बाद किसी भी समय लेकिन धारा 36 के अनुसार इसे लागू किये जाने से पहले
  •  निम्नलिखित अंतरिम उपाय पारित किये जा सकते हैं:
  •  माध्यस्थम कार्यवाही के प्रयोजनों के लिये अप्राप्तवय या विकृत चित्त व्यक्ति के लिये अभिभावक की नियुक्ति; या
  •  निम्नलिखित में से किसी भी मामले के संबंध में सुरक्षा के अंतरिम उपाय के लिये, अर्थात्:
    •  माध्यस्थम करार की विषय-वस्तु वाले किसी भी माल का संरक्षण,
    •  अंतरिम अभिरक्षा या बिक्री; मध्यस्थता में विवादित राशि को सुरक्षित करना;
    • किसी संपत्ति या चीज़ को रोकना, संरक्षित करना या उसका निरीक्षण करना जो मध्यस्थता में विवाद का विषय है, या जिसके विषय में कोई प्रश्न किया जा सकता है तथा उपर्युक्त किसी भी उद्देश्य के लिये किसी भी व्यक्ति को किसी भी पक्ष के स्वामित्व में किसी भी भूमि या भवन में प्रवेश करने के लिये अधिकृत करना, या किसी भी नमूने को लेने या किसी भी अवलोकन को करने या प्रयोग करने के लिये अधिकृत करना, जो पूरी सूचना या साक्ष्य प्राप्त करने के उद्देश्य से आवश्यक या समीचीन हो सकता है।
    •  अंतरिम निषेधाज्ञा या रिसीवर की नियुक्ति;
  •  संरक्षण का ऐसा अन्य अंतरिम उपाय जो न्यायालय को न्यायसंगत एवं सुविधाजनक प्रतीत हो,
  •  इस धारा के अंतर्गत न्यायालय को आदेश देने की वही शक्ति होगी जो उसे अपने समक्ष किसी कार्यवाही के संबंध में या उसके प्रयोजन के लिये है।
  •  इसके अलावा, A&C अधिनियम की धारा 9 (2) में यह प्रावधान है कि जहाँ मध्यस्थता कार्यवाही शुरू होने से पहले अंतरिम उपाय के लिये आदेश पारित किया जाता है, वहाँ मध्यस्थता कार्यवाही ऐसे आदेश की तिथि से 90 दिनों के अंदर या न्यायालय द्वारा निर्धारित अवधि के अंदर प्रारंभ की जाएगी।
  •  धारा 9 (3) में यह प्रावधान है कि एक बार मध्यस्थ अधिकरण का गठन हो जाने पर उपधारा (1) के अंतर्गत राहत तब तक प्रदान नहीं की जाएगी जब तक कि न्यायालय यह न जान ले कि धारा 17 के अंतर्गत उपाय प्रभावकारी नहीं है।

A&C अधिनियम की धारा 9 के अंतर्गत शक्ति का दायरा क्या है

  • एस्सार हाउस प्राइवेट लिमिटेड बनाम आर्सेलर मित्तल निप्पॉन स्टील इंडिया लिमिटेड (2022):
    • धारा 9 के अंतर्गत राहत देते समय न्यायालय सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के मूल सिद्धांतों की अनदेखी नहीं कर सकता।
    • हालाँकि CPC में प्रत्येक प्रक्रियात्मक प्रावधान की कठोरता से शक्ति में कटौती नहीं होती है।
    •  इस प्रकार, न्यायालय CPC के प्रावधानों से सख्ती से बँधा नहीं है।
  • हिंदुस्तान क्लीनएनर्जी लिमिटेड बनाम MAIF इन्वेस्टमेंट्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड (2022):
    • धारा 9 के अंतर्गत राहत के उद्देश्य से अपूरणीय क्षति का प्रस्तुतीकरण किया जाना चाहिये
    • धारा 9 के अंतर्गत राहत मध्यस्थता कार्यवाही में मांगी गई अंतिम राहत के साथ ओवरलैप हो सकती है।
    • अंतरिम राहत का अनुदान विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 (SRA) की धारा 9 के अंतर्गत प्रतिबंधों के अधीन होगा।

निषेधाज्ञा क्या है?

  • निषेधाज्ञा एक उपचार है जो सिविल वाद में दिया जा सकता है।
  • निषेधाज्ञा दो प्रकार की होती है:
  • स्थायी निषेधाज्ञा:
    • यह SRA की धारा 38 के अधीन दिया जाता है।
    •  स्थायी निषेधाज्ञा एक न्यायालयी आदेश है जो किसी पक्ष को कुछ विशेष आचरण करने से रोकता है या उन्हें विशिष्ट कार्य करने के लिये बाध्य करता है।
    •  इसे अंतिम एवं स्थायी उपाय माना जाता है, जो प्रारंभिक निषेधाज्ञा से अलग है, जो किसी विधिक कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान अस्थायी आधार पर जारी की जाती है।
  •  अस्थायी निषेधाज्ञा:
    • यह CPC के आदेश 39 के अंतर्गत दिया गया है।
    • अस्थायी निषेधाज्ञा का प्राथमिक उद्देश्य मुकदमेबाज़ी के दौरान अपूरणीय क्षति या अन्याय को रोकना है।
    • यह पक्षों के अधिकारों के संरक्षण एवं न्याय सुनिश्चित करने के मध्य संतुलन स्थापित करने का कार्य करता है।

वाद विरोधी (एंटी सूट) एवं प्रवर्तन विरोधी (एंटी प्रवर्तन) निषेधाज्ञा को नियंत्रित करने वाले सिद्धांत क्या हैं?

  •  मोदी एंटरटेनमेंट नेटवर्क बनाम WSG क्रिकेट प्राइवेट लिमिटेड (2003)
  •  निषेधाज्ञा प्रदान करने के सिद्धांत, एंटी-सूट निषेधाज्ञा प्रदान करने पर भी लागू होते हैं।
  •  एंटी-सूट निषेधाज्ञा प्रदान करने में न्यायालय को निम्नलिखित पहलुओं से संतुष्ट होना चाहिये:
    • प्रतिवादी, जिसके विरुद्ध निषेधाज्ञा मांगी गई है, न्यायालय के व्यक्तिगत अधिकारिता के अधीन है; यदि निषेधाज्ञा अस्वीकार कर दी जाती है,
    • तो न्याय के उद्देश्य विफल हो जाएंगे तथा अन्याय कारित हो जाएगा;
    •  तथा सद्भावना का सिद्धांत- उस न्यायालय के प्रति सम्मान, जिसमें कार्यवाही के प्रारंभ या जारी रहने पर रोक लगाई गई है - को ध्यान में रखा जाना चाहिये।
    •  इंटरडिजिटल टेक्नोलॉजी कॉर्पोरेशन बनाम शाओमी कॉर्पोरेशन (2021)
  •  इस मामले में प्रवर्तन-विरोधी या वाद-विरोधी निषेधाज्ञा के पहलू पर निर्धारित सिद्धांत इस प्रकार थे:
    •  यहाँ तक कि ऐसे मामलों में भी सद्भावना संबंधी विचार लागू हो सकते हैं, जहाँ मध्यस्थता या अनन्य क्षेत्राधिकार खंड के उल्लंघन के लिये वाद- विरोधी उपचार मांगी जाती है।
    •  विदेशी न्यायालय द्वारा लगाए गए समय एवं व्यय की विशाल मात्रा का सम्मान किया जाना चाहिये।
    •  इसके अतिरिक्त, ऐसी असाधारण परिस्थितियाँ भी दर्शाई जानी चाहिये जो न्यायालय के अधिकार क्षेत्र के प्रयोग को उचित ठहराती हों।