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आपराधिक कानून
BNSS और DV अधिनियम के अधीन प्रावधानित भरण-पोषण के बीच तुलना
12-Sep-2024
एक्स एवं अन्य बनाम राज्य एवं अन्य "CrPC की धारा 125, DV अधिनियम के अधीन भरण-पोषण, पत्नी/पीड़िता की स्वयं का भरण-पोषण करने में असमर्थता पर आधारित नहीं है।" न्यायमूर्ति अमित महाजन |
स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक्स एवं अन्य बनाम राज्य एवं अन्य के मामले में माना है कि घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005 (DV) के अधीन भरण-पोषण, दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 125 के विपरीत, पत्नी की स्वयं का भरण-पोषण करने की क्षमता या अक्षमता से जुड़ा नहीं है।
X एवं अन्य बनाम राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- वर्तमान मामले में, प्रतिवादी संख्या 2 (पत्नी) ने याचिकाकर्त्ता (पति एवं उसके रिश्तेदारों) के विरुद्ध घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12 के अधीन आवेदन किया।
- ट्रायल कोर्ट ने पाया कि:
- पक्षकार पति-पत्नी थे और घरेलू घटना रिपोर्ट (DIR) प्रथम दृष्टया दर्शाती है कि प्रतिवादी संख्या 2 घरेलू हिंसा का शिकार थी तथा घरेलू हिंसा अधिनियम के अधीन मौद्रिक क्षतिपूति का अधिकारी थी।
- जबकि याचिकाकर्त्ता संख्या 1 दावा कर रहा था कि वह अपने पिता की भागीदारी फर्म से मामूली वेतन ले रहा था, हालाँकि वह डस्टर कार चला रहा था तथा फर्म से लाभ भी प्राप्त कर रहा था।
- ट्रायल कोर्ट ने याचिकाकर्त्ता की आय का आकलन करने के बाद प्रतिवादी संख्या 2 को ₹15,000/- का अंतरिम भरण-पोषण एवं ₹10,000/- किराये के रूप में देने की अनुमति दी।
- याचिकाकर्त्ता ने अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश (ASJ) के समक्ष अपील दायर की जिसमें कहा गया कि:
- वह मात्र 15,000 रुपए प्रतिमाह कमा रहा है तथा यह व्यवसाय उसके पिता (याचिकाकर्त्ता संख्या 1) का है।
- पिता तीन वर्षों से अधिक समय से पक्षों के बच्चों की देखभाल कर रहा है तथा प्रतिवादी संख्या 2 ने उनसे मिलने का भी कोई प्रयास नहीं किया है।
- प्रतिवादी द्वारा उसके विरुद्ध आवेदन दायर करने के बाद उसकी आय में अचानक गिरावट आई है।
- ASJ ने माना कि याचिकाकर्त्ता नंबर 1 कोविड-19 महामारी के कारण अपनी आय में आई गिरावट का बहाना नहीं ले सकता तथा वह ट्रायल कोर्ट द्वारा निर्धारित भरण-पोषण राशि का भुगतान करने के लिये उत्तरदायी है।
- ट्रायल कोर्ट एवं ASJ के निर्णयों से व्यथित होकर याचिकाकर्त्ता ने CrPC की धारा 397 सहपठित धारा 401 के अधीन दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष वर्तमान याचिका दायर की है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि ट्रायल कोर्ट एवं अपीलीय न्यायालय के आदेश के आधार पर यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि प्रतिवादी घरेलू हिंसा की शिकार थी।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि चोट के निशान दिखाने वाली तस्वीरें भी प्रतिवादी द्वारा संलग्न की गई थीं।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी ट्रायल कोर्ट द्वारा की गई टिप्पणियों की पुष्टि की कि CrPC की धारा 125 के विपरीत DV अधिनियम के अधीन भरण-पोषण पत्नी/पीड़िता की स्वयं का भरण-पोषण करने में असमर्थता पर आधारित नहीं है।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने अनुरिता वोहरा बनाम संदीप वोहरा (2004) के मामले का भी उल्लेख किया।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने याचिका को खारिज कर दिया तथा ट्रायल कोर्ट को साक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश द्वारा की गई टिप्पणियों के बावजूद स्वतंत्र अवलोकन करने का आदेश दिया।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने x एवं अन्य बनाम राज्य एवं अन्य के मामले में किस मामले को संदर्भित किया था?
- अन्नुरिता वोहरा बनाम संदीप वोहरा (2004):
- इस मामले में न्यायालय ने माना कि सामूहिक आय एक संपूर्ण पारिवारिक आय का निर्माण करती है, जिसे फिर परिवार के सदस्यों के मध्य वितरित किया जाता है।
- इस "संपूर्ण पारिवारिक आय" का आवंटन प्रत्येक परिवार के सदस्य की वित्तीय आवश्यकताओं के साथ संरेखित होना चाहिये तथा एक न्यायसंगत दृष्टिकोण में पारिवारिक संसाधन केक को पति के लिये दो भागों में विभाजित करना शामिल होगा, जिसमें आय में प्राप्त किये गए उसके अतिरिक्त खर्चों को स्वीकार किया जाएगा, और अन्य सदस्यों के लिये एक-एक हिस्सा होगा।
BNSS एवं DV अधिनियम के अधीन प्रावधानित भरण-पोषण के मध्य क्या अंतर है?
घरेलू हिंसा अधिनियम के अधीन भरण-पोषण
- धारा 12: मजिस्ट्रेट को आवेदन
- धारा 12 के अंतर्गत पीड़ित व्यक्ति या संरक्षण अधिकारी या पीड़ित व्यक्ति की ओर से किसी अन्य व्यक्ति द्वारा मजिस्ट्रेट को आवेदन किया जा सकता है।
- धारा 20: मौद्रिक राहत
- घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 20 न्यायालय को घरेलू हिंसा के कारण पीड़ित व्यक्ति एवं उसके बच्चों द्वारा उठाए गए व्यय व क्षति को शामिल करने के उद्देश्य से मौद्रिक राहत के लिये आदेश जारी करने का अधिकार देती है।
- घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 20 के अधीन मजिस्ट्रेट द्वारा दी जाने वाली मौद्रिक राहत में आय की हानि, चिकित्सा व्यय, पीड़ित व्यक्ति के नियंत्रण से किसी संपत्ति के विनाश, क्षति या हटाने के कारण होने वाली हानि और पीड़ित व्यक्ति के साथ-साथ उसके बच्चों, यदि कोई हो, के लिये भरण-पोषण के संबंध में राहत देना शामिल है।
- इस राहत में चिकित्सा उपचार, आय की हानि, संपत्ति की क्षति एवं हिंसा से उत्पन्न होने वाले अन्य परिणामी व्यय शामिल हो सकते हैं।
- धारा 20 (1) (d) में यह प्रावधानित किया गया है कि पीड़ित व्यक्ति के साथ-साथ उसके बच्चों के लिये भरण-पोषण, यदि कोई हो, दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) की धारा 125 के अधीन या उसके अतिरिक्त भरण-पोषण के आदेश या उस समय लागू किसी अन्य विधि के अधीन आदेश शामिल है।
- धारा 23: अंतरिम एवं एकपक्षीय आदेश देने की शक्ति
- धारा 23 मजिस्ट्रेट को अंतरिम एकपक्षीय आदेश देने की शक्ति प्रदान करती है। इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि पीड़ित व्यक्ति द्वारा प्राप्त की जा सकने वाली विभिन्न प्रकार की राहतें सिविल प्रकृति की हैं।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 के अधीन प्रावधानित भरण-पोषण
धारा 144: पत्नी, बच्चों और माता-पिता के भरण-पोषण का आदेश।
- यह धारा पहले CrPC की धारा 125 के अंतर्गत आती थी।
- इस धारा के अधीन भरण-पोषण हेतु अनिवार्य शर्त:
- यदि पर्याप्त साधन संपन्न व्यक्ति अपनी पत्नी, बच्चों या माता-पिता की उपेक्षा करता है या भरण-पोषण करने से मना करता है, तो प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष आवेदन करके भरण-पोषण का दावा किया जा सकता है।
- पत्नी का भरण-पोषण:
- धारा में दिये गए स्पष्टीकरण के अनुसार "पत्नी" में वह महिला शामिल है जिसे उसके पति से विवाह विच्छेद हो गया है या उसने प्राप्त कर लिया है तथा उसने दोबारा विवाह नहीं किया है।
- यदि कोई पत्नी इस धारा के अधीन अपने पति से भरण-पोषण या अंतरिम भरण-पोषण एवं कार्यवाही के व्यय के लिये भत्ता प्राप्त करने की अधिकारी नहीं होगी।
- वह व्यभिचार में लिप्त है
- यदि, बिना किसी पर्याप्त कारण के, वह अपने पति के साथ रहने से मना करती है,
- यदि वे आपसी सहमति से अलग रह रहे हैं
- इस अनुभाग का उद्देश्य:
- के. विमल बनाम के. वीरस्वामी (1991) मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि CrPC की धारा 125 (अब BNSS की धारा 144) को सामाजिक उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये प्रस्तुत किया गया था। इस धारा का उद्देश्य पति से अलग होने के बाद पत्नी को आवश्यक आश्रय एवं भोजन प्रदान करके उसका कल्याण करना है।
BNSS की धारा 144 एवं DV अधिनियम के बीच ओवरलैप
- निखिल दानानी बनाम तान्या बनोन दानानी (2019):
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि CrPC की धारा 125 (जो अब BNSS की धारा 144 के अंतर्गत आती है) केवल भरण-पोषण के आदेश के विषय में प्रावधानित करती है, जबकि घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 20 में आय की हानि, चिकित्सा व्यय, पीड़ित व्यक्ति के नियंत्रण से किसी संपत्ति के विनाश, क्षति या हटाने के कारण हुई हानि के संबंध में राहत देना एवं पीड़ित व्यक्ति के साथ-साथ उसके बच्चों, यदि कोई हो, के लिये भरण-पोषण देना शामिल है।
- जुवेरिया अब्दुल माजिद खान पाटनी बनाम आतिफ इकबाल मसूरी (2014):
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि CrPC की धारा 125 (जो अब BNSS की धारा 144 के अंतर्गत आती है) भरण-पोषण आदेश देने का अधिकार देती है, जबकि आर्थिक राहत देने के लिये CrPC की धारा 125 के अतिरिक्त DV अधिनियम की धारा 20 का भी प्रयोग किया जा सकता है।
सांविधानिक विधि
समरूप समूहों के बीच भेदभाव
12-Sep-2024
मणिलाल बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य "न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रवेश तिथि के आधार पर एक ही समूह के अभ्यर्थियों के बीच भेदभाव करना अनुचित है।" न्यायमूर्ति बी.आर. गवई एवं के.वी. विश्वनाथन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि नौकरी की नियुक्ति के लिये पात्रता निर्धारित करते समय एक ही शैक्षणिक समूह के अभ्यर्थियों के साथ उनकी प्रवेश तिथि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता है। इस निर्णय ने यह मुद्दा उठाया कि राजस्थान सरकार की वर्ष 2017 शिक्षक ग्रेड III लेवल II भर्ती अधिसूचना ने अभ्यर्थियों के बी.एड कोर्स में प्रवेश के समय के आधार पर अलग-अलग स्नातक अंक मानदण्ड निर्धारित किये।
- न्यायमूर्ति बी.आर. गवई एवं केवी विश्वनाथन ने मणिलाल बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य मामले में निर्णय दिया।
मणिलाल बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- 11 सितंबर 2017 को, राजस्थान के अधिकारियों ने अनुसूचित क्षेत्र (TSP) में शिक्षक ग्रेड III लेवल II पदों के लिये एक विज्ञापन जारी किया।
- विज्ञापन में अभ्यर्थियों के लिये बी.एड. पाठ्यक्रमों में प्रवेश लेने के समय के आधार पर अलग-अलग शैक्षणिक योग्यताएँ प्रदान की गई हैं:
- 31 अगस्त 2009 से पहले प्रवेश पाने वालों को स्नातक में न्यूनतम 45% अंक की आवश्यकता थी।
- 31 अगस्त 2009 के बाद प्रवेश पाने वालों को स्नातक में न्यूनतम 50% अंक की आवश्यकता थी।
- अपीलकर्त्ता के स्नातक में 44.58% अंक थे तथा उसने 23 अक्टूबर 2009 को बी.एड. पाठ्यक्रम में प्रवेश प्राप्त किया था।
- आरक्षित श्रेणी से आने वाले अपीलकर्त्ता ने अपने प्रवेश के समय बी.एड. पाठ्यक्रम में प्रवेश के लिये आवश्यक योग्यता प्रतिशत (40% अंक) प्राप्त किये थे।
- भर्ती परीक्षा में कट-ऑफ अंकों से अधिक अंक प्राप्त करने के बावजूद, अपीलकर्त्ता का नाम चयनित अभ्यर्थियों की अनंतिम सूची में नहीं आया।
- अपीलकर्त्ता को बताया गया कि उसकी उम्मीदवारी इसलिये खारिज कर दी गई क्योंकि उसने स्नातक में 45% से कम अंक प्राप्त किये थे।
- इस निर्णय से व्यथित होकर अपीलकर्त्ता ने राजस्थान उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की।
- उच्च न्यायालय की एकल पीठ ने 27 नवंबर 2018 को अपीलकर्त्ता की रिट याचिका खारिज कर दी।
- इसके बाद अपीलकर्त्ता ने राजस्थान उच्च न्यायालय की खंडपीठ के समक्ष अपील दायर की।
- 13 नवंबर 2019 को, राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद (NCTE) ने एक स्पष्टीकरण जारी किया जिसमें कहा गया कि स्नातक में न्यूनतम प्रतिशत की आवश्यकता उन अभ्यर्थियों पर लागू नहीं होगी जिन्होंने 29 जुलाई 2011 से पहले बी.एड. पाठ्यक्रमों में प्रवेश लिया था।
- उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने 27 अप्रैल, 2022 को अपीलकर्त्ता की अपील खारिज कर दी।
- अपीलकर्त्ता को शुरू में 23 अक्टूबर 2021 के उच्च न्यायालय के अंतरिम आदेश के अनुसरण में पद पर नियुक्त किया गया था।
- अपील खारिज होने के बाद 7 जून 2022 को अपीलकर्त्ता की नियुक्ति रद्द कर दी गई।
- इसके बाद अपीलकर्त्ता ने उच्च न्यायालय के निर्णय को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय का में अपील की।
न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?
- न्यायालय ने कहा कि शैक्षणिक सत्र 2009-10 के लिये प्रवेश पाने वाले छात्रों के समरूप समूह के बीच आपसी भेदभाव करना अनुचित होगा।
- न्यायालय ने कहा कि यदि काउंसलिंग के पहले चरण में प्रवेश पाने वाले छात्र स्नातक में 50% से कम अंक लेकर पात्र हैं, जबकि बाद के चरणों में प्रवेश पाने वाले अन्य छात्र पात्र नहीं हैं, तो यह भेदभावपूर्ण होगा।
- न्यायालय ने समानता के सिद्धांत पर ज़ोर दिया।
- न्यायालय ने 13 नवंबर 2019 की NCTE अधिसूचना पर ध्यान किया, जिसमें कहा गया था कि स्नातक में अंकों का न्यूनतम प्रतिशत उन लोगों पर लागू नहीं होगा जिन्होंने 29 जुलाई 2011 से पहले बी.एड. पाठ्यक्रमों में प्रवेश लिया था।
- न्यायालय ने पाया कि केवल प्रवेश की तिथि के आधार पर अभ्यर्थियों के साथ अलग-अलग व्यवहार करना, जब वे एक ही शैक्षणिक सत्र और प्रवेश प्रक्रिया का हिस्सा थे, तर्कसंगत एवं सतत् नहीं था।
- न्यायालय ने निर्धारित किया कि उच्च न्यायालय का निर्णय भारतीय संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 14 में निहित समता एवं भेदभाव विहीन के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं था।
- न्यायालय ने माना कि केवल प्रवेश के दौर के आधार पर एक ही शैक्षणिक समूह के अभ्यर्थियों पर अलग-अलग योग्यता मानदण्ड लागू करना मनमाना एवं अनुचित भेदभाव होगा।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि अपीलकर्त्ता को केवल इसलिये वंचित नहीं किया जाना चाहिये क्योंकि उसका प्रवेश काउंसलिंग के बाद के दौर में पूरा हुआ था।
COI के अनुच्छेद 14 के अंतर्गत उचित वर्गीकरण क्या है?
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 विधि के समक्ष संता और विधियों के समान संरक्षण की गारंटी देता है।
- इससे तात्पर्य यह नहीं है कि सभी विधियाँ सभी व्यक्तियों पर समान रूप से लागू होने चाहिये।
- सिद्धांत यह मानता है कि अलग-अलग आवश्यकताओं, परिस्थितियों एवं सामाजिक कारकों के कारण अलग-अलग वर्गों के लोगों को अलग-अलग व्यवहार की आवाह्यक हो सकती है।
- उचित वर्गीकरण भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 का अपवाद है। उचित वर्गीकरण का सिद्धांत राज्य को ऐसे विधि निर्माण की अनुमति देता है जो अलग-अलग वर्गों के लोगों के साथ अलग-अलग व्यवहार करते हैं, बशर्ते कि ऐसे वर्गीकरण के लिये तर्कसंगत आधार हो।
- किसी वर्गीकरण को उचित माना जाने के लिये एवं अनुच्छेद 14 का उल्लंघन न करने के लिये, उसे पश्चिम बंगाल राज्य बनाम अनवर अली सरकार (1952) के अनुसार दो आवश्यक परीक्षणों को पूरा करना होगा:
- वर्गीकरण एक सुबोध विभेद पर आधारित होना चाहिये जो समूह में शामिल व्यक्तियों या वस्तुओं को समूह से बाहर रखे गए अन्य व्यक्तियों या वस्तुओं से अलग करता है।
- विभेद का संबंधित विधि द्वारा प्राप्त किये जाने वाले उद्देश्य से तर्कसंगत संबंध होना चाहिये।
- यदि वर्गीकरण प्रस्तावों में निर्धारित परीक्षण को संतुष्ट करता है, तो विधि को संवैधानिक घोषित किया जाएगा।
- वर्गीकरण मनमाना, कृत्रिम या कपटपूर्ण नहीं होना चाहिये।
- यह पर्याप्त अंतरों एवं वास्तविक मतभेदों पर आधारित होना चाहिये।
- न्यायालयों ने लगातार माना है कि वर्गीकरण करने में विधायी विवेक को माना जाना चाहिये तथा वर्गीकरण को चुनौती देने वाले व्यक्ति पर अनुचितता सिद्ध करने का भार है।
- वर्गीकरण का आधार जो अंतर है और अधिनियम का उद्देश्य दो अलग-अलग चीज़ें हैं। जो आवश्यक है वह यह है कि वर्गीकरण के आधार एवं वर्गीकरण करने वाले अधिनियम के उद्देश्य के बीच एक संबंध होना चाहिये।
- यदि कोई विधि भेदभाव करता भी है, तो उसे यथावत् रखा जा सकता है, बशर्ते भेदभाव के लिये उचित आधार हो।
- उचित वर्गीकरण का सिद्धांत वर्गीकरण के सिद्धांत का विकल्प नहीं है।
- यह अनुच्छेद 14 में निहित विधियों के समान संरक्षण की गारंटी के अंतर्निहित सिद्धांतों में से एक है।
- वर्ग विधान का निषेध: वर्ग विधान, जो एक बड़े समरूप समूह से मनमाने ढंग से चयनित समूह को विशेषाधिकार प्रदान करता है, निषिद्ध है।
- किसी विधि के लाभों या बोझ से कुछ लोगों को शामिल करने तथा अन्य को बाहर रखने के लिये उचित औचित्य होना चाहिये।
- पर्याप्त अंतर: किसी वर्गीकरण को वैध होने के लिये, किसी विशेष विधि या विशेषाधिकार में शामिल एवं बहिष्कृत लोगों के बीच पर्याप्त अंतर होना चाहिये। इस अंतर को विभेदकारी व्यवहार को उचित ठहराना चाहिये।
- कानून के उद्देश्य से संबंध: वर्गीकरण का विधि द्वारा प्राप्त किये जाने वाले उद्देश्य से तर्कसंगत संबंध होना चाहिये।
- असमान परिस्थितियों में समान व्यवहार: असमान परिस्थितियों में समान व्यवहार असमानता के बराबर होगा। इसलिये, कभी-कभी सच्ची समानता प्राप्त करने के लिये विभेदकारी व्यवहार आवश्यक हो सकता है।
- विधायी विवेक: विधायिका के पास ऐसे व्यक्तियों एवं वस्तुओं को वर्गीकृत करने की व्यापक शक्तियाँ हैं जिन पर विधि लागू होते हैं, क्योंकि विभिन्न मानवीय संबंधों से उत्पन्न होने वाली विभिन्न समस्याएँ हैं।
- मनमाना चयन: ऐसा वर्गीकरण जो मनमाने ढंग से किसी समूह को विशेष उपचार के लिये चुनता है, बिना किसी उचित आधार के, जो समान स्थिति वाले अन्य लोगों से अलग हो, अनुच्छेद 14 का उल्लंघन होगा।
उचित वर्गीकरण के आधार क्या हैं?
- उचित वर्गीकरण के लिये कुछ महत्त्वपूर्ण आधार हैं।
- आयु
- लिंग
- भौगोलिक या प्रादेशिक आधार
- व्यवसाय या पेशे की प्रकृति
- प्राधिकरण के स्रोत की प्रकृति
- अपराधों एवं अपराधियों की प्रकृति
- कर विधियों के अंतर्गत आधार
- सरकार का राज्य
- एकल व्यक्ति या निकाय एक वर्ग के रूप में
राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद (NCTE )
- राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद (NCTE) राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद अधिनियम, 1993 के अंतर्गत भारत की केंद्र सरकार द्वारा स्थापित एक सांविधिक निकाय है।
- NCTE की औपचारिक स्थापना वर्ष 1995 में इसके शासी विधि के अधिनियमन के बाद की गई थी।
- NCTE की स्थापना भारतीय शिक्षा प्रणाली के अन्दर मानकों, प्रक्रियाओं एवं प्रक्रियाओं की औपचारिक रूप से देखरेख करने के प्राथमिक उद्देश्य से की गई थी, विशेष रूप से शिक्षक शिक्षा पर ध्यान केंद्रित करते हुए।
- शिक्षक शिक्षा से संबंधित मामलों में NCTE का अधिकार क्षेत्र केंद्र एवं राज्य दोनों सरकारों पर है।
- प्राथमिक कार्य:
- NCTE पूरे भारत में शिक्षक शिक्षा प्रणाली के विकास की योजना बनाने एवं समन्वय के लिये उत्तरदायी है।
- इसका कार्य शिक्षक शिक्षा प्रणाली में मानदण्डों और मानकों के भरण-पोषण को सुनिश्चित करना है।
- NCTE का मुख्यालय नई दिल्ली में स्थित है।
सिविल कानून
सह-स्वामियों द्वारा संपत्ति का अंतरण
12-Sep-2024
एस.के. गोलम लालचंद बनाम नंदू लाल शॉ @ नंदू लाल केशरी @ नंदू लाल बेयस एवं अन्य “सह-स्वामी संपूर्ण संपत्ति अंतरित करने के लिये सक्षम नहीं है।” न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति पंकज मिथल |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति पंकज मिथल की पीठ ने कहा कि कोई सह-स्वामी संपत्ति में अपना भाग निर्धारित एवं सीमांकन किये बिना पूरी संपत्ति अंतरित करने के लिये सक्षम नहीं है, ताकि अन्य सह-स्वामी इससे आबद्ध हो सकें।
- उच्चतम न्यायालय ने एस.के. गोलम लालचंद बनाम नंदू लाल शॉ @ नंदू लाल केशरी @ नंदू लाल बेयस एवं अन्य के मामले में यह निर्णय दिया।
एस.के. गोलम लालचंद बनाम नंदू लाल शॉ @ नंदू लाल केशरी @ नंदू लाल बेयस एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?
- विवादित संपत्ति दो भाइयों, स्वर्गीय सीता राम और स्वर्गीय सालिक राम द्वारा वर्ष 1959 में सहोदरी दासी नामक महिला से खरीदी गई थी।
- दोनों को संपत्ति पर समान अधिकार प्राप्त था।
- आरोप है कि दो भाइयों में से एक स्वर्गीय सालिक राम ने विवादित संपत्ति में से अपना भाग अपने भाई स्वर्गीय सीता राम को उपहार में दे दिया, जो कथित तौर पर पूरी संपत्ति का पूर्ण स्वामी बन गया।
- स्वर्गीय सीता राम की मृत्यु बिना वसीयत के हुई और वे अपने पीछे बेटा बृज मोहन छोड़ गए। इसके उपरांत बृज मोहन ने अपने किरायेदारों के पक्ष में बिक्री विलेख निष्पादित किया।
- वादी का मामला यह है कि उपरोक्त उपहार विलेख निष्पादित नहीं किया गया है।
- इसलिये, वादी का मामला यह है कि बृजमोहन को किसी एक किरायेदार के पक्ष में पूरी संपत्ति अंतरित करने का कोई अधिकार नहीं था।
- इस प्रकार, वादी द्वारा घोषणा और स्थायी निषेधाज्ञा के लिये वाद दायर किया गया।
- इस वाद को प्रथम दृष्टया न्यायालय ने अस्वीकार कर दिया था, परंतु अपील में यह कहते हुए निर्णय को उलट दिया गया कि संपत्ति का कोई विभाजन नहीं हुआ था।
- इस निर्णय की पुष्टि उच्च न्यायालय ने द्वितीय अपील में की।
- इस प्रकार, उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की गई।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि इस तथ्य पर कोई विवाद नहीं है कि संपत्ति पर स्वर्गीय सालिक राम और स्वर्गीय सीता राम का समान स्वामित्व था परंतु संपत्ति सदैव ही सह-स्वामियों के बीच संयुक्त तथा अविभाजित रही थी।
- न्यायालय ने आगे कहा कि न्यायालय में यह स्पष्ट रूप से सिद्ध नहीं किया जा सका कि उपहार विलेख स्वर्गीय सीता राम के पक्ष में निष्पादित किया गया था।
- इस प्रकार, यह माना गया कि बृजमोहन अकेले संपूर्ण संपत्ति की बिक्री करने के लिये सक्षम नहीं था, वह भी संपत्ति की सीमाओं एवं मापों द्वारा विभाजन के बिना।
- यह भी पाया गया कि बिक्री विलेख संपत्ति-अंतरण अधिनियम, 1882 (TPA) की धारा 44 के अनुसार संपत्ति में बृज मोहन के भाग की सीमा तक एक वैध दस्तावेज़ हो सकता है।
- तद्नुसार, न्यायालय ने इस मुद्दे का निर्णय इस प्रकार दिया:
- बृजमोहन विवादित संपत्ति में अकेले अपने भाग का निर्धारण एवं सीमांकन किये बिना पूरी संपत्ति अंतरित करने के लिये सक्षम नहीं थे, ताकि अन्य सह-स्वामियों को बाध्य किया जा सके।
- तद्नुसार, निषेधाज्ञा के आदेश द्वारा प्रतिवादी को तब तक सह-स्वामियों के स्वामित्व अधिकारों के उल्लंघन में कार्य करने से रोका गया जब तक कि विभाजन नहीं हो जाता।
सह-स्वामियों द्वारा एवं सह-स्वामियों को अंतरण संबंधी विधान क्या है?
धारा |
प्रावधान |
निहित नियम |
धारा 44 |
एक सह-स्वामी द्वारा स्थानांतरण |
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धारा 45 |
विचार के लिये संयुक्त हस्तांतरण |
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धारा 46 |
अलग-अलग हितों वाले व्यक्तियों द्वारा विचार के लिये अंतरण |
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धारा 47 |
सह-स्वामियों द्वारा साझा संपत्ति में भागीदारी का अंतरण |
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सह-स्वामियों द्वारा संपत्ति के अंतरण पर निर्णय क्यों दिये जाते हैं?
- दुर्गापद पई बनाम देबीदास मुखर्जी (1973)
- न्यायालय ने माना कि आवासीय घर एक सीमा तक अविभाजित परिवार के स्थायी निवास को दर्शाता है, जहाँ ऐसा परिवार रहता है या सामान्य रूप से रहने का इरादा रखता है, न कि निर्दिष्ट उद्देश्य के लिये अल्पकालिक या अस्थायी निवास के लिये घर के रूप में।
- दोराब कावासजी वार्डन बनाम कूमी सोराब वार्डन (1990)
- उच्चतम न्यायालय ने एक अविभाजित भाग के क्रेता द्वारा दायर विभाजन के वाद पर रोक लगा दी क्योंकि परिस्थितियों से पता चला कि अगर कोई बाहरी व्यक्ति घर में प्रवेश करता तो परिवार को अपूरणीय क्षति होती।
- श्री राम बनाम राम किशन (2010)
- न्यायालय ने माना कि, जब संयुक्त परिवार का कोई सदस्य पारिवारिक संपत्ति का अपना भाग बेचता है, जिसे विभाजन या अन्यथा द्वारा चिह्नित नहीं किया गया है, तो क्रेता उस भाग के विभाजन और कब्ज़े के वितरण के लिये वाद संस्थित कर सकता है, जिस पर बेचने वाले सदस्य का अधिकार है।