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सिविल कानून

संविधान के अनुच्छेद 226 के अनुसार बाल संरक्षकत्व

 09-Sep-2024

सोमप्रभा राणा बनाम मध्य प्रदेश राज्य

“जब न्यायालय अवयस्क के संबंध में बंदी प्रत्यक्षीकरण के मुद्दे पर विचार करता है तो वह बालक को चल संपत्ति नहीं मान सकता”।

न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने कहा कि बालक के संरक्षकत्व के संबंध में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर निर्णय करते समय बालक के कल्याण के सिद्धांत पर विचार किया जाना चाहिये।      

  • उच्चतम न्यायालय ने सोमप्रभा राणा बनाम मध्य प्रदेश राज्य मामले में यह निर्णय दिया।

सोमप्रभा राणा बनाम मध्य प्रदेश राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • इस मामले में बालक की माँ की 27 दिसंबर 2022 को फाँसी लगाने से अप्राकृतिक मृत्यु हो गई।
  • प्रतिवादी संख्या 2, 3 (बालक के नाना-नानी) और 4 (बालक के पिता) ने भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 226 के अंतर्गत मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार का आह्वान किया।
  • प्रतिवादियों का मामला यह था कि जब चौथा प्रतिवादी (बालक का पिता) अपनी पत्नी के पोस्टमार्टम की औपचारिकताएँ पूरी करने में व्यस्त था, तब अपीलकर्त्ता संख्या 2 और 3 (मृतक माँ की सगी बहनें) अवयस्क बालक (माँ की मृत्यु की तिथि पर बालक की आयु 11 महीने थी) को ले गए।
  • यह ध्यान देने योग्य है कि चौथे प्रतिवादी को भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 498 A और धारा 304 B के अंतर्गत अपराधों के लिये गिरफ्तार किया गया था और 19 अप्रैल 2023 को ज़मानत दे दी गई थी।
  • उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को स्वीकार कर लिया और अपीलकर्त्ताओं को प्रतिवादियों को संरक्षकत्व सौंपने का निर्देश दिया।
  • उच्चतम न्यायालय ने 7 जुलाई 2023 को उपरोक्त निर्णय के क्रियान्वयन पर रोक लगा दी।
  • 5 दिसंबर 2023 को उच्चतम न्यायालय ने अनुमति प्रदान कर दी तथा स्थगन जारी रखा, परंतु न्यायालय ने कहा कि पति के लिये उचित न्यायालय के समक्ष संरक्षकत्व के लिये आवेदन करना स्वतंत्र होगा।
  • पति ने आज तक बालक की संरक्षकत्व के लिये कोई आवेदन नहीं किया है। अपीलकर्त्ताओं द्वारा संरक्षकत्व के लिये आवेदन किया गया था, परंतु बाद में उसे वापस ले लिया गया।
  • अब न्यायालय के समक्ष प्रश्न यह था कि:
    • क्या उच्च न्यायालय द्वारा उस बालक के संरक्षकत्व में व्यवधान डालना न्यायोचित था, जिसकी आयु, निर्णय पारित करने के समय एक वर्ष और 5 महीने थी?

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्च न्यायालय ने बालक के संरक्षकत्व केवल इसलिये समाप्त कर दिया क्योंकि प्रतिवादी ही बालक का जैविक पिता था।
  • उच्च न्यायालय ने बालक के कल्याण के मुद्दे पर विचार नहीं किया।
  • उच्चतम न्यायालय ने सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कही कि:
    • जब न्यायालय अवयस्क के मामले में बंदी प्रत्यक्षीकरण के मुद्दे पर विचार करता है, तो न्यायालय बालक को चल संपत्ति नहीं मान सकता और संरक्षकत्व में व्यवधान के बालक पर पड़ने वाले प्रभाव पर विचार किये बिना संरक्षकत्व हस्तांतरित नहीं कर सकता। ऐसे मुद्दों पर यंत्रवत् निर्णय नहीं लिया जा सकता।
  • पैरेन्स पैट्रिया के सिद्धांत को न्यायालयों द्वारा अनदेखा नहीं किया जाना चाहिये।
  • बालक की अल्पायु को देखते हुए तथा इस तथ्य को देखते हुए भी कि बच्चा लंबे समय से अपने माता-पिता और दादा-दादी से नहीं मिला है, न्यायालय ने बालक का संरक्षकत्व तत्काल पिता एवं दादा-दादी को सौंपने से इनकार कर दिया।
  • न्यायालय ने यह भी माना कि बालक के संरक्षकत्व के मामलों से निपटने वाली नियमित सिविल/कुटुंब न्यायालय ही लाभप्रद स्थिति में हैं।
  • हालाँकि न्यायालय ने कहा कि भले ही बालक का संरक्षकत्व पिता को न दिया जाए, फिर भी उसे बालक से मिलने का अधिकार अवश्य दिया जाना चाहिये।

COI के अनुच्छेद 226 के अंतर्गत क्षेत्राधिकार के प्रयोग के संबंध में बालक की अभिरक्षा पर विधान क्या है?

  • न्यायालय ने ऐसे मामलों में पालन किये जाने वाले निम्नलिखित सिद्धांत निर्धारित किये हैं:
    • बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट एक विशेषाधिकार रिट है। यह एक असाधारण एवं विवेकाधिकार उपाय है।
    • ऐसे मामलों में शक्तियों का प्रयोग करना या न करना उच्च न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है। यह सब व्यक्तिगत मामलों के तथ्यों पर निर्भर करता है।
    • यहाँ तक ​​कि यदि किसी विशेष मामले में उच्च न्यायालय पाता है कि बालक की हिरासत अवैध है, तो वह अनुच्छेद 226 के अंतर्गत क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने से इंकार कर सकता है, यदि उच्च न्यायालय का यह विचार है कि उसकी संरक्षकत्व में व्यवधान डालना अवयस्क के कल्याण/हित में नहीं होगा।
    • बालक के संरक्षकत्व से संबंधित प्रश्न पर निर्णय करते समय, अवयस्क बालक का कल्याण सर्वोपरि होना चाहिये।
    • उपरोक्त सिद्धांत किसी अवयस्क के संबंध में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर भी लागू होता है।

बालक के संरक्षकत्व के मामलों में बालक के सर्वोत्तम हित का सिद्धांत क्या है?

  • संरक्षकत्व एवं प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 की धारा 17:
    • धारा 17 (1) में यह प्रावधान है कि किसी अवयस्क के संरक्षक की नियुक्ति या घोषणा करने में न्यायालय, इस धारा के उपबंधों के अधीन रहते हुए, इस बात से निर्देशित होगा कि अवयस्क जिस विधान के अधीन है, उसके अनुरूप परिस्थितियों में अवयस्क के कल्याण के लिये क्या आवश्यक प्रतीत होता है।
    • धारा 17 (2) में यह प्रावधान है कि अवयस्क के कल्याण के विषय में विचार करते समय न्यायालय को अवयस्क की आयु, लिंग एवं धर्म, प्रस्तावित अभिभावक का चरित्र तथा क्षमता तथा अवयस्क से उसके रिश्तेदारों की निकटता, मृत माता-पिता की इच्छाएँ, यदि कोई हों, तथा प्रस्तावित अभिभावक के अवयस्क या उसकी संपत्ति के साथ मौजूदा या पिछले संबंधों को ध्यान में रखना होगा।
    • धारा 17 (3) में प्रावधान है कि यदि अवयस्क की आयु इतनी है कि वह अपनी बुद्धि से चुनाव कर सके, तो न्यायालय उस चुनाव पर विचार कर सकता है।
  • हिंदू अल्पसंख्यक एवं संरक्षकत्व अधिनियम, 1956 की धारा 13:
    • इस धारा में यह प्रावधान है कि न्यायालय द्वारा किसी व्यक्ति को हिंदू अवयस्क का संरक्षक नियुक्त या घोषित करते समय अवयस्क का कल्याण सर्वोपरि माना जाएगा।
  • आशीष रंजन बनाम अनुपम टंडन (2010):
    • बालक के कल्याण पर विचार करते समय, "बालक के नैतिक और नैतिक कल्याण के साथ-साथ उसकी शारीरिक देखभाल को भी न्यायालय द्वारा ध्यान में रखा जाना चाहिये"।
    • बालक को संपत्ति या वस्तु के रूप में नहीं देखा जा सकता, इसलिये न्यायालय को ऐसे मुद्दों को सावधानी एवं प्रेम, स्नेह तथा मानवीय संवेदनाओं के साथ संभालना होगा।
  • कर्नल रमनीश पाल सिंह बनाम सुगंधी अग्रवाल (2024):
    • न्यायालय ने कहा कि संरक्षकत्व के मामले पर निर्णय निम्नलिखित कारकों को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिये:
      • सामाजिक-आर्थिक और शैक्षिक अवसर जो अवयस्क बालकों को उपलब्ध कराए जा सकते हैं;
      • बालकों की स्वास्थ्य देखभाल और समग्र कल्याण
      • किशोरों के लिये अनुकूल भौतिक परिवेश उपलब्ध कराने की क्षमता, परंतु साथ ही अवयस्क बालकों के चुनाव को भी ध्यान में रखना।

बाल संरक्षणत्व का निर्णय लेने में पारिवारिक न्यायालय अधिक लाभप्रद स्थिति में क्यों हैं?

  • कुटुंब न्यायालय बालक के साथ प्रायः वार्तालाप कर सकता है।
  • व्यावहारिक रूप से, सभी कुटुंब न्यायालयों में एक बाल केंद्र/खेल क्षेत्र होता है।
  • बालक को खेल केंद्र में लाया जा सकता है, जहाँ न्यायिक अधिकारी बालक से वार्तालाप कर सकते हैं। पक्षों को एक ही स्थान पर बालक से मिलने की अनुमति दी जा सकती है।
  • न्यायालय बालक का मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन करने के लिये विशेषज्ञों की नियुक्ति कर सकता है।
  • यदि किसी पक्ष को बालक से मिलने की अनुमति देना आवश्यक हो, तो सिविल न्यायालय या कुटुंब न्यायालय इसकी निगरानी करने की बेहतर स्थिति में है।

सिविल कानून

IBBI विनियम, 2016 के नियम 12 के अंतर्गत अनिवार्य समय-सीमा

 09-Sep-2024

वी.एस. पलानीवेल बनाम पी. श्रीराम सी.एस. लिक्विडेटर आदि

"नियम 12 को अनिवार्य माना जाएगा क्योंकि इसमें शेष विक्रय मूल्य का भुगतान न करने की स्थिति में परिणाम की बात कही गई है।"

न्यायमूर्ति हिमा कोहली

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में वी.एस. पलानीवेल बनाम पी. श्रीराम सी.एस. लिक्विडेटर आदि के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि इंडियन इन्साॅल्वेंसी एंड बैंकरप्सी बोर्ड (लिक्विडेटर प्रक्रिया) विनियम, 2016 (IBBIR) की अनुसूची 1 के अंतर्गत नियम 12 अनिवार्य प्रकृति का है तथा लिक्विडेटर अपने विवेक के अधीन नियम के अंतर्गत उल्लिखित समय-सीमा को नहीं बढ़ा सकता है।

वी.एस. पलानीवेल बनाम पी. श्रीराम सीएस लिक्विडेटर इत्यादि मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • वर्तमान मामले में, श्री लक्ष्मी होटल्स प्राइवेट लिमिटेड (कॉर्पोरेट देनदार (CD), जिसे आगे कंपनी के रूप में संदर्भित किया जाएगा) नामक एक कंपनी चार सदस्यों (शेयरधारकों: अपीलीय, उनकी पत्नी, उनकी एवं उनकी पुत्रवधू) द्वारा स्थापित की गई थी।
  • कंपनी ने वर्ष 2006 में वित्तीय लेनदार से ऋण लिया था।
  • दोनों के बीच एक विवाद उत्पन्न हुआ, जिसके विरुद्ध वित्तीय लेनदार (FC) ने पक्षों के बीच मध्यस्थता खंड लागू किया।
  • मध्यस्थ ने वित्तीय कंपनी के पक्ष में निर्णय पारित किया तथा जब कंपनी ने मद्रास उच्च न्यायालय में अपील की तो उच्च न्यायालय ने उसे खारिज कर दिया।
  • कंपनी द्वारा वित्तीय कंपनी को दी गई राशि का भुगतान किये जाने के परिणामस्वरूप वित्तीय कंपनी ने कंपनी के विरुद्ध कॉर्पोरेट दिवाला समाधान प्रक्रिया (CIRP) आरंभ करने के लिये अधिकरण (AA) के समक्ष आवेदन दायर किया।
  • प्रतिवादी संख्या 2 (अंतरिम समाधान पेशेवर [IRP], समाधान पेशेवर [RP] और परिसमापक) को नियुक्त किया गया, लेकिन कंपनी के पुनरुद्धार के लिये उनके द्वारा कोई समाधान योजना की अनुशंसा नहीं की गई।
  • लेनदारों की समिति ने कंपनी के परिसमापन के लिये समाधान योजना की अनुशंसा की।
  • मूल्यांकन रिपोर्ट प्रस्तुत की गई, तथा नीलामी की तिथि आरक्षित मूल्य के साथ तय की गई।
  • यह आरोप लगाया गया कि परिसमापक ने अपीलकर्त्ता से स्टेकहोल्डर्स कमेटी में एक व्यक्ति को नामित करने का अनुरोध किया, जिसे अपीलकर्त्ता ने करने में विफल रहा।
  • प्रथम नीलामी में कोई बोली प्राप्त नहीं हुई, जिसके कारण आरक्षित मूल्य मूल आरक्षित मूल्य से 25% कम कर दिया गया।
  • मैसर्स केएमसी स्पेशियलिटी हॉस्पिटल्स (इंडिया) लिमिटेड (क्रेता) बयाना राशि जमा करके सफल बोली लगाने वाले के रूप में उभरा।
  • अपीलकर्त्ता ने तर्क दिया कि शेष राशि IBBIR के विनियमन 33 के अंतर्गत अनुसूची-I के नियम 12 के अनुसार 90 दिनों के अंतर्गत भुगतान की जानी चाहिये।
  • शेष राशि की मांग करने वाला पत्र 24 दिसंबर 2019 को भेजा गया तथा क्रेता को 26 दिसंबर 2019 को प्राप्त हुआ।
  • यह तर्क दिया गया कि 90 दिनों की सीमा की गणना के लिये 25 दिसंबर से तिथि मानी जाएगी।
  • जबकि क्रेता ने तर्क दिया कि जिस तिथि को पत्र उनके संज्ञान में आया, उसे 90 दिनों की सीमा के लिये माना जाना चाहिये अर्थात् 26 दिसंबर 2019।
  • जबकि क्रेता ने तर्क दिया कि जिस तिथि को पत्र उसके संज्ञान में आया, उसे 90 दिन की सीमा के रूप में माना जाना चाहिये, अर्थात् 26 दिसंबर 2019।
  • अपीलकर्त्ता ने नीलामी कार्यवाही को रद्द करने के लिये AA के समक्ष आवेदन दायर किया, जिसे खारिज कर दिया गया।
  • जबकि क्रेता ने शेष विक्रय प्रतिफल का भुगतान करने के लिये समय बढ़ाने के लिये AA के समक्ष आवेदन दायर किया।
    • कोविड-19 महामारी के कारण और
    • नीलाम की गई संपत्ति को कुर्क करने के लिये आयकर प्राधिकरण द्वारा पारित आदेश के कारण
  • क्रेता द्वारा आवेदन को AA द्वारा स्वीकार कर लिया गया तथा शेष विक्रय मूल्य जमा करने के लिये दिये गए समय को क्रमशः केंद्र सरकार/राज्य सरकार द्वारा लॉकडाउन हटाए जाने तक के लिये स्थगित कर दिया गया।
  • हालाँकि क्रेता ने 24 अगस्त 2020 को शेष राशि का भुगतान किया तथा 28 अगस्त 2020 को विक्रय विलेख निष्पादित किया गया।
  • विक्रय विलेख के एक महीने के बाद अपीलकर्त्ता ने समय बढ़ाने के लिये AA के आदेश को चुनौती दी तथा विक्रय विलेख के निष्पादन को चुनौती दी।
  • AA ने निष्पादन विक्रय विलेख को रद्द करने के लिये अपीलकर्त्ता के आवेदन को खारिज कर दिया।
  • AA के निर्णय से व्यथित होकर कंपनी ने कंपनी-अपील दायर की जिसे अधिकरण ने खारिज कर दिया।
  • इसके बाद अपीलकर्त्ता ने निम्नलिखित आधारों पर उच्चतम न्यायालय के समक्ष वर्तमान अपील दायर की:
    • नीलामी कार्यवाही को रद्द करने के संबंध में AA द्वारा पारित आदेश को वापस लेने के लिये।
    • केंद्र/राज्य लॉकडाउन हटाए जाने के बाद शेष विक्रय प्रतिफल जमा करने के लिये समय बढ़ाने के लिये।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि IBBIR का विनियमन 47A, किसी परिसमापन प्रक्रिया के संबंध में किसी कार्य को पूरा करने के लिये समय-सीमा की गणना के लिये प्रावधानित किया गया था, जिसे लॉकडाउन की घोषणा के कारण पूरा नहीं किया जा सका था।
    • इसलिये, उच्चतम न्यायालय ने अपीलकर्त्ता के इस तर्क को खारिज कर दिया कि AA ने यह स्वीकार नहीं किया है कि कोविड-19 लॉकडाउन शेष विक्रय राशि जमा करने के लिये समय बढ़ाने का वैध कारण था।
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि:
    • IBBIR के नियम 12 का पहला प्रावधान यह है कि यदि भुगतान 30 दिनों के बाद किया जाता है, तो सफल बोली लगाने वाले को देय राशि पर 12 प्रतिशत की दर से ब्याज देना होगा।
    • IBBIR के नियम 12 का दूसरा प्रावधान भुगतान की बाहरी सीमा निर्धारित करता है तथा प्रावधानित करता है कि यदि भुगतान 90 दिनों के अंदर प्राप्त नहीं होता है, तो विक्रय रद्द हो जाएगी।
    • उच्चतम न्यायालय ने 'कर सकता है' और 'करेगा' शब्दों के प्रयोग पर ज़ोर देते हुए कहा कि विधि का उद्देश्य इसे अनिवार्य मानना ​​है क्योंकि इसमें उच्चतम बोली लगाने वाले के द्वारा 90 दिनों की निर्धारित समय-सीमा के अंदर शेष विक्रय राशि का भुगतान न करने की स्थिति में परिणाम की परिकल्पना की गई है, जो कि परिसमापक द्वारा विक्रय को रद्द करना है।
    • उच्चतम न्यायालय ने आगे कहा कि AA ने पर्याप्त कारण बताए जाने पर शेष विक्रय राशि जमा करने के लिये समय बढ़ाने के लिये नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल नियम, 2016 के नियम 11 के अंतर्गत अपनी अंतर्निहित शक्तियों के साथ अर्थात् कोविड-19 महामारी के कारण देशव्यापी लॉकडाउन के मद्देनज़र भारतीय बैकरप्सी कोड, 2016 (IBC) की धारा 35 के अंतर्गत सांविधिक शक्तियों का प्रयोग किया।
  • उच्चतम न्यायालय ने आगे कहा कि आयकर द्वारा कुर्की आदेश को हटाने के लिये AA द्वारा अनुमति दिये जाने के बाद भी नीलामी क्रेता की ओर से शेष विक्रय राशि जमा कराने में चूक हुई है।
    • न्यायालय ने आगे कहा कि क्रेता द्वारा भूमि पर अस्पताल के विकास को ध्यान में रखते हुए विक्रय विलेख को रद्द करना बहुत कठोर होगा, क्योंकि अपीलकर्त्ता भी उचित समय में आवेदन दायर करने में विफल रहा (उसने विक्रय विलेख के निष्पादन के 19 महीने बाद आवेदन दायर किया)।
    • इसलिये, उच्चतम न्यायालय ने क्रेता को अपीलकर्त्ता को अतिरिक्त राशि का भुगतान करने का आदेश दिया।

IBBIR का नियम 12 क्या है?

  • यह IBBIR की अनुसूची 1 के अंतर्गत दिया गया है, जिसमें विक्रय के तरीके के विषय में नियम प्रावधानित किये गए हैं।
  • IBBIR का विनियमन 33 विक्रय के तरीके की प्रक्रिया प्रावधानित करता है।
  • नियम 12 को IBBIR के विनियमन 33 के साथ अध्यारोपित किया जाना चाहिये, जिसके अंतर्गत:
    • खंड (1) में कहा गया है कि परिसमापक आमतौर पर अनुसूची I में निर्दिष्ट तरीके से नीलामी के माध्यम से कॉर्पोरेट देनदार की परिसंपत्तियों को बेचेगा।
    • खंड (2) में कहा गया है कि परिसमापक विनियमन 31 A के अंतर्गत परामर्श समिति के साथ पूर्व परामर्श के बाद ही अनुसूची I में निर्दिष्ट तरीके से निजी विक्रय के माध्यम से कॉर्पोरेट देनदार की परिसंपत्तियों को बेच सकता है।
    • परिसंपत्ति नाशवान है;
      • यदि इसे तुरंत नहीं बेचा गया तो परिसंपत्ति के मूल्य में काफी गिरावट आने की संभावना है।
      • ऐसी विक्रय के लिये न्यायनिर्णायक प्राधिकरण की पूर्व अनुमति प्राप्त कर ली गई है:
    • बशर्ते कि परिसमापक, न्यायनिर्णायक प्राधिकरण की पूर्व अनुमति के बिना, निजी विक्रय के माध्यम से परिसंपत्तियों को नहीं बेचेगा-
      • कॉर्पोरेट देनदार का कोई संबंधित पक्ष;
      • उसका संबंधित पक्ष;
        या
      • उसके द्वारा नियुक्त कोई पेशेवर।
    • खंड (3) में कहा गया है कि यदि परिसमापक के पास यह मानने का कारण है कि क्रेताओं, या कॉर्पोरेट देनदार के संबंधित पक्षों व क्रेताओं, या लेनदारों व क्रेता के बीच कोई संलिप्तता है, तो वह परिसंपत्ति की विक्रय के साथ आगे नहीं बढ़ेगा तथा इस संबंध में न्यायनिर्णायक अधिकरण को एक रिपोर्ट प्रस्तुत करेगा, जिसमें संलिप्त पक्षों के विरुद्ध उचित आदेश की मांग की जाएगी।
  • IBBIR का नियम 12 इस प्रकार है:
    • खंड (1) में कहा गया है कि नीलामी की समाप्ति पर, उच्चतम बोली लगाने वाले को ऐसी मांग की तिथि से नब्बे दिन या खंड 3 के अंतर्गत नीलामी नोटिस में उल्लिखित अवधि के अंदर शेष विक्रय प्रतिफल प्रदान करने के लिये आमंत्रित किया जाएगा।
    • यह प्रावधान किया गया है कि तीस दिनों के उपरांत किये गए भुगतान पर बारह प्रतिशत की दर से ब्याज लगेगा।
    • इसमें आगे यह भी प्रावधान किया गया है कि यदि इस खंड के अंतर्गत निर्धारित अवधि के अंदर भुगतान प्राप्त नहीं होता है तो विक्रय रद्द कर दिया जाएगा।
  • 2024 के संशोधन से पहले इस नियम का खंड (1) इस प्रकार था, "नीलामी समाप्त होने पर, उच्चतम बोली लगाने वाले को ऐसी मांग की तिथि से नब्बे दिनों के अंदर शेष विक्रय प्रतिफल प्रदान करने के लिये आमंत्रित किया जाएगा"।

सिविल कानून

फूलचंद बनाम गोपाल लाल (1967)

 09-Sep-2024

परिचय:

यह एक ऐतिहासिक निर्णय है, जिसमें कहा गया है कि विभाजन के वादों में एक से अधिक प्रारंभिक डिक्री पारित की जा सकती है।

  • यह निर्णय तीन न्यायाधीशों- न्यायमूर्ति के.एन. वांचू, न्यायमूर्ति आर.एस. बछावत और न्यायमूर्ति वी. रामास्वामी द्वारा सुनाया गया।

तथ्य:

  • फूलचंद (अपीलकर्त्ता) ने वर्ष 1937 में वाद की अनुसूची में उल्लिखित कुछ संपत्तियों में अपने पाँचवें भाग के विभाजन के लिये वाद दायर किया था।
  • इस वाद में प्रतिवादी,अपीलकर्त्ता के पिता सोहन लाल, अपीलकर्त्ता के भाई गोपाल लाल तथा गोकलचंद (मृतक) का अवयस्क दत्तक पुत्र राजमल थे।
  • यह वाद जयपुर राज्य की प्रिवी काउंसिल तक संस्थित किया गया और अपीलकर्त्ता एवं चार प्रतिवादियों के भागों को निर्दिष्ट करते हुए विभाजन के लिये एक प्रारंभिक डिक्री पारित की गई।
  • अंतिम आदेश पारित होने से पूर्व ही पिता की मृत्यु हो गई एवं उसके तुरंत बाद माँ की भी मृत्यु हो गई।
  • प्रतिवादी ने पिता द्वारा अपने पक्ष में निष्पादित वसीयत के अंतर्गत संपत्ति में पिता के भाग पर दावा किया और अपीलकर्त्ता ने माँ द्वारा अपने पक्ष में निष्पादित बिक्री विलेख के अंतर्गत माँके भाग पर दावा किया।
  • अपीलकर्त्ता ने वसीयत की सत्यता को चुनौती दी।
  • ट्रायल कोर्ट ने संपत्ति में भागों के पुनर्वितरण का आदेश पारित कर दिया, परंतु कोई नया प्रारंभिक आदेश नहीं किया।
  • उच्च न्यायालय में एक अपील दायर की गई थी जिसमें कहा गया था कि:
    • डिक्री की प्रति के बिना भी अपील स्वीकार्य थी।
    • विचारण न्यायालय द्वारा पहले से पारित प्रारंभिक डिक्री में संपत्ति के भाग में परिवर्तन कर के ही वर्तमान परिस्थितियों में डिक्री निष्पादित होनी थी तथा प्रतिवादी इसके विरुद्ध अपील कर सकता था।
    • माँ को अपना भाग बेचने का अधिकार नहीं था, इसलिये अपीलकर्त्ता के पक्ष में की गई बिक्री अवैध थी।
    • प्रतिवादी के पक्ष में की गई वसीयत वास्तविक थी।
  • इसलिये, उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की गई।

शामिल मुद्दे:

  • क्या उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश, जिसमें ट्रायल कोर्ट के आदेश को यथावत् रखा गया है, वैध है?

टिप्पणियाँ:

  • यह विवादित नहीं है कि विभाजन के वाद में न्यायालय को संपत्ति के भागों को उचित रूप से संशोधित करने का अधिकार है, भले ही प्रारंभिक डिक्री पारित हो गई हो, यदि परिवार का कोई सदस्य, जिसे प्रारंभिक डिक्री में आवंटन किया गया था, आवंटन के उपरांत मर जाता है।
    • न्यायालय ने माना कि संपत्ति के भागों में संशोधन करने में ट्रायल कोर्ट का निर्णय उचित था।
  • सिविल प्रक्रिया संहिता में ऐसा कुछ भी नहीं है जो एक से अधिक प्रारंभिक डिक्री पारित करने पर रोक लगाता हो, यदि परिस्थितियाँ उसे न्यायोचित ठहराती हों तथा ऐसा करना आवश्यक हो, विशेष रूप से विभाजन के वादों में, जब प्रारंभिक डिक्री के उपरांत कुछ पक्षकारों की मृत्यु हो जाती है एवं अन्य पक्षकारों के भागों में वृद्धि हो जाती है।
  • इस प्रकार, कोई कारण नहीं है कि न्यायालय द्वारा विभाजन के वाद में संपत्ति के भाग को संशोधित करने के लिये दूसरा प्रारंभिक आदेश पारित न किया जा सके।
  • जहाँ तक ​​विभाजन के वादों का संबंध है, हमें इसमें कोई संदेह नहीं है कि यदि प्रारंभिक डिक्री के पारित होने के उपरांत कोई ऐसी घटना घटती है, जिसके कारण संपत्ति के भागों में परिवर्तन आवश्यक हो जाता है, तो न्यायालय ऐसा कर सकता है और उसे ऐसा करना भी चाहिये।
  • हालाँकि न्यायालय ने कहा कि इसे विभाजन के वादों तक ही सीमित रखा जाना चाहिये, और हमारा अन्य प्रकार के वादों से कोई सरोकार नहीं है जिनमें प्रारंभिक और अंतिम डिक्री पारित की जाती है।
  • न्यायालय ने माना कि पिता द्वारा प्रतिवादी के पक्ष में निष्पादित की गई वसीयत वास्तविक थी और वसीयतकर्त्ता न केवल अपनी स्वयं अर्जित संपत्ति, बल्कि संयुक्त परिवार की संपत्ति में से प्राप्त भाग भी वसीयत करने का सक्षम था।
  • इसलिये न्यायालय ने अपीलें अस्वीकार कर दीं।

निष्कर्ष:

  • इस मामले में न्यायालय का मानना ​​था कि वसीयत निष्पादित की गई थी और न्यायालय ने प्रारंभिक डिक्री पारित करने वाले ट्रायल कोर्ट के आदेश को यथावत् रखा गया।