Drishti IAS द्वारा संचालित Drishti Judiciary में आपका स्वागत है









करेंट अफेयर्स और संग्रह

होम / करेंट अफेयर्स और संग्रह

आपराधिक कानून

कर्मचारी की उपदान ज़ब्त करना

 30-Sep-2024

पंजाब नेशनल बैंक बनाम नीरज गुप्ता एवं अन्य।

“कर्मचारी की उपदान जब्त करने के लिये आपराधिक दोषसिद्धि अनिवार्य है”

न्यायमूर्ति सुरेश कुमार कैत एवं न्यायमूर्ति गिरीश कठपालिया

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

दिल्ली उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने हाल ही में निर्णय दिया कि उपदान संदाय अधिनियम, 1972 के अंतर्गत उपदान जब्त करने के लिये "नैतिक अधमता" सिद्ध करने के लिये आपराधिक दोषसिद्धि आवश्यक है। इस निर्णय में पंजाब नेशनल बैंक के एक कर्मचारी के मामले में एकल न्यायाधीश के निर्णय को यथावत रखा गया, जिसमें कहा गया था कि इस तरह की दोषसिद्धि के बिना, बैंक द्वारा उपदान जब्त करना अनुचित था।

  • न्यायमूर्ति सुरेश कुमार कैत और न्यायमूर्ति गिरीश कठपालिया ने पंजाब नेशनल बैंक बनाम नीरज गुप्ता एवं अन्य के मामले में निर्णय दिया।

पंजाब नेशनल बैंक बनाम नीरज गुप्ता एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • श्री नीरज गुप्ता (प्रतिवादी) पंजाब नेशनल बैंक (PNB) (अपीलकर्त्ता) में उप महाप्रबंधक के रूप में कार्यरत थे तथा 2015 में पंजाब नेशनल बैंक इंटरनेशनल लिमिटेड (PNBIL) के MD और CEO के रूप में प्रतिनियुक्ति पर थे। 
  • 13 अगस्त, 2015 को, PNBIL में उनके सचिव के रूप में नियुक्त ग्राहक सेवा सहयोगी सुश्री नीता टेग्गी द्वारा प्रतिवादी के विरुद्ध लैंगिक उत्पीड़न की शिकायत दर्ज की गई थी।
  • शिकायत के बाद, PNBIL ने लंदन, यूके में प्रारंभिक जाँच की। 
  • 19 सितंबर 2015 को प्रतिवादी को भारत वापस बुलाने एवं निष्कासित करने का निर्णय लिया गया।
  • प्रतिवादी को 24 सितंबर, 2015 को PNB के कार्यकारी निदेशक द्वारा निलंबित कर दिया गया था। 
  • PNB ने कार्यस्थल पर महिलाओं का लैंगिक शोषण (रोकथाम, निषेध एवं निवारण) अधिनियम, 2013 के अनुसार 28 सितंबर, 2015 को एक आंतरिक शिकायत समिति (ICC) का गठन किया। 
  • ICC ने 19 अक्टूबर, 2015 को अपने निष्कर्ष प्रस्तुत किये, जिसमें प्रतिवादी को लैंगिक उत्पीड़न के आरोपों का दोषी ठहराया गया।
  • PNB ने 7 नवंबर, 2015 को प्रतिवादी के विरुद्ध आरोप पत्र जारी किया था, जिसमें आरोप लगाया गया था कि उसके कार्य बैंक अधिकारी के अनुरूप नहीं थे एवं कदाचार कारित करते थे। 
  • 19 मार्च, 2016 की जाँच अधिकारी की रिपोर्ट के आधार पर, अनुशासनात्मक प्राधिकारी ने 30 मार्च 2016 को "पदच्युति की सजा दी, जो आमतौर पर भविष्य के रोजगार के लिये अयोग्यता का आधार होगी"।
  • प्रतिवादी ने पदच्युति आदेश के विरुद्ध अपील की, लेकिन 28 जून 2016 को अपीलीय प्राधिकारी ने इसे खारिज कर दिया। 
  • इसके बाद प्रतिवादियों ने अपीलीय प्राधिकारी के निर्णय के विरुद्ध समीक्षा याचिका दायर की। 
  • समीक्षा याचिका के लंबित रहने के दौरान, PNB ने 23 दिसंबर 2016 को कारण बताओ नोटिस जारी किया, जिसमें प्रतिवादी से यह बताने के लिये कहा गया कि नैतिक पतन के कृत्यों के कारण उसकी उपदान क्यों न जब्त कर ली जाए।
  • प्रतिवादी के उत्तर से असंतुष्ट होकर, PNB ने 15 फरवरी, 2017 को उसकी उपदान जब्त करने का आदेश दिया। 
  • प्रतिवादी की समीक्षा याचिका को PNB के समीक्षा अधिकारी ने 6 फरवरी, 2017 को खारिज कर दिया। 
  • प्रतिवादी ने अनुशासनात्मक अधिकारी द्वारा लगाए गए दण्ड को चुनौती देते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष एक रिट याचिका दायर की।
  • रिट याचिका के लंबित रहने के दौरान, प्रतिवादी ने अपनी उपदान के भुगतान की मांग करते हुए दिल्ली के नियंत्रण प्राधिकरण को आवेदन दिया। 
  • नियंत्रण प्राधिकरण ने PNB को 15 जनवरी 2021 को प्रतिवादी को ब्याज सहित 10 लाख रुपये की उपदान का भुगतान करने का आदेश दिया। 
  • PNB ने इस आदेश के विरुद्ध अपील की लेकिन अपीलीय प्राधिकरण के पास 15 लाख रुपये जमा कर दिये।
  • अपीलीय प्राधिकारी ने 7 अप्रैल 2022 को PNB की अपील को खारिज कर दिया तथा नियंत्रक प्राधिकारी के आदेश को यथावत रखा। 
  • इसके बाद, क्षेत्रीय श्रम आयुक्त (केंद्रीय) ने 26 अप्रैल 2022 को श्री गुप्ता को जमा करने के लिये उपदान जारी करने का आदेश दिया। 
  • इसके बाद PNB ने दिल्ली उच्च न्यायालय के सममित एक रिट शीट की सूची तैयार की, जिसमें प्रतिवादी को उपदान जारी करने के आदेश को रद्द करने की मांग की गई थी।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • खंडपीठ ने उपदान संदाय अधिनियम, 1972 के अंतर्गत उपदान जब्त करने के विषय में एकल न्यायाधीश के निर्णय को यथावत रखा।
  • न्यायालय ने पाया कि पंजाब नेशनल बैंक अधिकारी कर्मचारी (अनुशासन एवं अपील) विनियम, 1977 के विनियमन 4(j) में यह अनिवार्य नहीं है कि किसी कर्मचारी की पदच्युति से उपदान स्वतः जब्त हो जाती है।
  • उपदान जब्त करने के लिये उपदान संदाय अधिनियम, 1972 की धारा 4(6)(b)(ii) को लागू करने के लिये, दो शर्तें पूरी होनी चाहिये:
    • पदच्युत कर्मचारी को विधि द्वारा प्रावधानित दण्डनीय अपराध के लिये दोषी ठहराया जाना चाहिये। 
    • उक्त अपराध में नैतिक अधमता निहित होनी चाहिये।
  • न्यायालय ने कहा कि अधिनियम की धारा 4(6) के अंतर्गत उपदान से केवल तभी मना किया जा सकता है जब कर्मचारी की पदच्युति किसी ऐसे कार्य, जानबूझकर की गई चूक या उपेक्षा के कारण हुई हो जिससे नियोक्ता की संपत्ति को क्षति, हानि या विनाश होता हो। 
  • खंडपीठ ने कहा कि उपदान संदाय अधिनियम, 1972 के अंतर्गत उपदान ज़ब्ती  के लिये नैतिक अधमता स्थापित करने के लिये आपराधिक सज़ा आवश्यक है। 
  • न्यायालय ने कहा कि वर्तमान मामले में प्रतिवादी के विरुद्ध कोई FIR दर्ज नहीं की गई थी तथा आरोपों को कभी भी न्यायालय के समक्ष सिद्ध नहीं किया गया था।
    • इन परिस्थितियों को देखते हुए, खंडपीठ ने एकल न्यायाधीश के आदेश में कोई दोष नहीं पाया तथा कहा कि न्यायालय को इसमें हस्तक्षेप करने की आवश्यकता नहीं है।
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि प्रतिवादी उपदान प्राप्त करने का अधिकारी है, तथा एकल न्यायाधीश के आदेश के विरुद्ध बैंक की अपील को खारिज कर दिया।

पंजाब नेशनल बैंक अधिकारी कर्मचारी (अनुशासन एवं अपील) विनियम, 1977

  • पंजाब नेशनल बैंक अधिकारी कर्मचारी (अनुशासन एवं अपील) विनियम, 1977 पंजाब नेशनल बैंक द्वारा नियोजित अधिकारियों के लिये आचरण, अनुशासन एवं अपील प्रक्रियाओं को नियंत्रित करने वाले नियमों का एक समूह है। 
  • इन विनियमों में अनुशासनात्मक कार्यवाही निहित है जो कदाचार के लिये अधिकारियों के विरुद्ध की जा सकती है, साथ ही ऐसी कार्यवाहियों के विरुद्ध अपील करने की प्रक्रिया भी निहित है। 
  • अधिनियम की धारा 4 दण्ड से संबंधित है।
  • इसमें उन दण्डों का उल्लेख है जो किसी अधिकारी कर्मचारी पर कदाचार के लिये या किसी अन्य अच्छे एवं पर्याप्त कारणों से लगाए जा सकते हैं। 
  • धारा 4(j) पदच्युति से संबंधित है जो सामान्यतः भविष्य में रोजगार के लिये अयोग्यता का आधार होगी।

 उपदान संदाय अधिनियम, 1972

परिचय:

  • उपदान संदाय अधिनियम, 1972 एक ऐसी विधि है जो कारखानों, खदानों, तेल क्षेत्रों, बागानों, बंदरगाहों, रेलवे कंपनियों, दुकानों एवं अन्य प्रतिष्ठानों में कर्मचारियों को उपदान के संदाय का प्रावधान करता है। 
  • यह अधिनियम उपदान की पात्रता, गणना एवं संदाय के लिये नियम प्रावधानित करता है, जो नियोक्ता द्वारा अपने कर्मचारियों को पाँच वर्ष या उससे अधिक समय तक लगातार सेवा देने के लिये भुगतान किया जाने वाला सेवानिवृत्ति लाभ है।

विधिक प्रावधान:

  • सतत सेवा परिभाषा (धारा 2A):
    • यदि किसी कर्मचारी की सेवा में कोई बाधा नहीं आती है, तो उसे निरंतर सेवा में माना जाता है, जिसमें बीमारी, दुर्घटना, छुट्टी, बिना छुट्टी के ड्यूटी से अनुपस्थित रहना, छंटनी, हड़ताल या तालाबंदी के कारण व्यवधान शामिल हैं। 
    • गैर-मौसमी प्रतिष्ठानों के लिये, किसी कर्मचारी को एक वर्ष के लिये निरंतर सेवा में माना जाता है यदि उसने पिछले 12 कैलेंडर महीनों में कम से कम 190 दिन (भूमिगत खदान श्रमिकों या सप्ताह में 6 दिन से कम काम करने वाले प्रतिष्ठानों के लिये) या 240 दिन (किसी अन्य मामले में) कार्य किया हो।
    • छह महीने की अवधि के लिये, आवश्यकता क्रमशः 95 दिन एवं 120 दिन है। 
    • गिने गए दिनों में छंटनी के दिन, अर्जित अवकाश, कार्य दुर्घटनाओं से अस्थायी विकलांगता के कारण अनुपस्थिति एवं मातृत्व अवकाश (निर्दिष्ट अवधि तक) निहित हैं।
  • उपदान का संदाय (धारा 4):
    • उपदान का संदाय 5 वर्ष की निरंतर सेवा के बाद सेवानिवृत्ति, सेवानिवृत्ति, त्यागपत्र, मृत्यु या विकलांगता पर किया जाता है। 
    • मृत्यु या विकलांगता की स्थिति में 5 वर्ष की आवश्यकता समाप्त कर दी जाती है। 
    • उपदान की गणना सेवा के प्रत्येक पूर्ण वर्ष (या 6 महीने से अधिक के भाग) के लिये 15 दिनों के वेतन के आधार पर की जाती है। 
    • मौसमी प्रतिष्ठान कर्मचारियों के लिये, इसकी गणना प्रत्येक मौसम के लिये 7 दिनों के वेतन के आधार पर की जाती है।
    • देय अधिकतम उपदान केन्द्र सरकार द्वारा अधिसूचना के अधीन है।
  • उपदान की ज़ब्ती  (धारा 4(6)):
    • नियोक्ता की संपत्ति को क्षति कारित करने, दंगा या अव्यवस्थित आचरण के लिये नौकरी से निकाले जाने, या रोजगार के दौरान नैतिक पतन से जुड़े अपराधों के लिये उपदान जब्त की जा सकती है।
  • नामिती का प्रावधान (धारा 6):
    • कर्मचारियों को एक वर्ष की सेवा के बाद नामिती दर्ज करनी होगी। 
    • यदि कर्मचारी का परिवार है, तो नामिती दर्ज करना परिवार के सदस्यों के पक्ष में होना चाहिये।
  • उपदान का निर्धारण एवं वसूली (धारा 7 एवं 8):
    • नियोक्ता को देय होने के 30 दिनों के अंदर उपदान निर्धारित करके उसका भुगतान करना होगा। 
    • विलंबित भुगतान के लिये ब्याज देय है। 
    • उपदान से संबंधित विवादों को नियंत्रण प्राधिकरण को भेजा जा सकता है।
  • अर्थदण्ड (धारा 9):
    • उपदान के संदाय से बचने के लिये दोषपूर्ण अभिकथन देने पर 6 महीने तक का कारावास एवं /या 10,000 रुपये तक का अर्थदण्ड हो सकता है। 
    • अधिनियम का उल्लंघन करने वाले नियोक्ताओं को 3 महीने से 1 वर्ष तक का कारावास एवं /या 10,000 से 20,000 रुपये तक का अर्थदण्ड हो सकता है। 
    • उपदान का संदाय न करने पर कम से कम 6 महीने का कारावास हो सकता है, जिसे 2 वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है।
  • उपदान का संरक्षण (धारा 13):
    • किसी भी सिविल, राजस्व या आपराधिक न्यायालय के आदेश या डिक्री के निष्पादन में उपदान संदाय कुर्क नहीं किया जा सकता।

उपदान संदाय अधिनियम, 1972 की धारा 4 क्या है?

  • उपदान के लिये पात्रता (धारा 4(1)):
    • कम से कम पाँच वैर्ष की निरंतर सेवा के बाद रोजगार की समाप्ति पर कर्मचारी को उपदान का संदाय किया जाता है। 
    • यदि सेवा समाप्ति मृत्यु या विकलांगता के कारण होती है तो पाँच वर्ष की आवश्यकता क्षमा कर दी जाती है।
  •  उपदान संदाय की शर्तें:
    • उपदान निम्नलिखित पर संदाय है:
      • सेवानिवृत्ति
      • सेवानिवृत्ति या त्यागपत्र
      • दुर्घटना या बीमारी के कारण मृत्यु या विकलांगता
  •  मृत्यु की स्थिति में भुगतान:
    • यदि कर्मचारी की मृत्यु हो जाती है, तो उपदान का संदाय उनके द्वारा नामित व्यक्ति या उत्तराधिकारी को किया जाता है। 
    • यदि नामित व्यक्ति या उत्तराधिकारी अप्राप्तवय है, तो उसका अंश नियंत्रण प्राधिकरण के पास जमा कर दिया जाता है। 
    • नियंत्रण प्राधिकरण इस राशि को अप्राप्तवय के लाभ के लिये तब तक निवेश करता है जब तक कि वह वयस्क नहीं हो जाता।
  • विकलांगता की परिभाषा:
    • विकलांगता का अर्थ है ऐसी अशक्तता जो किसी कर्मचारी को उस कार्य को करने से रोकती है जिसे वह दुर्घटना या बीमारी के कारण विकलांगता से पहले कर सकता था।
  • उपदान की गणना (धारा 4(2)):
    • सेवा के प्रत्येक पूर्ण वर्ष (या 6 महीने से अधिक का भाग) के लिये, 15 दिनों के वेतन के बराबर उपदान का संदाय किया जाता है। 
    • वेतन अंतिम आहरित दर पर आधारित होता है।
  • अंश -दर-अनुदान कर्मचारियों के लिये विशेष प्रावधान:
    • अंश-दर श्रमिकों के लिये, दैनिक मजदूरी की गणना पिछले तीन महीनों की औसत कुल मजदूरी के आधार पर की जाती है। 
    • इस गणना में ओवरटाइम मजदूरी को शामिल नहीं किया जाता है।
  • मौसमी कर्मचारियों के लिये प्रावधान:
    • वर्ष भर नियोजित न रहने वाले मौसमी प्रतिष्ठान कर्मचारियों को प्रति सत्र 7 दिन के वेतन के आधार पर उपदान का संदाय किया जाता है।
  • मंथली -रेटेड कर्मचारियों के लिये गणना:
    • मासिक वेतन वाले कर्मचारियों के लिये, 15 दिनों के वेतन की गणना मासिक वेतन को 26 से विभाजित करके तथा परिणाम को 15 से गुणा करके की जाती है।
  • अधिकतम उपदान राशि (धारा 4(3)):
    • देय अधिकतम उपदान केन्द्र सरकार द्वारा अधिसूचना के अधीन है।
  • विकलांगता के बाद कम वेतन पर काम करने वाले कर्मचारियों के लिये उपदान (धारा 4(4):
    • विकलांगता के बाद कम वेतन पर कार्य करने वाले कर्मचारियों के लिये, उस अवधि की उपदान गणना के लिये विकलांगता-पूर्व वेतन का उपयोग किया जाता है। 
    • विकलांगता के बाद की अवधि की गणना के लिये कम वेतन का उपयोग किया जाता है।
  • उपदान की ज़ब्ती  (धारा 4(6)):
    • कर्मचारी के जानबूझकर किये गए कार्य, चूक या उपेक्षा के कारण हुई क्षति या हानि की सीमा तक उपदान जब्त की जा सकती है।
    • यदि निम्नलिखित कारणों से रोजगार समाप्त किया जाता है तो उपदान पूरी तरह या आंशिक रूप से जब्त की जा सकती है:
      • दंगा या अव्यवस्थित आचरण या हिंसा का कोई भी कृत्य। 
      • रोजगार के दौरान किया गया नैतिक अधमता से जुड़ा कोई भी अपराध।

आपराधिक कानून

DV अधिनियम, 2005 के अंतर्गत आदेशों का उपांतरण या प्रतिसंहरण

 30-Sep-2024

एस. विजिकुमारी बनाम मोवनेश्वरचारी सी.

“घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 की धारा 25 (2) को लागू करने के लिये परिस्थितियों में परिवर्तन अधिनियम के अधीन आदेश पारित होने के बाद होना चाहिये”।

न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना एवं न्यायमूर्ति एन. कोटिस्वर सिंह

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना एवं न्यायमूर्ति एन. कोटिश्वर सिंह की पीठ ने कहा कि घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम (DV अधिनियम) की धारा 25 (2) को लागू करने के लिये परिस्थितियों में परिवर्तन अधिनियम के अधीन आदेश पारित होने के बाद होना चाहिये।

  • उच्चतम न्यायालय ने एस. विजयकुमारी बनाम मोहनेश्वरचारी सी. के मामले में यह निर्णय दिया।

एस. विजयकुमारी बनाम मोहनेश्वरचारी सी मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • अपीलकर्त्ता-पत्नी ने घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005 (DV एक्ट) की धारा 12 के अधीन याचिका दायर की। 
  • याचिका स्वीकार कर ली गई तथा मजिस्ट्रेट ने भरण-पोषण के लिये 12,000 रुपये प्रति माह एवं क्षतिपूर्ति के रूप में 1,00,000 रुपये का भुगतान करने का आदेश दिया। 
  • प्रतिवादी पति ने उक्त कार्यवाही में कोई साक्ष्य नहीं दिया। 
  • प्रतिवादी पति ने अधिनियम की धारा 29 के अधीन अपील दायर की जिसे अपीलीय न्यायालय ने विलंब के आधार पर खारिज कर दिया।
  • उपरोक्त आदेश अंतिम रूप से लागू हो गए तथा प्रतिवादी द्वारा उन पर कोई आपत्ति नहीं की गई। 
  • इसके बाद प्रतिवादी द्वारा संबंधित मजिस्ट्रेट के समक्ष घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 25 के अधीन  एक आवेदन दायर किया गया। हालाँकि, आवेदन खारिज कर दिया गया।
  • असंतुष्ट होकर, प्रतिवादी ने घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 29 के अधीन  एक आपराधिक अपील दायर की। 
  • उक्त अपील को स्वीकार कर लिया गया, तथा मामले को संबंधित मजिस्ट्रेट को इस निर्देश के साथ वापस भेज दिया गया कि वह अधिनियम की धारा 25 के अधीन  प्रतिवादी द्वारा दायर आवेदन पर विचार करें, दोनों पक्षों को साक्ष्य प्रस्तुत करने का अवसर दें तथा विधि के अनुसार उसका निपटान करें।
  • उपरोक्त आदेश से असंतुष्ट होकर अपीलकर्त्ता ने उच्च न्यायालय में क्रिमिनल रिवीजन याचिका दायर किया जिसे खारिज कर दिया गया। 
  • उपरोक्त आदेश से असंतुष्ट होकर अपीलकर्त्ता-पत्नी ने अपील दायर की है।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • न्यायालय ने इस मामले में माना कि घरेलू हिंसा अधिनियम, नागरिक संहिता का एक भाग है जो भारत में प्रत्येक महिला पर लागू होता है, चाहे उसकी धार्मिक संबद्धता या सामाजिक पृष्ठभूमि कुछ भी हो।
  • न्यायालय को, DV  अधिनियम की धारा 25 के अधीन  अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते समय, इस बात से संतुष्ट होना होगा कि परिस्थितियों में परिवर्तन हुआ है जिसके लिये परिवर्तन, उपांतरण या प्रतिसंहरण का आदेश पारित करने की आवश्यकता है। 
  • न्यायालय ने आगे कहा कि अधिनियम की धारा 25 (2) को लागू करने के लिये अधिनियम के अधीन आदेश पारित होने के बाद परिस्थितियों में परिवर्तन होना चाहिये। 
  • न्यायालय ने कहा कि प्रतिवादी निम्नलिखित आधारों पर उपरोक्त प्रार्थनाएँ नहीं कर सकता था:
    • सबसे पहले, DV अधिनियम की धारा 12 के अधीन किसी आदेश को रद्द करना ऐसे आदेश पारित होने से पहले की अवधि से संबंधित नहीं हो सकता है।
    • दूसरा, परिस्थितियों में परिवर्तन जिसके लिये पहले के आदेश में परिवर्द्धन, उपांतरण या प्रतिसंहरण की आवश्यकता होती है, वह आदेश पारित होने के बाद होने वाले परिवर्तन के कारण होना चाहिये ।
    • इस प्रकार, अधिनियम की धारा 25 (2) के अधीन अधिकार क्षेत्र का प्रयोग आदेश पारित होने के बाद होने वाले परिवर्तन के कारण पहले के आदेश को रद्द करने के लिये  नहीं हो सकता है।
  • इसलिये, न्यायालय ने उच्च न्यायालय एवं प्रथम अपीलीय न्यायालय के आदेशों को रद्द कर दिया तथा प्रतिवादी द्वारा दायर आवेदन को खारिज कर दिया। 
  • हालाँकि, न्यायालय ने प्रतिवादी को अधिनियम की धारा 25 के अधीन एक नया आवेदन दायर करने की स्वतंत्रता दी।

घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 25 क्या है?

परिचय:

  • DV अधिनियम की धारा 25 आदेशों की अवधि एवं परिवर्द्धन का प्रावधान करती है। 
  • अधिनियम की धारा 25 (1) में प्रावधान है कि धारा 18 के अधीन प्रावधानित संरक्षण का आदेश तब तक लागू रहेगा जब तक पीड़ित व्यक्ति उन्मुक्ति हेतु आवेदन नहीं करता। 
  • धारा 25 (2) अधिनियम के अधीन प्रावधानित किसी भी आदेश में परिवर्द्धन, संशोधन या निरसन का प्रावधान करती है।
    • उपरोक्त आदेश तब पारित किया जाएगा जब मजिस्ट्रेट पीड़ित व्यक्ति या प्रतिवादी से आवेदन प्राप्त करने पर संतुष्ट हो कि परिस्थितियों में परिवर्तन हुआ है। 
    • मजिस्ट्रेट लिखित रूप में दर्ज कारणों से उपरोक्त आदेश पारित कर सकता है।
  • अधिनियम की धारा 25 (2) का दायरा अधिनियम के अधीन सभी आदेशों से निपटने के लिये  पर्याप्त व्यापक है, जिसमें भरण-पोषण, निवास, संरक्षण आदि के आदेश शामिल हैं। 
  • इस प्रावधान के अधीन पारित आदेश तब तक लागू रहता है जब तक कि
    • अधिनियम की धारा 29 के अधीन  अपील में आदेश को रद्द कर दिया जाता है, या मजिस्ट्रेट द्वारा अधिनियम की धारा 25 (2) के अधीन  आदेश को परिवर्द्धित/उपांतरित/प्रतिसंहरित कर दिया जाता है। 

घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 25 (2) के अधीन  ‘परिस्थितियों में परिवर्तन’:

  • वाक्यांश ‘परिस्थितियों में परिवर्तन’
    • “परिस्थितियों में परिवर्तन” वाक्यांश को घरेलू हिंसा अधिनियम के अंतर्गत परिभाषित नहीं किया गया है।
      • उक्त वाक्यांश निम्नलिखित विधानों में पाया जा सकता है:
      • दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1898 की धारा 489 ( निरसित)
      • दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 127 (1) (निरसित)
      • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 146 (1) (निरसित)
    • हालाँकि, किसी भी विधि में विधायिका ने इस शब्द को परिभाषित नहीं किया था।
  • परिस्थितियों में परिवर्तन में निम्नलिखित शामिल होंगे
    • वर्तमान मामले में न्यायालय ने माना कि परिस्थितियों में परिवर्तन में निम्नलिखित शामिल होंगे:
      • परित्यक्ता पत्नी को गुजारा भत्ता दिया गया है
      • पत्नी प्रतिवादी पति से अधिक कमाती है तथा इसलिये उसे भरण-पोषण की आवश्यकता नहीं है
      • परिस्थितियों में परिवर्तन या तो आर्थिक प्रकृति का हो सकता है, जैसे प्रतिवादी या पीड़ित व्यक्ति की आय में परिवर्तन
      • इसमें अन्य परिस्थितियों में परिवर्तन भी शामिल हो सकता है जो भरण-पोषण की राशि में वृद्धि या कमी को उचित ठहराएगा। 
      • इसमें जीवन-यापन की लागत, पक्षों की आय आदि जैसे कारक शामिल होंगे।
      • परिस्थितियों में परिवर्तन केवल प्रतिवादी का ही नहीं बल्कि पीड़ित व्यक्ति का भी होना चाहिये। 
      • पति की वित्तीय परिस्थितियों में परिवर्तन भरण-पोषण में परिवर्तन के लिये एक महत्त्वपूर्ण मानदंड हो सकता है, लेकिन इसमें पति या पत्नी के जीवन में अन्य परिस्थितिजन्य परिवर्तन भी शामिल हो सकते हैं जो भरण-पोषण का आदेश दिये जाने के बाद से हुए हों।
  • अधिनियम के अधीन आदेश पारित होने के बाद ही परिस्थितियों में परिवर्तन
    • परिस्थितियों में ऐसा परिवर्तन अधिनियम की धारा 12 के अंतर्गत प्रारंभिक आदेश दिये जाने के बाद ही होना चाहिये तथा यह अधिनियम की धारा 12 के अंतर्गत आदेश पारित किये जाने से पूर्व की अवधि से संबंधित नहीं हो सकता।
  • परिवर्द्धन, उपांतरण या प्रतिसंहरण पूर्वव्यापी रूप से नहीं बल्कि भविष्यव्यापी रूप से लागू होता है
    • परिवर्द्धन, उपांतरण या प्रतिसंहरण का आदेश भविष्य में लागू होगा, न कि पूर्वव्यापी प्रभाव से।
      • हालाँकि भरण-पोषण देने का आदेश आवेदन की तिथि से या मजिस्ट्रेट के आदेशानुसार पूर्वव्यापी रूप से प्रभावी होता है।
      • भत्ते में परिवर्तन के लिये आवेदन के संबंध में उपरोक्त आदेश सत्य नहीं है। यह उस तिथि से प्रभावी होगा जिस दिन परिवर्द्धन का आदेश दिया गया है या किसी अन्य तिथि से जिस दिन परिवर्द्धन उपांतरण, या प्रतिसंहरण के लिये आवेदन किया गया था, जो प्रत्येक मामले के तथ्यों पर निर्भर करता है।
      • यह स्थिति दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 125 एवं धारा 127 के समान है। 
      • इस प्रकार, DV अधिनियम के अधीन उपांतरण या परिवर्द्धन या प्रतिसंहरण का आदेश आवेदन दायर किये जाने की तिथि से या धारा 25 (2) के अधीन  मजिस्ट्रेट द्वारा आदेशित तिथि से संचालित हो सकता है। 
      • इस प्रकार, आवेदक मूल आदेश के अनुसार पहले से भुगतान की गई राशि की वापसी की मांग करने के लिये इसकी पूर्वव्यापी प्रयोज्यता की मांग नहीं कर सकता है।

आपराधिक कानून

आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने की उच्च न्यायालय की शक्ति

 30-Sep-2024

कैलाशबेन महेंद्रभाई पटेल एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य

“आरोप पत्र दाखिल होने के बाद भी आपराधिक कार्यवाही के अभिखंडन पर कोई रोक नहीं है।”

न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा एवं न्यायमूर्ति पंकज मिथल

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, कैलाशबेन महेंद्रभाई पटेल एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि आरोपपत्र दाखिल होने के बाद भी आपराधिक कार्यवाही का अभिखंडन किया जा सकता है।

कैलाशबेन महेंद्रभाई पटेल एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्तमान मामले में, प्रतिवादी संख्या 2 (पत्नी) ने अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 498 A, 323, 504, 506 एवं धारा 34 के अधीन शिकायत दर्ज की, जो उसकी सौतेली सास (अपीलकर्त्ता संख्या 1), सौतेला देवर (अपीलकर्त्ता संख्या 2), ससुर (अपीलकर्त्ता  संख्या 3) एवं मुनीम (अपीलकर्त्ता  संख्या 4) हैं। 
  • आरोप लगाए गए कि अपीलकर्त्ता ने प्रतिवादी को उस समय संपत्ति में उसके अंश से वंचित करने की धमकी दी थी जब उसने 8 वर्ष पहले अपनी बेटी को जन्म दिया था।
  • कुछ समय बाद जब वह अपने ससुराल वापस आई तो उसे खाना नहीं दिया गया तथा ससुराल वालों ने उसके साथ मारपीट भी की। 
  • बाद में, अपीलकर्त्ताओं ने उसे धमकाया, जिससे उसकी एवं उसके पति तथा बच्चों की जान को खतरा हो गया, जिसके कारण उसने यह शिकायत दर्ज कराई। 
  • आरोपों के आधार पर आरोप पत्र दाखिल किया गया।
  • अपीलकर्त्ताओं ने आरोपपत्र एवं प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को रद्द करने के लिये बॉम्बे उच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दायर की। 
  • उच्च न्यायालय ने माना कि वर्तमान मामला IPC की धारा 498 A के अनुसार प्रथम दृष्टया क्रूरता का मामला है।
  • उच्च न्यायालय ने अपीलकर्त्ताओं द्वारा दायर याचिका को खारिज कर दिया कि न तो पुलिस स्टेशन तथा न ही न्यायालयों को संज्ञान लेने का अधिकार है। 
  • अपीलकर्त्ताओं द्वारा उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में वर्तमान अपील दायर की गई है।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने बॉम्बे उच्च न्यायालय द्वारा किये गए विश्लेषण के आधार पर वर्तमान मामले पर टिप्पणी की:
    • दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC ) की धारा 482 के अधीन , बॉम्बे उच्च न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों में FIR/शिकायत का अभिखंडन करने के लिये शक्ति का प्रयोग उचित नहीं है। 
    • उच्चतम न्यायालय ने देखा है कि प्रतिवादी (पत्नी) द्वारा पति का कोई उल्लेख नहीं किया गया है, जबकि सभी शिकायतें दहेज की मांग के संबंध में थीं।
    • उच्चतम न्यायालय ने यह भी सही कहा है कि पति एवं पत्नी दोनों ने सही ढंग से मामलों को विभाजित किया है, अर्थात पति ने सिविल वाद संस्थित किया है, जबकि पत्नी ने आपराधिक मामला दायर किया है, जिसका वर्तमान मामले में कोई उल्लेख नहीं है।
      • पति ने वर्तमान अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध दायर अपने सिविल वाद में केवल यह घोषणा करने की मांग की थी कि संपत्ति की प्रकृति पैतृक है तथा पिता को संपत्ति को अंतरित करने या उसका निपटान करने का कोई अधिकार नहीं है।
    • पत्नी द्वारा दायर वर्तमान आपराधिक मुकदमे से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि विवाद मूलतः संपत्ति में भागीदारी पर आधारित है।
      • यह देखा जाना चाहिये कि पति द्वारा सिविल वाद संस्थित करने के बाद प्रतिवादी ने अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध घरेलू हिंसा की शिकायत दायर की, जिसे ट्रायल कोर्ट ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि यह दुर्भावनापूर्ण आशय से दायर किया गया है।
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यह मामला आपराधिक प्रक्रिया के दुरुपयोग का एक और उदाहरण है तथा अपीलकर्त्ताओं को सम्पूर्ण आपराधिक विधिक प्रक्रिया के अधीन करना उचित एवं न्यायसंगत नहीं होगा।
  • उच्चतम न्यायालय ने उपरोक्त टिप्पणियों के आधार पर वर्तमान अपील को स्वीकार कर लिया और उच्च न्यायालय के आदेश को खारिज कर दिया तथा अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध दायर FIR और आरोपपत्र को रद्द करने का आदेश दिया। 
  • सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय के पास CrPC की धारा 482 के अधीन आरोपपत्र दाखिल होने के बाद भी आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने की अंतर्निहित शक्ति है।

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 528 क्या है?

  • परिचय: 
    • यह धारा पहले CrPC  की धारा 482 के अंतर्गत आती थी। 
    • BNSS की धारा 528 उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों की बचत से संबंधित है। 
    • इसमें कहा गया है कि इस संहिता का कोई भी प्रावधान उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों को सीमित या प्रभावित करने वाली नहीं मानी जाएगी, जो इस संहिता के अधीन किसी आदेश को प्रभावी करने के लिये या किसी न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये या अन्यथा न्याय के उद्देश्यों को सुरक्षित करने के लिये आवश्यक आदेश देने के लिये आवश्यक हो सकती है। 
    • यह धारा उच्च न्यायालयों को कोई अंतर्निहित शक्ति प्रदान नहीं करती है, तथा यह केवल इस तथ्य को मान्यता देती है कि उच्च न्यायालयों के पास अंतर्निहित शक्तियाँ हैं।
  • उद्देश्य: 
    • BNSS की धारा 528 में यह प्रावधानित किया गया है कि अंतर्निहित शक्ति का प्रयोग कब किया जा सकता है। 
    • इसमें तीन उद्देश्य बताए गए हैं जिनके लिये अंतर्निहित शक्ति का प्रयोग किया जा सकता है:
      • संहिता के अधीन किसी भी आदेश को प्रभावी करने के लिये आवश्यक आदेश देना। 
      • किसी भी न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकना। 
      • न्याय के उद्देश्यों को सुरक्षित करना।

भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) की धारा 85 क्या है?

  • IPC की धारा 498A 
    • भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498A इसी प्रावधान से संबंधित है।
  • BNS की धारा 85
    • BNS की धारा 85 किसी विवाहित महिला को आपराधिक आशय से बहला-फुसलाकर ले जाने या अभिरक्षा में रखने से संबंधित है। 
    • इसमें कहा गया है कि जो कोई भी, किसी महिला का पति या पति का रिश्तेदार होने के नाते, ऐसी महिला के साथ क्रूरता करता है, उसे तीन वर्ष तक का कारावास की सजा दी जाएगी तथा अर्थदण्ड भी देना होगा।
  • क्रूरता की परिभाषा
    • इस धारा के अनुसार, "क्रूरता" से तात्पर्य है -
      • BNS की धारा 86 के अधीन इसे इस प्रकार परिभाषित किया गया है:
      • कोई भी जानबूझकर किया गया आचरण जो ऐसी प्रकृति का हो जिससे महिला आत्महत्या करने के लिये प्रेरित हो या महिला के जीवन, अंग या स्वास्थ्य (मानसिक या शारीरिक) को गंभीर चोट या खतरा हो; या 
      • महिला का उत्पीड़न जहाँ ऐसा उत्पीड़न उसे या उसके किसी भी संबंधित व्यक्ति को किसी भी संपत्ति या मूल्यवान सुरक्षा की किसी भी अविधिक मांग को पूरा करने के लिये विवश करने के उद्देश्य से हो या उसके या उसके किसी भी संबंधित व्यक्ति द्वारा ऐसी मांग को पूरा करने में विफलता के कारण हो।

कार्यवाही के अभिखंडन की उच्च न्यायालय की शक्तियों पर आधारित ऐतिहासिक निर्णय क्या हैं?

  • आनंद कुमार मोहत्ता बनाम राज्य [NCT दिल्ली] (2018):
    • इस मामले में न्यायालय ने माना कि उच्च न्यायालय को कार्यवाही में हस्तक्षेप करने एवं आरोपपत्र दाखिल होने के बाद भी अभियुक्त के विरुद्ध प्राथमिकी रद्द करने का अधिकार है।
  • जिता संजय एवं अन्य बनाम केरल राज्य एवं अन्य (2023)
    • केरल उच्च न्यायालय ने वर्तमान मामले में इस तथ्य पर प्रकाश डाला कि यदि कोई आपराधिक कार्यवाही परेशान करने वाली, तुच्छ या किसी गुप्त उद्देश्य से प्रेरित पाई जाती है, तो न्यायालय उसे रद्द कर सकते हैं, भले ही FIR में अपराध के मिथ्या आरोप शामिल हों। न्यायालय ने कहा कि बाहरी उद्देश्यों वाले शिकायतकर्त्ता आवश्यक तत्त्वों को शामिल करने के लिये FIR तैयार कर सकते हैं।
  • श्री अनुपम गहोई बनाम राज्य (दिल्ली सरकार) एवं अन्य (2024):
    • दिल्ली उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक वैवाहिक मामले को खारिज कर दिया, जिसमें एक पति ने 2018 में CrPC एवं BNSS के अधीन अपनी पत्नी द्वारा दर्ज की गई FIR को अभिखंडित करने की मांग की थी।
  • मामा शैलेश चंद्र बनाम उत्तराखंड राज्य (2024):
    • इस मामले में यह माना गया कि यदि आरोप पत्र दायर कर दिया गया है, तो भी न्यायालय यह जाँच कर सकता है कि क्या कथित अपराध प्रथम दृष्टया FIR, आरोप पत्र एवं अन्य दस्तावेजों के आधार पर सिद्ध होते हैं या नहीं।