Drishti IAS द्वारा संचालित Drishti Judiciary में आपका स्वागत है









करेंट अफेयर्स और संग्रह

होम / करेंट अफेयर्स और संग्रह

आपराधिक कानून

साक्ष्य का पता लगना

 13-Sep-2024

दिलीप सारीवान बनाम छत्तीसगढ़ राज्य

“उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के अधीन, सह-अभियुक्त के विषय में प्राप्त साक्ष्य का उपयोग षड्यंत्र के मामले में आरोप स्थापित करने के लिये किया जा सकता है।”

न्यायमूर्ति रमेश सिन्हा एवं न्यायमूर्ति रवींद्र कुमार अग्रवाल

स्रोत: चंडीगढ़ उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने विवाहेत्तर संबंध से जुड़े परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर हत्या के मामले में दोषसिद्धि को यथावत् रखा तथा भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के महत्त्व पर प्रकाश डाला। न्यायालय ने कहा कि ऐसे मामलों में अभियोजन पक्ष को परिस्थितियों की शृंखला में हर कड़ी को उचित संदेह से परे सिद्ध करना चाहिये, ताकि निर्दोषता के लिये कोई संभावना न रहे।

  • न्यायमूर्ति रमेश सिन्हा एवं न्यायमूर्ति रवींद्र कुमार अग्रवाल ने दिलीप सारीवान बनाम छत्तीसगढ़ राज्य मामले में यह निर्णय दिया।

दिलीप सारीवान बनाम छत्तीसगढ़ राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • मामला दुर्गेश पनिका की हत्या से संबंधित है, जो 15 अगस्त, 2020 एवं 16 अगस्त, 2020 की रात के बीच हुआ था।
  • 16 अगस्त, 2020 को सुबह करीब 7:00 बजे दुर्गेश पनिका का शव हर्राटोला में गुलाब राज के मोटर पंप के पास एक लावारिस मोटरसाइकिल के साथ मिला था।
  • पोस्टमार्टम रिपोर्ट से पता चला है कि मौत का कारण हत्या है, जो सिर पर लगी चोटों के कारण हुई है।
  • अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया कि यह हत्या कई व्यक्तियों की संलिप्तता से रचा गया षड़यंत्र का परिणाम था, जिसमें दुर्गेश की पत्नी कामता पनिका एवं उसके कथित प्रेमी तीरथ लाल काशीपुरी भी सम्मिलित थे।
  • हत्या का मकसद कथित तौर पर कामता पनिका और तीरथ लाल काशीपुरी के बीच विवाहेतर संबंध से जुड़ा था, जिसके कारण दुर्गेश के साथ कामता के वैवाहिक जीवन में तनाव पैदा हो गया था।
  • कई व्यक्तियों पर षड्यंत्र एवं हत्या में शामिल होने का आरोप लगाया गया था, जिनमें तीरथ लाल काशीपुरी, दिलीप सरिवान, पवन मार्को, जय प्रकाश यादव, रितेश वर्मा, महेंद्र पनिका एवं कामता पनिका शामिल थे।
  • अभियोजन पक्ष का मामला मुख्य रूप से परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर आधारित था, क्योंकि हत्या का कोई प्रत्यक्ष प्रत्यक्षदर्शी साक्षी नहीं था।
  • मुख्य साक्ष्यों में कॉल डिटेल रिकॉर्ड (CDRs), टावर लोकेशन रिपोर्ट, ज़ब्त की गई वस्तुएँ जैसे कपड़े एवं जैक रॉड, और फोरेंसिक रिपोर्ट शामिल थीं, जो विभिन्न वस्तुओं पर खून की मौजूदगी का संकेत देती हैं।
  • अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया कि आरोपियों ने दुर्गेश की हत्या का षड्यंत्र रची, उसे शराब पीने के बहाने एक स्थान पर कपटपूर्वक बुलाया तथा फिर जैक रॉड का प्रयोग करके उसकी हत्या कर दी।
  • हत्या के बाद, आरोपियों ने कथित तौर पर शव को हर्राटोला रोड पर रखकर मौत को दुर्घटना का रूप देने का प्रयास किया।
  • मामले की जाँच पुलिस द्वारा की गई तथा आरोपियों के ज्ञापन बयानों के आधार पर विभिन्न वस्तुओं को ज़ब्त किया गया।
  • अभियोजन पक्ष ने आरोपियों पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 (हत्या), 201 (साक्ष्यों को गायब करना), 34 (एकसमान आशय) एवं 120 B (आपराधिक षड्यंत्र) के अधीन आरोप लगाए।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने कहा कि परिस्थितिजन्य साक्ष्य के मामलों में, अभियोजन पक्ष परिस्थितियों की शृंखला को पूरा करने के लिये हर परिस्थिति को उचित संदेह से परे सिद्ध करने के लिये बाध्य है, जिससे निर्दोषता की किसी भी परिकल्पना के लिये कोई जगह नहीं बचती।
  • न्यायालय ने महबूब अली एवं अन्य बनाम राजस्थान राज्य, 2016 में उच्चतम न्यायालय के निर्णय पर विश्वास करते हुए कहा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 27 के अधीन अन्य आरोपी व्यक्तियों से संबंधित तथ्यों की खोज एकसमान आशय को आगे बढ़ाने में षड्यंत्र के आरोपों को स्थापित करने के लिये स्वीकार्य है।
  • न्यायालय ने कहा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 27 तथ्यों का पता लगाने के लिये सूचना की ग्राह्यता की अनुमति देती है, भले ही ऐसी सूचना संस्वीकृति के बराबर हो, बशर्ते कि वह खोजे गए तथ्य से स्पष्ट रूप से संबंधित हो।
  • न्यायालय ने परिस्थितिजन्य साक्ष्य के "पांच स्वर्णिम सिद्धांतों" को लागू किया, जैसा कि उच्चतम न्यायालय ने शरद बिरधीचंद सारदा बनाम महाराष्ट्र राज्य (1984) में स्थापित किया था, यह मानते हुए कि मामले में प्रत्यक्ष साक्ष्य का अभाव था।
  • कॉल डिटेल रिकॉर्ड (सीडीआर) की जाँच करने पर, न्यायालय ने निर्धारित किया कि मृतक दुर्गेश पनिका को आरोपी कामता एवं आरोपी तीरथ के बीच अवैध संबंध के विषय में पता था, जिसने हत्या का दुराशय उत्पन्न किया।
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि आरोपी कामता, हत्या स्थल पर अनुपस्थित होने के बावजूद, तीरथ को "दुर्गेश को उसके रास्ते से हटाने" का निर्देश देने के लिये आपराधिक षड्यंत्र का दोषी था।
  • न्यायालय ने निर्धारित किया कि अभियोजन पक्ष ने 11 परिस्थितियों को जोड़कर सफलतापूर्वक अपना मामला स्थापित किया, जिससे यह सिद्ध हो गया कि अभियुक्तों ने 15.08.2020 एवं 16.08.2020 की रात के बीच दुर्गेश पनिका की हत्या करने का एक एकसमान आशय बनाया था।
  • न्यायालय ने अधीनस्थ न्यायालय के निर्णय में कोई अवैधानिकता या त्रुटि नहीं पाते हुए आपराधिक अपीलों को खारिज कर दिया तथा अपीलकर्त्ताओं की आजीवन कारावास की सज़ा को यथावत् रखा।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 23 क्या है?

  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 27 इस बात से संबंधित है कि अभियुक्त से प्राप्त सूचना में से कितनी सूचना सिद्ध की जा सकती है।
    • अब यह BSA, 2023 की धारा 23 के अंतर्गत आता है।
  • BSA, 2023 की धारा 23 पुलिस अधिकारी के समक्ष संस्वीकृति से संबंधित है।
  • यह प्रावधानित करता है कि:
    • किसी पुलिस अधिकारी के समक्ष की गई कोई भी संस्वीकृति, किसी अपराध के आरोपी व्यक्ति के विरुद्ध साक्ष्य के तौर पर स्वीकार्य नहीं है।
    • पुलिस अभिरक्षा में किसी व्यक्ति द्वारा की गई संस्वीकृति, उस व्यक्ति के विरुद्ध साक्ष्य के तौर पर स्वीकार्य नहीं है, जब तक कि वह मजिस्ट्रेट की तत्काल मौजूदगी में न किया गया हो।
    • दस्तावेज़ों की विषय-वस्तु के विषय में मौखिक संस्वीकृति कुछ परिस्थितियों में प्रासंगिक एवं स्वीकार्य हो सकती है, जो साक्ष्य के नियमों के अधीन है।
    • सिविल मामलों में, पक्षों द्वारा की गई संस्वीकृति साक्ष्य के रूप में प्रासंगिक एवं स्वीकार्य हो सकती है, जो विशिष्ट नियमों एवं अपवादों के अधीन है।
    • प्रेरणा, धमकी, बलात या वचन के माध्यम से प्राप्त संस्वीकृति को आपराधिक कार्यवाही में अप्रासंगिक एवं अस्वीकार्य माना जाता है।
    • पुलिस अधिकारियों के समक्ष किये गए संस्वीकृति की अस्वीकार्यता के बावजूद, BSA की धारा 23, 2023 के अधीन एक अपवाद मौजूद है।
    • धारा 23 में प्रावधान है कि जब पुलिस अभिरक्षा में किसी आरोपी व्यक्ति से प्राप्त सूचना के परिणामस्वरूप कोई तथ्य पता चलता है, तो ऐसी सूचना में से उतनी सूचना सिद्ध की जा सकती है जो उस तथ्य से स्पष्ट रूप से संबंधित हो।
    • धारा 23 के अधीन स्वीकार्यता इस बात की परवाह किये बिना लागू होती है कि सूचना संस्वीकृति के बराबर है या नहीं।
    • धारा 23 के पीछे तर्क यह है कि ऐसी सूचना को स्वीकार करने की अनुमति दी जाए जो किसी प्रासंगिक तथ्य की खोज की ओर ले जाए, भले ही वह सूचना किसी अन्यथा अस्वीकार्य संस्वीकृति का हिस्सा क्यों न हो।
    • धारा 23 के अधीन सूचना को स्वीकार्य होने के लिये, अभियुक्त द्वारा दी गई सूचना एवं खोजे गए तथ्य के बीच स्पष्ट संबंध होना चाहिये।
    • सूचना का केवल वह भाग ही स्वीकार्य है जो खोजे गए तथ्य से स्पष्ट रूप से एवं सीधे संबंधित है, संपूर्ण कथन या संस्वीकृति नहीं।
    • तथ्य की खोज पुलिस अभिरक्षा में अभियुक्त से प्राप्त सूचना का परिणाम होनी चाहिये। अभियुक्त से जानकारी प्राप्त होने से पहले पुलिस को पता चला तथ्य अज्ञात होना चाहिये।
    • धारा 23 के अधीन स्वीकार्यता केवल उस सूचना तक सीमित है जो खोजे गए तथ्य से स्पष्ट रूप से संबंधित है तथा कथन या संस्वीकृति के अन्य भागों तक विस्तारित नहीं होती है।
    • धारा 23 के अधीन स्वीकार्यता केवल उस सूचना तक सीमित है जो खोजे गए तथ्य से स्पष्ट रूप से संबंधित है तथा बयान या संस्वीकृति के अन्य भागों तक विस्तारित नहीं होती है।
    • न्यायालय को सूचना एवं खोजे गए तथ्य की सावधानीपूर्वक जाँच करनी चाहिये ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि केवल प्रासंगिक भाग को ही साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जाए।
    • यह सिद्ध करने का भार कि धारा 27 की प्रावधानों की शर्तों को पूरा किया गया है, अभियोजन पक्ष पर होता है।
    • धारा 23 के आवेदन को अभियुक्त के मौलिक अधिकारों, विशेष रूप से भारत के संविधान के अनुच्छेद 20(3) के अंतर्गत आत्म-दोषी ठहराए जाने के विरुद्ध अधिकार के साथ संतुलित किया जाना चाहिये।

निर्णयज विधियाँ:

  • दिल्ली NCT राज्य बनाम नवजोत संधू उर्फ ​​अफसान गुरु (2005) में, उच्चतम न्यायालय ने पुष्टि की कि IEA की धारा 27 के आशय में खोजा गया तथ्य कुछ ठोस तथ्य होना चाहिये, जिससे सूचना सीधे संबंधित हो।
  • राजेश एवं अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2023) में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि IEA की धारा 27 के अधीन औपचारिक आरोप एवं औपचारिक पुलिस अभिरक्षा आवश्यक पूर्वापेक्षाएँ हैं।

आपराधिक कानून

न्यायमूर्ति हेमा समिति की रिपोर्ट

 13-Sep-2024

न्यायमूर्ति हेमा समिति की रिपोर्ट

“सिनेमा में महिलाओं की समस्याओं से निपटने के लिये सरकार द्वारा एक स्वतंत्र मंच का गठन किया जाना चाहिये”।

न्यायमूर्ति के. हेमा, टी. सारदा, के.बी. वलसालाकुमारी

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों?

केरल सरकार ने एक महत्त्वपूर्ण कदम उठाते हुए सिनेमा उद्योग में महिलाओं के सामने आने वाले विभिन्न मुद्दों पर अध्ययन करने और रिपोर्ट देने के लिये तीन सदस्यीय विशेषज्ञ समिति का गठन किया। भारत में अपनी तरह की पहली पहल, जिसका नेतृत्व केरल उच्च न्यायालय की पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति के. हेमा ने किया।

न्यायमूर्ति हेमा समिति की पृष्ठभूमि क्या है?

  • समिति का गठन:
    • इस समिति का गठन वीमेन इन सिनेमा कलेक्टिव (WCC) द्वारा केरल के मुख्यमंत्री श्री पिनाराई विजयन को प्रस्तुत याचिका के उत्तर में किया गया था।
    • मई 2017 में स्थापित WCC का उद्देश्य मलयालम फिल्म उद्योग में महिलाओं को प्रभावित करने वाली अनेक चिंताओं का समाधान करना था।
    • न्यायमूर्ति हेमा समिति ने दिसंबर 2019 में राज्य सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी; हालाँकि इसे 19 अगस्त 2024 को जारी किया गया।
  • समिति के सदस्य:
    • इस समिति में तीन प्रतिष्ठित सदस्य शामिल थे:
    • न्यायमूर्ति के. हेमा (अध्यक्ष)- पूर्व न्यायाधीश, केरल उच्च न्यायालय
    • श्रीमती टी. सारदा- एक कलाकार
    • श्रीमती के.बी. वलसालाकुमारी- प्रमुख सचिव (सेवानिवृत्त), केरल सरकार

न्यायमूर्ति हेमा समिति की रिपोर्ट के विचारणीय विषय क्या थे?

सरकार ने समिति के अध्ययन के लिये विशिष्ट संदर्भ शर्तें (TOR) जारी कीं। जाँचे जाने वाले मुख्य आयामों में शामिल हैं:

  • सिनेमा में महिलाओं के सामने आने वाली समस्याएँ, जिनमें सुरक्षा संबंधी चिंताएँ और संभावित समाधान शामिल हैं।
  • सिनेमा में महिलाओं के लिये सेवा की शर्तें और पारिश्रमिक।
  • सिनेमा से जुड़े सभी क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के उपाय।
  • सिनेमा के तकनीकी पक्ष में अधिक महिलाओं को लाने की रणनीतियाँ।
  • प्रसव, बच्चे की देखरेख या स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के कारण काम से अनुपस्थित रहने की अवधि के दौरान महिलाओं के लिये सहायता प्रणाली।
  • सिनेमा सामग्री में लैंगिक समानता सुनिश्चित करना।
  • फिल्म निर्माण गतिविधियों में कम-से-कम 30% महिलाओं की भागीदारी को प्रोत्साहित करना।

पहचाने गए प्रमुख मुद्दे क्या थे?

इस समिति ने मलयालम फिल्म उद्योग में महिलाओं के सामने आने वाले कई गंभीर मुद्दों की पहचान की:

  • यौन उत्पीड़न और दुर्व्यवहार:
    • सिनेमा में प्रवेश और भूमिकाएँ प्राप्त करने के लिये महिलाओं से यौन संबंध स्थापित करने की मांग की गईं।
    • कार्यस्थल पर, परिवहन के दौरान तथा आवास में यौन उत्पीड़न, दुर्व्यवहार और यौन हमला।
  • कार्यस्थल पर्यावरण और सुरक्षा:
    • सेट पर शौचालय और चेंजिंग रूम जैसी मूलभूत सुविधाएँ उपलब्ध न कराकर मानवाधिकारों का उल्लंघन किया गया।
    • सिनेमा, आवास एवं परिवहन में सुरक्षा का अभाव।
  • शक्ति गतिशीलता तथा भेदभाव:
    • सिनेमा में काम करने वाले व्यक्तियों पर अनधिकृत एवं अवैध प्रतिबंध।
    • काम से प्रतिबंधित किये जाने की धमकी देकर महिलाओं को चुप करा दिया जाना।
    • उद्योग में पुरुषों का वर्चस्व, लैंगिक पूर्वाग्रह एवं भेदभाव।
    • पुरुषों एवं महिलाओं के पारिश्रमिकों में असमानता।
  • पेशेवर चुनौतियाँ:
    • सिनेमा उद्योग में घोर अनुशासनहीनता, जिसमें शराब पीना, नशीली दवाओं का प्रयोग और अव्यवस्थित आचरण शामिल है।
    • नियोक्ताओं तथा कर्मचारियों के बीच लिखित अनुबंधों का निष्पादन न होना।
    • सहमति के अनुसार पारिश्रमिक का भुगतान न करना।
    • महिलाओं को तकनीकी भूमिकाओं में शामिल करने और उन्हें अवसर प्रदान करने में प्रतिरोध।
  • विधिक एवं जागरूकता संबंधी मुद्दे:
    • ऑनलाइन उत्पीड़न (साइबर हमले)।
    • महिलाओं में अपने अधिकारों के विषय में विधिक जागरूकता का अभाव।
    • शिकायतों के निवारण के लिये किसी विधिक रूप से गठित अधिकरण का अभाव।

आंतरिक शिकायत समिति (ICC) पर न्यायमूर्ति हेमा समिति का क्या दृष्टिकोण है?

  • आंतरिक शिकायत समिति:
    • वूमेन इन सिनेमा कलेक्टिव (WCC) ने एक रिट याचिका दायर कर प्रत्येक प्रोडक्शन यूनिट और एसोसिएशन ऑफ मलयालम मूवी आर्टिस्ट्स (AMMA) में ICC गठित करने के निर्देश देने की मांग की।
    • AMMA ने तर्क दिया कि वह नियोक्ता नहीं है और इसलिये ICC बनाने के लिये बाध्य नहीं है।
    • समिति ने पाया कि उद्योग के भीतर ICC का गठन शक्ति गतिशीलता एवं धमकी की संभावना के कारण प्रभावी नहीं हो सकता है।
  • स्वतंत्र मंच की स्थापना:
    • सिनेमा में महिलाओं के सामने आने वाली समस्याओं के समाधान के लिये सरकार द्वारा एक स्वतंत्र मंच की स्थापना की जाएगी।
    • रिपोर्ट में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि केवल ऐसे स्वतंत्र निकाय के माध्यम से ही महिलाओं को मलयालम फिल्म उद्योग में प्रणालीगत मुद्दों से मुक्ति मिल सकती है।

श्रीमती टी. सारदा की टिप्पणियाँ क्या थीं?

समिति की सदस्य श्रीमती टी. सारदा ने उद्योग में महिलाओं द्वारा उपलब्ध कराए गए साक्ष्य के आधार पर आगे की चिंताएँ जताई:

  • यौन उत्पीड़न:
    • यौन उत्पीड़न उद्योग में एक सतत् मुद्दा रहा है। हालाँकि यह पहले भी मौजूद था, परंतु सामाजिक परिवर्तन और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव ने इस तरह के व्यवहार को और अधिक स्पष्ट कर दिया है।
    • समिति ने कहा कि अब महिलाओं को रात में "असहज स्थितियों" का सामना करना पड़ता है एवं तथाकथित "कास्टिंग काउच" हमेशा से मौजूद रहा है, परंतु अब इसके विषय में अधिक खुले तौर पर बात की जाती है।
  • प्रतिबंध:
    • अतीत में भी अनौपचारिक प्रतिबंध का खतरा बना हुआ था, परंतु उसका क्रियान्वयन शायद ही कभी हुआ।
    • हालाँकि आज, जो महिलाएँ अपनी आवाज उठाती हैं या अधिक पारिश्रमिक की मांग करती हैं, उन्हें अक्सर फिल्मों से दूर रखा जाता है।
  • संविदाओं का अभाव:
    • संविदाओं के अभाव के कारण कई महिलाओं को उचित पारिश्रमिक नहीं मिलता है। संविदा यह सुनिश्चित करेगा कि निर्माता तय की गई राशि का भुगतान करने के लिये बाध्य हैं।
  • शराब एवं नशीली दवाओं का प्रचलन:
    • फिल्म उद्योग में युवा पीढ़ी के बीच नशीली दवाओं और शराब का प्रयोग बड़े स्तर पर हो रहा है, जिससे कार्यस्थल पर अनुशासनहीनता बढ़ रही है।
  • असुरक्षित आवास:
    • महिलाओं को अक्सर असुरक्षित एवं अनुपयुक्त आवास उपलब्ध कराया जाता है, जिससे उनका प्रदर्शन प्रभावित होता है। समिति ने अनुशंसा की है कि महिलाओं को एक साथ, सुरक्षित वातावरण में, बिना पुरुषों से अलग किये रहने की जगह दी जानी चाहिये।
  • समान पारिश्रमिक:
    • श्रीमती टी. सारदा ने समान पारिश्रमिक की मांग से असहमति जताते हुए कहा कि फिल्मों में महिलाओं के लिये दर्शकों की मांग पुरुषों के समान नहीं है।
  • कार्यस्थल परिभाषा:
    • फिल्म उद्योग में केवल इनडोर स्टूडियो और आउटडोर स्थानों को ही कार्यस्थल के रूप में परिभाषित किया जाना चाहिये।
  • साइबर हमले:
    • सरकार को साइबर हमलों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही करनी चाहिये, जो उद्योग में महिलाओं और पुरुषों के कॅरियर को बर्बाद कर देते हैं।
  • मेकअप कलाकारों के लिये आयु सीमा:
    • श्रीमती सारदा ने मेकअप महिलाओं के लिये आयु सीमा पर सवाल उठाया और कहा कि उन्हें जॉब कार्ड क्यों नहीं जारी किये जाते।
  • लैंगिक भेदभाव:
    • महिला निर्माताओं को केवल लिंग के कारण अभिनेताओं और निर्देशकों से अपमान एवं दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता है।

फिल्म सामग्री में लैंगिक न्याय के लिये क्या अनुशंसाएँ थीं?

फिल्मों की विषय-वस्तु में लैंगिक न्याय प्राप्त करने के लिये श्रीमती के.बी. वलसलाकुमारी द्वारा निम्नलिखित उपायों का उल्लेख किया गया:

  • स्क्रीन पर महिलाओं और लड़कियों की दृश्यता बढ़ाएँ:
    • महिलाओं और लड़कियों को स्क्रीन पर प्रमुखता से दिखना चाहिये, ताकि समाज में उनका प्रतिनिधित्व झलके। मोशन पिक्चर एसोसिएशन ऑफ अमेरिका (MPAA) के सहयोग से किये गए अध्ययन से पता चला है कि:
      • उदाहरण के लिये, भारत में केवल 24.9% महिला पात्र ही प्रमुख या सह-प्रमुख भूमिकाओं में हैं।
      • कोरिया, जापान और चीन जैसे देशों में प्रतिनिधित्व दर भारत की तुलना में अधिक है।
  • सत्ता के पदों पर आसीन महिलाओं का चरित्र चित्रण:
    • युवा लड़कियों को प्रेरित करने और विविध रोल मॉडल को प्रदर्शित करने के लिये महिलाओं को राजनेता, न्यायाधीश, वैज्ञानिक, व्यवसायी, IAS/IPS अधिकारी, राजदूत, पायलट एवं पत्रकार जैसे उच्च पद पर चित्रित करना आवश्यक है।
    • महिलाओं को इन भूमिकाओं में चित्रित करके, सामग्री निर्माता पारंपरिक लिंग बाधाओं को तोड़ने में मदद कर सकते हैं।
  • लिंग जागरूकता प्रशिक्षण कार्यक्रम:
    • फिल्म निर्माण में शामिल सभी लोगों के लिये लिंग जागरूकता प्रशिक्षण अनिवार्य होना चाहिये- निर्माता, निर्देशक, सामग्री लेखक, अभिनेता, तकनीशियन और यहाँ तक ​​कि ड्राइवर एवं जूनियर कलाकार भी।
    • यह प्रशिक्षण पुरुषों द्वारा सत्ता पर लंबे समय से चले आ रहे एकाधिकार को समाप्त करने में सहायता करेगा तथा लैंगिक भूमिकाओं की पुनः कल्पना को प्रोत्साहित करेगा।
  • पुरुषत्व और स्त्रीत्व को पुनर्परिभाषित करना:
    • फिल्मों में प्रायः पुरुषत्व को हिंसक, आक्रामक एवं क्रूरता के पर्याय के रूप में चित्रित किया जाता है, जबकि स्त्रीत्व को निष्क्रिय एवं विनम्र के रूप में दर्शाया जाता है।
    • फिल्मों की एक नई शैली उभरनी चाहिये, जो पुरुषत्व को देखभाल करने वाले, न्यायप्रिय एवं दयालु के रूप में दिखाए।
  • लैंगिक न्याय का प्रमाणन:
    • फिल्मों में पशुओं के प्रयोग से संबंधित प्रमाणन प्रक्रिया के समान, प्रत्येक फिल्म को एक प्रमाण-पत्र प्रदर्शित करना चाहिये जिसमें यह कहा गया हो कि फिल्म का कोई भी संवाद या स्थिति लैंगिक अन्याय का महिमामंडन नहीं करती है।
    • इससे यह सुनिश्चित होगा कि फिल्में निष्पक्ष प्रतिनिधित्व को बढ़ावा देंगी और हानिकारक रूढ़िवादिता को हतोत्साहित करेंगी।

आपराधिक कानून

PC अधिनियम की धारा 17A

 13-Sep-2024

लंबोदर प्रसाद पाढ़ी बनाम केंद्रीय जाँच ब्यूरो

"अज्ञात व्यक्तियों के विरुद्ध प्रारंभिक जाँच पर PC अधिनियम की धारा 17 A के अधीन सख्ती से रोक नहीं लगाई जा सकती है, लेकिन जाँच एजेंसी द्वारा पूर्व अनुमोदन प्राप्त करने के प्रावधान को दरकिनार करने के लिये इसका प्रयोग नहीं किया जा सकता है”।

न्यायमूर्ति अनूप कुमार मेंदीरत्ता

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने लंबोदर प्रसाद पाढ़ी बनाम केंद्रीय अंवेषण ब्यूरो एवं अन्य के मामले में माना है कि भ्रष्टाचार निवारण (संशोधन) अधिनियम, 2018 (PC) की धारा 17 A के अनुसार सक्षम प्राधिकारी की पूर्व स्वीकृति के बिना किसी अज्ञात अधिकारी के विरुद्ध कोई मामला दर्ज नहीं किया जा सकता है।

लंबोदर प्रसाद पाढ़ी बनाम केंद्रीय अंवेषण ब्यूरो मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्तमान मामले में, एक प्रारंभिक जाँच की गई थी तथा याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध मामला दर्ज किया गया था।
  • प्रारंभिक जाँच के निष्कर्षों के आधार पर याचिकाकर्त्ता पर धारा 120 बी के साथ धारा 477 ए भारतीय दण्ड संहिता, 1860 एवं धारा 13 (2) के साथ धारा 13(1)(b) PC अधिनियम के अधीन आरोप लगाया गया था।
  • प्रतिवादी (केंद्रीय अंवेषण ब्यूरो [CBI]) ने आरोप लगाया कि अजमेर-किशनगढ़ राजमार्ग के निर्माण के समय याचिकाकर्त्ता ने परियोजना में शामिल अन्य कंपनियों एवं भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (NHAI) के साथ आपराधिक षड्यंत्र रची।
  • यह भी आरोप लगाया गया कि याचिकाकर्त्ता से एक हार्ड डिस्क बरामद की गई थी।
  • कथित तौर पर कहा गया था कि हार्ड डिस्क में कथित तौर पर उपठेकेदारों का विवरण, नकदी बनाने के लिये उप-ठेकेदारों द्वारा प्रदान किये गए झूठे चालान, भारतीय अधिकारियों के नाम शामिल थे, जिन्हें स्पेनिश आरोपी व्यक्तियों द्वारा NHAI अधिकारियों को आगे की डिलीवरी के लिये नकदी प्रदान की गई थी।
  • बाद में, CBI ने भारत सरकार के सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय (MoRT&H) को एक पत्र लिखकर PC अधिनियम की धारा 17A के अधीन अनुमति मांगी।
  • अनुमति देने से मना कर दिया गया क्योंकि NHAI के अधिकारियों के विरुद्ध दोषपूर्ण कार्यों के कोई ठोस साक्ष्य नहीं मिले।
  • हालाँकि प्रतिवादी ने PC अधिनियम की धारा 17A के अधीन सक्षम प्राधिकारी द्वारा अनुमोदन से मना करने के बावजूद मामला दर्ज करने की कार्यवाही जारी रखी।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष मामले को रद्द करने के लिये वर्तमान रिट याचिका दायर की गई थी।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • इस मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने PC अधिनियम की धारा 17A के दायरे एवं उद्देश्य को इस प्रकार माना:
    • इसमें कहा गया है कि सक्षम प्राधिकारी की पूर्व स्वीकृति के बिना किसी सार्वजनिक अधिकारी के विरुद्ध कोई विवेचना या जाँच तब शुरू नहीं की जा सकती जब वह अपने कर्त्तव्य का निर्वहन कर रहा हो।
    • इस प्रावधान का उद्देश्य PC अधिनियम के अनुसार अपनी क्षमता के अधीन कार्य कर रहे ईमानदार अधिकारियों की रक्षा करना है।
    • आगे कहा गया है कि इस प्रावधान का उद्देश्य अधिकारियों के विरुद्ध किसी भी मनमानी जाँच, पूछताछ या विवेचना पर रोक लगाना है।
    • उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि किसी अज्ञात अधिकारी के विरुद्ध प्रारंभिक जाँच की जा सकती है।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने उपरोक्त सभी टिप्पणियाँ करने के बाद माना कि याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध कोई ठोस साक्ष्य नहीं मिला है तथा केवल हार्ड डिस्क के आधार पर कोई पुष्टि नहीं की जा सकती है।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि प्रतिवादी ने विधिक प्रक्रिया का दुरुपयोग किया है तथा PC अधिनियम की धारा 17 A के अधीन जाँच अधिकारियों को जाँच के साथ आगे बढ़ने के लिये आवश्यक रूप से स्वीकृति लेनी चाहिये।

PC अधिनियम की धारा 17A क्या है?

  • PC अधिनियम के अधीन 2018 संशोधन के माध्यम से धारा 17A को शामिल किया गया था।
  • पूर्व अनुमोदन से तात्पर्य जाँचकर्त्ताओं, विशेष रूप से अपराध अंवेषण विभाग (CID) या CBI जैसी एजेंसियों के लिये सरकारी अधिकारियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोपों की विवेचना या जाँच शुरू करने से पहले सरकार या सक्षम प्राधिकारी से अनुमोदन प्राप्त करने की आवश्यकता से है।
  • किसी भी औपचारिक कार्यवाही, जैसे कि FIR (प्रथम सूचना रिपोर्ट) दर्ज करना या विस्तृत जाँच करना, से पहले यह अनुमोदन आवश्यक है।
  • PC अधिनियम की धारा 17A में नीचे बताया गया है:
    • सरकारी कार्यों या कर्त्तव्यों के निर्वहन में लोक सेवक द्वारा की गई अनुशंसा या लिये गए निर्णय से संबंधित अपराधों की जाँच या अन्वेषण
    • कोई भी पुलिस अधिकारी इस अधिनियम के अधीन किसी लोक सेवक द्वारा किये गए कथित किसी अपराध के संबंध में कोई जाँच या अन्वेषण नहीं करेगा, जहाँ कथित अपराध ऐसे लोक सेवक द्वारा अपने आधिकारिक कार्यों या कर्त्तव्यों के निर्वहन में की गई किसी अनुशंसा या लिये गए निर्णय से संबंधित है, पूर्व अनुमोदन के बिना, ऐसे व्यक्ति की दशा में, जो उस समय नियोजित था, जब अपराध का किया जाना अभिकथित था, संघ के कार्यकलाप के संबंध में, उस सरकार की होगी।
    • किसी अन्य व्यक्ति के मामले में, उस समय उस प्राधिकारी की स्वीकृति आवश्यक होगी जो उसे उसके पद से हटा सके, उस समय जब अपराध कारित किया जाना अभिकथित किया गया था।
    • बशर्ते कि ऐसे मामलों में ऐसी स्वीकृति आवश्यक नहीं होगी जिसमें किसी व्यक्ति को स्वयं या किसी अन्य व्यक्ति के लिये कोई अनुचित लाभ स्वीकार करने या स्वीकार करने का प्रयास करने के आरोप में मौके पर ही गिरफ्तार किया गया हो।
    • आगे यह भी प्रावधान है कि संबंधित प्राधिकारी इस धारा के अधीन अपना निर्णय तीन माह की अवधि के अंदर सूचित करेगा, जिसे ऐसे प्राधिकारी द्वारा लिखित रूप में अभिलिखित किये जाने वाले कारणों से एक माह की अतिरिक्त अवधि के लिये बढ़ाया जा सकेगा।

PC अधिनियम की धारा 17A पर आधारित मामले क्या हैं?

  • जेड.यू. सिद्दीकी बनाम बाल किशन कपूर एवं अन्य (2005):
    • इस मामले में इस बात पर जोर दिया गया कि लोक सेवकों के पक्ष में उद्देश्य को आगे बढ़ाने के लिये PC (संशोधन) अधिनियम, 2018 की धारा 17 A की व्याख्या की जानी चाहिये।
  • पी.के.प्रधान बनाम CBI के द्वारा सिक्किम राज्य (2001):
    • इस मामले में यह माना गया कि, यह प्रस्तुत करने के लिये कि मामला PC अधिनियम के अधीन पंजीकृत होना है, शिकायत किये गए कृत्य एवं 'आधिकारिक कर्त्तव्य के निर्वहन' के साथ उचित संबंध होना चाहिये।
  • नारा चंद्रबाबू नायडू बनाम आंध्र प्रदेश राज्य एवं अन्य (2023):
    • यह मामला पूछताछ/जाँच की परिभाषा से संबंधित था तथा क्या धारा 17A प्रक्रियात्मक या मौलिक प्रकृति की है। इसके अतिरिक्त, क्या धारा 17A का पूर्वव्यापी/भविष्यव्यापी अनुप्रयोग है। हालाँकि इस मामले में यह माना गया कि इस बात को रेखांकित करने की आवश्यकता है कि प्रावधान का व्यापक उद्देश्य लोक सेवकों के विरुद्ध मनमानी या परेशान करने वाली जाँच को रोकना है।

सिविल कानून

स्वतंत्रता सेनानियों के आश्रितों को आरक्षण

 13-Sep-2024

अवनी पांडे बनाम चिकित्सा शिक्षा और प्रशिक्षण महानिदेशालय के माध्यम से महानिदेशक लखनऊ एवं अन्य

“किसी स्वतंत्रता सेनानी के प्रपौत्र को आरक्षण का लाभ नहीं दिया जा सकता।”

न्यायमूर्ति आलोक माथुर

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति आलोक माथुर की पीठ ने कहा कि प्रपौत्र, स्वतंत्रता सेनानियों का ‘आश्रित’ नहीं है।    

  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अवनी पांडे बनाम चिकित्सा शिक्षा एवं प्रशिक्षण महानिदेशालय के माध्यम से महानिदेशक लखनऊ व अन्य मामले में यह निर्णय दिया।

अवनी पांडे बनाम चिकित्सा शिक्षा और प्रशिक्षण महानिदेशालय के माध्यम से महानिदेशक लखनऊ एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • याचिकाकर्त्ता MBBS पाठ्यक्रम में प्रवेश के लिये NEET-UG-2024 परीक्षा में उपस्थित हुआ है।
  • याचिकाकर्त्ता उत्तर प्रदेश की मूल निवासी है और उसने बरेली से 10वीं तथा 12वीं कक्षा उत्तीर्ण की है, जबकि उसके परदादा एवं परदादी बिहार राज्य के मूल निवासी थे।
  • याचिकाकर्त्ता स्वतंत्रता सेनानियों के आश्रितों को आरक्षण देने की मांग कर रहा है।
  • हालाँकि, याचिकाकर्त्ता को स्वतंत्रता सेनानी आश्रित श्रेणी के अंतर्गत आरक्षण का लाभ देने से प्रतिषेध कर दिया गया है।
  • याचिका प्रतिवादी संख्या 1 द्वारा जारी दिशा-निर्देशों को, जिसमें अन्य राज्यों के स्वतंत्रता सेनानियों के आश्रितों को स्वतंत्रता सेनानी श्रेणी के अंतर्गत आरक्षण का लाभ प्राप्त करने के लिये शामिल नहीं किया गया है, अवैध घोषित करने के लिये दायर की गई है, क्योंकि यह दिशा-निर्देश भेदभावपूर्ण है तथा भारतीय संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 14, 15 और 16 का उल्लंघन है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्च न्यायालय ने यहाँ उठाए गए प्रश्न का उत्तर दिया: "क्या स्वतंत्रता सेनानियों की प्रपौत्री को भी उत्तर प्रदेश लोक सेवा (शारीरिक रूप से विकलांग, स्वतंत्रता सेनानियों के आश्रितों और पूर्व सैनिकों के लिये आरक्षण) अधिनियम, 1993 की धारा 2 (b) के अनुसार स्वतंत्रता सेनानी के आश्रित के रूप में लाभ दिया जाना है?"
  • न्यायालय ने पूर्वनिर्णयों का उदाहरण दिया और कहा कि यह स्थापित हो चुका है कि प्रपौत्र को 'आश्रितों' की परिभाषा में शामिल नहीं किया गया है।
  • तदनुसार, न्यायालय ने माना कि इस मामले में भी प्रपौत्री को 'आश्रितों' के दायरे में शामिल नहीं किया जाएगा।

उत्तर प्रदेश लोक सेवा (शारीरिक रूप से विकलांग, स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के आश्रितों और भूतपूर्व सैनिकों के लिये आरक्षण) अधिनियम, 1993 के अंतर्गत आश्रित कौन है?

  • उत्तर प्रदेश लोक सेवा (शारीरिक रूप से विकलांग, स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के आश्रितों और भूतपूर्व सैनिकों के लिये आरक्षण) अधिनियम, 1993 की धारा 2 (b) में 'आश्रित' की परिभाषा दी गई है।
  • यह धारा यह प्रावधान करती है कि स्वतंत्रता सेनानी के संदर्भ में 'आश्रित' का अर्थ है:
    • पुत्र या पुत्री (विवाहित या अविवाहित);
    • पौत्र(पुत्र या पुत्री का पुत्र) और पौत्री (पुत्र या पुत्री का पुत्री) (विवाहित या अविवाहित)।

आरक्षण के प्रकार क्या हैं?

  • इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ (1992) के मामले में उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने माना कि आरक्षण दो प्रकार के होते हैं:
    • क्षैतिज आरक्षण
    • ऊर्ध्वाधर आरक्षण 
  • उर्ध्वाधर आरक्षण
    • ये विशेष प्रावधानों का उच्चतम स्वरूप है जो विशेष रूप से पिछड़े वर्गों (SC, ST और OBC) के लिये हैं।
    • इन वर्गों के सदस्यों द्वारा अपनी योग्यता के आधार पर प्राप्त पद, ऊर्ध्वाधर आरक्षित पदों में नहीं गिने जाते।
    • यह आरक्षण 50% से अधिक नहीं हो सकता।
  • क्षैतिज आरक्षण  
    • ये विशेष प्रावधानों का निम्नतर रूप हैं तथा अन्य वंचित नागरिकों के लिये हैं।
    • क्षैतिज आरक्षण विकलांगों, महिलाओं, स्वतंत्रता सेनानियों के आश्रितों के लिये है।
    • उनके माध्यम से समायोजन पिछड़े वर्गों के लिये आरक्षित सीटों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता।

स्वतंत्रता सेनानियों के आश्रितों को दिये गए आरक्षण पर ऐतिहासिक मामला

  • कृष्ण नंद राय बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और 2 अन्य (2020)
    • इस मामले में याचिकाकर्त्ता ने न्यायालय में आरक्षण दिये जाने की मांग की थी, क्योंकि वह एक स्वतंत्रता सेनानी का प्रपौत्र था और इसलिये वह ‘स्वतंत्रता सेनानियों के आश्रितों’ की श्रेणी के अंतर्गत आरक्षण के लिये पात्र था।
    • न्यायालय ने कहा कि स्वतंत्रता सेनानी के आश्रित होने का लाभ केवल पौत्र स्तर तक के वंशजों को ही मिलेगा, इससे आगे नहीं, अर्थात् परपौत्र या उससे नीचे के वंशज ‘स्वतंत्रता सेनानी के आश्रित’ की परिभाषा में नहीं आएंगे।
    • इसलिये, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने याचिका को अस्वीकार कर दिया और कहा कि याचिकाकर्त्ता को आरक्षण का लाभ नहीं दिया जा सकता।