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आपराधिक कानून

अवैध गिरफ्तारी

 28-Aug-2024

अभिजीत पडाले बनाम महाराष्ट्र राज्य  

“किसी व्यक्ति के विरुद्ध अपराध किये जाने के आरोप मात्र के आधार पर सामान्य रूप से गिरफ्तारी नहीं की जा सकती”।

न्यायमूर्ति रेवती मोहिते-डेरे और पृथ्वीराज चव्हाण  

स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में अभिजीत पडाले बनाम महाराष्ट्र राज्य के मामले में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने माना है कि किसी व्यक्ति के विरुद्ध केवल आरोप के आधार पर गिरफ्तारी नहीं की जा सकती है, बल्कि यह उचित रूप से तर्कसंगत होनी चाहिये और पुलिस अधिकारियों द्वारा गिरफ्तारी के कारणों को दर्ज किया जाना चाहिये।

अभिजीत पडाले बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्तमान मामले में, याचिकाकर्त्ता एक पत्रकार है जिसे 16 जनवरी 2022 को भारतीय दण्ड  संहिता, 1860 (IPC) की धारा 384 और धारा 506 के अधीन गिरफ्तार किया गया था।
  • याचिकाकर्त्ता को गिरफ्तारी के दिन ही न्यायालय में प्रस्तुत किया गया तथा मजिस्ट्रेट के समक्ष भी प्रस्तुत किया गया।
  • मजिस्ट्रेट ने माना कि गिरफ्तारी जारी दिशा-निर्देशों के अनुसार नहीं की गई थी, इसलिये उसे मजिस्ट्रेट की अभिरक्षा में भेज दिया गया।
  • याचिकाकर्त्ता ने ज़मानत याचिका दायर की परंतु सरकारी अधिवक्ता की अनुपस्थिति के कारण याचिकाकर्त्ता को 18 जनवरी 2022 तक अभिरक्षा  में रहना पड़ा।
  • याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि की गई गिरफ्तारी अवैध थी क्योंकि यह कोई गंभीर अपराध नहीं था और ज़मानती था तथा याचिकाकर्त्ता को गिरफ्तार करने से पहले उसकी गिरफ्तारी को उचित ठहराने के लिये कोई कारण दर्ज नहीं किये गए थे जो कि दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 41 का स्पष्ट उल्लंघन है।
  • याचिकाकर्त्ता ने आगे तर्क दिया कि उसे गिरफ्तार करने से पहले CrPC की धारा 41A के अधीन कोई नोटिस नहीं दिया गया।
  • इसलिये, याचिकाकर्त्ता की गिरफ्तारी तथा पुलिस अभिरक्षा में अभिरक्षा एवं कुल 3 दिनों की अवधि यानी 15 जनवरी, 2022 से 18 जनवरी, 2022 तक जेल में रखना न केवल अनुचित था, बल्कि अवैध भी था।
  • याचिकाकर्त्ता ने यह भी तर्क दिया कि पुलिस द्वारा की गई गिरफ्तारी संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है क्योंकि यह गिरफ्तारी याचिकाकर्त्ता को परेशान करने और यातना देने के लिये की गई थी।
  • इसलिये याचिकाकर्त्ता द्वारा बॉम्बे उच्च न्यायालय के समक्ष रिट याचिका दायर की गई।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • बॉम्बे उच्च न्यायालय ने पाया कि CrPC की धारा 41A के अधीन गिरफ्तारी से पहले याचिकाकर्त्ता को नोटिस नहीं दिया गया है और न ही उसे गिरफ्तारी के विषय में सूचित किया गया है तथा गिरफ्तारी के कारणों को याचिकाकर्त्ता द्वारा विधिवत दर्ज नहीं किया गया है।
  • बॉम्बे उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि की गई गिरफ्तारी अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य एवं अन्य (2014) के तहत जारी दिशा-निर्देशों का उल्लंघन है।
  • बॉम्बे उच्च न्यायालय ने डी.के. बासु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1996) के मामले का भी उल्लेख किया, जिसमें लैटिन विधिक सूत्र 'सैलस पॉपुली इस्ट सुप्रीम लेक्स' (लोगों की सुरक्षा सर्वोच्च विधि है) और सैलस रिपब्लिका इस्ट सुप्रीमा लेक्स (राज्य की सुरक्षा सर्वोच्च विधि है) एक साथ चलती है।
  • उपरोक्त टिप्पणियों के आधार पर बॉम्बे उच्च न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता की गिरफ्तारी को वैध माना और कहा कि पुलिस अधिकारियों द्वारा गिरफ्तारी उचित प्रकार से की जानी चाहिये।

गिरफ्तारी क्या है?

  • गिरफ्तारी का अर्थ है किसी व्यक्ति को विधिक प्राधिकार या प्रत्यक्ष विधिक प्राधिकार द्वारा उसकी स्वतंत्रता से वंचित करना।
  • गिरफ्तारी से संबंधित CrPC के प्रावधान भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) के अध्याय V के अधीन धारा 35 से 62 तक हैं।
  • BNSS  के तहत गिरफ्तारी निम्न द्वारा की जा सकती है:
    • पुलिस अधिकारी (धारा 35)
    • निजी व्यक्ति (धारा 40)
    • मजिस्ट्रेट (धारा 41)

गिरफ्तारी से संबंधित विधिक प्रावधान क्या हैं? 

  • धारा 35: बिना वारंट के पुलिस अधिकारी द्वारा गिरफ्तारी- कोई भी पुलिस अधिकारी मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना और बिना वारंट के गिरफ्तार कर सकता है जब कोई व्यक्ति- 
  • उसकी उपस्थिति में संज्ञेय अपराध करता है,
  • अर्थदण्ड के साथ या बिना 7 वर्ष से कम या बराबर कारावास से दण्डनीय संज्ञेय अपराध करता है:
    • जिसके विरुद्ध  उचित शिकायत की गई है
    • विश्वसनीय सूचना प्राप्त हुई है
    • उचित संदेह मौजूद है, अगर:
      • पुलिस अधिकारी के पास ऐसी शिकायत, सूचना या संदेह के आधार पर यह विश्वास करने का कारण है कि अमुक व्यक्ति ने उक्त अपराध किया है
      • पुलिस अधिकारी इस बात से संतुष्ट है कि ऐसी गिरफ्तारी आवश्यक है:
      • ऐसे व्यक्ति को आगे कोई अपराध करने से रोकना।
      • अपराध की उचित जाँच करना।
      • ऐसे व्यक्ति को अपराध के साक्ष्य को गायब करने या किसी भी तरह से ऐसे साक्ष्य के साथ छेड़छाड़ करने से रोकना।
      • ऐसे व्यक्ति को मामले के तथ्यों से परिचित किसी व्यक्ति को कोई प्रलोभन, धमकी या वादा करने से रोकना ताकि वह ऐसे तथ्यों को न्यायालय या पुलिस अधिकारी के समक्ष प्रकट करने से विमुख हो जाए।
      • जब तक ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं किया जाता, तब तक न्यायालय में उसकी उपस्थिति सुनिश्चित नहीं की जा सकती।
  • परंतु पुलिस अधिकारी उन सभी मामलों में, जहाँ इस उपधारा के उपबंधों के अधीन किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी अपेक्षित नहीं है, गिरफ्तारी न करने के कारणों को लिखित रूप में अभिलिखित करेगा।
  • पुलिस अधिकारी ऐसी गिरफ्तारी करते समय अपने कारणों को लिखित रूप में दर्ज करेगा।
  • जिसके विरुद्ध शिकायत प्राप्त हुई हो या विश्वसनीय सूचना प्राप्त हुई हो और उचित संदेह हो कि ऐसे व्यक्ति ने अर्थदण्ड सहित या बिना अर्थदण्ड के 7 वर्ष से अधिक के कारावास से दण्डनीय संज्ञेय अपराध किया है और उस सूचना के आधार पर पुलिस की राय है कि ऐसे व्यक्ति ने उक्त अपराध किया है।
  • जब ऐसा व्यक्ति घोषित अपराधी हो।
  • जिसके कब्ज़े में कोई चोरी की संपत्ति पाई जाती है और यह मानने का कारण मौजूद है कि ऐसे व्यक्ति ने उस चोरी की संपत्ति के संबंध में कोई अपराध किया है।
  • जब ऐसा व्यक्ति पुलिस अधिकारी को उसके कर्त्तव्य के निष्पादन में बाधा डालता है।
  • जो वैध अभिरक्षा  से भाग गया हो या भागने का प्रयास किया हो।
  • जब ऐसे व्यक्ति पर संघ के सशस्त्र बलों से भगोड़ा होने का उचित संदेह हो।
  • जब ऐसा व्यक्ति भारत के बाहर किये गए किसी ऐसे कार्य से संबंधित हो जो भारत में अपराध है और जिसके विरुद्ध कोई उचित शिकायत प्राप्त हुई है या कोई विश्वसनीय सूचना प्राप्त हुई है या कोई उचित संदेह विद्यमान है, तो वह भारत में लागू किसी भी विधिक के अंतर्गत प्रत्यर्पण या गिरफ्तारी के लिये उत्तरदायी है।
  • जब ऐसा व्यक्ति रिहा किया गया अपराधी हो और उसने अपनी रिहाई से संबंधित कुछ नियमों का उल्लंघन किया हो।

धारा 43: गिरफ्तारी कैसे की जाती है-

  • खंड (1) में कहा गया है कि गिरफ्तारी करते समय पुलिस अधिकारी या अन्य व्यक्ति गिरफ्तार किये जाने वाले व्यक्ति के शरीर को वास्तव में स्पर्श करेगा या उसे बंधक बनाएगा, जब तक कि अभिरक्षा के लिये शब्द या क्रिया द्वारा समर्पण न किया गया हो।
  • परंतु जहाँ किसी महिला को गिरफ्तार किया जाना है, वहाँ जब तक परिस्थितियाँ इसके विपरीत संकेत न दें, गिरफ्तारी की मौखिक सूचना पर उसका अभिरक्षा में प्रस्तुत होना मान लिया जाएगा और जब तक परिस्थितियाँ अन्यथा अपेक्षित न हों या पुलिस अधिकारी महिला न हो, पुलिस अधिकारी गिरफ्तारी करने के लिये महिला के शरीर को स्पर्श नहीं करेगा।
  • खंड (2) में कहा गया है कि यदि ऐसा व्यक्ति उसे गिरफ्तार करने के प्रयास का बलपूर्वक विरोध करता है, या गिरफ्तारी से बचने का प्रयास करता है, तो ऐसा पुलिस अधिकारी या अन्य व्यक्ति गिरफ्तारी को प्रभावी करने के लिये सभी आवश्यक साधनों का उपयोग कर सकता है।
  • खंड (3) पुलिस अधिकारी, अपराध की प्रकृति और गंभीरता को ध्यान में रखते हुए, किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी करते समय या ऐसे व्यक्ति को न्यायालय के समक्ष पेश करते समय हथकड़ी का उपयोग कर सकता है जो आदतन या बार-बार अपराधी है, या जो अभिरक्षा से भाग गया है, या जिसने संगठित अपराध, आतंकवादी कृत्य, नशीली दवाओं से संबंधित अपराध, या हथियारों और गोला-बारूद के अवैध कब्ज़े, हत्या, बलात्कार, एसिड अटैक, सिक्कों और मुद्रा-नोटों की जालसाज़ी, मानव तस्करी, बच्चों के विरुद्ध  यौन अपराध, या राज्य के विरुद्ध  अपराध किया है।
  • खंड (4) में कहा गया है कि इस खंड में ऐसा कुछ भी नहीं है जो किसी ऐसे व्यक्ति की मृत्यु का कारण बनने का अधिकार देता है जो मृत्यु या आजीवन कारावास से दण्डनीय अपराध का आरोपी नहीं है।
  • खंड (5) में कहा गया है कि अपवादात्मक परिस्थितियों को छोड़कर किसी भी महिला को सूर्यास्त के बाद और सूर्योदय से पहले गिरफ्तार नहीं किया जाएगा तथा जहाँ ऐसी अपवादात्मक परिस्थितियाँ मौजूद हों, वहाँ महिला पुलिस अधिकारी लिखित रिपोर्ट बनाकर प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट की पूर्व अनुमति प्राप्त करेगी जिसके स्थानीय क्षेत्राधिकार में अपराध किया गया है या गिरफ्तारी की जानी है।

वैध गिरफ्तारी के लिये आवश्यक शर्तें क्या हैं?

  • जहाँ गिरफ्तारी आवश्यक नहीं है, वहाँ गिरफ्तारी से पहले नोटिस अनिवार्य रूप से जारी किया जाना चाहिये।
  • BNSS की धारा 36 के अनुसार- गिरफ्तारी करते समय प्रत्येक पुलिस अधिकारी:
    • अपने नाम की सटीक, दृश्यमान और स्पष्ट पहचान दर्शाएँ।
    • गिरफ्तारी का ज्ञापन तैयार करें, जिसे कम-से-कम एक साक्षी द्वारा सत्यापित किया गया हो और गिरफ्तार व्यक्ति द्वारा प्रतिहस्ताक्षरित किया गया हो।
    • गिरफ्तार व्यक्ति को उसके किसी रिश्तेदार को सूचित करने के अधिकार के विषय में सूचित करें।
  • BNSS की धारा 37 के अनुसार प्रत्येक ज़िले एवं राज्य स्तर पर पुलिस नियंत्रण कक्ष स्थापित किये  जाने हैं।
  • BNSS की धारा 38 के अनुसार गिरफ्तार व्यक्ति को पूछताछ के दौरान अधिवक्ता से मिलने का अधिकार है, परंतु पूरी पूछताछ के दौरान नहीं।
  • BNSS की धारा 58 के अनुसार गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने प्रस्तुत किया जाना चाहिये।

अवैध गिरफ्तारी क्या है?

परिचय:

  • जब गिरफ्तारी इस तरह से की जाती है कि किसी व्यक्ति को अवैध रूप से अभिरक्षा में लिया जाता है और संविधान के अंतर्गत सुनिश्चित उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है।
  • वह गिरफ्तारी जो BNSS के प्रावधानों के अनुसार नहीं की गई है और जहाँ पुलिस अधिकारी द्वारा गिरफ्तारी का कोई उचित कारण दर्ज नहीं किया गया है, उसे अवैध गिरफ्तारी माना जाएगा।
  • यह किसी व्यक्ति को अविधिक तरीके से रोकने का कार्य है जो उसकी गरिमा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को हानि पहुँचाता है।

अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य एवं अन्य के मामले में गिरफ्तारी के लिये दिशा-निर्देश जारी किये गए:

  • न्यायालय ने इस मामले में 7 वर्ष तक के कारावास से दण्डनीय अपराधों के अंतर्गत अवैध गिरफ्तारी को रोकने के लिये कुछ दिशा-निर्देश जारी किये:
    • पुलिस अधिकारियों को CrPC की धारा 41 (जो अब BNSSकी धारा 35 के अंतर्गत आती है) के प्रावधान का अनुपालन करना होगा।
    • पुलिस अधिकारियों को CrPC की धारा 41A (अब BNSS की धारा 35 के अंतर्गत आती है) के अनुसार गिरफ्तारी करने से पहले नोटिस जारी करना होगा।
    • गिरफ्तार व्यक्ति को प्रस्तुत करते समय मजिस्ट्रेट के समक्ष गिरफ्तारी का कारण प्रस्तुत किया जाना चाहिये।
    • मजिस्ट्रेट कोई भी निर्णय देने से पहले पुलिस अधिकारियों द्वारा प्रस्तुत कारणों पर विधिवत् विचार करेंगे।
    • बिना कारण दर्ज किये अभिरक्षा में रखने का अधिकार देने वाले मजिस्ट्रेटों पर उपयुक्त उच्च न्यायालय द्वारा विभागीय कार्यवाही की जाएगी।
    • इन दिशा-निर्देशों का पालन न करने पर पुलिस अधिकारी को विभागीय कार्यवाही और न्यायालय की अवमानना ​​का सामना करना पड़ सकता है।

अवैध गिरफ्तारियों से संबंधित ऐतिहासिक निर्णयज विधियाँ कौन-सी हैं?

  • जोगिंदर कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1994):
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा पुलिस अधिकारी द्वारा गिरफ्तारी करने के लिये  दिशा-निर्देश जारी किये गए थे और कहा गया था कि मात्र शक्ति का अस्तित्व होना, पुलिस अधिकारी को बिना उचित कारणों के किसी को भी गिरफ्तार करने का अधिकार नहीं देता है।
    • शक्ति का अस्तित्व और शक्ति का प्रयोग दो अलग-अलग चीज़ें हैं और शक्ति का अस्तित्व मात्र किसी को बिना उचित कारण के उसका प्रयोग करने का अधिकार नहीं देता।
  • पंकज बंसल बनाम भारत संघ (2023): 
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि संवैधानिक और वैधानिक आदेशों को सही अर्थ देने के लिये, "अब से यह आवश्यक होगा कि गिरफ्तारी के ऐसे लिखित आधारों की एक प्रति गिरफ्तार व्यक्ति को स्वाभाविक रूप से और बिना किसी अपवाद के प्रदान की जाए"।
  • हुसैनारा खातून बनाम गृह सचिव, बिहार राज्य (1979):
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि विधिक प्रतिनिधित्व प्राप्त करने के साधन से वंचित प्रत्येक आरोपी व्यक्ति को राज्य से निःशुल्क विधिक सेवाएँ प्राप्त करने का संवैधानिक अधिकार है।
    • न्यायालय  ने आगे कहा कि न्याय की मांग के अनुसार ऐसे व्यक्तियों को अधिवक्ता उपलब्ध कराना राज्य का संवैधानिक कर्त्तव्य है। निःशुल्क विधिक सहायता प्रदान न करने पर अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करने के कारण वाद रद्द किया जा सकता है।
  • पश्चिम बंगाल राज्य बनाम अनवर अली सरकार (1952):
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि विधिक परामर्श तक पहुँच एक मौलिक अधिकार है और सरकार का यह दायित्व है कि वह उन लोगों को विधिक सहायता उपलब्ध कराए जो इसे वहन नहीं कर सकते।
    • यह निर्णय यह सुनिश्चित करने में महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ कि वित्तीय संसाधनों की परवाह किये बिना हर कोई विधिक प्रतिनिधित्व का लाभ उठा सकेगा।
  • डी.के. बासु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1997):
    • उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी और अभिरक्षा के लिये दिशा-निर्देश जारी किये, जिसमें यह अपेक्षाएँ शामिल थीं कि गिरफ्तार करने वाला अधिकारी व्यक्ति को उसके विधिक प्रतिनिधित्व के अधिकार और उसके रिश्तेदारों/परिवार को सूचित करने के अधिकार के विषय में अवश्य सूचित करेगा।
  • अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2014):
    • भारत के उच्चतम न्यायालय ने यह सुनिश्चित करने का आदेश दिया है कि पुलिस अधिकारी अभियुक्तों को अनावश्यक रूप से गिरफ्तार न करें और मजिस्ट्रेट ऐसे मामलों में अभिरक्षा  को अधिकृत न करें।

सिविल कानून

मध्यस्थ अधिकरण एवं न्यायालय का संविदा की जाँच करने का कर्त्तव्य

 28-Aug-2024

पाम डेवलपमेंट्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम पश्चिम बंगाल राज्य एवं अन्य

“प्रत्येक मध्यस्थ अधिकरण और न्यायालय का यह कर्त्तव्य है कि वह संविदा की जाँच करे”

न्यायमूर्ति पंकज मिथल और न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति पंकज मिथल और न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा की पीठ ने कहा कि संविदा की जाँच करना मध्यस्थ अधिकरण और न्यायालय दोनों का कर्त्तव्य है, क्योंकि यह विधिक संबंध का आधार है।       

  • उच्चतम न्यायालय ने पाम डेवलपमेंट्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम पश्चिम बंगाल राज्य एवं अन्य के मामले में यह निर्णय दिया।  

पाम डेवलपमेंट्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम पश्चिम बंगाल राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • प्रतिवादी (पश्चिम बंगाल राज्य) ने सड़क निर्माण के लिये निविदाएँ आमंत्रित कीं और अपीलकर्त्ता की निविदा स्वीकार कर ली गई। 
  • काम में देरी हुई परंतु काम पूरा हो गया। 
  • अपीलकर्त्ता  ने 77,85,290 रुपए का बिल और विभिन्न मदों के तहत सात अन्य दावे पेश किये।
  • प्रतिवादी ने दायित्व से इनकार किया और इसलिये मामले को मध्यस्थता के लिये  भेजा गया। 
  • मध्यस्थ ने 30 जनवरी 2018 को एक पंचाट दिया। पंचाट में प्रावधान था कि प्रतिवादी ब्याज सहित 1,37,25,252 रुपए के दायित्व के लिये उत्तरदायी हैं।
  • इस पंचाट को मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम, 1996 (A & C अधिनियम) की धारा 34 के तहत न्यायालय में चुनौती दी गई थी।
  • ज़िला न्यायाधीश ने इस चुनौती को आंशिक रूप से स्वीकार कर लिया एवं निम्नलिखित दावों को अस्वीकार कर दिया:
    • दावा संख्या 1: व्यवसाय की हानि
    • दावा संख्या 2: संयंत्र और मशीनरी का गैर-आर्थिक उपयोग
  • ज़िला न्यायालय के निर्णय से व्यथित होकर उपरोक्त दावों को अस्वीकार करने के आदेश के विरुद्ध  A & C अधिनियम की धारा 37 के तहत उच्च न्यायालय में अपील दायर की गई थी। 
  • प्रतिवादी ने शेष दावों को भी खारिज करने की मांग करते हुए एक क्रॉस अपील दायर की।
  • A & C अधिनियम की धारा 37 के तहत कलकत्ता उच्च न्यायालय ने कुछ दावों को अस्वीकार कर दिया और अन्य को बहाल कर दिया।
  • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने मुख्य रूप से निम्नलिखित तीन दावों के संबंध में दी गई राहत पर विचार किया:
    • दावा संख्या 3: श्रमिकों, मशीनरी आदि के कारण होने वाली हानि
    • दावा संख्या 4: चालू खाता बिलों के विलंबित भुगतान पर ब्याज
    • दावा संख्या 6: ब्याज से संबंधित दावा

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • दावे 3 के संबंध में:
    • उच्चतम न्यायालय ने माना कि उच्च न्यायालय इस निष्कर्ष पर सही था कि संविदा के 'विशेष नियमों और शर्तों' के तहत बेकार पड़ी मशीनरी आदि के लिये कोई भी राशि देना निषिद्ध है।
    • इस प्रकार, इस दावे के संबंध में न्यायालय ने माना कि उच्च न्यायालय द्वारा निकाला गया निष्कर्ष सही था।
  • दावे 4 के संबंध में:
    • न्यायालय ने माना कि इस दावे के संबंध में मध्यस्थ अधिकरण के निष्कर्ष में कुछ भी गलत नहीं था।
    • इसलिये, इस मामले में मध्यस्थ अधिकरण के काम में हस्तक्षेप करने में उच्च न्यायालय गलत था।
  • दावे 6 के संबंध में:
    • यहाँ न्यायालय ने A & C अधिनियम की धारा 31 (7) के तहत वाद के विभिन्न चरणों में ब्याज देने के लिये मध्यस्थ की शक्ति हेतु निहित विधि पर चर्चा की।
    • न्यायालय ने माना कि 1996 अधिनियम के तहत ब्याज देने के लिये मध्यस्थ की शक्ति A & C अधिनियम की धारा 31 (7) द्वारा शासित होती है:
      • पहले भाग में प्रावधान है कि मध्यस्थ कार्यवाही के कारण की तिथि से लेकर निर्णय की तिथि तक की अवधि के लिये ब्याज दे सकता है, जब तक कि पक्षों द्वारा अन्यथा सहमति न हो।
      • दूसरे भाग में प्रावधान है कि जब तक निर्णय में अन्यथा निर्देश न दिया जाए, मध्यस्थ निर्णय द्वारा भुगतान की जाने वाली राशि पर निर्णय की तिथि से लेकर भुगतान की तिथि तक वर्तमान ब्याज दर से 2% अधिक ब्याज लगेगा।
      • न्यायालय ने आगे कहा कि मध्यस्थ की पूर्व-संदर्भ और पेडेंट लाइट ब्याज देने की शक्ति प्रतिबंधित नहीं है, जब समझौते में यह स्पष्ट नहीं है कि ब्याज दिया जा सकता है या नहीं, या इसमें ऐसा कोई विशिष्ट प्रावधान नहीं है जो इसे प्रतिबंधित करता हो।
    • इसलिये, न्यायालय ने माना कि उच्च न्यायालय द्वारा पूर्व-अनुशंसित हित प्रदान करने के संबंध में मध्यस्थ निर्णय में हस्तक्षेप करना गलत था, क्योंकि पक्षों के बीच संविदा में इस पर रोक नहीं है। 

मध्यस्थ अधिकरण क्या है?

  • A & C अधिनियम की धारा 2 (c) में प्रावधान है कि "मध्यस्थ अधिकरण" का अर्थ एकमात्र मध्यस्थ या मध्यस्थों का एक पैनल है। 
  • मध्यस्थ एक तटस्थ तीसरा पक्ष होता है जो मध्यस्थता कार्यवाही में न्यायाधीश के रूप में कार्य करता है।
  • मध्यस्थों की नियुक्ति
    • A & C अधिनियम की धारा 11 (1) के अनुसार किसी भी राष्ट्रीयता का व्यक्ति मध्यस्थ हो सकता है।
    • दोनों पक्ष मध्यस्थ या मध्यस्थों की नियुक्ति की प्रक्रिया पर सहमत होने के लिये स्वतंत्र हैं।
    • यदि पक्ष तीन मध्यस्थों के साथ मध्यस्थता में किसी समझौते पर नहीं पहुँच पाते हैं:
      • प्रत्येक पक्ष एक मध्यस्थ नियुक्त करेगा
      • नियुक्त किये गए दो लोग तीसरे मध्यस्थ की नियुक्ति करेंगे जो पीठासीन मध्यस्थ के रूप में कार्य करेगा
    • यदि उपर्युक्त नियुक्ति संभव नहीं है तो नियुक्ति पक्षकार के अनुरोध पर उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय या न्यायालय द्वारा नामित किसी व्यक्ति या संस्था द्वारा की जाएगी।
    • एकमात्र मध्यस्थ की मध्यस्थता में यदि पक्षकार 30 दिनों के भीतर मध्यस्थ पर सहमत होने में विफल रहते हैं तो नियुक्ति पक्षकार के अनुरोध पर उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय या इस प्रयोजन के लिये नामित किसी व्यक्ति या संस्था द्वारा की जाएगी।

मध्यस्थ अधिकरण के कर्त्तव्य क्या हैं?

  • मध्यस्थ स्वतंत्र और निष्पक्ष होना चाहिये:
    • इस उद्देश्य के लिये अधिनियम में पाँचवीं अनुसूची प्रदान की गई है।
    • पाँचवीं अनुसूची में बताए गए आधार उन परिस्थितियों को निर्धारित करने में मार्गदर्शन करेंगे जो स्वतंत्रता और निष्पक्षता के विषय में उचित संदेह को जन्म देती हैं।
    • इस प्रकार, यदि ऐसी परिस्थितियाँ मौजूद हैं तो मध्यस्थ निष्पक्ष नहीं होगा।
  • मध्यस्थ का कर्त्तव्य है कि वह प्रकटन करे
    • अधिनियम की धारा 12 के अनुसार मध्यस्थ का कर्त्तव्य है कि वह ऐसी किसी भी परिस्थिति का प्रकटन करे:
      • जिससे निष्पक्षता पर उचित संदेह हो
      • जिससे उसके पर्याप्त समय देने और 12 महीने में मध्यस्थता पूरी करने की क्षमता प्रभावित हो सकती है।
    • इसके अतिरिक्त, स्पष्टीकरण 2 में यह प्रावधान है कि प्रकटीकरण छठी अनुसूची में निर्दिष्ट तरीके से किया जाएगा।
  • विवाद को प्रभावी ढंग से हल करना मध्यस्थ का कर्त्तव्य है।
    • विवाद को प्रभावी ढंग से और शीघ्रता से हल करना मध्यस्थ का कर्त्तव्य होगा।
    • अधिनियम की धारा 29A में प्रावधान है कि अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता के अतिरिक्त अन्य मामलों में निर्णय वाद-विवाद पूरा होने की तिथि से बारह महीने की अवधि के भीतर दिया जाएगा। 
    • इस धारा में प्रावधान है कि अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता के मामले में मामले को 12 महीने के भीतर निपटाने का प्रयास किया जाएगा।
  • मध्यस्थ का कर्त्तव्य है कि वह पंचाट की व्याख्या करे या उसमें सुधार करे।
    • अधिनियम की धारा 33 में प्रावधान है कि पंचाट में सुधार और व्याख्या की जा सकती है।
    • मध्यस्थ निर्णय की प्राप्ति से 30 दिनों के भीतर
      • कोई पक्ष मध्यस्थ न्यायाधिकरण से किसी लिपिकीय या मुद्रण संबंधी त्रुटि को सुधारने का अनुरोध कर सकता है।
      • कोई पक्ष मध्यस्थ न्यायाधिकरण से किसी विशिष्ट बिंदु या निर्णय के भाग की विशिष्ट व्याख्या करने का अनुरोध कर सकता है।

संविदा के संबंध में मध्यस्थ की शक्ति क्या है?

  • भारत कोकिंग कोल लिमिटेड बनाम एल.के. आहूजा (2004)
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि जब मध्यस्थ द्वारा दिया गया निर्णय किसी विवेकशील व्यक्ति द्वारा दिया गया निर्णय कहा जा सकता है, तो इसमें हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है।
    • हालाँकि यदि मध्यस्थ समझौते की शर्तों से आगे निकल जाता है या किसी साक्ष्य के अभाव में निर्णय पारित करता है, जो रिकॉर्ड पर स्पष्ट है, तो उसे रद्द किया जा सकता है।
  • स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड बनाम जे.सी. बुधराजा, सरकार और खनन ठेकेदार (1999)
    • न्यायालय ने माना कि मध्यस्थ को अपना अधिकार संविदा से प्राप्त होता है और यदि वह संविदा की स्पष्ट अवहेलना करता है तो मध्यस्थ द्वारा दिया गया निर्णय मनमाना होगा।
    • न्यायालय ने माना कि मध्यस्थों को निर्णय देते समय सावधानी बरतनी चाहिये और उन्हें संविदा की शर्तों तक ही सीमित रहना चाहिये।
    • मध्यस्थ का कार्य संविदा की सीमाओं के भीतर कार्य करना है।
  • मैकडरमॉट इंटरनेशनल इंक बनाम बर्न स्टैंडर्ड कंपनी लिमिटेड (2006)
    • संविदा की व्याख्या मध्यस्थ द्वारा निर्धारित की जाने वाली बात है, भले ही इससे विधिक प्रश्न का निर्धारण हो। 
    • संविदा के खंडों का निर्धारण करते समय मध्यस्थ निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार कर सकता है:
      • संविदा की प्रकृति
      • मध्यस्थता समझौते की प्रकृति
      • मध्यस्थता समझौते का विस्तार
      • पक्षों का आचरण।

सिविल कानून

अस्थायी कर्मचारियों का पेंशन अधिकार

 28-Aug-2024

राजकरण सिंह एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य   

“नियमित सरकारी कर्मचारियों की तरह दशकों से काम कर रहे 'अस्थायी' कर्मचारियों को समान लाभ से वंचित नहीं किया जा सकता”

न्यायमूर्ति हिमा कोहली और न्यायमूर्ति संदीप मेहता   

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

उच्चतम न्यायालय ने कहा कि नियमित सरकारी कर्मचारियों की तरह काम करने वाले कर्मचारियों को सिर्फ उनकी अस्थायी स्थिति के कारण पेंशन लाभ से वंचित नहीं किया जाना चाहिये। डिवीज़न बेंच ने ऐसे लाभों से वंचित करने की आलोचना की, जो इस बात पर प्रकाश डालता है कि समान भूमिका निभाने वाले लंबे समय से कार्यरत कर्मचारी स्थायी सरकारी कर्मचारियों के समान सुरक्षा और लाभ के अधिकारी हैं।

  • न्यायमूर्ति हिमा कोहली और न्यायमूर्ति संदीप मेहता ने राजकरण सिंह एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य के मामले में निर्णय दिया।   

राजकरण सिंह एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • अपीलकर्त्ताओं को विशेष फ्रंटियर फोर्स (SFF) के अनिवार्य बचत योजना जमा (SSD) कोष का प्रबंधन करने के लिये जूनियर अकाउंटेंट, अकाउंटेंट, अपर डिवीजन क्लर्क और लोअर डिवीज़न क्लर्क जैसे विभिन्न पदों पर नियुक्त किया गया था।
    • SSD फंड एक कल्याणकारी पहल है, जो SFF सैनिकों द्वारा अपने वेतन से दिये गए व्यक्तिगत योगदान से वित्तपोषित होती है।
  • अपीलकर्त्ताओं को चौथे और पाँचवें केंद्रीय वेतन आयोग (CPC) के अनुसार वेतन के साथ-साथ विभिन्न भत्ते तथा लाभ प्राप्त हुए।
  • 1 जनवरी 2006 को भारत संघ ने SFF के सभी सरकारी कर्मचारियों के लिये 6वें केंद्रीय वेतन आयोग को लागू किया।
  • हालाँकि अपीलकर्त्ताओं (SSD कर्मचारियों) को 6वें वेतन आयोग के ये लाभ नहीं दिये गए। इसके बजाय, उन्हें 3,000 रुपए प्रतिमाह की तदर्थ राशि दी गई।
  • अपीलकर्त्ताओं ने छठे केंद्रीय वेतन आयोग के लाभों के विस्तार की मांग करते हुए केंद्र सरकार को अभ्यावेदन दिया, जिसे अस्वीकार कर दिया गया।
  • इस अस्वीकृति से व्यथित होकर, अपीलकर्त्ताओं ने केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (CAT) के समक्ष आवेदन दायर कर छठे वेतन आयोग के लाभ में विस्तार की मांग की।
  • CAT ने उनके आवेदनों को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि वे सरकारी सेवा में कार्यरत नहीं थे तथा उनकी सेवाएँ वैधानिक प्रकृति की नहीं थीं।
  • अपीलकर्त्ताओं ने CAT के निर्णय को उच्च न्यायालय में चुनौती दी, जिसने CAT के आदेश की पुष्टि की।
  • उच्च न्यायालय द्वारा मामला खारिज किये जाने के बाद अपीलकर्त्ताओं ने भारत के उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की।
  • उच्चतम न्यायालय के समक्ष मुख्य मुद्दा यह था कि क्या अपीलकर्त्ता, अंशदायी निधियों के एकत्रीकरण द्वारा प्रबंधित योजना के अस्थायी कर्मचारी के रूप में वर्गीकृत होने के बावजूद, 6वें केंद्रीय वेतन आयोग के अनुसार पेंशन लाभों के लिये  पात्रता का दावा कर सकते हैं।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत इस मुद्दे की जाँच की तथा इस बात पर विचार किया कि क्या अपीलकर्त्ताओं द्वारा प्रबंधित विशेष सुरक्षा जमा (SSD) निधि को राज्य का साधन माना जा सकता है।
  • न्यायालय ने कहा कि नियमित वेतनमान पर अपीलकर्त्ताओं की नियुक्ति स्थायी सरकारी कर्मचारियों के समान औपचारिक कर्मचारी-नियोक्ता संबंध को दर्शाती है।
  • न्यायालय ने अपीलकर्त्ताओं की रोज़गार शर्तों पर सरकारी नियंत्रण की उपस्थिति पर ध्यान दिया, जो अन्य सरकारी कर्मचारियों के समान वेतन वृद्धि और पदोन्नति से स्पष्ट है।
  • न्यायालय ने माना कि अवकाश, सुनिश्चित कॅरियर प्रगति (ACP) और अन्य लाभों का प्रावधान अपीलकर्त्ताओं की रोज़गार स्थितियों तथा नियमित सरकारी कर्मचारियों के बीच समानता को पुष्ट करता है।
  • न्यायालय ने कहा कि कर्मचारियों को 'अस्थायी' या 'स्थायी' के रूप में वर्गीकृत करना मात्र नामावली नहीं है, बल्कि सेवा लाभ और सुरक्षा के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण विधिक निहितार्थ रखता है।
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि अपीलकर्त्ताओं को पेंशन लाभ से वंचित करना विधिक की दृष्टि से तर्कसंगत या न्यायोचित नहीं है तथा इसे स्वेच्छाचारी तथा भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 14 और 16 के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन माना।

राजकरण सिंह एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य में कौन-से मामले संदर्भित किये  गए थे?

  • अजय हसिया बनाम खालिद मुजीब सेहरावर्दी (1981)
    • न्यायालय ने यह निर्धारित करने के लिये निर्धारित परीक्षणों को लागू किया कि क्या संबंधित इकाई को अनुच्छेद 12 के अंतर्गत सरकार का साधन या एजेंसी माना जा सकता है।
    • वर्तमान मामले में इन सिद्धांतों को लागू करने पर, न्यायालय को ऐसे ठोस साक्ष्य मिले जिनसे यह सिद्ध होता है कि अपीलकर्त्ता नियमित सरकारी कर्मचारियों के गुणधर्मों को पूरा करते हैं।
  • विनोद कुमार एवं अन्य बनाम भारत संघ (2024)
    • न्यायालय ने कहा कि रोज़गार का सार केवल नियुक्ति की प्रारंभिक शर्तों से निर्धारित नहीं किया जा सकता, जब रोज़गार का वास्तविक क्रम समय के साथ काफी विकसित हो चुका हो।

भारतीय संविधान के अंतर्गत राज्य क्या है?

  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 12 राज्य को परिभाषित करता है।
  • इसमें प्रावधान है कि राज्य में भारत की सरकार और संसद के साथ-साथ भारत के प्रत्येक राज्य की सरकार तथा विधानमंडल भी शामिल होंगे।
  • इस शब्द में भारतीय क्षेत्र के अंतर्गत या भारत सरकार के नियंत्रण में सभी स्थानीय प्राधिकरण और अन्य प्राधिकरण भी शामिल हैं।
  • न्यायालयों द्वारा "राज्य" की व्यापक व्याख्या की गई है, जिसमें न केवल पारंपरिक सरकारी निकाय शामिल हैं, बल्कि सरकार की एजेंसियाँ ​​और साधन भी शामिल हैं जो सार्वजनिक कार्य करते हैं या व्यापक सरकारी नियंत्रण के अधीन हैं।
  • रति लाल बनाम बॉम्बे राज्य (1952) में यह निर्धारित किया गया था कि न्यायपालिका को अनुच्छेद 12 के अंतर्गत "राज्य" नहीं माना जाता है।
    • हालाँकि ए.आर. अंतुले बनाम आर.एस. नायक (1988) और एन.एस. मिराजकर बनाम महाराष्ट्र राज्य (1966) में यह उल्लेख किया गया था कि न्यायपालिका को तब "राज्य" माना जाता है जब वह अपने नियम बनाने के अधिकार का प्रयोग करती है, परंतु अपने न्यायिक कार्यों का निष्पादन करते समय उसे "राज्य" नहीं माना जाता है।

केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (CAT) क्या है?

  • परिचय:
    • CAT एक विशेष न्यायिक निकाय है जिसकी स्थापना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 323-A और प्रशासनिक न्यायाधिकरण अधिनियम, 1985 के तहत लोक सेवकों की भर्ती और सेवा शर्तों से संबंधित विवादों का निपटारा करने के लिये  की गई है।
    • इसका क्षेत्राधिकार केंद्र सरकार के कर्मचारियों तथा केंद्र सरकार के नियंत्रणाधीन अन्य प्राधिकरणों के सेवा मामलों पर है।
    • अधिकरण में एक अध्यक्ष (उच्च न्यायालय का वर्तमान या सेवानिवृत्त न्यायाधीश) और प्रशासनिक तथा न्यायिक सदस्य होते हैं, जिन्हें संबंधित क्षेत्रों में उनकी विशेषज्ञता के आधार पर चुना जाता है।
    • CAT पूरे भारत में 17 नियमित पीठों और 21 सर्किट पीठों के माध्यम से कार्य करता है, जिसका उद्देश्य पीड़ित लोक सेवकों को शीघ्र और लागत प्रभावी न्याय प्रदान करना है।
    • सिविल प्रक्रिया संहिता से बाध्य न होते हुए भी, CAT अपनी कार्यवाही में प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करता है तथा उच्च न्यायालय के समकक्ष अवमानना ​​शक्तियाँ रखता है।
    • अधिकरण की स्वतंत्रता की रक्षा इसके अध्यक्ष और सदस्यों को उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के समतुल्य सेवा शर्तें प्रदान करके की जाती है।
    • CAT के आदेशों के विरुद्ध अपील संविधान के अनुच्छेद 226/227 के अंतर्गत रिट याचिका के माध्यम से संबंधित उच्च न्यायालय में की जा सकती है।

विधिक प्रावधान:

  • प्रशासनिक न्यायाधिकरणों की स्थापना (धारा 4)
    • अधिनियम में निम्नलिखित प्रशासनिक न्यायाधिकरणों की स्थापना का प्रावधान है:
      • केंद्र सरकार द्वारा केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण (CAT)
      • राज्य सरकारों द्वारा राज्य प्रशासनिक अधिकरण
      • दो या अधिक राज्यों के लिये संयुक्त प्रशासनिक अधिकरण
    • केंद्र सरकार स्थानीय या अन्य प्राधिकरणों और सरकार के स्वामित्व/नियंत्रण वाले निगमों पर प्रावधान लागू कर सकती है।
  • गठन एवं नियुक्ति (धारा 5-6)
    • प्रत्येक अधिकरण में एक अध्यक्ष तथा अन्य न्यायिक एवं प्रशासनिक सदस्य होंगे, जिन्हें समुचित सरकार उपयुक्त समझे। 
    • अध्यक्ष को उच्च न्यायालय का न्यायाधीश होना चाहिये अथवा रह चुका होना चाहिये।
    • प्रशासनिक सदस्य कम-से-कम 2 वर्षों तक भारत सरकार के सचिव या समकक्ष पद पर कार्य कर चुका हो।
    • न्यायिक सदस्यों को उच्च न्यायालय का न्यायाधीश होना चाहिये या इसके योग्य होना चाहिये या कम-से-कम 2 वर्षों तक विधिक मामलों के विभाग में सचिव रह चुका होना चाहिये। 
    • अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश तथा संबंधित राज्य के राज्यपाल के परामर्श के बाद की जाती है।
  • अधिकार क्षेत्र और शक्तियाँ (अध्याय III)
    • CAT का क्षेत्राधिकार निम्नलिखित पर है: (धारा 14)
      • संघ के अधीन सिविल सेवाओं/पदों से संबंधित भर्ती और सेवा मामले
      • अखिल भारतीय सेवा अधिकारियों के सेवा मामले
      • नागरिक रक्षा कर्मचारियों के सेवा मामले
    • राज्य प्रशासनिक न्यायाधिकरणों का क्षेत्राधिकार निम्नलिखित पर है: (धारा 15)
      • राज्य के अंतर्गत सिविल सेवाओं/पदों से संबंधित भर्ती और सेवा मामले
      • राज्य-नियंत्रित स्थानीय प्राधिकरणों और निगमों के कर्मचारियों के सेवा मामले
    • अधिकरणों को सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अंतर्गत सिविल न्यायालय की शक्तियाँ प्राप्त हैं: (धारा 22)
      • व्यक्तियों को बुलाना और उनकी उपस्थिति सुनिश्चित करना
      • दस्तावेज़ों की खोज और प्रस्तुति की मांग करना
      • शपथपत्रों पर साक्ष्य प्राप्त करना
      • साक्षियों या दस्तावेज़ों की जाँच के लिये आदेश जारी करना
      • निर्णयों की समीक्षा करना
      • कोई अन्य निर्धारित मामला
  • प्रक्रिया एवं अपील (अध्याय IV, धारा 19- धारा 27)
    • शिकायत के कारण का आदेश के एक वर्ष के भीतर आवेदन किया जाना चाहिये। 
    • न्यायाधिकरण सिविल प्रक्रिया संहिता में प्रक्रिया से बंधे नहीं हैं, बल्कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों द्वारा निर्देशित हैं।
    • अधिकरण मामलों का शीघ्रता से निर्णय करते हैं, आमतौर पर दस्तावेज़ों और लिखित अभ्यावेदनों के आधार पर।
    • न्यायाधिकरणों के आदेश सिविल न्यायालय के आदेश के रूप में निष्पादन योग्य माने जाते हैं।
    • न्यायाधिकरणों के आदेशों के विरुद्ध अपील संविधान के अनुच्छेद 136 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय में की जा सकती है।
  • विविध प्रावधान (अध्याय V, धारा 28- 37)
    • अधिकरणों के समक्ष कार्यवाही न्यायिक कार्यवाही मानी जाएगी।
    • न्यायाधिकरणों के सदस्य और कर्मचारी लोक सेवक माने जाएंगे।
    • अन्य विधियों पर अधिनियम का प्रभाव अधिक होगा।
    • केंद्र सरकार को अधिनियम के प्रावधानों को लागू करने के लिये नियम बनाने का अधिकार दिया गया है।
    • उपयुक्त सरकार को न्यायाधिकरणों के प्रशासनिक मामलों पर नियम बनाने का अधिकार दिया गया है।