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आपराधिक कानून
निर्दोषता की पूर्वधारणा
04-Sep-2024
चंद्र बाबू उर्फ बाबू बनाम केरल राज्य और अन्य "हर आरोपी व्यक्ति को तब तक निर्दोष माना जाता है जब तक कि उसका अपराध सिद्ध न हो जाए। निर्दोष होने की यह धारणा सिर्फ़ एक विधिक सिद्धांत नहीं बल्कि एक मौलिक मानव अधिकार है।" न्यायमूर्ति राजा विजयराघवन वी. तथा न्यायमूर्ति जी. गिरीश |
स्रोत: केरल उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में केरल उच्च न्यायालय ने चंद्र बाबू उर्फ बाबू बनाम केरल राज्य एवं अन्य मामले में माना है कि:
- दोषी सिद्ध होने तक पूर्वधारणा लगाना न केवल एक विधिक अधिकार है, बल्कि एक व्यक्ति का मौलिक मानव अधिकार है।
- न्यायालयों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार एवं भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 व अनुच्छेद 21 के अंतर्गत गारंटीकृत तर्कसंगतता के मानकों का पालन करना चाहिये।
चंद्र बाबू उर्फ बाबू बनाम केरल राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- वर्तमान मामले में, चार आरोपी थे, जिनमें से एक की मामले के लंबित रहने के दौरान मृत्यु हो गई (अपीलकर्त्ता )।
- अभियोजन पक्ष का साक्षी पीड़ित का भाई था, जिसकी अपीलकर्त्ताओं द्वारा कथित हमलों के कारण मृत्यु हो गई थी।
- सत्र न्यायालय के समक्ष अभियोजन पक्ष ने यह तर्क दिया कि आरोपियों ने मृतक पीड़ित के पेट में चाकू घोंपकर हमला किया, जिससे उसकी मृत्यु हो गई।
- सत्र न्यायालय ने साक्षी द्वारा दिये गए बयानों और अन्य प्रासंगिक साक्ष्यों के आधार पर आरोपियों को भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 302 सहपठित धारा 34 के अधीन दोषी पाया तथा उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा दी गई।
- सत्र न्यायालय के निर्णय से व्यथित होकर आरोपियों ने केरल उच्च न्यायालय में अपील की।
- आरोपियों ने कहा कि साक्षी के बयान में विसंगतियाँ थीं तथा हत्या के हथियार की बरामदगी के विषय में साक्ष्य भी विश्वसनीय नहीं थे।
न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?
- उच्च न्यायालय ने कहा कि अभियोजन पक्ष अपराध को सिद्ध करने में विफल रहा क्योंकि कथित अपराध स्थल पर खून के कोई निशान नहीं पाए गए।
- न्यायालय ने यह भी देखा कि अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य में विसंगतियाँ थीं तथा अपीलकर्त्ता उचित संदेह पैदा करने में सफल रहे।
- उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि अभियोजन पक्ष ने न्यायालय के समक्ष पर्याप्त सामग्री प्रस्तुत नहीं की थी और प्रस्तुत सामग्री विकृत थी।
- न्यायालय ने यह भी कहा कि अभियोजन पक्ष के मामले में कई विसंगतियाँ हैं तथा जाँच एजेंसी अपराध की जाँच करने एवं उसे स्थापित करने में विफल रही है।
- न्यायालय ने कहा कि मामले को उचित संदेह से परे सिद्ध किया जाना चाहिये, न कि केवल संदिग्ध परिस्थितियों के आधार पर।
- इसलिये, केरल उच्च न्यायालय ने आरोपी की अपील स्वीकार कर ली तथा सत्र न्यायालय के आदेश को रद्द कर दिया।
निर्दोषता की धारणा क्या है?
परिचय:
- आपराधिक कार्यवाही के दौरान न्याय के उद्देश्यों को पूरा करने के लिये दोनों पक्षों के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिये।
- ऐसे मामलों में लापरवाही न्याय की विफलता का कारण बन सकती है।
- अभियुक्त को तब तक निर्दोष माना जाने का अधिकार है जब तक कि उसका अपराध उचित संदेह से परे सिद्ध न हो जाए।
- तथ्यों को सिद्ध करने का भार हमेशा उस व्यक्ति पर होता है जो इसे सिद्ध करने का दावा करता है, जैसा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 101 एवं धारा 102 के अधीन स्पष्ट रूप से दिया गया है। (अब भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 104 एवं धारा 105 के अधीन शामिल किया गया है)
- निर्दोषता की धारणा अभियोजन पक्ष पर बोझ नहीं डालती है, लेकिन यह बताती है कि बोझ अभियोजन पक्ष से ही प्रारंभ होता है।
निर्दोषता की धारणा का महत्त्व:
- निर्दोषता की धारणा का सिद्धांत केवल एक अधिकार नहीं है, बल्कि राज्य के लिये अपनी बलपूर्वक शक्तियों का प्रयोग करने का सिद्धांत है।
- पूर्वधारणा का सिद्धांत गलत दोषसिद्धि के विरुद्ध व्यक्ति के अधिकार की रक्षा करता है।
- निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार दोषी सिद्ध होने तक निर्दोष मानने के अधिकार को लाने की कुंजी है।
- यह अभियोजन पक्ष को आरोपी के विरुद्ध लगाए गए अपराध के सभी तत्त्वों को सिद्ध करने के लिये बाध्य करता है।
- निर्दोषता की धारणा के सिद्धांत के विपरीत कुछ भी न्याय के विरुद्ध होगा तथा न्याय की विफलता का कारण बनेगा।
- निर्दोषता की धारणा एक मानव अधिकार है जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है।
- COI के अनुच्छेद 14 एवं अनुच्छेद 21 में इस सिद्धांत को शामिल किया गया है जो इसे एक मौलिक अधिकार बनाता है।
निर्दोषिता की धारणा पर आधारित मामले कौन-से हैं?
- काली राम बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य (1973):
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि किसी व्यक्ति को तब तक दोषी नहीं ठहराया जा सकता जब तक कि उसके विरुद्ध कोई उचित संदेह सिद्ध न हो जाए।
- उचित संदेह से परे सिद्ध होने से तात्पर्य यह है कि जब तक अभियोजन पक्ष विश्वसनीय साक्ष्यों के साथ अभियुक्त द्वारा प्रस्तुत किये गए तर्कों का खंडन करने में सफल नहीं हो जाता, तब तक उसे दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
- के.एम. नानावटी बनाम महाराष्ट्र राज्य (1962):
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि सामान्य सिद्धांत निर्दोषता की धारणा है।
- साक्ष्य प्रस्तुत करने का भार अभियोजन पक्ष पर है।
सिविल कानून
लोक न्यायालय द्वारा प्रदत्त पंचाट
04-Sep-2024
वीरेंद्र सिंह बनाम राजस्थान राज्य सड़क परिवहन निगम "लोक न्यायालय द्वारा पारित निर्णय को सामान्य तरीके से चुनौती नहीं दी जा सकती, जब तक कि संबंधित पक्ष के विरुद्ध छल का आरोप न हो।" न्यायमूर्ति अनूप कुमार ढांड |
स्रोत: राजस्थान उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति अनूप कुमार ढांड की पीठ ने कहा कि लोक न्यायालय द्वारा प्रदत्त निर्णय को तभी चुनौती दी जा सकती है, जब वह क्षेत्राधिकार से परे पारित किया गया हो या किसी अन्य के माध्यम से या न्यायालय के साथ छल या कूटरचना करके प्राप्त किया गया हो।
- राजस्थान उच्च न्यायालय ने वीरेंद्र सिंह बनाम राजस्थान राज्य सड़क परिवहन निगम मामले में यह निर्णय दिया।
वीरेंद्र सिंह बनाम राजस्थान राज्य सड़क परिवहन निगम मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- वीरेंद्र सिंह को दो वर्ष की अवधि के लिये परिवीक्षा पर अनुकंपा के आधार पर कंडक्टर के पद पर नियुक्त किया गया था।
- 26 दिसंबर 2014 को उनकी सेवाएँ इस आधार पर समाप्त कर दी गईं कि निरीक्षण के समय कुछ यात्री बिना टिकट के यात्रा करते पाए गए थे, जबकि इस तथ्य के बावजूद कि कर्मचारी द्वारा यात्रियों से टिकट के लिये अपेक्षित राशि वसूल की गई थी।
- समाप्ति से व्यथित होकर न्यायालय ने एक रिट याचिका दायर की, लेकिन औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 (IDA) के अंतर्गत वाद संस्थित करने के वैकल्पिक उपचार की उपलब्धता के आधार पर इसे खारिज कर दिया गया।
- उपरोक्त आदेश को खंड पीठ (डिवीज़न बेंच) के समक्ष चुनौती दी गई तथा उसे अनुमति दे दी गई।
- इस आदेश को उच्चतम न्यायालय ने यथावत् रखा तथा कहा कि कर्मचारी की पदच्युति का आदेश कलंकपूर्ण था और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन था।
- इस प्रकार, बर्खास्तगी के आदेश को रद्द कर दिया गया और अलग रखा गया तथा RSRTC को निर्देश जारी किया गया कि वह कर्मचारी को बिना बकाया वेतन के सेवा में बहाल करे।
- RSRTC को सलाह दिये जाने पर कर्मचारी के विरुद्ध उचित अनुशासनात्मक जाँच करने की स्वतंत्रता दी गई।
- याचिकाकर्त्ता RSRTC खंडपीठ के आदेश से संतुष्ट नहीं था तथा दोनों पक्षों की सहमति के आधार पर मामले को निपटान की संभावना तलाशने के लिये राष्ट्रीय लोक न्यायालय को भेजा गया था।
- RSRTC ने अधिवक्ताओं की अनुपस्थिति के तकनीकी आधार पर विवादित पंचाट का विरोध किया है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- विचाराधीन आरोपित पंचाट से संकेत मिलता है कि इसे RSRTC कार्यालय आदेश/नीति निर्णय के अनुसार पारित किया गया था।
- पंचाट कार्यालय आदेश के आधार पर तथा RSRTC के स्थायी अधिवक्ता द्वारा दी गई सहमति के आधार पर पारित किये गए।
- इस तरह के सहमति पंचाट RSRTC के विरुद्ध एक निषेध के रूप में कार्य करते हैं तथा ये पक्षकारों पर बाध्यकारी होते हैं, जिससे RSRTC यह दलील देकर बच नहीं सकता कि अधिवक्ता को समझौता करने के लिये अधिकृत नहीं किया गया था।
- इसलिये, याचिकाकर्त्ता को राष्ट्रीय लोक न्यायालय द्वारा पारित पंचाटों की वैधता पर तब तक प्रश्न न करने की अनुमति नहीं दी जा सकती जब तक कि रिकॉर्ड पर यह सिद्ध न हो जाए कि याचिकाकर्त्ता के साथ कोई छल या प्रवंचना कारित की गई है।
लोक न्यायालय क्या है?
परिचय:
- 'लोक न्यायालय' प्राचीन भारत में प्रचलित न्याय निर्णय प्रणाली का एक पुराना रूप है तथा यह पारंपरिक भारतीय संस्कृति एवं सामाजिक जीवन का हिस्सा था।
- 'लोक न्यायालय' का अर्थ है- "लोगों का न्यायालय"। 'लोक' का अर्थ है- "लोग" एवं 'न्यायालय' का अर्थ है- "न्यायालय"।
- लोक न्यायालय विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 (LSA) के अंतर्गत स्थापित वैकल्पिक विवाद निवारण तंत्रों में से एक है।
- यह एक ऐसा मंच है जहाँ न्यायालय के समक्ष लंबित विवादों/मामलों का सौहार्दपूर्ण ढंग से निपटान/समझौता किया जाता है।
- लोक न्यायालय का उद्देश्य विवादों का लागत प्रभावी, समयबद्ध एवं सौहार्दपूर्ण समाधान प्रदान करना, न्यायालयों के मामलों के बोझ को कम करना और सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा देना है।
- लोक न्यायालय एक ऐसा प्रवाधान है जहाँ दोनों पक्ष जीतते हैं और कोई भी हारता नहीं है।
लोक न्यायालय द्वारा पारित पंचाट:
- LSA की धारा 21 में लोक न्यायालय के पंचाट का प्रावधान है।
- धारा 21 (1) में यह प्रावधान है कि:
- लोक न्यायालय द्वारा पारित प्रत्येक निर्णय को सिविल न्यायालय का निर्णय या किसी अन्य न्यायालय का आदेश माना जाएगा।
- जहाँ लोक न्यायालय द्वारा समझौता या निपटान हो गया है, ऐसे मामले में भुगतान किया गया न्यायालय शुल्क न्यायालय शुल्क अधिनियम, 1870 के अंतर्गत प्रदान की गई विधि से वापस किया जाएगा।
- धारा 21(2) में प्रावधान है कि लोक न्यायालय द्वारा दिया गया प्रत्येक निर्णय:
- विवाद से संबंधित सभी पक्षों पर अंतिम एवं बाध्यकारी होगा।
- निर्णय के विरुद्ध किसी भी न्यायालय में अपील नहीं की जाएगी।
लोक न्यायालय द्वारा पारित निर्णय की प्रवर्तनीयता पर क्या मामले हैं?
- के. श्रीनिवासप्पा एवं अन्य बनाम एम. मल्लम्मा एवं अन्य (2022):
- न्यायालय ने कहा कि लोक न्यायालय द्वारा पारित निर्णय के विरुद्ध रिट याचिका स्वीकार्य है, विशेषकर तब जब ऐसी याचिका समझौता निर्णय प्राप्त करने के तरीके में छल या कूटरचना का आरोप लगाते हुए दायर की गई हो।
- रिट न्यायालय बिना किसी तर्क के लोक न्यायालय के आदेश को रद्द नहीं कर सकता।
- लोक न्यायालय के निर्णय को, उस निर्णय में दर्ज तथ्यों को, जो छल से प्राप्त हुए हैं, रद्द किये बिना उलटा या रद्द नहीं किया जा सकता।
- पी.टी. थॉमस बनाम थॉमस जॉब (2005):
- जब लोक न्यायालय किसी वाद के पक्षकारों के मध्य हुए करार के आधार पर मामलों का निपटान करती है, तो समानता एवं प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करते हुए, लोक न्यायालय का ऐसा प्रत्येक निर्णय सिविल न्यायालय का आदेश माना जाएगा तथा ऐसा आदेश अंतिम होगा और पक्षकारों पर बाध्यकारी होगा।
- सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 96 के अंतर्गत कोई अपील उस निर्णय के विरुद्ध नहीं होगी, क्योंकि निर्णय अंतिम होता है।
सिविल कानून
तर्क के अभाव में निर्णय
04-Sep-2024
राज्य परियोजना निदेशक, यूपी एजुकेशन फॉर ऑल परियोजना बोर्ड एवं अन्य बनाम सरोज मौर्य एवं अन्य “न्यायालय ने कहा कि उचित तर्क के बिना कोई निर्णय यथावत् नहीं रखा जा सकता।” न्यायमूर्ति हिमा कोहली और न्यायमूर्ति संदीप मेहता |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने उचित तर्क के अभाव में उच्च न्यायालय की खंडपीठ के आदेश को पलट दिया। खंडपीठ ने अपनी सहमति के लिये विस्तृत स्पष्टीकरण दिये बिना केवल एकल न्यायाधीश के निर्णय की पुष्टि की थी। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि बिना तर्क के लिये गए निर्णय को विधिक रूप से यथावत् नहीं रखा जा सकता।
- न्यायमूर्ति हिमा कोहली और न्यायमूर्ति संदीप मेहता ने राज्य परियोजना निदेशक, यूपी एजुकेशन फॉर ऑल प्रोजेक्ट बोर्ड एवं अन्य बनाम सरोज मौर्य एवं अन्य के मामले में निर्णय दिया।
राज्य परियोजना निदेशक, यूपी एजुकेशन फॉर ऑल परियोजना बोर्ड एवं अन्य बनाम सरोज मौर्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- उत्तर प्रदेश राज्य ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय की खंडपीठ द्वारा 18 अप्रैल 2022 को पारित निर्णय के विरुद्ध अपील दायर की।
- खंडपीठ का निर्णय 21 दिसंबर 2021 के एक सामान्य निर्णय के विरुद्ध एक अंतर-न्यायालय अपील के उत्तर में था, जिसे रिट याचिकाओं के एक समूह में एकल न्यायाधीश द्वारा पारित किया गया था।
- उत्तर प्रदेश राज्य ने विभिन्न सरकारी आदेश जारी किये थे, जिनमें 11 दिसंबर 2020 का एक आदेश भी शामिल था, जिस आदेश को खंडपीठ के समक्ष रखा गया।
- खंडपीठ के निर्णय में मुख्य रूप से रिट याचिकाकर्त्ताओं और प्रतिवादियों के मामलों के साथ-साथ एकल न्यायाधीश के निष्कर्षों को भी दर्ज किया गया।
- राज्य ने तर्क दिया कि खंडपीठ ने अपीलकर्त्ताओं द्वारा जारी सरकारी आदेशों एवं परिपत्रों पर पर्याप्त रूप से विचार नहीं किया या उन पर ध्यान नहीं दिया।
- मामले के लंबित रहने के दौरान, उच्चतम न्यायालय ने 2 सितंबर 2022 को स्थगन आदेश जारी किया था, जिसे बाद में 2 मई 2023 को निरपेक्ष बना दिया गया।
- स्थगन आदेश ने राज्य को अपील में अंतिम आदेश के अधीन शिक्षकों की नियुक्तियाँ करने की अनुमति दे दी।
- राज्य ने तर्क दिया कि खंडपीठ ने दोनों पक्षों द्वारा प्रस्तुत दलीलों पर विचार नहीं किया तथा बिना उचित तर्क के एकल न्यायाधीश के आदेश को यथावत रखा।
- यह मामला उत्तर प्रदेश में शिक्षक नियुक्तियों से संबंधित मुद्दों से संबंधित था, जिसमें प्रारंभिक निर्णय पारित होने के उपरांत आगे के घटनाक्रम घटित हुए।
- इस मामले ने न्यायिक तर्क की पर्याप्तता और प्रशासनिक निर्णय लेने में प्रासंगिक सरकारी आदेशों पर विचार करने के विषय में प्रश्न उठाए।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने टिप्पणी की कि उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने अपने निर्णय में केवल रिट याचिकाकर्त्ताओं और प्रतिवादियों के मामलों को रिकॉर्ड में रखा तथा उसके उपरांत विद्वान एकल न्यायाधीश के निष्कर्षों को भी शामिल किया।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि खंडपीठ उसके समक्ष उठाए गए मुद्दों पर अपना दृष्टिकोण व्यक्त करने में विफल रही।
- यह भी पाया गया कि खंडपीठ ने अपना निर्णय विद्वान एकल न्यायाधीश के दृष्टिकोण एवं इस दृष्टिकोण से सहमति जताते हुए, बिना कोई कारण बताए, मात्र निष्कर्ष पर पहुँचा दिया।
- न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि उक्त निर्णय में किसी तर्क के अभाव में उसे यथावत् नहीं रखा जा सकता।
- CCT बनाम शुक्ला एंड ब्रदर्स (2010) में स्थापित पूर्वनिर्णय पर भरोसा करते हुए, उच्चतम न्यायालय ने इस सिद्धांत को दोहराया कि तर्क ही विधि का जीवन है और तर्क देने से अनिश्चितता से बचते हुए न्याय प्रदान करने को बढ़ावा मिलता है।
- न्यायालय ने कहा कि तर्कपूर्ण निर्णय की अवधारणा विधि के मूलभूत नियम का एक अनिवार्य भाग बन गई है और यह प्रक्रियात्मक विधि की अनिवार्य आवश्यकता है।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि विचारों की स्पष्टता से दृष्टि की स्पष्टता आती है तथा उचित तर्क ही न्यायसंगत एवं निष्पक्ष निर्णय का आधार है।
- न्यायालय ने कहा कि एक तर्कपूर्ण निर्णय कई उद्देश्यों की पूर्ति करता है: न्यायालय के अपने विचारों को स्पष्ट करना, संबंधित पक्षों को कारणों से अवगत कराना तथा अपीलीय/उच्च न्यायालयों द्वारा विचार हेतु आधार प्रदान करना।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि निर्णय में कारणों का अभाव इन उद्देश्यों की पूर्ति में बाधा उत्पन्न करता है तथा अनिश्चितता और असंतोष का तत्त्व उत्पन्न करता है।
- न्यायालय ने कहा कि स्पष्ट वैधानिक प्रावधानों के अभाव में भी, कारण दर्ज करना न्यायालयों का अनिवार्य दायित्व है।
- न्यायालय ने कहा कि अपीलकर्त्ताओं द्वारा जारी किये गए सरकारी आदेशों एवं परिपत्रों सहित बाद के घटनाक्रमों को डिवीज़न बेंच द्वारा ध्यान में रखा जाना चाहिये था।
निर्णय क्या है?
परिचय:
- निर्णय किसी वाद में पक्षों के बीच विवादित मामलों पर न्यायालय के निर्णय की आधिकारिक घोषणा है।
- एक निर्णय में सामान्यतः पर शामिल होता है:
- न्यायालय के तथ्य संबंधी निष्कर्ष।
- न्यायालय के विधि संबंधी निष्कर्ष।
- मामले पर निर्णय या आदेश।
- राहत या उपचार के लिये दिये गए कोई भी आदेश।
प्रकार:
- अंतिम निर्णय: मामले के सभी मुद्दों का समाधान, केवल अपील के अधीन।
- अंतरवर्ती निर्णय: कुछ मुद्दों पर निर्णय लिया जाता है, तथा अन्य को बाद में निर्णय के लिये छोड़ दिया जाता है।
- डिफ़ॉल्ट निर्णय: किसी ऐसे पक्ष के विरुद्ध दर्ज किया गया निर्णय जो वाद में उपस्थित होने या उत्तर देने में विफल रहता है।
- सारांश निर्णय: जब विवाद में कोई महत्त्वपूर्ण तथ्य न हो तो पूर्ण सुनवाई के बिना निर्णय दिया जाता है।
आवश्यक तत्त्व:
- निर्णय संबंधित पक्षों पर बाध्यकारी होता है तथा उसे विधि द्वारा लागू किया जा सकता है।
- पूर्वनिर्णय मूल्य: निर्णय, विशेष रूप से उच्चतर न्यायालयों के, समान तथ्यों या विधिक मुद्दों वाले भविष्य के मामलों के लिये पूर्वनिर्णय के रूप में काम कर सकते हैं।
- अस्पष्टता से बचने के लिये निर्णय सामान्यतः औपचारिक, सटीक विधिक भाषा में लिखे जाते हैं।
- किसी निर्णय को विभिन्न तरीकों से लागू किया जा सकता है, जैसे कि संपत्ति ज़ब्त करना या वेतन ज़ब्त करना।
- निर्णयों के विरुद्ध सामान्यतः निर्दिष्ट समय-सीमा के भीतर उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है।
- निर्णय आधिकारिक रूप से दर्ज किये जाते हैं और सार्वजनिक रिकॉर्ड का हिस्सा बन जाते हैं।
विधिक प्रावधान:
- सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 2 में डिक्री, आदेश और निर्णय की परिभाषा दी गई है।
- CPC की धारा 2(9) निर्णय की परिभाषा निर्धारित करती है।
- "निर्णय" का अर्थ है किसी डिक्री या आदेश के आधार पर न्यायाधीश द्वारा दिया गया कथन।
- निर्णय में डिक्री या आदेश पारित करने के लिये कारण बताए जाते हैं।
- CPC की धारा 33 में प्रावधान है कि मामले की सुनवाई के बाद न्यायालय निर्णय सुनाएगा और ऐसे निर्णय के आधार पर डिक्री जारी की जाएगी।
- CPC के आदेश XX नियम 1 में प्रावधान है कि निर्णय न्यायालय सार्वजनिक रूप से या तत्काल या यथाशीघ्र सुनाया जाना चाहिये।
- आदेश XX नियम 1 की शर्त यह प्रावधान करती है कि जहाँ निर्णय तत्काल नहीं सुनाया जा सकता, वहाँ उसे मामले की सुनवाई समाप्त होने की तिथि से 30 दिनों के भीतर सुनाया जाना चाहिये तथा यह अवधि मामले की सुनवाई समाप्त होने की तिथि से 60 दिनों से अधिक नहीं होनी चाहिये (असाधारण परिस्थितियों के मामले में तथा निर्धारित तिथि की समुचित सूचना पक्षकारों या उनके अधिवक्ताओं को दी जानी चाहिये)।
- CPC के आदेश XX नियम 2 में प्रावधान है कि न्यायाधीश लिखित निर्णय सुनाएगा, परंतु अपने पूर्ववर्ती द्वारा नहीं सुनाया जाएगा।
- CPC के आदेश XX नियम 3 में यह प्रावधान है कि निर्णय पर न्यायालय में सार्वजनिक रूप से न्यायाधीश द्वारा दिनांक अंकित किया जाएगा और उस पर हस्ताक्षर किये जाएंगे तथा एक बार हस्ताक्षर हो जाने के उपरांत उसमें कोई परिवर्तन या संशोधन नहीं किया जाएगा, सिवाय CPC की धारा 152 के अंतर्गत किये गए प्रावधान के या समीक्षा के उपरांत।
- CPC के आदेश XX नियम 4 में प्रावधान है कि लघु वाद न्यायालयों के अतिरिक्त अन्य न्यायालयों में निम्नलिखित शामिल होने चाहिये:
- मामले का संक्षिप्त विवरण
- निर्धारण के लिये बिंदु
- उस पर निर्णय
- ऐसे निर्णय के कारण
- लघु वाद न्यायालय द्वारा दिये गए निर्णय में निर्धारण और उस पर निर्णय के लिये बिंदुओं से अधिक कुछ भी शामिल होना आवश्यक नहीं है।
- गजराज सिंह बनाम देवहू (1951) के मामले में न्यायालय ने कहा कि निर्णय बोधगम्य होना चाहिये और यह दर्शाना चाहिये कि न्यायाधीश ने अपने विवेक का प्रयोग किया है।