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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

कर्मचारी को आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरण

 11-Oct-2024

निपुण अनेजा एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य

"न्यायालय ने उन परिस्थितियों पर ध्यान दिया जिनके अंतर्गत आधिकारिक सीनियरों को किसी कर्मचारी को आत्महत्या के दुष्प्रेरण के लिये उत्तरदायी ठहराया जा सकता है, तथा उनके रिश्ते की प्रकृति पर ध्यान केंद्रित किया गया।"

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला तथा न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में उन शर्तों को स्पष्ट किया है जिनके अंतर्गत किसी जूनियर अधिकारी को आत्महत्या के दुष्प्रेरण के लिये आधिकारिक सीनियरों को उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। न्यायालय ने संबंधों की दो श्रेणियों के मध्य विभाजित किया: भावनात्मक संबंध (जैसे, पारिवारिक या रोमांटिक) और आधिकारिक क्षमताएँ।

  • न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा ने निपुण अनेजा एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में यह निर्णय दिया।
  • इसमें इस बात पर बल दिया गया कि भावनात्मक संबंधों में टकराव से मनोवैज्ञानिक संकट उत्पन्न हो सकता है, जिसके परिणामस्वरूप आत्महत्या भी हो सकती है, तथा इस प्रकार कुछ परिस्थितियों में उत्तरदायित्व का आधार भी स्थापित हो सकता है।

निपुण अनेजा एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • राजीव जैन हिंदुस्तान लीवर लिमिटेड के कर्मचारी थे, जिन्होंने 23 वर्ष तक कंपनी के साथ कार्य किया था।
  • 3 नवंबर 2006 को, राजीव जैन ने लखनऊ में अपने होटल के कमरे में आत्महत्या कर ली।
  • अगले दिन, उनके भाई रजनीश जैन ने आत्महत्या के संबंध में प्राथमिकी दर्ज कराई।
  • FIR के अनुसार, कंपनी स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना (VRS) की योजना बना रही थी, जिसे कथित तौर पर अनिवार्य सेवानिवृत्ति योजना (CRS) के रूप में लागू किया किया जा रहा था।
  • FIR में निपुण अनेजा, जेड.आई. अल्वी एवं मनीष शर्मा सहित कई कंपनी अधिकारियों का नाम था, जिन पर कर्मचारियों पर VRS स्वीकार करने के लिये दबाव डालने तथा उन्हें परेशान करने का आरोप था।
  • अपनी मौत के दिन राजीव जैन लखनऊ के होटल दीप पैलेस में अन्य कर्मचारियों एवं कंपनी अधिकारियों के साथ एक बैठक में शामिल हुए थे।
  • इस बैठक के दौरान, राजीव जैन एवं अन्य कर्मचारी जिन्होंने VRS नहीं लिया था, उन्हें कथित तौर पर मर्चेंडाइजिंग में कार्य करने के लिये पत्र दिये गए थे, जिसे सेल्समैन के रूप में उनकी वर्तमान भूमिकाओं से कमतर माना जाता था।
  • मृतक के दो सहयोगियों सुधीर कुमार ओझा एवं जयंत कुमार घटक ने पुलिस के साथ बैठक की, घटनाओं एवं कथित उत्पीड़न का वर्णन करते हुए बयान दिये।
  • इन बयानों एवं अन्य साक्ष्यों के आधार पर पुलिस ने आरोपी अधिकारियों के विरुद्ध आत्महत्या के दुष्प्रेरण के आरोप में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 306 के अंतर्गत आरोप पत्र दायर किया।
  • आरोपी अधिकारियों ने आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के लिये एक याचिका दायर की, जिसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने खारिज कर दिया।
  • इस अस्वीकृति के बाद, आरोपी अधिकारियों ने उनके विरुद्ध आपराधिक कार्यवाही को रद्द न करने के उच्च न्यायालय के निर्णय को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय में अपील की।

न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने अवधारित किया कि IPC की धारा 306 (आत्महत्या का दुष्प्रेरण) के लिये आत्महत्या के दुष्प्रेरण के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कृत्यों का साक्ष्य होना चाहिये।
  • न्यायालय ने दुष्प्रेरण के मामलों में संबंधों को दो प्रकारों में वर्गीकृत किया:
    • जहाँ मृतक के अभियुक्त के साथ भावनात्मक या शारीरिक संबंध थे
    • जहाँ मृतक के अभियुक्त के साथ आधिकारिक संबंध थे
  • न्यायालय ने कहा कि आधिकारिक संबंधों में अपेक्षाएँ एवं दायित्व विधियों, नियमों, नीतियों एवं विनियमों द्वारा निर्धारित किये जाते हैं, जबकि भावनात्मक संबंधों में व्यक्तिगत अपेक्षाएँ अधिक होती हैं।
  • न्यायालय ने कहा कि ऐसे मामलों में परीक्षण यह पता लगाने के लिये होना चाहिये कि क्या प्रथम दृष्टया साक्ष्य है कि अभियुक्त ने अपने कृत्य के परिणामों, अर्थात आत्महत्या के आशय से दुष्प्रेरण कारित किया था।
  • न्यायालय ने कई कारकों पर ध्यान दिया जिनकी दुष्प्रेरण के मामलों में जाँच की जानी चाहिये :
    • क्या अभियुक्तों ने असहनीय उत्पीड़न की स्थिति उत्पन्न की
    • क्या उन्होंने भावनात्मक दुर्बलता का अनुचित लाभ उठाया
    • क्या उन्होंने गंभीर परिणाम भुगतने की धमकी दी
    • क्या उन्होंने प्रतिष्ठा को हानि पहुँचाने वाले मिथ्या आरोप लगाए
  • न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय का दृष्टिकोण दोषपूर्ण था क्योंकि वह इन कारकों की उचित जाँच करने में विफल रहा।
  • न्यायालय ने कहा कि किसी व्यक्ति को आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरित करने के विशिष्ट आशय के बिना, आधिकारिक क्षमता में केवल उत्पीड़न या अपमान करना, दुष्प्रेरण की श्रेणी में नहीं आता।
  • न्यायालय ने कहा कि जहाँ न्यायालय अक्सर आशय का पता लगाने के लिये पूरी सुनवाई का प्रतीक्षा करती हैं, वहीं आत्महत्या के दुष्प्रेरण के मामलों में आरोपों की प्रकृति अक्सर प्रारंभ से ही तथ्यों को स्पष्ट कर देती है।
  • न्यायालय ने पाया कि आत्महत्या के दुष्प्रेरण को नियंत्रित करने वाले विधि के सिद्धांतों को सही ढंग से लागू करने में न्यायालयों की अक्षमता के कारण अक्सर अनावश्यक अभियोजन होता है।
  • न्यायालय ने पाया कि अपीलकर्त्ताओं पर अभियोजन का वाद चलाना विधि की प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा, क्योंकि उनके विरुद्ध कोई भी मामला दर्ज नहीं किया गया।
  • न्यायालय ने सामान्य कार्यस्थल पर होने वाले संघर्षों तथा उन कार्यवाहियों के मध्य अंतर स्थापित किया जिन्हें दुष्प्रेरण माना जा सकता है, इस बात पर बल देते हुए कि आधिकारिक संबंधों के मानक सामान्य तौर पर व्यक्तिगत संबंधों से अलग होते हैं।

BNS , 2023 की धारा 108 क्या है?

परिचय:

  • BNS की धारा 108 में आत्महत्या के दुष्प्रेरण  की सजा का प्रावधान है, जो दस वर्ष तक की कैद और जुर्माने सहित हो सकती है।
  • पहले यह IPC की धारा 306 के अंतर्गत दी जाती थी।

आवश्यक सामग्री:

  • धारा 108 BNS के अंतर्गत अपराध के आवश्यक तत्व हैं:
    • आत्महत्या का तथ्य
    • आरोपी द्वारा दुष्प्रेरण
  • इस धारा के अंतर्गत दुष्प्रेरण स्थापित करने के लिये अभियोजन पक्ष को यह सिद्ध करना होगा:
    • मृतक ने आत्महत्या की है।
    • आरोपी ने आत्महत्या के दुष्प्रेरण कारित किया था।

दोषसिद्धि हेतु आवश्यक तत्त्व:

  • धारा 108 के अंतर्गत दोषसिद्धि के लिये निम्नलिखित साक्ष्य होने चाहिये:
    • आत्महत्या के दुष्प्रेरण का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कार्य।
    • मृतक को आत्महत्या करने के दुष्प्रेरण या सहायता करने का अभियुक्त का आशय।
  • मात्र उत्पीड़न या अपमानजनक व्यवहार को दुष्प्रेरण नहीं माना जाएगा, जब तक कि:
    • ऐसे साक्ष्य हैं जो सिद्ध करते हैं कि आरोपी का आशय आत्महत्या का दुष्प्रेरण कारित करना था।
    • यह कृत्य आत्महत्या के समय के करीब ही हुआ था।
  • अभियोजन पक्ष को अपराध कारित करने के लिये अभियुक्त की ओर से स्पष्ट दुराशय (दोषी मन) सिद्ध करना चाहिये।
  • अभियुक्त का कार्य होना चाहिये:
    • एक सक्रिय या प्रत्यक्ष कार्य जिसके कारण मृतक आत्महत्या करने को विवश हुआ।
    • मृतक को ऐसी स्थिति में धकेलने का आशय जहाँ उसे आत्महत्या के अतिरिक्त कोई विकल्प न दिखे।
  • इस धारा के अंतर्गत निम्नलिखित का प्रमाण आवश्यक है:
    • अभियुक्त का कृत्य
    • ये कृत्य एवं पीड़िता की आत्महत्या के मध्य स्पष्ट संबंध है।
  • न्यायालय को निम्नलिखित पर विचार करना होगा:
    • अभियुक्त की मनःस्थिति।
    • उनके कृत्यों की प्रकृति।
    • आत्महत्या से उनके कार्यों की निकटता।
  • बिना इसके कि कोई सजा कायम रह सके:
    • अभियुक्त की ओर से आत्महत्या के दुष्प्रेरण या सहायता करने के लिये किया गया सकारात्मक कार्य।
    • आत्महत्या के लिये प्रेरित करने वाले जानबूझकर किये गए आचरण का साक्ष्य।
  • अपराध के सभी तत्त्वों को उचित संदेह से परे स्थापित करने का दायित्व अभियोजन पक्ष पर है।

दुष्प्रेरण क्या है?

  • धारा 45 BNS के अंतर्गत दुष्प्रेरण को तीन तरीकों से परिभाषित किया गया है:
    • किसी व्यक्ति को आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरण ।
    • किसी व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिये प्रेरित करने के षड़यंत्र में सम्मिलित होना।
    • जानबूझकर आत्महत्या करने में सहायता करना।

आपराधिक कानून

PCPNDT अधिनियम के अंतर्गत लिंग निर्धारण का अपराध

 11-Oct-2024

डॉ. बृजपाल सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य

"इस अधिनियम के अंतर्गत कारित अपराध के लिये पुलिस द्वारा कोई विवेचना स्वीकार्य नहीं है, जो अन्यथा विवेचना के विशेष तकनीकी क्षेत्र हैं। इसलिये, PC & PNDT अधिनियम, विशेष संविधि होने के कारण, सामान्य संविधि अर्थात CrPC के प्रावधान लागू नहीं होंगे"

न्यायमूर्ति अनीश कुमार गुप्ता

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने डॉ. बृजपाल सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य मामले में माना है कि पुलिस गर्भधारण पूर्व एवं प्रसव पूर्व निदान तकनीक (लिंग चयन प्रतिषेध) अधिनियम, 1994 (PCPNDT) के अंतर्गत विवेचना नहीं कर सकती है तथा केवल युक्तियुक्त प्राधिकारी को ही ऐसे मामलों का संज्ञान लेने का अधिकार है।

डॉ. बृजपाल सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्तमान मामले में थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई गई कि किसी ने गुप्त रूप से सूचना दी है कि सोबा राम अस्पताल में गर्भवती महिलाओं के भ्रूण की लिंग जाँच की गई है।
  • इस कार्य का उद्देश्य बालिका के जन्म को रोकना है।
  • डॉक्टरों व संबंधित व्यक्ति को रंगे हाथों पकड़ने के लिये फर्जी गर्भवती महिला को भेजने का सुझाव दिया गया।
  • प्राप्त गुप्त सूचना के आधार पर गर्भधारण पूर्व एवं प्रसव पूर्व निदान तकनीक (लिंग चयन प्रतिषेध) अधिनियम, 1994 (PCPNDT) के अंतर्गत जिला समुचित प्राधिकारी ने आवश्यक कार्यवाही की।
  • अपराधियों को रंगे हाथों पकड़ने के लिये योजना बनाई गई।
  • योजना सफल रही तथा टीम असली डॉक्टर तक पहुँच गई जो ऐसी सभी गतिविधियों में शामिल था तथा जो वर्तमान मामले में याचिकाकर्त्ता है।
  • तहसीलदार के निर्देश पर एस.आई. सुभाष सिंह द्वारा तत्काल प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) लिखी गई तथा पुलिस टीम के सभी सदस्यों ने उक्त घटना के साक्षी के रूप में हस्ताक्षर किये तथा उक्त रिपोर्ट की एक प्रति उन्हें भी दी गई।
  • मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष आरोप पत्र दाखिल किया गया तथा मामला पंजीकृत किया गया।
  • याचिकाकर्त्ता ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष आपराधिक मामले की पूरी कार्यवाही के साथ-साथ समन आदेश को रद्द करने के लिये एक आवेदन दायर किया।
  • याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि PCPNDT की धारा 28 के अधीन दर्ज मामला केवल एक उपयुक्त प्राधिकारी के समक्ष दायर किया जा सकता है, न कि FIR में।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि:
    • दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के अंतर्गत अपनाई जाने वाली सामान्य प्रक्रिया PCPNDT के अंतर्गत पंजीकृत मामलों पर लागू नहीं होगी।
    • PCPNDT नियम, 1996 के नियम 18 के अनुसार, अधिनियम की धारा 28 एवं धारा 30 के साथ पढ़ने पर, पुलिस प्राधिकारी विवेचना प्रक्रिया में शामिल नहीं हो सकते हैं तथा ऐसे मामलों को शिकायत मामलों के रूप में माना जाएगा।
    • मजिस्ट्रेट ऐसे मामलों का संज्ञान ले सकते हैं, यहाँ तक ​​कि तब भी जब शिकायत किसी अधिकृत व्यक्ति द्वारा की गई हो तथा पुलिस रिपोर्ट प्रस्तुत की गई हो।
  • इसलिये, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने वर्तमान आवेदन को स्वीकार कर लिया तथा डॉक्टर के विरुद्ध आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया।

गर्भधारण पूर्व एवं प्रसव पूर्व निदान तकनीक (लिंग चयन प्रतिषेध) अधिनियम, 1994 (PCPNDT ) क्या है?

परिचय:

  • PCPNDT को कन्या भ्रूण हत्या को रोकने एवं भारत में घटते लिंग अनुपात को नियंत्रित करने के लिये अंतर्गत अधिनियमित किया गया था।
  • इस अधिनियम के अंतर्गत जन्मपूर्व लिंग निर्धारण पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।

उद्देश्य:

  • गर्भधारण से पहले या बाद में लिंग चयन तकनीकों के उपयोग पर प्रतिबंध लगाना।
  • इसका उपयोग लिंग-चयनात्मक गर्भपात के लिए जन्मपूर्व निदान तकनीकों के दुरुपयोग को रोकने के लिए किया जाता है।

अधिनियम में प्रावधानित अपराध:

  • अपंजीकृत सुविधाओं में प्रसवपूर्व निदान तकनीकों का संचालन या सहायता करना।
  • भ्रूण के लिंग का पता लगाने वाली किसी भी अल्ट्रासाउंड मशीन की बिक्री, वितरण, आपूर्ति, किराये पर देना आदि।

अधिनियम के अंतर्गत विवेचना एवं गिरफ्तारी की शक्ति:

  • इस अधिनियम के अंतर्गत एक उपयुक्त प्राधिकारी को विवेचना करने एवं गिरफ्तार करने का अधिकार है।
  • उपयुक्त प्राधिकारी को इस अधिनियम के अंतर्गत गिरफ्तार करने का अधिकार नहीं है।
  • पुलिस को इस अधिनियम के अंतर्गत गिरफ्तारी करने का अधिकार है।

वर्तमान मामले के अंतर्गत संदर्भित प्रावधान:

  • भ्रूण से अभिप्राय:
    • PCPNDT की धारा 2 (bc) के अनुसार, "भ्रूण" से तात्पर्य एक मानव जीव से है, जो निषेचन या सृजन के बाद सत्तावनवें दिन से प्रारंभ होकर (उस समय को छोड़कर जिसमें उसका विकास रुका हुआ हो) जन्म के समय तक अपने विकास की अवधि के दौरान होता है।
  • प्रसव पूर्व निदान प्रक्रियाओं का अर्थ:
    • PCPNDT की धारा 2 (i) के अनुसार, "प्रसव पूर्व निदान प्रक्रिया" का तात्पर्य सभी स्त्री रोग या प्रसूति या चिकित्सा प्रक्रियाओं से है, जैसे कि अल्ट्रासोनोग्राफी, फीटोस्कोपी, किसी पुरुष या महिला के एमनियोटिक द्रव, कोरियोनिक विली, रक्त या किसी अन्य ऊतक या द्रव का नमूना लेना या निकालना, जिसे गर्भधारण से पहले या बाद में लिंग के चयन के लिये किसी भी प्रकार के विश्लेषण या प्रसव पूर्व निदान परीक्षण के लिये आनुवंशिक प्रयोगशाला या आनुवंशिक क्लिनिक में भेजा जाता है।
  • अपराधों का संज्ञान (धारा 28):
    • उपधारा (1) में कहा गया है कि न्यायालय निम्नलिखित द्वारा की गई शिकायत पर संज्ञान लेगा:
      • खंड (a) में कहा गया है कि संबंधित समुचित प्राधिकारी या केंद्र सरकार या राज्य सरकार या समुचित प्राधिकारी द्वारा इस संबंध में प्राधिकृत कोई अधिकारी।
      • खंड (b) में कहा गया है कि कोई व्यक्ति जिसने कथित अपराध के विषय में और न्यायालय में शिकायत करने के अपने आशय के विषय में समुचित प्राधिकारी को निर्धारित तरीके से कम से कम पंद्रह दिन का नोटिस दिया है।
    • उपधारा (2) में यह प्रावधानित किया गया है कि इस अधिनियम के अंतर्गत मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट या प्रथम श्रेणी का न्यायिक मजिस्ट्रेट मामलों की सुनवाई करेगा।
    • उपधारा (3) में कहा गया है कि उपधारा (1) के खंड (b) के तहत पक्षकारों द्वारा मांग किये जाने पर न्यायालय उचित प्राधिकारियों को उन्हें उपलब्ध कराने का निर्देश दे सकती है।

प्रसव पूर्व तकनीक एवं नैतिक मुद्दे:

  • अधिकारों और मानव गरिमा का उल्लंघन: लिंग-चयनात्मक गर्भपात महिलाओं के विरुद्ध लैंगिक भेदभाव एवं हिंसा का एक रूप है जो उनके जीवन, गरिमा एवं समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है।
  • गरिमा को कमज़ोर करता है: यह मानव जीवन के मूल्य एवं गरिमा तथा मानव समाज की विविधता को भी कमज़ोर करता है।
  • सामाजिक समस्याओं में इज़ाफा: इसके समाज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ते हैं, जैसे कि विषम लिंग अनुपात, महिलाओं के विरुद्ध़ तस्करी और हिंसा में वृद्धि, पुरुषों के लिये विवाह की कम संभावनाएँ, आदि।
  • अजन्मे बच्चे के प्रति उत्तरदायित्व: यह गैर-चिकित्सा उद्देश्यों के लिये प्रसवपूर्व निदान के उपयोग और अजन्मे बच्चे के प्रति माता-पिता और स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं की ज़िम्मेदारी के बारे में नैतिक प्रश्न भी उठाता है।
  • स्वास्थ्य सेवा तक पहुँच: प्रसवपूर्व निदान एवं लिंग-चयनात्मक गर्भपात मौजूदा स्वास्थ्य असमानताओं और असमानताओं को बढ़ा सकता है, विशेष रूप से हाशिए पर रहने वाले समुदायों के लिये , जिनकी स्वास्थ्य सेवा और सूचना तक सीमित पहुँच हो सकती है।

सिविल कानून

फोरम शॉपिंग का सिद्धांत

 11-Oct-2024

माइकल बिल्डर्स एंड डेवलपर्स बनाम इंडियन नर्सिंग काउंसिल एवं अन्य

"ऐसा आचरण, जिसमें याचिकाकर्त्ता पहले से ही उपयुक्त मंच से संपर्क करने के बाद अपने लिये अनुकूल मंच चुनने का प्रयास करता है, उसे क्षमा नहीं किया जा सकता।"

न्यायमूर्ति स्वर्णकांता शर्मा 

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति स्वर्णकांत शर्मा की पीठ ने कहा कि उचित मामलों में न्यायालय फोरम कन्वीनियंस के सिद्धांत का उदाहरण देकर अपने विवेक का प्रयोग करने से मना कर सकता है।   

  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने माइकल बिल्डर्स एंड डेवलपर्स बनाम इंडियन नर्सिंग काउंसिल एवं अन्य के मामले में यह निर्णय दिया।

माइकल बिल्डर्स एंड डेवलपर्स बनाम इंडियन नर्सिंग काउंसिल एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • याचिकाकर्त्ता (माइकल बिल्डर्स एंड डेवलपर्स) ने सेंट अल्फांसो ट्रस्ट के साथ प्रस्तावित मेडिकल कॉलेज के निर्माण के लिये एक करार किया।
  • निर्माण पूरा होने पर, याचिकाकर्त्ता द्वारा कार्य के लिये देय राशि का दावा किया गया।
  • न्यास भुगतान करने में विफल रहा तथा इसलिये याचिकाकर्त्ता ने जिला न्यायालय के समक्ष माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 (A & C अधिनियम) की धारा 9 के अंतर्गत एक आवेदन दायर किया।
  • इसके बाद याचिकाकर्त्ता ने मद्रास उच्च न्यायालय में A & C अधिनियम की धारा 11 के अंतर्गत एक आवेदन दायर कर मध्यस्थ की नियुक्ति की मांग की।
  • इसके बाद पक्षों के बीच एक करार हुआ, जिसमें न्यास ने पूर्ण एवं अंतिम निपटान के रूप में 18% GST एवं लंबित सेवा कर के साथ 15,95,00,000/- रुपये की राशि का भुगतान करने पर सहमति व्यक्त की।
  • हालाँकि, यह कहा गया कि कुल बकाया देयता 26,00,00,000/- रुपये है।
  • इसके बाद समझौता ज्ञापन मध्यस्थ के समक्ष प्रस्तुत किया गया, जिसने ट्रस्ट को उक्त राशि का भुगतान करने का निर्देश देते हुए सहमति आदेश पारित किया।
  • ट्रस्ट (न्यास) भुगतान शर्तों का पालन करने में विफल रहा तथा इसलिये, याचिकाकर्त्ता ने प्रधान जिला न्यायाधीश के समक्ष एक निष्पादन याचिका दायर की, जिसमें विषयगत संपत्तियों को कुर्क करके और बेचकर निष्पादन की मांग की गई।
  • जिला न्यायाधीश ने विषयगत संपत्ति की कुर्की के लिये एक आदेश पारित किया।
  • याचिकाकर्त्ता का आरोप है कि न्यायालय के आदेश का उल्लंघन करते हुए ट्रस्ट ने कुर्क की गई संपत्तियों पर नर्सिंग एवं मेडिकल कॉलेज शुरू करने के लिये अनिवार्यता प्रमाणपत्र के लिये आवेदन किया है।
  • याचिकाकर्त्ता ने मद्रास उच्च न्यायालय के समक्ष पहले भी रिट याचिकाएं दायर की थीं, जिसमें सरकार के सचिव को निर्देश देने की मांग की गई थी कि वे ट्रस्ट को अनुमति न दें।
  • याचिकाकर्त्ता ने न्यायालय से अनुरोध किया है कि प्रतिवादियों को कुर्क की गई संपत्ति पर ट्रस्ट को नर्सिंग कॉलेज की स्थापना के लिये कोई अनुमति, मान्यता या अनुमोदन देने से रोका जाए तथा 14.06.2024 को अनिवार्यता प्रमाणपत्र दिये जाने की परिस्थितियों की स्वतंत्र जाँच की जाए।

न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?

  • न्यायालय ने पाया कि याचिकाकर्त्ता ने राहत के लिये पहले मद्रास उच्च न्यायालय में अपील किया था तथा उनके द्वारा पारित आदेश सीधे तौर पर संबंधित संपत्ति एवं मध्यस्थता पंचाट के निष्पादन से संबंधित हैं।
  • इस प्रकार, इस उच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र का आह्वान करने का कोई औचित्य नहीं है, जब तमिलनाडु का न्यायालय पहले ही मामले को अपने नियंत्रण में ले चूका हैं तथा प्रासंगिक आदेश जारी कर चुका हैं।
  • इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि न्यायालय फोरम कन्वीनियंस के सिद्धांत का आह्वान करके अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने से मना कर सकता है।
  • इस मामले में यह तर्क दिया गया कि चूंकि राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग का मुख्यालय दिल्ली में है, इसलिये इस न्यायालय को अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करना चाहिये। न्यायालय ने एक महत्त्वपूर्ण टिप्पणी की कि केवल इसलिये कि राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग या भारतीय नर्सिंग परिषद का मुख्यालय दिल्ली में है, इस न्यायालय को स्वतः ही अधिकार क्षेत्र प्राप्त नहीं होता है।
  • यह देखा गया कि इन निकायों के कार्यालय एवं उनकी विधिक टीमें हैं, जो तमिलनाडु सहित देश भर के हर राज्य में कार्य करती हैं।
  • इस प्रकार, यह तर्क कि राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग या भारतीय नर्सिंग परिषद दिल्ली में स्थित है, इस न्यायालय के समक्ष रिट याचिका दायर करने को उचित ठहराने के लिये अपर्याप्त है, विशेषकर जब कार्यवाही का कारण उत्पन्न हुआ है, तथा इसमें शामिल पक्ष तमिलनाडु में स्थित हैं और पहले ही तमिलनाडु राज्य में स्थित न्यायालयों से संपर्क कर चुके हैं एवं उक्त न्यायालयों से आदेश प्राप्त कर चुके हैं।
  • इस प्रकार न्यायालय की राय थी कि याचिकाकर्त्ता ने तमिलनाडु में उपयुक्त फोरम से याचिका वापस लेने के बाद इस न्यायालय के अधिकार क्षेत्र का आह्वान करने की मांग करके फोरम शॉपिंग की है।
  • इस तरह का आचरण, जहाँ याचिकाकर्त्ता पहले से ही उचित मंच से संपर्क करने के बाद अपने लिये अनुकूल मंच चुनने का प्रयास करता है, को क्षमा नहीं किया जा सकता है।
  • उपर्युक्त के ध्यान में रखते हुए, लंबित आवेदन के साथ-साथ वर्तमान याचिकाएँ केवल क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र के आधार पर खारिज कर दी गईं, साथ ही 50,000 रुपये (प्रत्येक याचिका में 25,000 रुपये) की कुल लागत के साथ, दो सप्ताह के अंदर दिल्ली उच्च न्यायालय कर्मचारी कल्याण कोष में जमा किया जाना है।

फोरम शॉपिंग क्या है?

परिचय:

  • फोरम शॉपिंग से तात्पर्य किसी विधिक मामले के लिये जानबूझकर किसी विशेष न्यायालय को चुनने की प्रथा से है, ताकि अनुकूल परिणाम प्राप्त हो सके।
  • मुकदमेबाज़ एवं अधिवक्ता अक्सर इस रणनीति को अपनी मुकदमेबाजी की योजना का हिस्सा मानते हैं।
  • फोरम शॉपिंग की न्यायाधीशों द्वारा आलोचना की गई है क्योंकि इससे विरोधी पक्ष के साथ अन्याय हो सकता है तथा विभिन्न न्यायालयों के कार्यभार में असंतुलन उत्पन्न हो सकता है।
  • यह पक्षपात या पक्षपात की धारणा उत्पन्न करके न्यायालयों एवं न्यायाधीशों के अधिकार व वैधता को कमज़ोर कर सकता है।
  • यह कानूनों के टकराव तथा कई कार्यवाहियों को उत्पन्न करके मुकदमेबाजी की लागत एवं जटिलता को बढ़ा सकता है।

महत्त्वपूर्ण मामले:

  • कुसुम इंगॉट्स एंड अलॉयज लिमिटेड बनाम भारत संघ (2004):
    • यहाँ तक ​​कि यदि कार्यवाही के कारण का एक छोटा सा हिस्सा उच्च न्यायालय के क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र के अंदर उत्पन्न होता है, तो भी इसे अपने आप में उच्च न्यायालय को मामले को गुण-दोष के आधार पर तय करने के लिये बाध्य करने वाला निर्णायक कारक नहीं माना जा सकता है।
    • उचित मामलों में, न्यायालय फोरम कन्वीनियंस के सिद्धांत का आह्वान करके अपने विवेकाधीन अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने से मना कर सकता है।
  • गोवा राज्य बनाम समिट ऑनलाइन ट्रेड सॉल्यूशंस (P) लिमिटेड (2023):
    • खंड (2) का संवैधानिक अधिदेश यह है कि इसमें उल्लिखित "कार्यवाही का कारण" कम से कम आंशिक रूप से उन क्षेत्रों के अंदर उत्पन्न होना चाहिये जिनके संबंध में उच्च न्यायालय अधिकारिता का प्रयोग करता है।
    • हालाँकि, एक रिट याचिका के संदर्भ में, इस तरह के "कार्यवाही के कारण" का गठन करने वाले तथ्य वे भौतिक तथ्य हैं जो रिट याचिकाकर्त्ता के लिये दावा किये गए राहत प्राप्त करने के लिये दलील देने एवं सिद्ध करने के लिये अनिवार्य हैं।
    • ऐसे अभिवचनित तथ्यों का चुनौती के विषय-वस्तु से संबंध होना चाहिये जिसके आधार पर प्रार्थना स्वीकार की जा सके।
    • वे तथ्य जो प्रार्थना स्वीकार करने के लिये प्रासंगिक या प्रासंगिक नहीं हैं, वे न्यायालय को अधिकारिता प्रदान करने वाले कार्यवाही के कारण को जन्म नहीं देंगे।
  • चेतक कंस्ट्रक्शन लिमिटेड बनाम ओम प्रकाश (2024):
    • उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि वादियों को अपनी सुविधा के अनुसार न्यायालय चुनने की स्वतंत्रता नहीं होनी चाहिये। न्यायालय ने कहा कि फोरम शॉपिंग के किसी भी प्रयास को दृढ़ता से हतोत्साहित किया जाना चाहिये।
  • विजय कुमार घई बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (2022):
    • उच्चतम न्यायालय ने फोरम शॉपिंग को “न्यायालयों द्वारा की जाने वाली एक बदनाम प्रथा” करार दिया, जिसकी “कानून में कोई स्वीकार्यता एवं उच्चतम न्यायालय ता नहीं है”