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आपराधिक कानून
दिल्ली में BNSS की धारा 163 का प्रावधान
01-Oct-2024
“पुलिस कमिश्नर ने BNSS की धारा 163 लागू की।” दिल्ली पुलिस |
चर्चा में क्यों?
30 सितंबर को दिल्ली पुलिस ने अक्टूबर की प्रारंभ में संभावित विरोध प्रदर्शनों के कारण भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 163 को तत्काल लागू करने की घोषणा की। छह दिनों के इस निर्देश के अंतर्गत पाँच या उससे अधिक लोगों के एकत्र होने, धरना-प्रदर्शन पर रोक लगाई गई है तथा 6 जिलों में हथियार ले जाने पर प्रतिबंध लगाया गया है।
- यह निर्णय DUSU चुनाव परिणामों एवं आगामी त्योहारों सहित विभिन्न मुद्दों से जुड़े राजनीतिक तनावों के कारण लिया गया है, जिसका उद्देश्य संवेदनशील घटनाओं के दौरान विधि एवं व्यवस्था बनाए रखना है।
दिल्ली में BNSS की धारा 163 क्यों लागू की गई?
- 30 सितंबर 2024 को, दिल्ली के पुलिस आयुक्त ने विधि के अधीन निहित शक्तियों का प्रयोग करते हुए, दिल्ली के विशिष्ट जिलों में BNSS 2023 की धारा 163 को लागू किया।
- यह आदेश कार्यान्वयन की तिथि से छह दिनों की अवधि तक प्रभावी रहेगा।
- कार्यान्वयन के आधार:
- खुफिया जानकारी के अनुसार अक्टूबर 2024 के पहले सप्ताह में दिल्ली भर में विभिन्न संगठनों द्वारा विरोध, प्रदर्शन एवं अभियान की संभावना है।
- वर्तमान विधिक व्यवस्था की स्थिति के कारण संवेदनशील वातावरण का होना।
- राजनीतिक तनाव से संबंधित परिस्थितियाँ:
- वक्फ बोर्ड में प्रस्तावित संशोधन
- शाही ईदगाह मुद्दा
- लंबित दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (DUSU) चुनाव परिणाम
- दो राज्यों में विधानसभा चुनाव
- परिचालन प्रभाव:
- धरना-प्रदर्शन पर रोक
- किसी भी प्रकार का हथियार ले जाने पर प्रतिबंध
- सुरक्षा व्यवस्था में वृद्धि, विशेष रूप से निम्नलिखित के मद्देनजर:
- दिल्ली विश्वविद्यालय चुनाव के नतीजों की घोषणा
- 2 अक्टूबर 2024 को गांधी जयंती समारोह का आयोजन
- अतिरिक्त मुद्दो पर विचार करना:
- VVIP मूवमेंट में वृद्धि की आशंका, विशेष तौर पर नई दिल्ली एवं मध्य दिल्ली के क्षेत्रों में
- निर्दिष्ट अवधि के दौरान सार्वजनिक व्यवस्था एवं सुरक्षा बनाए रखना आवश्यक
- यह आदेश सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने तथा प्रभावित क्षेत्रों में शांति एवं सौहार्द में किसी भी संभावित व्यवधान को रोकने के लिये विधिक प्रावधानों के अनुसार जारी किया गया है।
BNSS की धारा 163 क्या है?
- परिचय:
- BNSS की धारा 163 उपद्रव या आशंका वाले खतरे के तत्काल मामलों में आदेश जारी करने की शक्ति से संबंधित है।
- पहले यह दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 CrPC की धारा 144 के अधीन प्रदान किया गया था।
- धारा 163 मजिस्ट्रेटों को तत्काल मामलों में तत्काल निवारक आदेश जारी करने की शक्ति प्रदान करती है, जहाँ बाधा, मानव जीवन के लिये खतरा, सार्वजनिक अशांति या दंगों को रोकने के लिये पर्याप्त आधार है, ऐसे आदेशों को व्यक्तियों, विशिष्ट क्षेत्रों या आम जनता को दो महीने तक निर्देशित करने की अनुमति देता है, राज्य सरकार को इस अवधि को छह अतिरिक्त महीनों तक बढ़ाने का अधिकार है।
- सक्षम प्राधिकारी:
- निम्नलिखित प्राधिकारी धारा 163 के अंतर्गत आदेश जारी करने के लिये अधिकृत हैं:
- जिला मजिस्ट्रेट
- उप-विभागीय मजिस्ट्रेट
- राज्य सरकार द्वारा विशेष रूप से अधिकृत कोई अन्य कार्यकारी मजिस्ट्रेट
- निम्नलिखित प्राधिकारी धारा 163 के अंतर्गत आदेश जारी करने के लिये अधिकृत हैं:
- पूर्व-आवश्यकताएँ:
- मूलभूत आवश्यकताएँ:
- कार्यवाही के लिये पर्याप्त आधार
- तत्काल रोकथाम या शीघ्र उपाय की आवश्यकता
- महत्वपूर्ण तथ्यों को उल्लिखित करते हुए लिखित आदेश
- प्रक्रियागत आवश्यकताएँ:
- धारा 153 BNSS के अनुसार आदेश की तामील।
- मूलभूत आवश्यकताएँ:
- कार्यक्षेत्र एवं उद्देश्य:
- निवारक उपाय: आदेश किसी व्यक्ति को निम्नलिखित निर्देश दे सकता है:
- कुछ कार्यों से दूर रहें
- अपने कब्जे या प्रबंधन में संपत्ति के संबंध में विशिष्ट कार्यवाही करें
- इच्छित परिणाम: रोकथाम या रोकथाम की प्रवृत्ति:
- वैध रूप से नियोजित व्यक्तियों को बाधा, परेशानी या चोट पहुँचाना
- मानव जीवन, स्वास्थ्य या सुरक्षा के लिये खतरा
- सार्वजनिक शांति में खलल
- दंगे या मारपीट
- निवारक उपाय: आदेश किसी व्यक्ति को निम्नलिखित निर्देश दे सकता है:
- प्रक्रियागत लचीलापन:
- एकपक्षीय आदेश: निम्नलिखित मामलों में पारित किया जा सकता है:
- आपातकालीन
- ऐसी परिस्थितियाँ जिनमें समय पर नोटिस न दिया जाना स्वीकार्य न हो
- एकपक्षीय आदेश: निम्नलिखित मामलों में पारित किया जा सकता है:
- प्रयोज्यता:
- आदेश निम्नलिखित को निर्देशित किये जा सकते हैं:
- व्यक्ति
- किसी विशिष्ट स्थान या क्षेत्र में रहने वाले व्यक्ति
- आम तौर पर जब लोग किसी स्थान पर आते-जाते हैं
- आदेश निम्नलिखित को निर्देशित किये जा सकते हैं:
- लौकिक सीमाएँ:
- प्रारंभिक अवधि:
- जारी करने की तिथि से अधिकतम दो माह की अवधि
- विस्तार का प्रावधान:
- राज्य सरकार अधिसूचना द्वारा विस्तार कर सकती है
- अतिरिक्त अवधि छह महीने से अधिक नहीं होगी
- निम्नलिखित को रोकने की आवश्यकता पर सशर्त विस्तार:
- मानव जीवन, स्वास्थ्य या सुरक्षा के लिये खतरा
- दंगा या झगड़ा
- प्रारंभिक अवधि:
- संशोधन एवं निरसन:
- मजिस्ट्रियल शक्तियाँ:
- स्वप्रेरणा से या पीड़ित व्यक्ति के आवेदन पर
- आदेशों को रद्द करने या बदलने का अधिकार:
- जारी करने वाला मजिस्ट्रेट
- कोई भी वरिष्ठ मजिस्ट्रेट
- कार्यालय में पूर्ववर्ती
- राज्य सरकार की शक्तियाँ:
- अपने स्वयं के विस्तार आदेशों को रद्द करने या बदलने का अधिकार
- स्वप्रेरणा से या आवेदन पर कार्यवाही कर सकता है
- मजिस्ट्रियल शक्तियाँ:
- प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय:
- सुनवाई की आवश्यकता: संशोधन/निरसन के लिये आवेदन प्राप्त होने पर:
- उपस्थित होने का प्रारंभिक अवसर अवश्य दिया जाना चाहिये
- आवेदक व्यक्तिगत रूप से या अधिवक्ता के माध्यम से उपस्थित हो सकता है
- तर्कपूर्ण आदेश:
- अस्वीकृति के मामले में (संपूर्ण या आंशिक): कारण लिखित रूप में दर्ज किये जाने चाहिये
- सुनवाई की आवश्यकता: संशोधन/निरसन के लिये आवेदन प्राप्त होने पर:
आपराधिक कानून
BNSS की धारा 193
01-Oct-2024
गजेंद्र सिंह शेखावत बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य। "विचारण के दौरान आगे की विवेचना मामले की सुनवाई कर रहा न्यायालय के अनुमति से की जा सकती है तथा इसे नब्बे दिनों की अवधि के अंदर पूरा किया जाएगा, जिसे न्यायालय की अनुमति से बढ़ाया जा सकता है।" न्यायमूर्ति अरुण मोंगा |
स्रोत: राजस्थान उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, राजस्थान उच्च न्यायालय ने गजेन्द्र सिंह शेखावत बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य के मामले में माना है कि एक बार पुलिस अधिकारी द्वारा रिपोर्ट दायर कर दिये जाने के बाद, ट्रायल कोर्ट की पूर्व अनुमति के बिना आगे कोई जाँच नहीं की जा सकती है।
गजेन्द्र सिंह शेखावत बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- वर्तमान मामले में, अपीलकर्त्ता के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 420, 406, 409, 467, 468, 471, 120-B एवं सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (IT) की धारा 65 के अंतर्गत प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR ) दर्ज की गई थी।
- राजस्थान उच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि उसके समक्ष प्रस्तुत आरोपपत्र के आधार पर अपीलकर्त्ता के विरुद्ध कोई प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनता है।
- आगे की सुनवाई के बाद, राजस्थान उच्च न्यायालय द्वारा स्थगन प्रदान किया गया क्योंकि प्रतिवादी ने पूरक आरोपपत्र प्रदान करने के लिये समय मांगा था।
- पुनः सुनवाई के दौरान प्रतिवादी के अधिवक्ता ने कहा कि जाँच के बाद याचिकाकर्त्ता द्वारा कोई अपराध नहीं किया जाना पाया गया।
- प्रतिवादी के अधिवक्ता ने आगे कहा कि कोई पूरक आरोपपत्र दाखिल नहीं किया गया क्योंकि उसके विरुद्ध लगाए गए आरोप पूरी तरह से निराधार पाए गए।
- अपीलकर्त्ता ने अपने विरुद्ध दर्ज FIR को रद्द करने के लिये यह आवेदन दायर किया था।
न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?
- राजस्थान उच्च न्यायालय ने पाया कि याचिकाकर्त्ता पर किसी भी अपराध का कोई दोष नहीं है।
- राजस्थान उच्च न्यायालय द्वारा एक अतिरिक्त अवलोकन भी किया गया कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 193 (9) के संदर्भ में एक बार BNSS की धारा 193 (3) के अधीन रिपोर्ट दर्ज होने के बाद ट्रायल कोर्ट की पूर्व अनुमति के बिना आगे कोई जाँच नहीं की जा सकती है।
- उपरोक्त अवलोकन के आधार पर राजस्थान उच्च न्यायालय ने वर्तमान याचिका को स्वीकार कर लिया तथा अपीलकर्त्ता के विरुद्ध प्राथमिकी रद्द कर दी।
BNSS की धारा 193 क्या है?
- BNSS की धारा 193 जाँच पूरी होने पर पुलिस अधिकारी की रिपोर्ट से संबंधित है।
- यह धारा पहले दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 173 के अंतर्गत आती थी।
- इसमें प्रावधानित है कि:
- उपधारा (1) में कहा गया है कि इस अध्याय के तहत विवेचना बिना किसी अनावश्यक विलंब के पूरी की जानी चाहिये।
- उपधारा (2) में कहा गया है कि भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) की धारा 64, 65, 66, 67, 68, 70, 71 या लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (पॉक्सो) की धारा 4, 6, 8 या धारा 10 के अधीन अपराध के संबंध में विवेचना पुलिस थाने के प्रभारी अधिकारी द्वारा सूचना दर्ज किये जाने की तिथि से दो महीने के अंदर पूरी की जाएगी।
- उपधारा (3) में कहा गया है कि
- खंड (i) के अनुसार जाँच के बाद पुलिस अधिकारी अपराध का संज्ञान लेने के लिये मजिस्ट्रेट को रिपोर्ट भेजेगा जिसमें निम्नलिखित शामिल होंगे:
- पक्षकारों के नाम
- सूचना की प्रकृति
- मामले की परिस्थितियों से परिचित प्रतीत होने वाले व्यक्तियों के नाम
- क्या कोई अपराध कारित किया गया प्रतीत होता है तथा यदि किया गया है, तो किसके द्वारा;
- क्या अभियुक्त को गिरफ्तार किया गया है
- क्या आरोपी को उसके बॉण्ड या ज़मानत बॉण्ड पर रिहा किया गया है
- क्या आरोपी को धारा 190 के अधीन अभिरक्षा में भेजा गया है
- क्या महिला की मेडिकल जाँच की रिपोर्ट संलग्न की गई है, जहाँ जाँच BNS की धारा 64, 65, 66, 67, 68, 70 या धारा 71 के अधीन अपराध से संबंधित है।
- इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस के मामले में अभिरक्षा का क्रम
- धारा (ii) के अनुसार, पुलिस द्वारा पीड़ित को 90 दिनों की अवधि के अंदर जाँच की प्रगति के विषय में सूचित किया जाना चाहिये ।
- धारा (iii) के अनुसार, पुलिस अधिकारी को अपराध के विषय में सूचना दिये जाने के बाद उसके द्वारा की गई कार्यवाही के विषय में भी सूचित करना चाहिये ।
- उपधारा (4) में कहा गया है कि जब किसी वरिष्ठ अधिकारी को सामान्य या विशेष आदेश द्वारा नियुक्त किया जाता है, तो रिपोर्ट उसके माध्यम से मजिस्ट्रेट को प्रस्तुत की जाएगी तथा वह पुलिस अधिकारी को आगे की विवेचना करने का निर्देश भी दे सकता है।
- उपधारा (5) में कहा गया है कि जब भेजी गई रिपोर्ट से पता चलता है कि किसी अभियुक्त को जमानत या बॉण्ड पर रिहा कर दिया गया है, तो मजिस्ट्रेट उसे छोड़ने का आदेश दे सकता है, जैसा वह उचित समझे।
- उपधारा (6) में कहा गया है कि BNSS की धारा 190 के अधीन विवेचना करते समय पुलिस अधिकारी द्वारा मजिस्ट्रेट को निम्नलिखित अतिरिक्त दस्तावेज प्रस्तुत किये जाने चाहिये :
- सभी दस्तावेज या उनके प्रासंगिक अंश जिन पर अभियोजन पक्ष विश्वास करने का प्रस्ताव करता है, विवेचना के दौरान मजिस्ट्रेट को पहले से भेजे गए दस्तावेजों के अतिरिक्त।
- BNSS की धारा 180 के अधीन दर्ज किये गए सभी व्यक्तियों के अभिकथन जिन्हें अभियोजन पक्ष अपने साक्षियों के रूप में जाँचने का प्रस्ताव करता है।
- उपधारा (7) में कहा गया है कि यदि पुलिस अधिकारी को लगता है कि दस्तावेज का कुछ हिस्सा न्याय के हित में नहीं है, तो वह अभिकथन के उस अंश को इंगित कर सकता है तथा मजिस्ट्रेट से अनुरोध करते हुए एक नोट संलग्न कर सकता है कि वह अभियुक्त को दी जाने वाली प्रतियों से उस अंश को हटा दे और ऐसा अनुरोध करने के अपने कारण बताए।
- उपधारा (8) में कहा गया है कि पुलिस अधिकारी मजिस्ट्रेट को पुलिस रिपोर्ट की उतनी संख्या में प्रतियां भी उपलब्ध कराएगा, जितनी कि अभियुक्त को आपूर्ति करने के लिये विधिवत अनुक्रमित अन्य दस्तावेजों के साथ-साथ BNSS की धारा 230 के अधीन आवश्यक है। इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से संचार विधिवत रूप से प्रस्तुत किया गया माना जाएगा।
- उपधारा (9) में कहा गया है कि यदि पुलिस अधिकारी को मजिस्ट्रेट को रिपोर्ट सौंपने के बाद कोई और साक्ष्य मिलता है तो वह ट्रायल कोर्ट की पूर्व अनुमति के अधीन आगे की जाँच कर सकता है तथा जाँच 90 दिनों की अवधि के अंदर पूरी की जानी चाहिये जिसे न्यायालय की अनुमति से बढ़ाया जा सकता है।
पुलिस रिपोर्ट या चार्जशीट क्या है?
- यह किसी मामले की विवेचना पूरी करने के बाद पुलिस अधिकारी या जाँच एजेंसी द्वारा तैयार की गई अंतिम रिपोर्ट होती है।
- आपराधिक विचारण प्रारंभ करने के लिये इसे न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है।
- आरोप-पत्र तैयार करने के बाद, पुलिस थाने का प्रभारी अधिकारी इसे मजिस्ट्रेट के पास भेजता है, जिसे इसमें उल्लिखित अपराधों का संज्ञान लेने का अधिकार होता है ताकि आरोप तय किये जा सकें।
सिविल कानून
CPC की धारा 92
01-Oct-2024
जयन्त्री प्रसाद बनाम राम शिरोमणि पांडे एवं 2 अन्य के माध्यम से श्री राम जानकी लक्ष्मण जी विराजमान मंदिर, प्रतापगढ़ “सिविल न्यायाधीश को CPC की धारा 92 के अंतर्गत संस्थित वाद पर विचारण करने का कोई अधिकार नहीं है।” न्यायमूर्ति सुभाष विद्यार्थी |
स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
- न्यायमूर्ति सुभाष विद्यार्थी की पीठ ने कहा कि CPC की धारा 92 के अंतर्गत वाद मूल क्षेत्राधिकार वाले प्रधान सिविल न्यायालय अर्थात जिला न्यायाधीश के न्यायालय में संस्थित किया जा सकता है, किसी अन्य न्यायालय में नहीं।
- इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जयन्त्री प्रसाद बनाम राम शिरोमणि पांडे एवं 2 अन्य के माध्यम से श्री राम जानकी लक्ष्मण जी विराजमान मंदिर, प्रतापगढ़ के मामले में यह व्यवस्था दी।
जयन्त्री प्रसाद बनाम राम शिरोमणि पांडे एवं 2 अन्य के माध्यम से श्री राम जानकी लक्ष्मण जी विराजमान मंदिर, प्रतापगढ़ मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- वादी का मामला यह है कि श्री राम लक्ष्मण जानकीजी विराजमान मंदिर का निर्माण उनके दान से हुआ था।
- वादी ने सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 ( CPC) की धारा 91 एवं धारा 92 के अंतर्गत घोषणा एवं शाश्वत व्यादेश के लिये वाद संस्थित किया, जहाँ याचिकाकर्त्ताओं ने ग्यारह सदस्यीय समिति के गठन एवं राम जानकी मंदिर के प्रबंधन के लिये उन्हें प्रबंधक नियुक्त करने के निर्देश देने की प्रार्थना की।
- ट्रायल कोर्ट ने माना कि वर्तमान वाद CPC की धारा 92 के दायरे में नहीं आता है:
- वादीगण ने कोई न्यास विलेख (न्यास विलेख) दाखिल नहीं की है तथा इस विषय में कोई दलील नहीं दी गई है कि न्यास कौन है या न्यास का प्रबंधक कौन है।
- न्यास के कोई उपनियम/नियम रिकॉर्ड पर नहीं लाए गए हैं।
- विवादित संपत्ति द्वारा प्रशासित किसी भी लोक खैरात के विषय में कोई दलील नहीं दी गई है।
- इसलिये, सिविल जज ने निष्कर्ष निकाला कि वादी द्वारा मांगी गई राहत CPC की धारा 91 एवं धारा 92 के दायरे में नहीं आती है तथा वाद को स्वीकार किये जाने के स्तर पर स्वीकार्य न होने के कारण खारिज कर दिया।
- इस प्रकार, विद्वान सिविल जज द्वारा पारित उपरोक्त आदेश को चुनौती देते हुए भारतीय संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 227 के अंतर्गत याचिका दायर की गई।
न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?
- इस मामले में न्यायालय ने दो मुद्दों पर विचार किया:
- क्या इस मामले में CPC की धारा 92 के अंतर्गत वाद संस्थित किया जा सकता है?
- क्या सिविल जज द्वारा वाद स्वीकार किया जा सकता है?
- पहले मुद्दे के संबंध में:
- CPC की धारा 92 लोक खैरात से संबंधित है।
- न्यायालय ने माना कि धार्मिक विन्यास अधिनियम, 1863 (अधिनियम) में 'धार्मिक विन्यास' शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है।
- यह देखा गया कि अधिनियम की धारा 14, 15 एवं 18 वर्तमान विवाद के लिये प्रासंगिक हैं।
- CPC की धारा 92 एवं अन्य प्रावधानों के संयुक्त निर्वचन करने से न्यायालय ने माना कि यह स्पष्ट रूप से स्पष्ट है कि CPC की धारा 92 के अंतर्गत वाद किसी धर्मार्थ या धार्मिक प्रकृति के सार्वजनिक उद्देश्यों के लिये बनाए गए किसी भी स्पष्ट या रचनात्मक न्यास के किसी भी कथित उल्लंघन के मामले में भी संस्थित किया जा सकता है।
- इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि केवल न्यास विलेख की अनुपस्थिति के कारण वाद को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है।
- इस प्रकार, उच्च न्यायालय ने माना कि संबंधित ट्रायल कोर्ट ने प्रवेश स्तर पर वाद को खारिज करके स्पष्ट अवैधता की है, क्योंकि वादी ने कोई न्यास विलेख दाखिल नहीं किया है तथा वाद में न्यासियों या प्रबंधक की पहचान का प्रकटन करना नहीं किया गया है।
- दूसरे मुद्दे के संबंध में:
- CPC की धारा 92 एवं धार्मिक विन्यास अधिनियम, 1863 (REA) की धारा 2 में प्रावधान है कि इस प्रावधान के अंतर्गत वाद “मूल क्षेत्राधिकार के प्रधान न्यायालय में या राज्य सरकार द्वारा इस संबंध में सशक्त किसी अन्य न्यायालय में” संस्थित किया जा सकता है।
- न्यायालय ने विश्लेषण किया कि क्या एक “सिविल न्यायाधीश” मूल क्षेत्राधिकार का प्रधान न्यायालय होगा।
- न्यायालय ने निम्नलिखित प्रावधानों का विश्लेषण किया:
- सामान्य खंड अधिनियम की धारा 3 (17) में प्रावधान है कि "जिला न्यायाधीश" का तात्पर्य मूल क्षेत्राधिकार वाले प्रधान सिविल न्यायालय के न्यायाधीश से होगा, लेकिन इसमें अपने साधारण या असाधारण मूल सिविल क्षेत्राधिकार के प्रयोग में उच्च न्यायालय शामिल नहीं होगा।
- CPC की धारा 2 (4) में 'जिला' शब्द को परिभाषित किया गया है।
- बंगाल, आगरा एवं असम सिविल न्यायालय अधिनियम, 1887 की धारा 3 में न्यायालयों की श्रेणियों का प्रावधान है।
- न्यायालय ने प्रावधानों एवं निर्णयज विधियों का विश्लेषण करने के बाद माना कि जिला न्यायाधीश का न्यायालय मूल क्षेत्राधिकार का प्रधान सिविल न्यायालय है।
- इसलिये, जिला न्यायाधीश का न्यायालय मूल क्षेत्राधिकार का प्रधान सिविल न्यायालय है।
- इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि उत्तर प्रदेश राज्य में CPC की धारा 92 एवं REA की धारा 2 के अंतर्गत वाद केवल मूल क्षेत्राधिकार के प्रधान सिविल न्यायालय, यानी जिला न्यायाधीश के न्यायालय में ही दायर किया जा सकता है।
- इसलिये, न्यायालय ने माना कि सिविल न्यायाधीश के पास CPC की धारा 92 या REA के प्रावधानों के अंतर्गत वाद संस्थित करने पर विचारण करने का कोई क्षेत्राधिकार नहीं है।
CPC की धारा 92 क्या है?
परिचय:
- CPC की धारा 92 में किसी खैरात न्यास द्वारा किसी तीसरे पक्ष के विरुद्ध सिविल वाद संस्थित करने की प्रक्रिया का प्रावधान है।
- यह धारा सार्वजनिक न्यासों एवं धर्मार्थ संस्थाओं में जनता के हितों की रक्षा करती है।
धारा 92(1) के घटक:
- वाद संस्थित करने की शर्तें:
- धर्मार्थ या धार्मिक प्रकृति के सार्वजनिक उद्देश्यों के लिये बनाए गए किसी भी स्पष्ट या रचनात्मक न्यास के कथित उल्लंघन के मामले में, या
- जहाँ न्यास के प्रशासन के लिये न्यायालय का निर्देश आवश्यक समझा जाता है।
- वे व्यक्ति जिनके द्वारा वाद प्रस्तुत किया जा सकता है:
- महाधिवक्ता
- या न्यास में हित रखने वाले एवं न्यायालय की अनुमति प्राप्त करने वाले दो या दो से अधिक व्यक्ति
- वाद निम्नलिखित में संस्थित किया जा सकता है:
- मूल क्षेत्राधिकार का प्रधान सिविल न्यायालय या
- राज्य सरकार द्वारा इस संबंध में सशक्त कोई अन्य न्यायालय, जिसके क्षेत्राधिकार की स्थानीय सीमाओं के अंदर न्यास की संपूर्ण विषय-वस्तु या उसका कोई भाग डिक्री प्राप्त करने के लिये स्थित है।
- वे उद्देश्य जिनके लिये वाद संस्थित किया जा सकता है:
- किसी न्यासी को हटाना
- नया न्यासी नियुक्त करना
- किसी न्यासी को कोई संपत्ति सौंपना
- किसी ऐसे न्यासी को, जिसे हटा दिया गया है या जो न्यासी नहीं रह गया है, यह निर्देश देना कि वह अपने कब्जे में मौजूद किसी न्यास की संपत्ति का कब्जा उस व्यक्ति को सौंप दे, जो ऐसी संपत्ति का स्वामी है
- खातों एवं जाँचों के लिये निर्देश देना
- यह घोषित करना कि न्यास की संपत्ति या उसमें निहित हित का कितना हिस्सा न्यास के किसी विशेष उद्देश्य के लिये आवंटित किया जाएगा
- न्यास की पूरी संपत्ति या उसके किसी भाग को किराए पर देने, बेचने, गिरवी रखने या विनिमय करने के लिये अधिकृत करना
- योजना का निपटान करना
- मामले की प्रकृति के अनुसार ऐसी अतिरिक्त या अन्य राहत प्रदान करना।
धारा 92 (2) के घटक:
- CPC की धारा 92 (2) में यह प्रावधान है कि CPC की धारा 92 (1) के अंतर्गत निर्दिष्ट प्रारूप का कोई भी वाद केवल उसमें निर्धारित तरीके से ही संस्थित किया जा सकता है।
- धारा 92(1) निम्नलिखित मामलों में लागू नहीं होती है:
- धार्मिक विन्यास अधिनियम, 1863 के अंतर्गत प्रदान किये गए मामलों में, या
- उन क्षेत्रों में लागू किसी भी संगत कानून द्वारा जो 1 नवंबर 1956 से ठीक पहले भाग B राज्यों में शामिल थे।
- धारा 92(1) निम्नलिखित मामलों में लागू नहीं होती है:
धारा 92(3) के घटक:
- CPC की धारा 92 (3) सार्वजनिक उद्देश्यों के लिये बनाए गए न्यास (रचनात्मक या स्पष्ट) के मूल उद्देश्यों में परिवर्तन का प्रावधान करती है।
- इसमें प्रावधान है कि न्यायालय ऐसे न्यास की संपत्ति या आय या उसके किसी भाग को लागू करने की अनुमति दे सकता है।
- उपर्युक्त निम्नलिखित परिस्थितियों में हो सकता है:
- जहाँ न्यास के मूल उद्देश्य, पूर्णतः या आंशिक रूप से,
- जहाँ तक संभव हो, पूरा किया जा चुका है;
- बिल्कुल भी नहीं किया जा सकता है, या न्यास बनाने वाले दस्तावेज़ में दिये गए निर्देशों के अनुसार नहीं किया जा सकता है या जहाँ ऐसा कोई दस्तावेज़ नहीं है, वहाँ न्यास की भावना के अनुसार नहीं किया जा सकता है।
- जहाँ न्यास के मूल उद्देश्य न्यास के आधार पर उपलब्ध संपत्ति के केवल एक भाग के उपयोग के लिये प्रावधान करते हैं;
- जहाँ न्यास के आधार पर उपलब्ध संपत्ति एवं समान उद्देश्यों के लिये लागू अन्य संपत्ति का संयोजन में अधिक प्रभावी ढंग से उपयोग किया जा सकता है, तथा उस उद्देश्य के लिये इसे किसी अन्य उद्देश्य के लिये उपयुक्त रूप से लागू किया जा सकता है, न्यास की भावना एवं सामान्य उद्देश्यों के लिये इसकी प्रयोज्यता को ध्यान में रखते हुए
- जहाँ मूल प्रयोजन, पूर्णतः या भागतः, किसी ऐसे क्षेत्र के संदर्भ में निर्धारित किये गए थे जो उस समय ऐसे प्रयोजनों के लिये एक इकाई था, किन्तु अब नहीं रह गया है।
- जहाँ मूल उद्देश्य, पूर्णतः या भागतः, निर्धारित किये जाने के बाद से:
- अन्य तरीकों से पर्याप्त रूप से प्रदान किया गया हो
- समुदाय के लिये व्यर्थ या हानिकारक होने के कारण बंद हो गया हो
- विधि के अनुसार, खैराती कार्य बंद हो गया हो
- न्यास के आधार पर उपलब्ध संपत्ति का उपयोग करने का किसी भी अन्य तरीके से युक्तियुक्त एवं प्रभावी तरीका प्रदान करना बंद कर दिया हो, न्यास की भावना को ध्यान में रखते हुए
- जहाँ न्यास के मूल उद्देश्य, पूर्णतः या आंशिक रूप से,
CPC की धारा 92 पर ऐतिहासिक निर्णय क्या हैं?
- बिश्वनाथ बनाम श्री ठाकुर राधा बल्लभजी (1967)
- न्यायालय ने कहा कि CPC की धारा 92 को लागू करने के लिये तीन आवश्यकताएँ पूरी होनी चाहिये :
- सबसे पहले, न्यास की स्थापना धर्मार्थ या सार्वजनिक उद्देश्यों के लिये की गई थी।
- दूसरे, न्यास का उल्लंघन हुआ था।
- अंत में, ऐसे न्यास के प्रशासन में न्यायालय के आदेश का पालन करना आवश्यक था।
- न्यायालय ने कहा कि CPC की धारा 92 को लागू करने के लिये तीन आवश्यकताएँ पूरी होनी चाहिये :
- जानकी प्रसाद बनाम कुबेर सिंह (1963)
- लिखित दस्तावेज की अनुपस्थिति या प्रविष्टियों की अनुपस्थिति मात्र न्यास के अस्तित्व न होने का निर्णायक प्रमाण नहीं है।
- एक वैध न्यास न केवल लिखित दस्तावेज के माध्यम से बनाया जा सकता है, बल्कि मौखिक रूप से भी बनाया जा सकता है, लेकिन मौखिक न्यास के मामले में यह आवश्यक है कि संपत्ति को एक दान की गई संपत्ति माना जाना चाहिये तथा इसका उपयोग धर्मार्थ एवं धार्मिक उद्देश्यों के लिये किया जाना चाहिय, जिसके लिये न्यास बनाया गया था।