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सिविल कानून

IT संशोधन नियमों पर बॉम्बे उच्च न्यायालय का दृष्टिकोण

 23-Sep-2024

कुणाल कामरा बनाम भारत संघ

“नियम 3(1)(b)(v) का संविधान के अनुच्छेद 19(2) के अनुसार नहीं होने के कारण प्रतिबंध द्वारा अनुच्छेद 19(1)(a) के अंतर्गत गारंटीकृत मौलिक अधिकार को प्रतिबंधित करने का प्रयास करता है”।

न्यायमूर्ति अतुल चांदुरकर

स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, कुणाल कामरा बनाम भारत संघ के मामले में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने माना है कि नागरिकों को केवल “वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार” है, न कि “सत्य जानने का अधिकार” तथा इसलिये राज्य यह दावा नहीं कर सकता कि नागरिकों के बीच केवल सच्ची सूचना ही प्रसारित की जानी चाहिये।

कुणाल कामरा बनाम भारत संघ मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्तमान मामले में, संशोधित सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यस्थों एवं डिजिटल मीडिया आचार संहिता के लिये दिशानिर्देश) नियम, 2021 (IT नियम) के नियम 3(1)(b)(v) की वैधता को याचिकाकर्त्ता द्वारा चुनौती दी गई थी।
  • वर्तमान मामले में याचिकाकर्त्ता एक राजनीतिक व्यंग्यकार है तथा सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अपना व्यवसायिक कार्य करता है।
  • यह दलील दी गई कि इस नियम के कारण फैक्ट चेक यूनिट्स (FCU) द्वारा मनमाने ढंग से सेंसरशिप की जा सकती है, जिसके कारण सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से उनकी सामग्री को हटाया जा सकता है।
  • यह भी दलील दी गई कि अगर FCU द्वारा उनकी सामग्री को फर्जी घोषित कर दिया जाता है, तो पीड़ित व्यक्ति के पास कोई उपचार नहीं है।
  • सूचना एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने तर्क दिया कि भ्रामक सूचनाओं के प्रसार को रोकने के लिये सेंसरशिप की आवश्यकता है तथा यह आम जनता के हित में है।
  • यह तर्क दिया गया कि केंद्र सरकार सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर नागरिकों के बीच भ्रामक सूचनाओं के प्रसार को रोकने के लिये फैक्ट चेक यूनिट (FCU) स्थापित कर सकती है।
  • यह चुनौती दी गई कि IT नियमों के अंतर्गत संशोधन अधिकारातीत है तथा यह भारत के संविधान (COI) के अनुच्छेद 14 एवं अनुच्छेद 19 का उल्लंघन है।
  • खंड पीठ ने इस पर खंडित राय दी:
    • IT नियमों के नियम 3(1)(b)(v) को COI के अनुच्छेद 14, 19(1)(a) एवं 19(1)(g) के प्रावधानों के विपरीत माना गया है।
    • सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (IT अधिनियम) की धारा 79 प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन है।
    • जबकि न्यायमूर्ति डॉ. नीला गोखले ने कहा कि यह नियम संविधान के अनुच्छेदों का उल्लंघन नहीं करता है तथा न ही श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ (2015) के निर्णय के विपरीत है।
  • खंडपीठ की विभाजित राय के कारण मामले को अन्य राय के लिये तथा विवाद को समाप्त करने के लिये बॉम्बे उच्च न्यायालय को भेज दिया गया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • वर्तमान मामले में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने टिप्पणी की कि:
    • डिजिटल रूप में सूचना IT नियमों के नियम 3(1)(b)(v) के प्रावधानों के अधीन नहीं है, बल्कि केवल तभी लागू होती है जब वह मुद्रित रूप में हो।
    • संशोधन से डिजिटल मीडिया उपयोगकर्त्ताओं के समानता के अधिकार का उल्लंघन होगा क्योंकि IT नियमों के नियम 3(1)(b)(v) की प्रयोज्यता केवल तभी है जब कोई सूचना मुद्रित रूप में हो।
    • FCU की भूमिका यह निर्धारित करना है कि केंद्र सरकार के कार्यप्रणाली के विरुद्ध कोई सूचना फर्जी या भ्रामक है या नहीं तथा क्या सरकार मामले में पीड़ित पक्ष है या नहीं।
    • वर्तमान मामले में केंद्र सरकार मध्यस्थ के रूप में कार्य कर रही है।
    • FCU केवल केंद्र सरकार के लिये कार्य करेगी, राज्य सरकार के लिये नहीं।
    • FCU के पास सूचना की वैधता की जाँच के लिये कोई दिशानिर्देश नहीं थे।
  • उपरोक्त टिप्पणियाँ करने के बाद बॉम्बे उच्च न्यायालय ने कहा कि:
    • IT नियमों के नियम 3(1)(b)(v) में संशोधन COI के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है क्योंकि संशोधन करते समय आनुपातिकता के परीक्षण का सही तरीके से उपयोग नहीं किया जा रहा है।
    • संशोधन अति-संक्रामक है तथा COI के अनुच्छेद 14 एवं अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करता है।
    • नागरिकों के पास केवल " वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार" है, न कि "सत्य जानने का अधिकार" तथा इसलिये राज्य यह दावा नहीं कर सकता कि नागरिकों के बीच केवल सच्ची सूचना ही प्रसारित की जानी चाहिये।

IT नियम 2021 क्या हैं?

  • भारत सरकार ने 25 फरवरी 2021 को सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यस्थों एवं डिजिटल मीडिया आचार संहिता के लिये दिशानिर्देश) नियम, 2021 लागू किये, जो पिछले 2011 के दिशा-निर्देशों को प्रतिस्थापित करते हैं।
  • ये नियम 26 मई 2021 को महत्त्वपूर्ण मध्यस्थों के लिये प्रभावी हुए, तथा सोशल मीडिया दुरुपयोग एवं डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म के दुरुपयोग के विषय में बढ़ती चिंताओं के प्रत्युत्तर में विकसित किये गए थे।

IT नियमों के नियम 3 में क्या संशोधन हैं?

  • नियम 3 एक विवादास्पद नियम है। इसके कुछ भागों को 2022 में तथा फिर 2023 में संशोधित किया गया। 2022 के संशोधन को कोई चुनौती नहीं दी जा सकती।
  • नियम 3 के उपखंड 1 में ‘मानहानिकारक’ एवं ‘अपमानलेखीय’ शब्दों को हटाकर आधारों को तर्कसंगत बनाया गया है।
  • कोई भी सामग्री ‘मानहानिकारक’ या ‘अपमानलेखीय’  है या नहीं, इसका निर्धारण न्यायिक समीक्षा के माध्यम से किया जाएगा।
  • नियम 3 के उपखंड 1 (नियम 3(1)(b))) में कुछ सामग्री श्रेणियों को विशेष रूप से भ्रामक सूचना और ऐसी सामग्री से निपटने के लिये पुनः निहित किया गया है जो विभिन्न धार्मिक/जाति समूहों के बीच हिंसा भड़का सकती है।

IT नियमों का नियम 3(1)(b)(v) क्या है?

  • IT नियमों के नियम 3(1)(b)(v) में मध्यस्थ द्वारा उचित परिश्रम के नियम प्रावधानित किये गए हैं।
  • इसमें कहा गया है कि मध्यस्थों को अपने कर्त्तव्यों का पालन करते समय दिये गए मानदंडों की एक सूची सुनिश्चित करने की आवश्यकता है तथा इस नियम के अंतर्गत मध्यस्थों में सोशल मीडिया मध्यस्थ भी शामिल हैं।
  • विशिष्ट नियम मध्यस्थों को यह सुनिश्चित करने के लिये बाध्य करते हैं कि मध्यस्थ के नियम एवं विनियम, गोपनीयता नीति या उपयोगकर्त्ता समझौते में उसके कंप्यूटर संसाधन के उपयोगकर्त्ता को सूचित किया जाएगा कि वह भारत में लागू किसी भी विधि का उल्लंघन करने वाली किसी भी सूचना को होस्ट, प्रदर्शन, अपलोड, संशोधन, प्रकाशन, प्रेषण, संग्रहण, अद्यतन या साझा न करे।

मध्यस्थ कौन हैं?

  • सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 2(1)(w) मध्यस्थ को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित करती है जो किसी इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को प्राप्त करता है, संग्रहीत करता है या प्रसारित करता है तथा किसी अन्य व्यक्ति की ओर से ऐसे रिकॉर्ड से संबंधित कोई सेवा प्रदान करता है।
  • मध्यस्थ में नेटवर्क सेवा प्रदाता, दूरसंचार सेवा प्रदाता, इंटरनेट सेवा प्रदाता, खोज इंजन, वेब-होस्टिंग सेवा प्रदाता, ऑनलाइन-नीलामी साइट, ऑनलाइन भुगतान साइट, ऑनलाइन-मार्केटप्लेस और साइबर कैफे शामिल हैं।
  • IT अधिनियम की धारा 79(1) मध्यस्थों को तीसरे पक्ष की सूचना के लिये उत्तरदायित्व से छूट प्रदान करती है।
  • IT अधिनियम की धारा 79(3) कुछ स्थितियों को प्रावधानित करती है जब मध्यस्थों को तीसरे पक्ष की सामग्री के लिये उत्तरदायी ठहराया जा सकता है।

सिविल कानून

स्थायी निषेधाज्ञा

 23-Sep-2024

हरमीत सिंह बनाम देश दीपक गुप्ता 

“न्यायालय ने निर्णय दिया कि सिविल न्यायालय बेदखली के मामलों में किरायेदारों द्वारा स्थायी निषेधाज्ञा के लिये याचिका पर सुनवाई कर सकते हैं।”

न्यायमूर्ति सुभाष विद्यार्थी

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि सिविल न्यायालयों को मकान मालिकों के विरुद्ध बेदखली के संबंध में किरायेदारों के वादों की सुनवाई करने का अधिकार है, और कहा कि उत्तर प्रदेश नगरीय परिसर किरायेदारी विनियमन अधिनियम, 2021 द्वारा इस पर कोई रोक नहीं है।

  • हरमीत सिंह बनाम देश दीपक गुप्ता के मामले में जस्टिस सुभाष विद्यार्थी का निर्णय।
  • न्यायालय ने रायबरेली के सिविल जज द्वारा एक किरायेदार के वाद को अस्वीकार करने का अवलोकन किया, जिसे याचिकाकर्त्ता ने चुनौती दी थी, क्योंकि उसकी पुनरीक्षण याचिका भी अस्वीकार कर दी गई थी।

हरमीत सिंह बनाम देश दीपक गुप्ता की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • याचिकाकर्त्ता, जो एक किरायेदार है, ने एक वाद दायर कर मांग की है कि मकान मालिक को विधान के अनुसार कार्य करने के अतिरिक्त, उसे उसकी किरायेदारी वाली संपत्ति से बेदखल करने से रोका जाए।
  • 15 नवंबर 2022 को सिविल जज (जूनियर डिवीजन), कोर्ट नंबर 16 रायबरेली ने सिविल विविध मामले में प्रथम चरण में ही वाद को अस्वीकार कर दिया।
  • सिविल जज द्वारा वाद की अस्वीकृति उत्तर प्रदेश नगरीय परिसर किरायेदारी विनियमन अधिनियम, 2021 (2021 का अधिनियम) की धारा 38 (1) पर आधारित थी, जिसमें कहा गया है कि कोई भी सिविल कोर्ट अधिनियम के प्रावधानों से संबंधित किसी भी वाद या कार्यवाही पर विचार नहीं करेगा।
  • याचिकाकर्त्ता ने इस आदेश के विरुद्ध पुनरीक्षण याचिका दायर की, जिसकी सुनवाई प्रथम अपर ज़िला न्यायाधीश, रायबरेली द्वारा की गई।
  • 7 अगस्त 2023 को प्रथम अपर ज़िला न्यायाधीश ने सिविल जज के आदेश की पुष्टि करते हुए सिविल पुनरीक्षण संख्या 35/2022 में पुनरीक्षण याचिका को अस्वीकार कर दिया।
  • इसके उपरांत याचिकाकर्त्ता ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 227 के अंतर्गत इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वर्तमान याचिका दायर की, जिसमें सिविल जज के आदेश और प्रथम अतिरिक्त ज़िला जज के आदेश दोनों की वैधता को चुनौती दी गई।
  • याचिकाकर्त्ता के अधिवक्ता श्री रत्नेश चंद्र ने तर्क दिया कि 2021 का अधिनियम मकान मालिकों को बेदखली और किराये की वसूली के लिये वाद दायर करने की अनुमति देता है, परंतु यह किरायेदारों को बेदखली के विरुद्ध स्थायी निषेधाज्ञा के लिये वाद दायर करने का प्रावधान नहीं करता है।
  • प्रतिवादी के अधिवक्ता श्री गोपेश त्रिपाठी ने तर्क दिया कि मकान-मालिक याचिकाकर्त्ता को अवैध रूप से बेदखल करने का प्रयास नहीं कर रहा था, और इसलिये याचिकाकर्त्ता के पास वाद दायर करने का कोई कारण नहीं था।
  • प्रतिवादी के अधिवक्ता ने याचिकाकर्त्ता के इस दावे पर विवाद नहीं किया कि वर्ष 2021 का अधिनियम किराया अधिकारियों या अधिकरणों को किरायेदारों द्वारा दायर स्थायी निषेधाज्ञा के वादों पर विचार करने का अधिकार नहीं देता है।
  • यह मामला 2021 के अधिनियम की व्याख्या और किरायेदारी विवादों के मामलों में सिविल न्यायालयों के क्षेत्राधिकार में इसके प्रभाव पर केंद्रित था, विशेष रूप से मकान मालिकों के विरुद्ध किरायेदारों द्वारा दायर निषेधाज्ञा के वादों के संबंध में।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने उत्तर प्रदेश नगरीय परिसर किरायेदारी विनियमन अधिनियम, 2021 की जाँच करने पर पाया कि यह अधिनियम किराया प्राधिकरणों और अधिकरणों को मकान मालिकों द्वारा बेदखली, निष्कासन एवं बकाया राशि की वसूली के लिये दायर याचिकाओं पर विचार करने का क्षेत्राधिकार प्रदान करता है, परंतु यह बेदखली के विरुद्ध किरायेदारों द्वारा दायर स्थायी निषेधाज्ञा के वादों के मामले में मौन है।
  • न्यायालय ने कहा कि 2021 के अधिनियम में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो स्पष्ट रूप से किरायेदारों द्वारा अपने मकान मालिकों के विरुद्ध दायर निषेधाज्ञा के वादों पर विचार करने के लिये सिविल न्यायालयों के क्षेत्राधिकार पर रोक लगाता हो।
  • न्यायालय के विचार में, अधिनियम में किराया प्राधिकारियों या अधिकरणों को किरायेदारों द्वारा दायर स्थायी निषेधाज्ञा के वादों की सुनवाई करने का अधिकार देने वाले विशिष्ट प्रावधान का अभाव यह दर्शाता है कि इस प्रकार के क्षेत्राधिकार को सिविल न्यायालयों से स्थानांतरित करने का आशय नहीं था।
  • न्यायालय ने माना कि किरायेदारों द्वारा अपने मकान मालिकों के विरुद्ध दायर निषेधाज्ञा के वादों पर विचार करने का सिविल न्यायालय का क्षेत्राधिकार 2021 के अधिनियम के लागू होने के बाद भी जारी रहेगा।
  • न्यायालय ने पाया कि याचिकाकर्त्ता द्वारा दायर स्थायी निषेधाज्ञा के वाद को स्वीकार करने से इंकार करके सिविल न्यायाधीश विधि द्वारा प्रदत्त क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने में विफल रहे।
  • न्यायालय ने सिविल न्यायाधीश द्वारा पारित आदेश तथा उसके उपरांत पुनरीक्षण न्यायालय द्वारा पारित आदेश को विधि की दृष्टि से अधारणीय माना।

निषेधाज्ञा क्या है?

  • विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 (SRA) की धारा 36 से 44 में उल्लिखित निषेधाज्ञा, निवारक अनुतोष का एक रूप है, जिसमें न्यायालय उल्लंघन की धमकी देने वाले पक्ष को यथासंभव सीमा तक रोकता है।
    • SRA के अंतर्गत निषेधाज्ञा को विभिन्न प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है, अर्थात् अस्थायी, स्थायी और अनिवार्य।

स्थायी निषेधाज्ञा क्या है?

  • परिचय
    • स्थायी निषेधाज्ञा एक न्यायिक आदेश है जो किसी व्यक्ति को किसी विशिष्ट कार्य को करने या जारी रखने से स्थायी रूप से रोकता है जो दूसरे के विधिक अधिकारों का उल्लंघन करता है।
    • यह SRA की धारा 37(2) द्वारा शासित है और मामले के गुण-दोष पर पूर्ण सुनवाई के बाद ही डिक्री द्वारा प्रदान किया जा सकता है।
  • मुख्य विशेषताएँ
    • वे व्यक्तिगत अधिकार हैं, न कि सार्वजनिक (रेम) अधिकार।
    • यदि वे वंशानुगत और विभाज्य अधिकारों से संबंधित हैं तो उन्हें विरासत में प्राप्त किया जा सकता है।
    • वे शामिल पक्षों के विधिक प्रतिनिधियों से संबंधित हैं।
  • विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 38
    धारा 38 उन शर्तों को रेखांकित करती है जिनके अंतर्गत स्थायी निषेधाज्ञा दी जा सकती है:
    • वादी के पक्ष में विद्यमान किसी दायित्व के उल्लंघन को रोकने के लिये, चाहे वह स्पष्ट रूप से या निहित रूप से उपस्थित हो।
    • जब दायित्व किसी संविदा से उत्पन्न होता है, तो न्यायालय को विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम के अध्याय II के नियमों का पालन करना होगा।
    • जब प्रतिवादी वादी के संपत्ति के अधिकार या आनंद पर आक्रमण करता है या आक्रमण करने की धमकी देता है, ऐसे मामलों में जहाँ:
      a) प्रतिवादी, वादी की संपत्ति का ट्रस्टी है।
      b) वास्तविक क्षति का पता लगाने के लिये कोई मानक नहीं है।
      c) मौद्रिक क्षतिपूर्ति पर्याप्त राहत प्रदान नहीं करेगी।
      d) एकाधिक न्यायिक कार्यवाहियों को रोकने के लिये निषेधाज्ञा आवश्यक है।
  • स्थायी निषेधाज्ञा प्राप्त करने के लिये पूर्वापेक्षाएँ
    स्थायी निषेधाज्ञा प्राप्त करने के लिये निम्नलिखित तत्व मौजूद होने चाहिये:
    • मौजूदा दायित्व और उसका उल्लंघन।
    • वादी का विधिक अधिकार और प्रतिवादी का संगत कर्त्तव्य।
    • वादी के अधिकार का वास्तविक या धमकी भरा उल्लंघन।
    • उपाय के रूप में मौद्रिक क्षतिपूर्ति की अपर्याप्तता।
  • प्रक्रिया और साक्ष्य का भार
    • स्थायी निषेधाज्ञा प्राप्त करने की प्रक्रिया में शामिल है:
      • उचित दलीलों के साथ वाद दायर करना
      • साक्ष्य के माध्यम से वादी के मामले को स्थापित करना
      • विधिक अधिकार के अस्तित्व और उसके उल्लंघन को सिद्ध करना
    • साक्ष्य प्रस्तुत करने का भार वादी पर है, जिसे यह सिद्ध करना होगा कि:
      • इस न्यायसंगत राहत की मांग करते समय साफ-सुथरी छवि का प्रदर्शन।
      • अपने मामले के सुदृढ़ता पर भरोसा करें, न कि प्रतिवादी की कमज़ोरियों पर।
      • संबंधित संपत्ति या अधिकार पर कब्ज़ा या उसका उपयोग सिद्ध करें।
  • सीमाएँ और विचार
    स्थायी निषेधाज्ञा देते समय न्यायालयों को निम्नलिखित बातों पर विचार करना चाहिये:
    • SRA की धारा 39 से 42, जो निषेधाज्ञा देने की न्यायालय की शक्ति को सीमित करती है।
    • दायित्व की प्रकृति (स्पष्ट या निहित)।
    • कई न्यायिक कार्यवाहियों की संभावना।
    • वैकल्पिक उपाय के रूप में मौद्रिक क्षतिपूर्ति की पर्याप्तता।

उत्तर प्रदेश नगरीय परिसर किरायेदारी विनियमन अधिनियम, 2021

  • दायरा एवं अनुप्रयोग (धारा 2)
    • उत्तर प्रदेश के सभी नगरीय क्षेत्रों पर लागू होता है
    • आवासीय और गैर-आवासीय परिसरों के लिये सभी किरायेदारी को समाहित करता है
    • होटल, लॉजिंग हाउस, धर्मशाला आदि जैसी कुछ संपत्तियों को छोड़कर।
  • किरायेदारी समझौता (धारा 4)
    • मकान मालिक एवं किरायेदार के बीच अनिवार्य लिखित समझौता।
    • दो महीने के भीतर किराया प्राधिकरण को सूचित किया जाना चाहिये।
    • किराया, सुरक्षा जमा, अवधि और अन्य शर्तें निर्दिष्ट करता है।
  • किरायेदारों के अधिकार एवं दायित्व (धारा 5-11)
    • समय पर किराया चुकाएँ।
    • किरायेदार द्वारा किये गए नुकसान की मरम्मत करवाएँ।
    • मकान मालिक की लिखित सहमति के बिना संरचनात्मक परिवर्तन न करें।
    • मकान मालिक को पूर्व सूचना के साथ मरम्मत या निरीक्षण के लिये अनुमति दें।
  • मकान मालिकों के अधिकार एवं दायित्व (धारा 12-15)
    • आवश्यक उपयोगिताएँ और सेवाएँ प्रदान करें।
    • संरचनात्मक मरम्मत और रखरखाव करें।
    • आवश्यक आपूर्ति या सेवाओं को न काटें या न रोकें।
    • किराये के परिसर में प्रवेश के लिये पूर्व सूचना आवश्यक है।
  • किराया एवं सुरक्षा जमा (धारा 8, 16)
    • करार के अनुसार किराये में संशोधन किया जाएगा।
    • आवासीय संपत्तियों के लिये सुरक्षा जमा राशि दो महीने के किराये तक सीमित होगी।
    • गैर-आवासीय संपत्तियों के लिये तीन महीने का किराया।
  • बेदखली और कब्ज़े का परिदान (धारा 20-22)
    बेदखली के आधार में शामिल हैं:
    • लगातार दो महीनों तक किराया न देना।
    • परिसर का दुरुपयोग।
    • अनुमति के बिना संरचनात्मक परिवर्तन।
    • मकान मालिक द्वारा अपने उपयोग के लिये परिसर की मांग।
    • बेदखली के लिये विशिष्ट प्रक्रिया का पालन किया जाना।
  • किराया प्राधिकरण और किराया न्यायालय (धारा 30-37)
    • किराया प्राधिकरण, किराया न्यायालय और किराया अधिकरण की स्थापना।
    • किराये में संशोधन आदि से संबंधित विवादों को हल करने के लिये किराया प्राधिकरण।
    • बेदखली के मामलों और अन्य किरायेदारी विवादों को संभालने के लिये किराया न्यायालय।
    • अपील प्राधिकरण के रूप में किराया अधिकरण।
  • अधिकार क्षेत्र एवं प्रक्रियाएँ (धाराएँ 38-50)
    • इस अधिनियम के अंतर्गत सिविल न्यायालयों को मामलों पर विचार करने से रोक दिया गया है।
    • मामलों का समयबद्ध निपटान।
    • आदेशों के निष्पादन का प्रावधान।
  • अपराध तथा दण्ड (धारा 51)
    • प्रावधानों के उल्लंघन के लिये दण्ड।
    • कुछ अपराधों के लिये ₹50,000 तक का अर्थदण्ड।
  • विविध प्रावधान (धारा 52-60)
    • नियम बनाने की शक्ति।
    • अधिनियम का अध्यारोही प्रभाव होना।
    • अस्थायी प्रावधान मौजूद हैं।