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आपराधिक कानून
ठोस साक्ष्य
30-Aug-2024
प्रेम प्रकाश बनाम प्रवर्तन निदेशालय के माध्यम से भारत संघ "अपीलकर्त्ता के साथ सह-अभियुक्त होने के कारण, अपीलकर्त्ता के विरुद्ध उसका बयान, यह मानते हुए कि वर्तमान अपीलकर्त्ता के विरुद्ध कुछ भी दोषपूर्ण है, ठोस साक्ष्य का चरित्र नहीं धारण करेगा।" न्यायमूर्ति बी.आर. गवई एवं के.वी. विश्वनाथन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने प्रेम प्रकाश बनाम प्रवर्तन निदेशालय के माध्यम से भारत संघ के मामले में कहा है कि,
- अभियुक्त का बयान जो कि दोष (आरोप) सिद्ध करने वाला है, वह ठोस साक्ष्य नहीं माना जाएगा।
- सह-अभियुक्त के उस बयान का प्रयोग जाँच एजेंसियों द्वारा अभियुक्त को फँसाने के लिये नहीं किया जा सकता।
- प्रेम प्रकाश बनाम प्रवर्तन निदेशालय के माध्यम से भारत संघ मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- वर्तमान मामले में, भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धाराओं 406, 420, 467, 468, 447, 504, 506, 341, 323 एवं 34 के अधीन दण्डनीय अपराधों के लिये प्रवर्तन मामला सूचना रिपोर्ट (ECIR) पंजीकृत की गई थी, जहाँ अपीलकर्त्ता को आरोपी के रूप में नामित नहीं किया गया था।
- IPC की धारा 420 एवं 467 के अधीन अपराध होने के मद्देनज़र, PMLA के अधीन जाँच प्रारंभ की गई थी, यहाँ तक कि अपीलकर्त्ता भी का नाम नहीं था, हालाँकि ECIR में कुछ अज्ञात व्यक्तियों के शामिल होने का उल्लेख किया गया था।
- प्रवर्तन निदेशालय (ED) ने अपराध की जाँच की।
- आरोप यह था कि आरोपी राजेश राय ने अवैध रूप से और धोखाधड़ी से इम्तियाज़ अहमद एवं आरोपी भरत प्रसाद के नाम पर पावर ऑफ अटॉर्नी बनाई तथा उक्त पावर ऑफ अटॉर्नी के आधार पर एक जाली विक्रय विलेख तैयार किया तथा अपीलकर्त्ता के एक साथी आरोपी पुनीत भार्गव को ज़मीन बेच दी।
- यह भी आरोप लगाया गया है कि उक्त भूमि को आरोपी पुनीत भार्गव ने दो विक्रय विलेखों के माध्यम से आरोपी बिष्णु कुमार अग्रवाल को अंतरित कर दिया था।
- सह-अभियुक्त द्वारा यह आरोप लगाया गया था कि अपीलकर्त्ता ने एक अन्य आरोपी व्यक्ति छवि रंजन की सहायता से, सर्कल अधिकारियों को प्रभावित करके भूमि का म्यूटेशन करवा लिया और इसलिये, अभियोजन पक्ष के अनुसार, अपीलकर्त्ता की भूमिका महत्त्वपूर्ण है।
- अपीलकर्त्ता ने कहा कि,
- वह बिष्णु कुमार अग्रवाल को जानता था और विवाह समारोहों के दौरान उनसे मिला था।
- सह-आरोपी पुनीत भार्गव उसका छोटा भाई जैसा था जो उसके पैतृक स्थान से था और वह उसे बचपन से जानता था।
- अफशर अली सहित कई व्यक्ति चेशायर होम की संपत्ति के लिये उससे मिलने आते थे और उसने उन्हें राजदीप कुमार से मिलवाया और संपत्ति का सत्यापन करवाया।
- पुनीत भार्गव की सहमति से उसने संपत्ति को पुनीत भार्गव के नाम पर पंजीकृत करवाया तथा बाद में इसे बिष्णु कुमार अग्रवाल को 1.78 करोड़ रुपए में बेच दिया।
- सह-आरोपी अफशर अली ने कहा कि,
- उन्होंने अपीलकर्त्ता से मुलाकात की और उन्हें विवादों एवं पुलिस की सतर्कता के विषय में सूचना दी।
- अपीलकर्त्ता ने भूमि की स्थिति का जायज़ा लिया और तत्कालीन उपायुक्त छवि रंजन को बुलाया और उन्हें बताया कि पुलिस द्वारा देखी गई सतर्कता को हटाने के बाद चेशायर होम संपत्ति की रजिस्ट्री की जानी थी।
- इसके बाद, अपीलकर्त्ता ने 1.5 करोड़ रुपए की राशि तय की और तय की गई राशि को स्वीकार करने के बाद, उन्होंने अपीलकर्त्ता से अनुरोध किया कि वह भूमि के दो भूखंडों को अनब्लॉक करने की व्यवस्था करे, जोकि डिप्टी कमिश्नर कार्यालय द्वारा अवरुद्ध कर दिये गए थे।
- अपीलकर्त्ता ने उक्त कार्य के लिये 1 करोड़ रुपए की मांग की थी तथा उक्त राशि को उक्त प्रतिफल में समायोजित कर दिया गया था और अपीलकर्त्ता ने ही पुनीत भार्गव के नाम पर पंजीकरण करने के लिये कहा था।
- अपीलकर्त्ता ने ही बिष्णु कुमार अग्रवाल के साथ सौदा तय किया था।
- प्रतिवादी ने तर्क दिया कि सह-आरोपी द्वारा दिया गया बयान अपीलकर्त्ता के विरुद्ध ठोस साक्ष्य है।
- अपीलकर्त्ता को 11 अगस्त 2023 को अभिरक्षा में लिया गया था। वह 25 अगस्त 2022 से पहले से ही अभिरक्षा में था।
- अपीलकर्त्ता ने तर्क दिया कि विभिन्न साक्षियों की जाँच के कारण उसे ज़मानत नहीं दी गई जो उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
- अपीलकर्त्ता की ज़मानत याचिका विशेष न्यायाधीश और उच्च न्यायालय द्वारा खारिज कर दी गई थी।
- व्यथित होकर अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष विशेष अनुमति याचिका दायर की।
न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने PMLA की धारा 45 के प्रावधानों पर ध्यान दिया, जिसमें ज़मानत देने के लिये दो शर्तें बताई गई हैं।
- यह प्रावधान ज़मानत के सामान्य नियम का अपवाद नहीं है, बल्कि यह ज़मानत देने से पहले पालन की जाने वाली दोहरी शर्तें प्रदान करता है।
- उच्चतम न्यायालय ने सामान्य नियम पर प्रकाश डाला कि "ज़मानत नियम है और जेल अपवाद"।
- उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि,
- जब कोई आरोपी PMLA के अधीन अभिरक्षा में होता है, चाहे वह किसी भी मामले में अभिरक्षा में हो, तो उसी जाँच एजेंसी के समक्ष धारा 50 PMLA के अधीन कोई भी बयान देने वाले के विरुद्ध अस्वीकार्य है।
- अपीलकर्त्ता के बयान को संक्षेप में लिया जाए तो प्रथम दृष्टया उसके विरुद्ध मनी लॉन्ड्रिंग का मामला नहीं बनता है। यह कूटरचना में अपीलकर्त्ता की प्रथम दृष्टया संलिप्तता की ओर भी इशारा नहीं करता है।
- अपीलकर्त्ता के विरुद्ध सह-अभियुक्त का बयान, यह मानते हुए कि अपीलकर्त्ता के विरुद्ध कुछ भी आपत्तिजनक है, ठोस साक्ष्य की प्रकृति का नहीं होगा।
- अभियोजन पक्ष अपना मामला सिद्ध करने के लिये इस तरह के बयान से शुरुआत नहीं कर सकता।
- न्यायालय ने कहा कि ऐसी स्थिति में, सह-अभियुक्त के संस्वीकृति से निपटने के दौरान भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 30 के अधीन निर्धारित संविधि लागू रहेगा।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि सह-अभियुक्त अफशर अली के बयान से प्रथम दृष्टया विक्रय विलेख और अन्य दस्तावेज़ों की कूटरचना में अपीलकर्त्ता की भूमिका या धन शोधन के अपराध में शामिल होने के विषय में कुछ भी संकेत नहीं मिलता है।
- इसलिये, उच्चतम न्यायालय ने माना कि,
- अन्य जाँच में अपीलकर्त्ता के बयान का प्रयोग वर्तमान मामले में PMLA की धारा 50 के अधीन नहीं किया जा सकता।
- यदि अपीलकर्त्ता के बयान को निर्माता के विरुद्ध अभियोजन योग्य माना जाता है, तो वह साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 के अंतर्गत आएगा, क्योंकि उसने यह बयान उसी जाँच एजेंसी द्वारा प्रारंभ की गई एक अन्य कार्यवाही के अधीन न्यायिक अभिरक्षा में दिया है।
- सह-आरोपी अफसर अली के बयान को जाँच एजेंसी को पहले अन्य साक्ष्यों के साथ जोड़ना होगा ताकि इसे ठोस साक्ष्य बनाया जा सके।
- मौजूदा मामले में आरोपी ने PMLA की धारा 45 के अधीन दी गई दोहरी शर्त पूरी कर ली है।
- इसलिये उच्चतम न्यायालय ने अपीलकर्त्ता की याचिका स्वीकार कर ली तथा ज़मानत दे दी।
प्रेम प्रकाश बनाम प्रवर्तन निदेशालय के माध्यम से भारत संघ मामले में कौन-से अन्य मामले संदर्भित किये गए थे?
- कश्मीरा सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य, (1952):
- जहाँ न्यायालय ने कहा कि "इस तरह के मामले को देखने का उचित तरीका यह है कि सबसे पहले अभियुक्त के विरुद्ध साक्ष्यों को इकट्ठा किया जाए तथा संस्वीकृति को विचारण से पूरी तरह बाहर रखा जाए तथा देखा जाए कि अगर उस पर विश्वास किया जाता है, तो क्या उसके आधार पर सुरक्षित रूप से दोषसिद्धि की जा सकती है।
- यदि यह संस्वीकृति से स्वतंत्र रूप से विश्वास करने योग्य है, तो निश्चित रूप से संस्वीकृति को सहायता कहना आवश्यक नहीं है।"
- विजय मदनलाल चौधरी एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (2022):
- जहाँ यह माना गया कि यदि बयान ED अधिकारी द्वारा औपचारिक गिरफ्तारी के बाद दर्ज किया जाता है, तो साक्ष्य अधिनियम की धारा 20(3) या धारा 25 के परिणाम लागू हो सकते हैं, जिससे यह आग्रह किया जा सकता है कि चूँकि यह संस्वीकृति की प्रकृति का है, इसलिये इसे आरोपी के विरुद्ध सिद्ध नहीं किया जाएगा।
ठोस साक्ष्य क्या है?
परिचय:
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम 2023 (BSA) की धारा 2(e) के अधीन साक्ष्य को इस प्रकार परिभाषित किया गया है:
- इलेक्ट्रॉनिक रूप से दिये गए बयानों सहित सभी बयान, जिन्हें न्यायालय जाँच के अंतर्गत तथ्यों के मामलों के संबंध में साक्षियों द्वारा अपने समक्ष प्रस्तुत करने की अनुमति देता है या आवश्यकता होती है और ऐसे बयानों को मौखिक साक्ष्य कहा जाता है।
- न्यायालय के निरीक्षण के लिये प्रस्तुत किये गए इलेक्ट्रॉनिक या डिजिटल रिकॉर्ड सहित सभी दस्तावेज़ एवं ऐसे दस्तावेज़ों को दस्तावेज़ी साक्ष्य कहा जाता है।
- ठोस साक्ष्य:
- वह साक्ष्य जिसके लिये मुद्दे में तथ्यों को सिद्ध या दोषपूर्ण सिद्ध करने के लिये किसी पुष्टिकरण की आवश्यकता नहीं होती, वह मूल साक्ष्य होता है।
- यह साक्ष्य अपने आप में पर्याप्त वजन रखता है तथा इसके लिये किसी और निरीक्षण की आवश्यकता नहीं होती।
- यह परिस्थितिजन्य एवं प्रत्यक्ष दोनों हो सकता है।
साक्ष्य को मूल साक्ष्य माना गया:
- साक्षी की गवाही को केस-टू-केस आधार पर ठोस साक्ष्य माना जाना चाहिये। [भगवान सिंह बनाम पंजाब राज्य (1952)]।
- संस्वीकृति को ठोस साक्ष्य माना जाना चाहिये। [बिश्वनाथ प्रसाद बनाम द्वारका प्रसाद (1974)]।
- फोटोग्राफिक साक्ष्य या रिकॉर्डिंग जिनकी विश्वसनीयता स्थापित है, उन्हें ठोस साक्ष्य माना जाता है। [एन. श्री राम रेड्डी बनाम श्री वी. वी. गिरी इन रेफरेंस टू ए टेप (2014)]।
- फोरेंसिक रिपोर्ट को केस-टू-केस आधार पर ठोस साक्ष्य माना जाता है। [नीतीश कुमार मर्डर केस]
- विशेषज्ञ की गवाही को ठोस साक्ष्य माना जाता है जिसका उचित समर्थन हो। [दयाल सिंह बनाम उत्तरांचल राज्य (2012)]
- प्रत्यक्ष साक्ष्य ठोस साक्ष्य है। [अवध बिहारी शर्मा बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1956)]
- परिस्थितिजन्य साक्ष्य प्रत्यक्षतः अपराध के होने का संकेत देते हैं। [अशोक कुमार बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1990)]
सांविधानिक विधि
बच्चे की नागरिकता
30-Aug-2024
क्रिसेला वलंका कुशी राज नायडू बनाम विदेश मंत्रालय “माता-पिता की भारतीय राष्ट्रीयता समाप्त हो जाने के बावजूद बच्चे की भारतीय नागरिकता यथावत् बनी रहती है, जिससे इस संकल्पना को आधार प्राप्त होता है कि बच्चे को राज्यविहीन नहीं छोड़ा जा सकता”। न्यायमूर्ति मकरंद कार्णिक और न्यायमूर्ति वाल्मिकी एस.ए. मेनेजेस |
स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
गोवा में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि किसी बच्चे को भारतीय नागरिकता या पासपोर्ट से सिर्फ़ इसलिये वंचित नहीं किया जा सकता क्योंकि वह किसी विदेशी नागरिक के साथ रहता है। न्यायालय ने पाया कि बच्चे की जन्म से प्राप्त भारतीय नागरिकता, माता-पिता की राष्ट्रीयता में परिवर्तन के बावजूद वैध है। इस निर्णय ने भारतीय उच्चायोग द्वारा बच्चे के पासपोर्ट को नवीनीकृत करने से प्रतिषेध करने के निर्णय को पलट दिया।
- न्यायमूर्ति मकरंद कार्णिक और न्यायमूर्ति वाल्मीकि एस.ए. मेनेजेस ने क्रिसेला वलंका कुशी राज नायडू बनाम विदेश मंत्रालय मामले में यह निर्णय दिया।
क्रिसेला वलंका कुशी राज नायडू बनाम विदेश मंत्रालय की पृष्ठभूमि क्या थी?
- याचिकाकर्त्ता क्रिसेला वलंका कुशी राज नायडू का जन्म 27 अक्टूबर 2007 को गोवा, भारत में भारतीय नागरिक माता-पिता के घर हुआ था।
- जब याचिकाकर्त्ता लगभग तीन वर्ष की थी, तो उसके पिता ने उसे और उसकी माँ को त्याग दिया।
- याचिकाकर्त्ता की माँ ने तलाक के लिये आवेदन किया, जिसे वर्ष 2019 में न्यायालय के आदेश से स्वीकार कर लिया गया।
- वर्ष 2015 में याचिकाकर्त्ता की माँ ने पुर्तगाल में अपना जन्म पंजीकरण कराया और विदेश में रोज़गार के अवसरों के कारण पुर्तगाली नागरिकता प्राप्त कर ली।
- याचिकाकर्त्ता और उसकी माँ यूनाइटेड किंगडम चले गए, जहाँ माँ काम करती थी और याचिकाकर्त्ता स्कूल जाती थी।
- याचिकाकर्त्ता को वर्ष 2014 में भारतीय पासपोर्ट जारी किया गया था, जो 2 दिसंबर, 2019 तक वैध था।
- वर्ष 2019 में याचिकाकर्त्ता की मां ने ब्रिटेन में भारतीय उच्चायोग में याचिकाकर्त्ता के भारतीय पासपोर्ट के नवीनीकरण के लिये आवेदन किया।
- 5 अगस्त 2020 को भारतीय उच्चायोग ने यह कहते हुए पासपोर्ट नवीनीकृत करने से प्रतिषेध कर दिया कि याचिकाकर्त्ता नागरिकता की पात्र नहीं है क्योंकि वह एकल अभिभावक वाली अवयस्क बालिका है, जिसकी अभिरक्षा एक विदेशी नागरिक माता-पिता को दी गई है।
- याचिकाकर्त्ता ने अपनी माँ के माध्यम से, जो उसकी प्राकृतिक अभिभावक हैं, भारतीय उच्चायोग के निर्णय को चुनौती देते हुए बॉम्बे उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की।
- इस मामले ने भारत में जन्मे भारतीय माता-पिता के अवयस्क बच्चे की नागरिकता की स्थिति के बारे में प्रश्न उठाए, जहाँ एक माता-पिता ने बाद में विदेशी नागरिकता प्राप्त कर ली तथा बच्चे की अभिरक्षा उन्हीं के पास है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने माना कि नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 3(1)(c) के अंतर्गत याचिकाकर्त्ता ने जन्म से ही भारतीय नागरिकता प्राप्त की हुई है, क्योंकि वह नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2003 के लागू होने के उपरांत भारत में उत्पन्न हुई थी तथा उसके माता-पिता उसके जन्म के समय भारतीय नागरिक थे।
- पीठ ने कहा कि नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 8, 9 या 10 के अंतर्गत याचिकाकर्त्ता की भारतीय नागरिकता समाप्त नहीं हुई है और विदेशी नागरिकता प्राप्त माता-पिता के पास बच्चे की मात्र अभिरक्षा होने से उसकी भारतीय नागरिकता समाप्त नहीं हो जाती।
- न्यायालय ने कहा कि नागरिकता अधिनियम की धारा 9, जो स्वैच्छिक रूप से विदेशी नागरिकता प्राप्त करने के कारण नागरिकता की समाप्ति से संबंधित है, में ऐसे अवयस्कों की नागरिकता समाप्त करने का कोई प्रावधान नहीं है जिनके माता-पिता ने विदेशी नागरिकता प्राप्त कर ली है।
- पीठ ने पाया कि 31 जुलाई, 2024 का कार्यालय ज्ञापन, जिस पर प्रतिवादियों ने भरोसा किया है, वास्तव में याचिकाकर्त्ता के मामले का समर्थन करता है, क्योंकि यह स्पष्ट करता है कि यदि कोई माता-पिता स्वेच्छा से किसी अन्य देश की नागरिकता प्राप्त कर लेता है तो अवयस्क बच्चों की नागरिकता प्रभावित नहीं होती है।
- न्यायालय ने माना कि पासपोर्ट अधिकारी द्वारा पासपोर्ट जारी करने से प्रतिषेध करना पासपोर्ट अधिनियम, 1967 की धारा 6 के अंतर्गत वहनीय नहीं है, क्योंकि प्रतिषेध करने के लिये निर्दिष्ट कोई भी आधार याचिकाकर्त्ता के मामले में लागू नहीं होता।
- न्यायाधीशों ने इस बात पर ज़ोर दिया कि किसी बच्चे को राज्यविहीन नहीं किया जा सकता है तथा याचिकाकर्त्ता की माँ द्वारा विदेशी राष्ट्रीयता प्राप्त करने से याचिकाकर्त्ता की नागरिकता की स्थिति प्रभावित नहीं होगी, जिसने जन्म से भारतीय नागरिकता प्राप्त की है।
भारत में नागरिकता से संबंधित संवैधानिक प्रावधान क्या हैं?
परिचय:
- भारतीय संविधान, 1950 का भाग II, जिसमें अनुच्छेद 5-11 शामिल हैं, नागरिकता की अवधारणा को विनियमित करता है।
- भारत की संसद को नागरिकता संबंधी मामलों पर विशेष अधिकार प्राप्त है, क्योंकि यह विषय सातवीं अनुसूची में संघ सूची के अंतर्गत आता है।
- नागरिकता संबंधी संवैधानिक प्रावधान मुख्य रूप से उन व्यक्तियों की पहचान करते हैं जो 26 जनवरी, 1950 को संविधान के लागू होने पर भारत के नागरिक बने।
- संविधान लागू होने के उपरांत नागरिकता प्राप्त करने या खोने के संबंध में व्यापक या स्थायी प्रावधान प्रदान नहीं करता है।
- अनुच्छेद 11 में संसद को नागरिकता से संबंधित उन मामलों को विनियमित करने के लिये कानून बनाने का निर्देश दिया गया है जो संविधान में स्पष्ट रूप से शामिल नहीं हैं।
- इस संवैधानिक आदेश के अनुसरण में, संसद ने नागरिकता अधिनियम, 1955 पारित किया, जिसमें समय-समय पर संशोधन होते रहे हैं।
- नागरिकता अधिनियम, 1955 और इसके बाद के संशोधन भारतीय नागरिकता के अधिग्रहण, समाप्ति एवं विनियमन से संबंधित मामलों के लिये विधिक ढाँचा प्रदान करते हैं।
- नागरिकता पर संवैधानिक प्रावधान संपूर्ण नहीं हैं तथा व्यापक नागरिकता विधानों के लिये संसदीय विधान पर निर्भर हैं।
अनुच्छेद |
प्रावधान |
अनुच्छेद 5 |
संविधान के प्रारंभ में नागरिकता। |
अनुच्छेद 6 |
पाकिस्तान से भारत में प्रवास करने वाले कुछ व्यक्तियों के नागरिकता के अधिकार। |
अनुच्छेद 7 |
पाकिस्तान में कुछ प्रवासियों के नागरिकता के अधिकार। |
अनुच्छेद 8 |
भारत के बाहर रहने वाले भारतीय मूल के कुछ व्यक्तियों के नागरिकता के अधिकार। |
अनुच्छेद 9 |
स्वेच्छा से किसी विदेशी राज्य की नागरिकता प्राप्त करने वाले व्यक्तियों का नागरिक न होना। |
अनुच्छेद 10 |
नागरिकता के अधिकारों की निरंतरता। |
अनुच्छेद 11 |
संसद, विधि द्वारा नागरिकता के अधिकार को विनियमित करेगी। |
विधिक प्रावधान:
नागरिकता अधिनियम, 1955 क्या है?
परिचय:
- भारत में नागरिकता के अधिकार 1947 में देश की स्वतंत्रता के उपरांत स्थापित किये गए थे।
- स्वतंत्रता से पूर्व, ब्रिटिश शासन ने भारतीयों को नागरिकता का अधिकार नहीं दिया था।
- स्वतंत्रता-पूर्व काल में लागू ब्रिटिश नागरिकता एवं विदेशी अधिकार अधिनियम 1914 को 1948 में निरस्त कर दिया गया।
- ब्रिटिश राष्ट्रीयता अधिनियम के अधीन भारतीयों को नागरिकता अधिकारों के बिना ब्रिटिश नागरिक के रूप में वर्गीकृत किया गया था।
- वर्ष 1947 में भारत के विभाजन के कारण भारत और पाकिस्तान के बीच नव स्थापित सीमाओं के पार जनसंख्या का महत्त्वपूर्ण प्रवासन हुआ।
- व्यक्तियों को अपना निवास देश चुनने और उसकी नागरिकता प्राप्त करने का अधिकार दिया गया।
- इन परिस्थितियों पर विचार करते हुए, भारत की संविधान सभा ने प्रवासियों के लिये नागरिकता की स्थिति निर्धारित करने की तत्काल आवश्यकता को पूरा करने के लिये संविधान में नागरिकता प्रावधानों के विस्तार को सीमित कर दिया।
- वर्ष 1955 में संसद द्वारा पारित नागरिकता अधिनियम में नागरिकता की आवश्यकताओं एवं पात्रता के लिये विशिष्ट प्रावधान स्थापित किये गए।
- नागरिकता अधिनियम, 1955 संविधान के लागू होने के उपरांत नागरिकता के अधिग्रहण और समाप्ति को नियंत्रित करता है।
- प्रारंभ में, नागरिकता अधिनियम, 1955 में राष्ट्रमंडल नागरिकता के प्रावधान शामिल थे।
- नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2003 ने मूल नागरिकता अधिनियम, 1955 से राष्ट्रमंडल नागरिकता से संबंधित प्रावधानों को निरस्त कर दिया।
- नागरिकता अधिनियम 1955 में नागरिकता प्राप्त करने के पाँच तरीके निर्धारित किये गए हैं, अर्थात् जन्म, वंश, पंजीकरण, प्राकृतिक रूप से एवं क्षेत्र का समावेश।
- यह अधिनियम दोहरी नागरिकता या दोहरी राष्ट्रीयता का प्रावधान नहीं करता।
- यह केवल उपरोक्त प्रावधानों के अंतर्गत सूचीबद्ध व्यक्ति को ही नागरिकता प्रदान करता है, अर्थात् जन्म, वंश, पंजीकरण, प्राकृतिक रूप से एवं क्षेत्रीय समावेशन के आधार पर।
- इस अधिनियम में छह बार संशोधन किया गया है- 1986, 1992, 2003, 2005, 2015 और 2019। इन संशोधनों के माध्यम से संसद ने जन्म के आधार पर नागरिकता के व्यापक और सार्वभौमिक सिद्धांतों को सीमित कर दिया।
- इसके अतिरिक्त, विदेशी नागरिक अधिनियम के अंतर्गत व्यक्ति पर यह सिद्ध करने का भार होता है कि वह विदेशी नहीं है।
भारतीय नागरिकता प्राप्त करना:
- जन्म द्वारा:
- धारा 3 इस बात से संबंधित है कि जन्म से भारत का नागरिक कौन माना जाएगा:
- कोई भी व्यक्ति जिसका जन्म भारत में 26 जनवरी 1950 और 1 जुलाई 1987 के बीच हुआ हो।
- कोई भी व्यक्ति जो 1 जुलाई 1987 और 3 दिसंबर 2004 के बीच भारत में उत्पन्न हुआ हो, यदि उसके माता-पिता में से कम-से-कम एक भारतीय नागरिक हो।
- कोई भी व्यक्ति जो 3 दिसंबर 2004 को या उसके उपरांत भारत में उत्पन्न हुआ हो, यदि उसके माता-पिता दोनों भारतीय नागरिक हों या माता-पिता में से एक भारतीय नागरिक हो और दूसरा अवैध प्रवासी न हो।
- धारा 3 इस बात से संबंधित है कि जन्म से भारत का नागरिक कौन माना जाएगा:
- वंश द्वारा:
- धारा 4 वंश द्वारा नागरिकता को समाहित करती है:
- 26 जनवरी 1950 को या उसके उपरांत भारत के बाहर उत्पन्न हुआ व्यक्ति वंशानुक्रम से भारतीय नागरिक हो सकता है, यदि उसके पिता जन्म के समय भारतीय नागरिक थे।
- 10 दिसंबर 1992 को या उसके उपरांत जन्मे व्यक्तिों के लिये, माता-पिता में से किसी एक का भारतीय नागरिक होना पर्याप्त है।
- धारा 4 वंश द्वारा नागरिकता को समाहित करती है:
- पंजीकरण द्वारा:
- धारा 5 कुछ श्रेणियों के व्यक्तिों को पंजीकरण द्वारा नागरिकता प्रदान करने की अनुमति देती है, जिनमें भारतीय मूल के व्यक्ति, भारतीय नागरिकों के जीवन-साथी और भारतीय नागरिकों के अवयस्क बच्चे शामिल हैं।
- प्राकृतिक रूप से:
- धारा 6 में उन विदेशियों के लिये प्राकृतिकीकरण द्वारा नागरिकता का प्रावधान है जो 12 वर्षों से भारत में निवास कर रहे हैं।
- धारा 6A में असम समझौते के अंतर्गत आने वाले व्यक्तियों की नागरिकता के लिये विशेष प्रावधान हैं।
- धारा 6B (2019 में जोड़ी गई) अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से उत्पीड़ित कुछ अल्पसंख्यकों के लिये नागरिकता का मार्ग प्रदान करती है, जो 31 दिसंबर, 2014 से पहले भारत में प्रवेश कर चुके हैं।
- क्षेत्र के समावेशन द्वारा:
- यदि कोई भारत अपनी संप्रभुता के अंतर्गत कोई अतिरिक्त क्षेत्र जोड़ता है, तो उस राष्ट्र के व्यक्ति भारत के नागरिक बन जाएंगे।
- भारत ने पुर्तगालियों से गोवा तथा दमन एवं दीव का क्षेत्र प्राप्त किया था, इसलिये कोई भी व्यक्ति, जिसका या उसके माता-पिता/दादा-दादी में से किसी का जन्म 20 दिसंबर 1961 से पहले गोवा, दमन एवं दीव संघ राज्य क्षेत्र में हुआ था, उसे गोवा, दमन एवं दीव (नागरिकता) आदेश, 1962 के तहत उस दिन भारत का नागरिक माना जाएगा।
- धारा 7A-7D में भारत की विदेशी नागरिकता को शामिल किया गया है, जिसमें पात्रता, अधिकार और रद्दीकरण प्रावधान शामिल हैं।
भारतीय नागरिकता कैसे रद्द की जा सकती है?
- नागरिकता का त्याग:
- धारा 8 भारतीय नागरिकता के स्वैच्छिक त्याग की अनुमति देती है।
- कोई व्यक्ति जो किसी अन्य देश की नागरिकता प्राप्त करने के उद्देश्य से अपनी भारतीय नागरिकता का त्याग करता है, वह भारत का नागरिक नहीं रह जाएगा।
- पिता द्वारा नागरिकता त्यागने पर उसके अवयस्क बच्चों की भी भारतीय नागरिकता समाप्त हो जाएगी।
- इन परिस्थितियों में भारतीय नागरिकता खो देने वाला कोई अवयस्क बच्चा वयस्क होने के एक वर्ष के भीतर पुनः नागरिकता प्राप्त कर सकता है।
- नागरिकता की समाप्ति:
- धारा 9 में कहा गया है कि किसी अन्य देश की नागरिकता प्राप्त करने पर भारतीय नागरिकता स्वतः समाप्त हो जाती है।
- भारत सरकार को किसी भी भारतीय नागरिक की नागरिकता समाप्त करने का अधिकार है जो स्वेच्छा से किसी विदेशी देश की नागरिकता प्राप्त करता है।
- भगवती प्रसाद बनाम राजीव गांधी (1986):
- न्यायालय ने कहा कि अधिनियम की धारा 9 से संबंधित मुद्दों पर निर्णय लेने की शक्ति केंद्र सरकार में निहित है, उच्च न्यायालय में नहीं।
- भगवती प्रसाद बनाम राजीव गांधी (1986) में स्थापित अनुपात निर्णायकता को बाद में मध्य प्रदेश बनाम पीर मोहम्मद एवं अन्य (1963) और हरि शंकर बनाम सोनिया गांधी (2001) में अधिनियम की धारा 9 की व्याख्या तथा अनुप्रयोग के संबंध में पुष्टि की गई थी।
- नागरिकता से वंचित करना:
- धारा 10 में उन शर्तों का उल्लेख है जिनके अंतर्गत सरकार किसी व्यक्ति को भारतीय नागरिकता से वंचित कर सकती है।
- भारत सरकार को किसी भी व्यक्ति को उसकी भारतीय नागरिकता से वंचित करने का अधिकार है, यदि उक्त नागरिकता किसी अन्य माध्यम से प्राप्त की गई हो।:
- पंजीकरण;
- प्राकृतिकीकरण ; या
- भारत के संविधान के अनुच्छेद 5(c) का अनुप्रयोग।
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 5(c) भारत में निवास करने वाले ऐसे व्यक्तियों के लिये संविधान के प्रारंभ पर नागरिकता से संबंधित है, जो ऐसे प्रारंभ से ठीक पहले कम-से-कम पाँच वर्ष तक भारत में सामान्य रूप से निवासी रहे हों।
- धारा 10 में उन शर्तों का उल्लेख है जिनके अंतर्गत सरकार किसी व्यक्ति को भारतीय नागरिकता से वंचित कर सकती है।
नागरिकता विधि में क्या संशोधन किये गए हैं?
संशोधन वर्ष |
मुख्य परिवर्तन |
1986 |
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2003 |
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2015 |
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2019 |
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