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सिविल कानून
अखिल भारतीय बार परीक्षा
19-Sep-2024
निलय राय एवं अन्य बनाम भारतीय विधिज्ञ परिषद् “भारतीय विधिज्ञ परिषद् अगले सप्ताह सूचित करेगी कि इस मामले में नियम कब अधिसूचित किये जाएंगे ”। भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ भारतीय विधिज्ञ परिषद् के उस निर्णय को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई कर रही है जिसमें विधि अंतिम वर्ष के छात्रों को अखिल भारतीय बार परीक्षा (AIBE) में प्रतिभाग करने से रोकने का निर्णय किया गया है।
- उच्चतम न्यायालय ने निलय राय एवं अन्य बनाम भारतीय विधिज्ञ परिषद् मामले में दायर याचिका पर यह टिप्पणी की।
निलय राय एवं अन्य बनाम भारतीय विधिज्ञ परिषद् मामले में दायर याचिका की पृष्ठभूमि क्या थी?
- अखिल भारतीय बार परीक्षा (AIBE) के लिये पात्रता के संबंध में भारतीय विधिज्ञ परिषद् (BCI) की अधिसूचना को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की गई है।
- जारी अधिसूचना में अंतिम वर्ष के विधि छात्रों को आगामी AIBE में पंजीकरण कराने और उपस्थित होने से रोक दिया गया है।
- यह रिट याचिका दिल्ली विश्वविद्यालय के कैंपस लॉ सेंटर तथा लॉ सेंटर के 3 वर्षीय B कार्यक्रम के अंतिम वर्ष के 9 विधि के छात्रों द्वारा दायर की गई है।
- याचिकाकर्त्ताओं ने BCI द्वारा जारी अधिसूचना के विरुद्ध निम्नलिखित याचिका दायर की है:
- यह अधिसूचना भारतीय विधिज्ञ परिषद् बनाम बोनी FOI लॉ कॉलेज (2023) में उच्चतम न्यायालय के निर्णय के विपरीत है, जहाँ संविधान पीठ ने कहा था कि:
- विधि अंतिम वर्ष के छात्रों को AIBE में प्रतिभाग करने की अनुमति दी जानी चाहिये (बशर्ते कि वे विधि में डिग्री प्राप्त कर लें)।
- न्यायालय ने इस मामले में BCI को वर्ष में दो बार परीक्षा आयोजित करने का भी निर्देश दिया।
- याचिकाकर्त्ताओं ने आगे तर्क दिया कि अधिसूचना ने उन्हें आगामी AIBE में उपस्थित होने से रोक दिया है, जिससे उनके पेशेवर करियर को आगे बढ़ाने में उनका बहुमूल्य समय बर्बाद होगा।
- यह अधिसूचना स्वेच्छाचारी है क्योंकि इसमें विश्वविद्यालयों द्वारा अपने परीक्षा परिणाम घोषित करने की अलग-अलग समय-सारिणी को अनदेखा किया गया है और इससे उन छात्रों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है जिनके परीक्षा परिणाम घोषित होने में विलंब होता है।
- यह अधिसूचना भारतीय विधिज्ञ परिषद् बनाम बोनी FOI लॉ कॉलेज (2023) में उच्चतम न्यायालय के निर्णय के विपरीत है, जहाँ संविधान पीठ ने कहा था कि:
- याचिकाकर्त्ता द्वारा निम्नलिखित बिंदुओं के लिये राहत मांगी गई है:
- BCI द्वारा जारी अधिसूचना को रद्द करने के लिये।
- अंतिम सेमेस्टर को आगामी परीक्षा में बैठने की अनुमति देने के लिये।
- अधिसूचना पर अंतरिम रोक।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने इस याचिका पर BCI से प्रतिउत्तर मांगा है।
- BCI ने न्यायालय को सूचित किया है कि वह अंतिम वर्ष के विधि छात्रों को AIBE परीक्षा देने की अनुमति देने के लिये नियम बना रहा है।
- इस प्रकार, न्यायालय ने कहा कि एक बार नियम बना दिये जाएँ तो मामले में अधिक स्पष्टता होगी।
- इस प्रकार, BCI के उत्तर पर विचार करने के बाद न्यायालय द्वारा इस मामले पर निर्णय किया जाएगा।
What is AIBE क्या है ?
- AIBE को 30 अप्रैल 2010 को आयोजित एक सभा में भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा अनुमोदित किया गया था।
- शैक्षणिक वर्ष 2009-10 से स्नातक करने वाले सभी विधि छात्रों के लिये AIBE परीक्षा अनिवार्य कर दी गई।
- अभ्यर्थी अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 24 के अंतर्गत अधिवक्ता के रूप में नामांकन कराने के उपरांत ही परीक्षा में शामिल होने के लिये आवेदन कर सकते हैं।
- AIBE का उद्देश्य एवं महत्त्व
- AIBE का एकमात्र उद्देश्य विधिक व्यवसाय एवं अधिवक्ताओं के स्तर में सुधार करना है।
- यह परीक्षा ज्ञान के मूलभूत स्तर का आकलन करती है तथा विश्लेषणात्मक कौशल का आकलन करने के अतिरिक्त विधि के अभ्यास में प्रवेश के लिये न्यूनतम मानदंड निर्धारित करती है।
- परीक्षा उत्तीर्ण करने वाला सदस्य किसी भी अधिकरण, न्यायालय और प्रशासनिक निकायों में सुनवाई में भाग ले सकता है।
- AIBE उत्तीर्ण करने के बाद अभ्यर्थी को BCI द्वारा सर्टिफिकेट ऑफ प्रैक्टिस (COP) प्रदान किया जाता है।
AIBE का प्रारूप एवं प्रकृति क्या है?
- प्रारूप
- यह ऑफलाइन मोड में आयोजित किया जाता है
- परीक्षा का प्रारूप बहुविकल्पीय प्रकार का है
- परीक्षा-अवधि साढ़े तीन घंटे की है
- यह एक ओपन बुक परीक्षा है
- यह 50 शहरों में 140 केंद्रों पर आयोजित किया जाता है।
- सामान्य/OBC के लिये उत्तीर्ण प्रतिशत 45% और SC/ST और विकलांग अभ्यर्थियों के लिये 40% है।
- प्रकृति
- यह नामांकन के बाद की परीक्षा है।
- व्यक्तियों को इस वचन पर अनंतिम रूप से नामांकित किया जाता है कि वे नामांकन के 2 वर्ष के अंदर परीक्षा उत्तीर्ण कर लेंगे।
AIBE- XIX के लिये महत्त्वपूर्ण तिथियाँ क्या हैं?
घटनाक्रम |
महत्त्वपूर्ण तिथियाँ |
AIBE के लिये ऑनलाइन पंजीकरण आरंभ |
3rd सितंबर 2024 |
भुगतान प्रारंभ |
3rd सितंबर 2024 |
ऑनलाइन पंजीकरण समाप्त |
25th अक्तूबर 2024 |
ऑनलाइन मोड के माध्यम से भुगतान की अंतिम तिथि |
28th अक्तूबर 2024 |
पंजीकरण फॉर्म में सुधार की अंतिम तिथि |
30th अक्तूबर 2024 |
प्रवेश पत्र ऑनलाइन जारी होने की तिथि |
18th नबंवर 2024 |
परीक्षा तिथि |
24th नबंवर 2024 |
अंतिम वर्ष के विधि छात्रों के लिये अन्य अवसर क्या हैं?
- CLAT PG
- हर साल PSU भर्ती CLAT LLM स्कोर के माध्यम से होती है।
- CLAT PG के माध्यम से भर्ती आयोजित करने वाली सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियाँ हैं:
- पावर ग्रिड कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (PGCIL)
- इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन लिमिटेड (IOCL)
- भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड (BHEL)
- ऑयल एंड नेचुरल गैस कॉर्पोरेशन (ONGC)
- ऑयल इंडिया लिमिटेड (OIL)
- नेशनल थर्मल पावर कॉर्पोरेशन लिमिटेड (NTPC)
- उच्चतम न्यायालय लॉ क्लर्क/रिसर्च असिस्टेंट
- भारत का उच्चतम न्यायालय प्रतिवर्ष आधार पर उच्चतम न्यायालय लॉ क्लर्क- रिसर्च असिस्टेंट के पद के लिये रिक्तियों की घोषणा करता है।
- अभ्यर्थी 5 वर्ष या 3 वर्ष की लॉ डिग्री के अंतिम वर्ष में अध्ययनरत व्यक्ति हो सकता है।
- परीक्षा के तीन चरण हैं:
- भाग I: बहुविकल्पीय प्रश्न
- भाग II: व्यक्तिपरक लिखित परीक्षा
- भाग III: साक्षात्कार
- राजस्थान न्यायिक सेवाएँ
- किसी भी न्यायिक सेवा परीक्षा में प्रतिभाग करने के लिये यह आवश्यक है कि अभ्यर्थी ने विधि में डिग्री पूरी कर ली हो।
- हालाँकि, विधि के अंतिम वर्ष का छात्र राजस्थान न्यायिक सेवा परीक्षा में प्रतिभाग कर सकता है।
सिविल कानून
न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना की अध्यक्ष के रूप में नियुक्ति
19-Sep-2024
लैंगिक संवेदनशीलता एवं आंतरिक शिकायत समिति “न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना को उच्चतम न्यायालय की पुनर्गठित लैंगिक संवेदनशीलता एवं आंतरिक शिकायत समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया”। न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
समिति में अब न्यायमूर्ति एन. कोटिश्वर सिंह, बांसुरी स्वराज एवं साक्षी बंगा जैसे सदस्य शामिल हैं, जबकि मेनका गुरुस्वामी एवं नीना गुप्ता SCBA का प्रतिनिधित्व करना जारी रखेंगी।
भारत के उच्चतम न्यायालय के लिये लैंगिक संवेदनशीलता एवं आंतरिक शिकायत समिति का गठन व संरचना क्या थी?
- भारत के उच्चतम न्यायालय में महिलाओं के लैंगिक संवेदनशीलता एवं यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध व निवारण) विनियम, 2013 की धारा 4 उच्चतम न्यायालय लैंगिक संवेदनशीलता एवं आंतरिक शिकायत समिति से संबंधित है।
- इसमें कम से कम 7 सदस्य एवं अधिकतम 13 सदस्य होंगे।
- इसकी संरचना में निम्नलिखित शामिल हैं:
- उच्चतम न्यायालय के एक या दो न्यायाधीश, जिनमें से एक अध्यक्ष होगा
- उच्चतम न्यायालय बार एसोसिएशन के एक या दो वरिष्ठ सदस्य
- उच्चतम न्यायालय एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन द्वारा चुने गए एक या दो सदस्य
- एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन की एक महिला सदस्य
- उच्चतम न्यायालय बार एसोसिएशन की एक महिला सदस्य
- महिलाओं के मुद्दों से निपटने वाले NGOs या अन्य निकायों से भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा नामित कम से कम एक बाहरी सदस्य
- GSICC के अधिकांश सदस्य महिलाएँ होंगी।
- नियुक्त किये गए बाहरी सदस्य को निर्धारित शुल्क या भत्ते दिये जाएंगे।
- दस्तावेज़ में उन शर्तों का भी उल्लेख किया गया है जिनके अंतर्गत GSICC के अध्यक्ष या सदस्य को हटाया जा सकता है, जैसे कि किसी अपराध के लिये दोषी ठहराया जाना या आंतरिक उप-समिति का गठन करने में विफल होना।
- GSICC सदस्यों का कार्यकाल दो वर्ष का होता है, जिसमें एक और कार्यकाल के लिये फिर से नामांकन की संभावना होती है।
उच्चतम न्यायालय लैंगिक संवेदनशीलता एवं आंतरिक शिकायत समिति, 2024
भारत के उच्चतम न्यायालय में लैंगिक संवेदनशीलता एवं महिलाओं के यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध एवं निवारण) विनियम, 2013 की महत्त्वपूर्ण धाराएँ क्या हैं?
- धारा 5 समिति के कार्यकाल से संबंधित है
- इसमें समिति का कार्यकाल बताया गया है। प्रत्येक सदस्य का कार्यकाल 2 वर्ष का है, बशर्ते कि सदस्य को अधिकतम दो कार्यकाल के लिये चुना/नामांकित किया जाए तथा धारा 4(5) के अधीन हटाए गए सदस्य को पुनः नामांकन या पुनः चुनाव का पात्र नहीं माना जाएगा।
- धारा 6 समिति की बैठक से संबंधित है
- GSICC की बैठक हर तीन महीने में कम से कम एक बार होगी।
- बैठकों के लिये अध्यक्ष सहित न्यूनतम 5 सदस्यों की आवश्यकता होती है।
- यदि कोरम पूरा नहीं होता है, तो बैठक 30 मिनट के लिये स्थगित कर दी जाएगी तथा फिर उपलब्ध सदस्यों के साथ बैठक आयोजित की जाएगी।
- अध्यक्ष द्वारा 24 घंटे की सूचना पर आपातकालीन बैठकें बुलाई जा सकती हैं।
- धारा 7 बैठक के कार्य से संबंधित है
- GSICC उच्चतम न्यायालय के लैंगिक संवेदनशीलता विनियमों का अनुपालन सुनिश्चित करेगी।
- यह महिलाओं की सुरक्षा जैसे मुद्दों पर मुख्य न्यायाधीश को अनुशंसा करेगी।
- GSICC लिंग संवेदीकरण के लिये कार्यशालाएँ एवं प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करेगी।
- यह किसी भी व्यक्ति द्वारा विनियमों की किसी भी उपेक्षा को मुख्य न्यायाधीश के संज्ञान में लाएगी।
- धारा 8 यौन उत्पीड़न की शिकायत से संबंधित है
- पीड़ित महिला यौन उत्पीड़न की शिकायत लिखित रूप में GSICC को कर सकती है।
- यदि महिला लिखित शिकायत नहीं कर सकती है, तो GSICC का कोई भी सदस्य लिखित शिकायत करने के लिये उसे उचित सहायता प्रदान करेगा।
- शिकायत पीड़ित महिला या उसके द्वारा अधिकृत किसी भी व्यक्ति द्वारा की जा सकती है।
- जहाँ पीड़ित महिला शारीरिक या मानसिक अक्षमता के कारण शिकायत करने में असमर्थ है, वहाँ उसके रिश्तेदार, मित्र, सहकर्मी या घटना की सूचना रखने वाले किसी भी व्यक्ति द्वारा शिकायत दर्ज कराई जा सकती है।
- धारा 9 - शिकायत की जाँच
- शिकायत प्राप्त होने पर, GSICC तथ्य-खोज जाँच करने के लिये एक आंतरिक उप-समिति का गठन करेगी।
- आंतरिक उप-समिति में GSICC के तीन सदस्य शामिल होंगे, जिनमें से अधिकांश महिलाएँ होंगी तथा कम से कम एक बाहरी सदस्य होगा।
- आंतरिक उप-समिति के गठन के 90 दिनों के अंदर जाँच की जाएगी और पूर्ण की जाएगी।
- धारा 10 - जाँच रिपोर्ट
- जाँच पूरी होने पर, आंतरिक उप-समिति 10 दिनों के अंदर GSICC को अपने निष्कर्षों की जाँच रिपोर्ट उपलब्ध कराएगी।
- यदि प्रतिवादी के विरुद्ध आरोप सिद्ध हो जाता है, तो आंतरिक उप-समिति GSICC को उचित कार्यवाही की अनुशंसा करेगी।
- यदि आरोप सिद्ध नहीं होता है, तो यह अनुशंसा करेगी कि कोई कार्यवाही आवश्यक नहीं है।
- धारा 11 - जाँच रिपोर्ट पर आदेश
- GSICC आंतरिक उप-समिति की जाँच रिपोर्ट को स्वीकार या अस्वीकार करने के आदेश पारित करेगी।
- GSICC परिणामी आदेश पारित कर सकती है जो यौन उत्पीड़न को समाप्त करने के लिये उचित एवं आवश्यक हो सकते हैं।
- आदेशों में चेतावनी, प्रकाशन के साथ चेतावनी, उच्चतम न्यायालय परिसर में प्रवेश करने पर प्रतिबंध या यौन उत्पीड़न के शिकार को न्याय दिलाने के लिये कोई अन्य आदेश शामिल हो सकते हैं।
- धारा 14 - शक्तियाँ
- GSICC के पास विनियमों के प्रावधानों को लागू करने के लिये परिपत्र/अधिसूचनाएँ जारी करने की शक्ति है।
- GSICC विनियमों के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये कोई भी आदेश पारित कर सकता है।
- GSICC और आंतरिक उप-समिति को कुछ मामलों में सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अधीन सिविल न्यायालय में निहित शक्तियों के समान शक्तियाँ प्राप्त हैं, जैसे साक्षियों को बुलाना, दस्तावेजों की खोज एवं उत्पादन की आवश्यकता आदि।
- धारा 15 - कर्त्तव्य
- GSICC भारत के उच्चतम न्यायालय परिसर में सुरक्षित कार्य वातावरण प्रदान करने के लिये उपाय करेगा।
- यह किसी भी प्रमुख स्थान पर यौन उत्पीड़न के दण्डात्मक परिणामों एवं आंतरिक समिति के गठन के आदेश को प्रदर्शित करेगा।
- GSICC उच्चतम न्यायालय परिसर में कार्य करने वाले व्यक्तियों को संवेदनशील बनाने के लिये नियमित अंतराल पर कार्यशालाओं एवं जागरूकता कार्यक्रमों का आयोजन करेगा।
- यह शिकायतों से निपटने और जाँच करने के लिये आंतरिक उप-समिति को आवश्यक सुविधाएँ प्रदान करेगा।
- GSICC आंतरिक उप-समिति के समक्ष प्रतिवादियों एवं साक्षियों की उपस्थिति सुनिश्चित करने में सहायता करेगा।
उच्चतम न्यायालय में लैंगिक संवेदनशीलता एवं महिलाओं के यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध व निवारण) के 2015 के दिशानिर्देश क्या हैं?
- आंतरिक उप-समिति का गठन:
- इसमें तीन सदस्य होते हैं, जिनमें से अधिकांश महिलाएँ होती हैं, तथा एक बाहरी/बाह्य सदस्य भी होता है।
- बाहरी सदस्य को प्रति बैठक 3000 रुपए का भुगतान किया जाता है।
- शिकायत प्रक्रिया:
- पीड़ित महिला को सहायक दस्तावेजों एवं साक्षियों के बयानों के साथ GSICC सदस्य-सचिव को लिखित शिकायत दर्ज करानी होगी।
- प्रतिवादी के पास लिखित जवाब देने के लिये 7 दिन का समय है।
- जाँच प्रक्रिया:
- आंतरिक उप-समिति दोनों पक्षों को अपना मामला प्रस्तुत करने का अवसर प्रदान करती है, जिसमें मौखिक सुनवाई भी शामिल है जिसकी वीडियो रिकॉर्डिंग की जाती है।
- कार्यवाही की गोपनीयता बनाए रखी जानी चाहिये।
- निर्धारित समय - सीमा:
- जाँच आंतरिक उप-समिति के गठन के 90 दिनों के अंदर पूरी हो जानी चाहिये।
- अनुशंसाएँ:
- जाँच के बाद, आंतरिक उप-समिति GSICC को निष्कर्षों के साथ एक रिपोर्ट प्रस्तुत करती है, जिसमें उचित कार्यवाही या शिकायत को बंद करने की अनुशंसा की जाती है।
- मिथ्या शिकायत:
- यदि शिकायत मिथ्या या दुर्भावनापूर्ण पाई जाती है, तो आंतरिक उप-समिति ऐसे मिथ्या शिकायतों को रोकने के लिये कार्यवाही की अनुशंसा कर सकती है।
पारिवारिक कानून
HMA की धारा 12 के अंतर्गत परिवर्जनीय विवाह
19-Sep-2024
X बनाम Y "ऐसा तथ्य, जिसके प्रकट होने पर दोनों पक्षों में से कोई भी विवाह के लिये सहमत नहीं होगा, एक भौतिक तथ्य होगा। ऐसा भौतिक तथ्य व्यक्ति या व्यक्ति के चरित्र के संबंध में होना चाहिये।" न्यायमूर्ति राजन रॉय एवं न्यायमूर्ति ओम प्रकाश शुक्ला |
स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने X बनाम Y के मामले में माना है कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) की धारा 12 के अंतर्गत "भौतिक तथ्य" वाक्यांश में कोई भी तथ्य शामिल है जो विवाह के लिये सहमति प्राप्त करने के लिये आवश्यक है, अगर इसे छुपाया जाता है तो यह विवाह को परिवर्जनीय (शून्य) घोषित करने का आधार हो सकता है।
X बनाम Y मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- वर्तमान मामले में, पति (प्रतिवादी) एवं पत्नी (अपीलकर्त्ता) ने वर्ष 1995 में एक दूसरे से विवाह किया था।
- पति ने HMA, 1955 की धारा 12 के अंतर्गत विवाह को शून्य एवं अमान्य घोषित करने के लिये याचिका दायर की।
- आरोप लगाया गया कि एक व्यक्ति उनके पास आया तथा उसने अपीलकर्त्ता के साथ वर्ष 1992 में अपने विवाह के विषय में बताया।
- बाद में दोनों के मध्य करार के द्वारा इसे भंग कर दिया गया। यह भी आरोप लगाया गया कि अपीलकर्त्ता ने उन्हें अपने प्रथम विवाह के विषय में नहीं बताया।
- यह आरोप लगाया गया कि अपीलकर्त्ता एवं प्रतिवादी का यह विवाह तथ्यों को छिपाने पर आधारित है।
- कुटुंब न्यायालय ने प्रतिवादी के आवेदन को स्वीकार कर लिया तथा विवाह को अमान्य घोषित कर दिया।
- कुटुंब न्यायालय के निर्णय से व्यथित होकर पत्नी ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष HMA की धारा 28 के अंतर्गत वर्तमान अपील दायर की है।
- पत्नी ने तर्क दिया कि पति द्वारा यह आवेदन इसलिये दायर किया गया है क्योंकि दहेज की मांग पूरी नहीं हुई है।
- इसके अतिरिक्त यह भी तर्क दिया गया कि पति को उसका प्रथम विवाह के विषय में पहले से ही जानकारी थी।
न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?
- इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि
- अपीलकर्त्ता एवं उसकी माँ ने अपने अभिकथन में यह स्पष्ट किया कि प्रतिवादी एवं उसके परिवार ने विवाह से पहले अपीलकर्त्ता के विवाह में पूछताछ की थी तथा वे उसके प्रथम विवाह के विषय में जानते थे।
- इसके बाद अपीलकर्त्ता ने स्वीकार किया कि उसने विदाई के समय प्रतिवादी को अपना प्रथम विवाह के विषय में बताया था ताकि विवाह को औपचारिक रूप दिया जा सके।
- यह दिखाने के लिये कोई न्यायालयी आदेश नहीं था कि अपीलकर्त्ता का प्रथम विवाह भंग हो गया था।
- अतः इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने माना कि
- अधीनस्थ न्यायालय के निष्कर्ष सही थे।
- अपीलकर्त्ता ने प्रतिवादी को अपना प्रथम विवाह के विषय में सूचित नहीं किया।
- अपीलकर्त्ता अपनी विघटित विवाह के लिये कोई साक्ष्य प्रस्तुत करने में विफल रहा।
- विवाह अमान्य था।
परिवर्जनीय विवाह क्या है?
- ऐसा विवाह जिसे एक या दोनों पक्षों की इच्छा पर रद्द किया जा सकता है या टाला जा सकता है, परिवर्जनीय विवाह कहलाता है।
- परिवर्जनीय विवाह वैध एवं बाध्यकारी रहता है तथा सभी प्रयोजनों के लिये तब तक बना रहता है, जब तक कि न्यायालय द्वारा HMA की धारा 12 में उल्लिखित किसी भी आधार पर उसे रद्द करने का आदेश पारित नहीं किया जाता।
HMA की धारा 12
- HMA की धारा 12 में परिवर्जनीय विवाह के लिये प्रावधान किया गया है:
- एक परिवर्जनीय विवाह तब तक वैध विवाह होता है जब तक कि इसे टाला न जाए, तथा यह तभी हो सकता है जब विवाह के पक्षों में से कोई एक इसके लिये याचिका दायर करता है।
- हालाँकि, अगर कोई भी पक्ष विवाह को रद्द करने के लिये याचिका दायर नहीं करता है, तो यह वैध रहेगा।
- पक्षों को पति एवं पत्नी का दर्जा प्राप्त है, तथा उनके बच्चों को वैध माना जाता है। पति-पत्नी के अन्य सभी अधिकार एवं कर्त्तव्य यथावत रहते हैं।
- हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 5 के खंड (ii) का यदि अनुपालन नहीं किया जाता है तो विवाह अमान्य हो जाता है।
- हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 12 में आगे निम्नलिखित आधारों का उल्लेख किया गया है जिनके आधार पर विवाह अमान्य घोषित किया जा सकता है:
- यदि प्रतिवादी की नपुंसकता के कारण विवाह संपन्न नहीं हुआ है।
- यदि विवाह के पक्षों में से कोई भी सहमति देने में असमर्थ है या उसे बार-बार पागलपन का दौरा पड़ता है।
- यदि याचिकाकर्त्ता की सहमति या याचिकाकर्त्ता के अभिभावक की सहमति बलपूर्वक या छल से प्राप्त की गई है।
- यदि प्रतिवादी विवाह से पहले याचिकाकर्त्ता के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति से गर्भवती थी।