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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

CrPC की धारा 437 का लाभ

 14-Oct-2024

कनिका ढींगरा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं उससे संबंधित मामले

"जो स्वयं शक्तिशाली हैं या ऐसे शक्तिशाली व्यक्तियों से जुड़े हैं, तथा अपराध की प्रकृति ऐसी है कि यह बड़े पैमाने पर जनता को प्रभावित करती  है।"

न्यायमूर्ति मंजू रानी चौहान

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कनिका ढींगरा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं इससे संबंधित मामलों में माना है कि यदि अपराध व्यापक रूप से जनता को प्रभावित करने वाला आर्थिक अपराध है तथा प्रभावशाली पद पर आसीन महिला को दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 437 का लाभ नहीं दिया जा सकता है, तो न्यायालय ज़मानत देने से मना कर सकता है।

कनिका ढींगरा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं इससे संबंधित मामलों की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • कथित धोखाधड़ी वाले वस्तु एवं सेवा कर (GST)पंजीकरण और इनपुट टैक्स क्रेडिट दावों से संबंधित तीन प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गईं।
  • आरोपियों पर आरोप है कि उन्होंने एक सिंडिकेट बनाया जो GST पोर्टल पर सूचना अपलोड करके फर्जी फर्म बनाने के लिये सिम कार्ड एवं व्यक्तिगत डेटा एकत्र करता था।
  • कथित तौर पर लगभग 2,600 फर्जी फर्म पंजीकृत की गईं, जिनमें 4,000 करोड़ रुपये से अधिक के इनपुट टैक्स क्रेडिट दावे शामिल थे।
  • मुख्य आरोपियों में संजय ढींगरा, उनकी पत्नी कनिका ढींगरा एवं उनका बेटा मयंक ढींगरा शामिल हैं।
  • संजय ढींगरा पर मेसर्स गुड हेल्थ प्राइवेट लिमिटेड का मुख्य नियंत्रक होने का आरोप है, जो कथित तौर पर घोटाले में शामिल था।
  • यह आरोप लगाया गया था कि दो फर्म, YOYO ट्रेडर्स एवं योयो ट्रेडर्स, अस्तित्वहीन पाए गए तथा कथित तौर पर मेसर्स गुड हेल्थ इंडस्ट्रीज प्राइवेट लिमिटेड से संबद्ध थे।
  • इन फर्जी फर्मों को पंजीकृत करने में प्रयोग किये गए मोबाइल फोन का पता आरोपियों में से एक दीपक मुरजानी से लगाया गया।
  • आवेदक कनिका ढींगरा एवं मयंक ढींगरा पर षड़यंत्र में शामिल होने तथा धोखाधड़ी वाले लेनदेन से लाभ उठाने का आरोप है।
  • जाँच में कनिका ढींगरा एवं मयंक ढींगरा के खातों में कई लेनदेन का पता चला, जिनकी कुल राशि लगभग 300 करोड़ रुपये थी।
  • आरोपियों पर भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 420 (धोखाधड़ी), 467, 468, 471 एवं IPC की धारा 120 B (आपराधिक षड़यंत्र) के अधीन आरोप लगाए गए हैं।
  • अभियोजन पक्ष का तर्क है कि आवेदक फर्जी GST पंजीकरण एवं फर्जी इनपुट टैक्स क्रेडिट दावों के माध्यम से सरकार को धोखा देने की एक बड़ी साजिश का हिस्सा थे।
  • बचाव पक्ष का तर्क है कि आवेदकों को बिना किसी विश्वसनीय साक्ष्य के झूठा फंसाया गया है तथा केवल पैसे के लेन-देन से कथित अपराधों में उनकी संलिप्तता सिद्ध नहीं होती है।
  • आवेदकों द्वारा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष उपर्युक्त आरोपों के आधार पर तीन ज़मानत आवेदन दायर किये गए थे।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि:
    • आर्थिक अपराधों के मामलों में ज़मानत से मना किया जा सकता है जो समाज के आर्थिक परिदृश्य को महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित करते हैं, विशेषकर अगर आरोपी प्रभावशाली या शक्तिशाली हो।
    • CrPC की धारा 437 का लाभ, जो आम तौर पर गैर-ज़मानती अपराधों में महिलाओं को ज़मानत देने की अनुमति देता है, उन महिलाओं को नहीं दिया जा सकता जो शक्तिशाली हैं या शक्तिशाली व्यक्तियों से जुड़ी हैं, विशेषकर जब अपराध बड़े पैमाने पर जनता को प्रभावित करता है।
    • इस मामले में करोड़ों रुपए की हेराफेरी की गई, जिसका समाज पर बहुत बड़ा असर पड़ा। इसकी शुरुआत ऐसे नागरिकों के आधार और पैन कार्ड का प्रयोग करके फर्जी फर्मों के पंजीकरण से हुई, जिन्होंने ऐसे पंजीकरण के लिये आवेदन ही नहीं किया था।
    • अगर रिश्तेदार (इस मामले में मां एवं बेटा) जानबूझ कर पैसे या लेन-देन से लाभ उठाते हैं, भले ही वे सीधे अपराध में शामिल न हों, तो उनके विरुद्ध विधिक कार्यवाही की जा सकती है क्योंकि उनके विरुद्ध अपराध गठित होता है।
  • न्यायालय ने केस डायरी में ऐसे साक्ष्य भी पाए, जिनसे पता चलता है कि मां एवं बेटे ने अवैध धन द्वारा व्यक्तिगत रूप से लाभ कमाया। इस प्रकार, न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि यह नहीं कहा जा सकता कि वे केवल इसलिये दोषी नहीं थे, क्योंकि वे सीधे तौर पर फर्जी फर्मों के पंजीकरण में शामिल नहीं थे।
  • न्यायालय ने इस तथ्य पर प्रकाश डाला कि मनी लॉन्ड्रिंग एक आम घटना बन गई है। यदि इस तथ्य के साक्ष्य हैं कि प्राप्तकर्ता ने धन के स्रोत को छिपाने का प्रयास किया या जानबूझकर दोषपूर्ण कृत्य करने के तरीकों से धन हस्तांतरित करने में भाग लिया, तो यह आपराधिक गतिविधि में शामिल होने का परिस्थितिजन्य साक्ष्य बनाता है।
  • न्यायालय ने पाया कि जमा के बाद आवेदकों की संलिप्तता, ज्ञान एवं कार्यवाहियों से संकेत मिलता है कि वे धोखाधड़ी के साधनों का उपयोग करके पंजीकृत GST फर्मों के साथ लेनदेन के संबंध में संजय ढींगरा के साथ अच्छी तरह से जुड़े हुए थे।
  • न्यायालय ने कहा कि फर्जी GST फर्मों के साथ लेनदेन करने वाले सभी आरोपियों का आशय धोखाधड़ी से इनपुट टैक्स क्रेडिट का दावा करना था।
  • न्यायालय ने पाया कि प्रथम दृष्टया आरोपियों के विरुद्ध संबंधित धाराओं के अधीन अपराध गठित होते हैं तथा FIR दर्ज होने के बाद जाँच अधिकारी द्वारा पर्याप्त जाँच की गई है।
  • इन टिप्पणियों के मद्देनजर, न्यायालय ने कथित आर्थिक अपराधों की गंभीरता एवं षड़यंत्र में उनकी संलिप्तता का संकेत देने वाले साक्ष्यों पर विचार करते हुए आवेदकों को ज़मानत देने से मना कर दिया।

ज़मानत के संबंध में विधिक प्रावधान क्या हैं?

ज़मानत की अवधारणा:

  • ज़मानत, CrPC और अब BNSS के अंतर्गत एक विधिक प्रावधान है जो प्रतिभू जमा करने पर लंबित मुकदमे या अपील के दौरान जेल से रिहाई की सुविधा प्रदान करता है।
  • CrPC की धारा 436 के अनुसार ज़मानती अपराध ज़मानत के अधिकार की गारंटी देते हैं (यह धारा अब BNSS की धारा 478 के अंतर्गत आती है), जबकि गैर-ज़मानती अपराध न्यायालयों या नामित पुलिस अधिकारियों को विवेकाधिकार प्रदान करते हैं, जैसा कि धारा 437 में उल्लिखित है।
  • राजस्थान राज्य बनाम बालचंद (1977) के मामले में न्यायमूर्ति वी. आर. कृष्ण अय्यर ने माना कि मूल नियम ज़मानत है, जेल नहीं। यह एक अवधारणा को संदर्भित करता है जो है 'ज़मानत एक अधिकार है तथा जेल एक अपवाद है"।

BNSS की धारा 480(1):

  • यह धारा गैर-ज़मानती अपराध के मामले में ज़मानत कब ली जा सकती है, इससे संबंधित प्रावधानों को उल्लिखित करती है।
  • धारा (1) में प्रावधानित किया गया है कि यदि किसी व्यक्ति पर किसी गैर-ज़मानती अपराध का आरोप है तथा उसे बिना वारंट के गिरफ्तार या अभिरक्षा में लिया गया है, तो उसे ज़मानत पर रिहा किया जा सकता है, सिवाय इसके कि:
    • खंड (1) में कहा गया है कि ऐसे व्यक्ति को रिहा नहीं किया जाएगा यदि विचाराधीन कैदी को अधिकतम अवधि तक अभिरक्षा में रखने के लिये उचित आधार परिलक्षित होते हैं। गैर-ज़मानती अपराध के मामले में ज़मानत कब ली जा सकती है। यह मानते हुए कि वह मृत्यु या आजीवन कारावास से दण्डनीय अपराध का दोषी है।
    • खंड (2) में कहा गया है कि ऐसे व्यक्ति को इस प्रकार रिहा नहीं किया जाएगा यदि ऐसा अपराध एक संज्ञेय अपराध है तथा उसे पहले मृत्युदण्ड, आजीवन कारावास या सात वर्ष या उससे अधिक के कारावास से दण्डनीय अपराध के लिये दोषी ठहराया जा चुका है, या उसे पहले दो या अधिक अवसरों पर तीन वर्ष या उससे अधिक लेकिन सात वर्ष से कम के कारावास से दण्डनीय संज्ञेय अपराध के लिये दोषी ठहराया जा चुका है।
    • यह प्रावधान है कि उपरोक्त धाराओं के अधीन अभिरक्षा में लिये गए व्यक्ति को ज़मानत पर रिहा किया जा सकता है, यदि वह व्यक्ति बच्चा, महिला या बीमार या अशक्त है।
    • इसके अतिरिक्त, धारा (ii) के अंतर्गत व्यक्ति को ज़मानत पर रिहा किया जा सकता है, यदि न्यायालय ऐसा करना उचित एवं विधिसंगत समझे।
    • यह भी प्रावधान है कि केवल यह तथ्य कि किसी अभियुक्त व्यक्ति को जाँच के दौरान साक्षियों द्वारा पहचाने जाने या प्रथम पंद्रह दिन से अधिक समय तक पुलिस अभिरक्षा में रखने की आवश्यकता हो सकती है, ज़मानत देने से मना करने के लिये पर्याप्त आधार नहीं होगा, यदि वह अन्यथा ज़मानत पर रिहा होने का अधिकारी है तथा यह वचन देता है कि वह न्यायालय द्वारा दिये गए निर्देशों का पालन करेगा।
    • यह भी उपबंध है कि यदि किसी व्यक्ति द्वारा किया गया कथित अपराध मृत्युदण्ड, आजीवन कारावास या सात वर्ष या उससे अधिक के कारावास से दण्डनीय है तो उसे इस उपधारा के अधीन न्यायालय द्वारा लोक अभियोजक को सुनवाई का अवसर दिये बिना ज़मानत पर रिहा नहीं किया जाएगा।

सिविल कानून

न्यायिक तटस्थता का सिद्धांत

 14-Oct-2024

राजेश कुमार गुप्ता बनाम राजेंद्र एवं अन्य।

"न्यायिक तटस्थता का सिद्धांत घरेलू एवं अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता कार्यवाही दोनों के लिये आवश्यक है।"

न्यायमूर्ति सुब्रमण्यम प्रसाद

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सुब्रमण्यम प्रसाद की अध्यक्षता में न्यायालय ने घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता दोनों में न्यायिक तटस्थता के महत्त्वपूर्ण सिद्धांत को अवधारित किया है। माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 (A & C अधिनियम) की धारा 11(5) के अंतर्गत दायर याचिका में एकमात्र मध्यस्थ की नियुक्ति की मांग की गई है।

राजेश कुमार गुप्ता बनाम राजेंद्र एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • 24 नवंबर 2005 को राजेश कुमार गुप्ता (याचिकाकर्त्ता) और राजेंद्र एवं अन्य (प्रतिवादी) ने बिक्री और खरीद के लिये एक करार किया।
  • यह करार दिल्ली के खेड़ा कलां गांव की विस्तारित लाल डोरा आबादी के अंदर स्थित 300 वर्ग गज के एक औद्योगिक भूखंड से संबंधित था।
  • करार के साथ अतिरिक्त दस्तावेज भी संलग्न थे, जिनमें जनरल पावर ऑफ अटॉर्नी, अलग से वसीयतनामा, शपथ पत्र, रसीद एवं कब्ज़ा पत्र शामिल थे, सभी 24 नवंबर 2005 के हैं।
  • विषयगत भूखंड मूल रूप से 6 मई 2005 को प्रतिवादियों को आवंटित किया गया था, तथा बाद में आवंटन के छह महीने के अंदर याचिकाकर्त्ता को बेच दिया गया था।
  • 10 दिसंबर 2007 को, मूल खसरा नंबर 108/357 (0-06) प्रतिवादियों से वापस ले लिया गया था, तथा उन्हें इसके स्थान पर खसरा नंबर 108/176 (0-06) आवंटित किया गया था।
  • 10 अगस्त 2020 को याचिकाकर्त्ता को पता चला कि विषयगत भूखंड किसी अज्ञात तीसरे पक्ष के कब्जे में था, जिसने दावा किया कि प्रतिवादियों से वापसी के बाद यह उन्हें आवंटित किया गया था।
  • याचिकाकर्त्ता ने 27 अगस्त 2020 को प्रतिवादियों को एक मांग के साथ कानूनी नोटिस भेजा, जिसमें हुए नुकसान के लिये मुआवजे की मांग की गई।
  • प्रतिवादियों ने 11 सितंबर 2020 को जवाब दिया, जिसमें 24 नवंबर 2005 को बिक्री और खरीद के समझौते के निष्पादन से मना किया गया।
  • इसके बाद, याचिकाकर्त्ता ने माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 11(5) के अंतर्गत एक याचिका दायर की, जिसमें पक्षों के बीच विवादों का निपटान के लिये एकमात्र मध्यस्थ की नियुक्ति की मांग की गई।
  • याचिकाकर्त्ता का दावा मुख्य रूप से प्लॉट के लिये भुगतान की गई प्रतिफल राशि की वापसी के लिये है।
  • प्रतिवादियों ने परिसीमा तथा गैर-मध्यस्थता के आधार पर याचिका का विरोध किया, यह तर्क देते हुए कि दावा का समय-बाधित है तथा इसमें तीसरे पक्ष के अधिकार शामिल हैं।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने पुष्टि की कि मध्यस्थता कार्यवाही में न्यायिक तटस्थता का सिद्धांत घरेलू एवं अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता दोनों के लिये मौलिक है।
  • न्यायालय ने कहा कि इस स्तर पर इसकी भूमिका मध्यस्थता करार के अस्तित्व को निर्धारित करने तक सीमित है, न कि मूल मुद्दों पर गहराई से विचार करने तक।
    • न्यायालय ने कहा कि एक बार मध्यस्थता करार हो जाने के बाद, पक्षों के लिये सिविल न्यायालय में जाने का विकल्प उपलब्ध नहीं होता।
  • न्यायालय ने कहा कि यदि वह मध्यस्थता करार के अस्तित्व से परे मुद्दों की जाँच करता है, तो यह मध्यस्थ अधिकरण की शक्ति का अतिक्रमण होगा।
  • न्यायालय ने कहा कि परिसीमा एवं तीसरे पक्ष के अधिकार जैसे मामलों को मध्यस्थ द्वारा तय किये जाने के लिये छोड़ दिया जाना चाहिये।
  • न्यायालय ने कहा कि यदि दावा तुच्छ या परिसीमा द्वारा वर्जित पाया जाता है, तो मध्यस्थ के पास दावेदार पर लागत लगाने की शक्ति है।
  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि इस स्तर पर न्यायिक हस्तक्षेप न्यूनतम होना चाहिये, जो कि मध्यस्थ स्वायत्तता के सिद्धांतों के अनुरूप हो।
  • न्यायालय ने कहा कि मध्यस्थ के समक्ष कार्यवाही दोनों पक्षों को परिसीमा एवं मध्यस्थता सहित सभी मुद्दों पर अपना पक्ष रखने का पर्याप्त अवसर प्रदान करेगी।

न्यायिक तटस्थता का सिद्धांत क्या है?

  • न्यायिक तटस्थता का सिद्धांत आधुनिक मध्यस्थता विधि का केंद्रीय सिद्धांत है, जिसका उद्देश्य मध्यस्थता प्रक्रिया की स्वायत्तता को संरक्षित करना एवं न्यायालयी हस्तक्षेप को न्यूनतम करना है।
  • अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता में:
    • न्यूयॉर्क कन्वेंशन एवं UNCITRAL मॉडल विधान जैसे प्रमुख सम्मेलनों में न्यायालय के हस्तक्षेप को विशिष्ट मामलों तक सीमित करके इस सिद्धांत को सुनिश्चित किया गया है।
    • UNCITRAL मॉडल विधान के अनुच्छेद 5 में कहा गया है: "इस विधान द्वारा शासित मामलों में, कोई भी न्यायालय हस्तक्षेप नहीं करेगा, सिवाय इसके कि इस विधान में ऐसा प्रावधान हो।"
    • इस सिद्धांत का उद्देश्य प्रक्रियात्मक मामलों में पक्ष की स्वायत्तता एवं मध्यस्थ के विवेक को संरक्षित करना है।
  • भारतीय घरेलू मध्यस्थता में:
    • माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 में इस सिद्धांत को शामिल किया गया है, जिसे UNCITRAL मॉडल विधान के आधार पर बनाया गया है।
    • अधिनियम की धारा 5 में कहा गया है: "इस समय लागू किसी अन्य विधान में निहित किसी भी प्रावधान के बावजूद, इस भाग द्वारा शासित मामलों में, कोई भी न्यायिक प्राधिकरण हस्तक्षेप नहीं करेगा, सिवाय इसके कि इस भाग में ऐसा प्रावधान किया गया हो।"
    • अधिनियम का उद्देश्य न्यायालय के हस्तक्षेप को कम से कम करना है, इसे मध्यस्थों की नियुक्ति, अंतरिम उपाय प्रदान करने तथा सीमित आधारों पर पंचाटों को रद्द करने जैसे विशिष्ट क्षेत्रों तक सीमित करना है।
  • प्रमुख विधिक सिद्धांत:
    • न्यायालयों को मध्यस्थता में न्यायिक भूमिका के बजाय केवल प्रशासनिक भूमिका निभानी चाहिये।
    • न्यायिक हस्तक्षेप विधान में विशेष रूप से दिये गए मामलों तक ही सीमित होना चाहिये।
    • न्यायालयों को मध्यस्थ अधिकरणों की अपने अधिकार क्षेत्र पर निर्णय लेने की क्षमता का सम्मान करना चाहिये।
    • मध्यस्थ पंचाटों को रद्द करने या लागू करने से मना करने के आधारों की संकीर्ण रूप से निर्वचन किया जाना चाहिये।

माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 11(5) क्या है?

  • यह उस स्थिति में एकमात्र मध्यस्थ नियुक्त करने से संबंधित है जब पक्षकार सहमत होने में विफल होते हैं।
  • मध्यस्थ नियुक्त करने की प्राथमिक विधि पक्षों के बीच करार के माध्यम से होती है।
  • यदि पक्षकारों ने मध्यस्थ नियुक्त करने की प्रक्रिया पर पहले से सहमति नहीं जताई है, तो इस धारा में उल्लिखित प्रक्रिया लागू होती है।
  • ऐसे मामलों में जहाँ एकमात्र मध्यस्थ नियुक्त किया जाना है, पक्षों के पास मध्यस्थ पर सहमत होने के लिये दूसरे पक्ष से अनुरोध प्राप्त होने की तिथि से 30 दिन का समय होता है।
  • यदि पक्षकार इस 30-दिवसीय अवधि के अंदर किसी समझौते पर पहुँचने में विफल रहते हैं, तो कोई भी पक्ष मध्यस्थ की नियुक्ति के लिये आवेदन कर सकता है।
  • नियुक्ति के लिये आवेदन धारा 11 की उपधारा (4) में निहित प्रावधानों के अनुसार किया जाना चाहिये।
  • न्यायालय (या नामित प्राधिकारी) को ऐसे आवेदन पर नियुक्ति करने का अधिकार है।
  • इस प्रावधान का उद्देश्य मध्यस्थ पर सहमत होने में पक्षों की असमर्थता के कारण मध्यस्थता प्रक्रिया में गतिरोध को रोकना है।
  • 30 दिन की अवधि पक्षों के लिये न्यायालय के हस्तक्षेप की मांग करने से पहले एक समझौते पर पहुँचने का प्रयास करने के लिये एक उचित समय परिसीमा के रूप में कार्य करती है।
  • यह धारा मध्यस्थता में पक्ष स्वायत्तता के सिद्धांत को दर्शाती है, जो पक्षों को अपने मध्यस्थ को चुनने का प्राथमिक अधिकार देती है, साथ ही प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिये एक फ़ॉलबैक तंत्र भी प्रदान करती है।
  • इस धारा के अंतर्गत मध्यस्थ की नियुक्ति में न्यायालय की भूमिका न्यायिक के बजाय प्रशासनिक प्रकृति की होती है, जो मध्यस्थता में न्यूनतम न्यायिक हस्तक्षेप के सिद्धांत के अनुरूप है।

सिविल कानून

दिव्यांग व्यक्तियों के लिये आरक्षण का प्रावधान

 14-Oct-2024

नेशनल फेडरेशन ऑफ द ब्लाइंड बनाम गुजरात राज्य एवं अन्य

“वर्ष 2016 का अधिनियम देश में दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन को प्रभावी बनाने के लिये लाया गया है।”

मुख्य न्यायाधीश सुनीता अग्रवाल एवं न्यायमूर्ति प्रणव त्रिवेदी

स्रोत: गुजरात उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

मुख्य न्यायाधीश सुनीता अग्रवाल एवं न्यायमूर्ति प्रणव त्रिवेदी की पीठ ने कहा कि सरकार को इस भूल को सुधारना चाहिये तथा दिव्यांग व्यक्तियों को आरक्षण प्रदान करना चाहिये। 

  • गुजरात उच्च न्यायालय ने नेशनल फेडरेशन ऑफ द ब्लाइंड बनाम गुजरात राज्य एवं अन्य के मामले में यह निर्णय दिया।

नेशनल फेडरेशन ऑफ द ब्लाइंड बनाम गुजरात राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्तमान जनहित याचिका निम्नलिखित के कार्यान्वयन के एकमात्र उद्देश्य से दायर की गई है:
    • दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम, 2016 (RPWD अधिनियम) विशेष रूप से RPWD अधिनियम की धारा 34।
    • दिव्यांग व्यक्ति (समान अवसर, अधिकारों का संरक्षण एवं पूर्ण भागीदारी) अधिनियम,
    • 1995 (PWD अधिनियम), भारत संघ एवं अन्य बनाम राष्ट्रीय दृष्टिहीन संघ एवं अन्य (2013) में उच्चतम न्यायालय द्वारा 8 अक्टूबर 2013 को पारित निर्देश।
  • इस मामले में याचिकाकर्त्ता ने आरोप लगाया कि उच्चतम न्यायालय ने PWD अधिनियम की धारा 33 की व्याख्या इस प्रकार की है कि प्रत्येक उपयुक्त सरकार को किसी प्रतिष्ठान में न्यूनतम 3% रिक्तियों पर नियुक्ति करनी होती है, जिसमें से 1% अंधेपन एवं कम दृष्टि से पीड़ित लोगों, सुनने में बाधा से पीड़ित व्यक्तियों और चलने-फिरने में अक्षमता या मस्तिष्क पक्षाघात से पीड़ित व्यक्तियों के लिये आरक्षित होती हैं।
  • इसके अतिरिक्त, उच्चतम न्यायालय ने माना था कि आरक्षण की गणना कैडर की कुल स्वीकृत रिक्तियों के आधार पर की जाती है, न कि अधिसूचित पदों के आधार पर।
  • RPWD अधिनियम के अधिनियमन के साथ आरक्षण 3% से बढ़ाकर 4% कर दिया गया है तथा दो और बेंचमार्क दिव्यांगताएं शामिल की गई हैं।
  • इसके अतिरिक्त, अधिनियम की धारा 34 के अंतर्गत आगे ले जाने का सिद्धांत भी जोड़ा गया है।

भारत संघ एवं अन्य बनाम राष्ट्रीय दृष्टिहीन संघ एवं अन्य (2013) मामले में क्या निर्णय दिया गया?

  • उच्चतम न्यायालय द्वारा निम्नलिखित निर्देश जारी किये गये:
    • उपयुक्त सरकार को निर्देश दिया गया कि वह तीन महीने की अवधि के अंदर सभी प्रतिष्ठानों में उपलब्ध रिक्तियों की संख्या की गणना करे तथा दिव्यांग व्यक्तियों के लिये पदों की पहचान करे तथा बिना किसी चूक के इसे लागू करे।
    • दिव्यांग व्यक्तियों के लिये आरक्षण योजना का पालन न करने को गैर-आज्ञाकारिता का कार्य माना जाना चाहिये तथा विभाग/सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों/सरकारी कंपनियों में नोडल अधिकारी को दिव्यांग व्यक्तियों के लिये आरक्षण के उचित एवं सख्त कार्यान्वयन के लिये उत्तरदायी बनाया जाना चाहिये।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • गुजरात राज्य में 1995 का अधिनियम वर्ष 2000 में ही लागू किया गया था तथा वर्ष 1996 से 2000 के बीच 1995 के अधिनियम की धारा 33 के अनुपालन में कोई आरक्षण नहीं था। साथ ही, 2016 का अधिनियम 2021 में लागू किया गया।
  • न्यायालय ने पाया कि 1995 के अधिनियम एवं 2016 के अधिनियम के कार्यान्वयन के मामले में गुजरात सरकार के मुख्य सचिव के मन में गलतफहमी थी।
  • न्यायालय ने कहा कि अधिनियम के उपबंधों को तत्काल लागू किया जाना चाहिये, क्योंकि अधिनियम के गैर-कार्यान्वयन के परिणामस्वरूप गुजरात राज्य में दिव्यांग व्यक्तियों को आरक्षण के लाभ से वंचित होना पड़ेगा।
  • राज्य की ओर से उपस्थित विद्वान महाधिवक्ता ने न्यायालय को आश्वासन दिया कि राज्य सरकार उपर्युक्त दोनों अधिनियमों को लागू करने के लिये प्रतिबद्ध है।
  • संबंधित महाधिवक्ता ने न्यायालय को आश्वासन दिया है कि राज्य कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग, भारत सरकार के साथ समन्वय करेगा तथा बैकलॉग रिक्तियों की गणना करके और विशेष भर्ती अभियान आयोजित करने की योजना तैयार करके स्थिति को सुधारने का समाधान ढूंढेगा।
  • मामले की अगली सुनवाई 22 नवंबर 2024 को होगी।

आरक्षण के विभिन्न प्रकार क्या हैं?

  • इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ (1992) के मामले में उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने माना कि आरक्षण दो प्रकार के होते हैं:
    • क्षैतिज आरक्षण
    • ऊर्ध्वाधर आरक्षण
  • ऊर्ध्वाधर आरक्षण:
    • ये विशेष उपबंधों का उच्चतम रूप हैं जो विशेष रूप से पिछड़े वर्गों SC, ST एवं OBC के सदस्यों के लिये हैं।
    • इन वर्गों के सदस्यों द्वारा उनकी योग्यता के आधार पर प्राप्त पदों को ऊर्ध्वाधर आरक्षित पदों में नहीं गिना जाता है।
    • ये 50% से अधिक नहीं हो सकते।
  • क्षैतिज आरक्षण:
    • वे विशेष उपबंधों का कमतर रूप हैं तथा अन्य वंचित नागरिकों (जैसे दिव्यांग, महिलाएँ आदि) के लिये हैं।
    • उनके माध्यम से समायोजन पिछड़े वर्गों के लिये उर्ध्वगामी आरक्षित सीटों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता है।

दिव्यांग व्यक्तियों के संबंध में आरक्षण के प्रावधान क्या हैं?

दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम, 2016

  • धारा 32:
    • यह उपबंध उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण का प्रावधान करता है।
    • इसमें प्रावधान है कि उच्च शिक्षा के सभी सरकारी संस्थान (सरकार से सहायता प्राप्त करने वाले संस्थानों सहित) बेंचमार्क दिव्यांगता वाले व्यक्तियों के लिये कम से कम 5% सीटें आरक्षित रखेंगे।
  • धारा 33:
    • इस उपबंध में यह प्रावधान है कि उपयुक्त सरकार संबंधित श्रेणी में ऐसे पदों की पहचान करेगी जिनमें आरक्षण दिया जाना चाहिये।
  • धारा 34
    • खंड (1) में यह प्रावधान है कि प्रत्येक समुचित सरकार प्रत्येक सरकारी प्रतिष्ठान में पदों के प्रत्येक समूह में कैडर संख्या की कुल रिक्तियों की कम से कम 4% संख्या बेंचमार्क दिव्यांगता वाले व्यक्तियों से भरेगी।
    • उपर्युक्त पदों में से 1% निम्नलिखित श्रेणियों के अंतर्गत आने वाले व्यक्तियों के लिये आरक्षित रहेंगे:
      • अंधापन एवं अल्प दृष्टि
      • बधिर एवं अल्प बधिर
      • चलने-फिरने में अक्षमता जिसमें सेरेब्रल पाल्सी, ठीक हो चुके कुष्ठ रोग, बौनापन, एसिड अटैक पीड़ित और मस्कुलर डिस्ट्रॉफी शामिल हैं
    • इसके अतिरिक्त, 1% निम्नलिखित के लिये आरक्षित रहेगा:
      • ऑटिज्म, बौद्धिक दिव्यांगता, विशिष्ट अधिगम दिव्यांगता एवं मानसिक बीमारी।
      • खण्ड (a) से (d) (ऊपर उल्लेखित) के अंतर्गत व्यक्तियों में से प्रत्येक दिव्यांगता के लिये पहचाने गए पदों में बधिर-अंधापन सहित एकाधिक दिव्यांगताएँ।
    • धारा 34 के खंड 2 में अपूर्ण पदों की स्थिति में अग्रसर होने का नियम दिया गया है।
    • धारा 34 के खंड 3 में यह प्रावधान है कि बेंचमार्क दिव्यांगता वाले व्यक्तियों के रोजगार के लिये ऊपरी आयु सीमा में छूट दी जा सकती है।

दिव्यांग व्यक्ति (समान अवसर, अधिकारों का संरक्षण एवं पूर्ण भागीदारी) अधिनियम, 1995 (PWD अधिनियम)

  • धारा 32:
    • धारा 32 में प्रावधान है कि युक्तियुक्त सरकार
    • प्रतिष्ठानों में ऐसे पदों की पहचान करें, जिन्हें दिव्यांग व्यक्तियों के लिये आरक्षित किया जा सकता है।
    • तीन वर्ष से अधिक नहीं के आवधिक अंतराल पर, पहचाने गए पदों की सूची की समीक्षा करें तथा प्रौद्योगिकी के विकास को ध्यान में रखते हुए सूची को अद्यतन करें।
  • धारा 33
    • धारा 33 में उल्लिखित दिव्यांगताओं से पीड़ित व्यक्तियों को दिये जाने वाले आरक्षण का प्रतिशत प्रदान किया गया है।
    • प्रत्येक समुचित सरकार प्रत्येक प्रतिष्ठान में दिव्यांगता वाले व्यक्तियों या व्यक्तियों के वर्ग के लिये कम से कम तीन प्रतिशत रिक्तियां नियुक्त करेगी, जिनमें से एक प्रतिशत निम्नलिखित से पीड़ित व्यक्तियों के लिये आरक्षित होगा-
      • अंधापन या अल्प दृष्टि;
      • अल्प बधिर
      • लोको मोटर दिव्यांगता या सेरेब्रल पाल्सी, प्रत्येक दिव्यांगता के लिये पहचाने गए पदों में:
    • बशर्ते कि समुचित सरकार किसी विभाग या स्थापन में किये जाने वाले कार्य के प्रकार को ध्यान में रखते हुए, अधिसूचना द्वारा, ऐसी शर्तों के अधीन, यदि कोई हों, जो ऐसी अधिसूचना में विनिर्दिष्ट की जाएँ, किसी स्थापन को इस धारा के उपबंधों से छूट दे सकेगी।
  • धारा 39:
    • सभी सरकारी शैक्षणिक संस्थान एवं सरकार से सहायता प्राप्त करने वाले अन्य शैक्षणिक संस्थान, दिव्यांग व्यक्तियों के लिये कम से कम तीन प्रतिशत सीटें आरक्षित रखेंगे।
  • धारा 40:
    • समुचित सरकारें एवं स्थानीय प्राधिकारी दिव्यांग व्यक्तियों के लाभ के लिये सभी गरीबी उन्मूलन योजनाओं में कम से कम तीन प्रतिशत धनराशि आरक्षित रखेंगे।