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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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सिविल कानून

प्रतिकूल कब्ज़ा के लिये प्रावधानित विधि

 16-Oct-2024

नीलम गुप्ता एवं अन्य बनाम राजेंद्र कुमार गुप्ता एवं अन्य

"प्रतिकूल कब्जे के लिये परिसीमा अवधि तब प्रारंभ होती है जब कब्जा प्रतिकूल हो जाता है, तब नहीं जब वादी ने स्वामित्व प्राप्त कर लिया हो।"

न्यायमूर्ति सी.टी. रविकुमार एवं न्यायमूर्ति संजय कुमार

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रतिकूल कब्जे द्वारा स्वामित्व सिद्ध करने की परिसीमा अवधि तब से प्रारंभ होती है जब प्रतिवादी का कब्ज़ा प्रतिकूल हो जाता है, न कि तब से जब वादी को स्वामित्व प्राप्त होता है। यह निर्णय ऐसे मामले में आया जहाँ 1968 से प्रतिकूल कब्जे का दावा करने वाले प्रतिवादी ने तर्क दिया कि 1986 के बेदखली मुकदमे की परिसीमा समाप्त हो चुकी थी।

  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि स्वामित्व की तिथि के बजाय कब्जे की प्रकृति पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिये।
  • न्यायमूर्ति सी.टी. रविकुमार एवं संजय कुमार ने नीलम गुप्ता एवं अन्य बनाम राजेंद्र कुमार गुप्ता एवं अन्य के मामले में कहा।

नीलम गुप्ता एवं अन्य बनाम राजेंद्र कुमार गुप्ता एवं अन्य की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • मूल वादी ने 1986 में कृषि भूमि पर कब्जे की वसूली के लिये एक सिविल वाद संस्थित किया था, जिसमें 1968 के पंजीकृत बिक्री विलेख के आधार पर स्वामित्व का दावा किया गया था।
  • प्रतिवादियों ने वाद का विरोध करते हुए दावा किया कि भूमि संयुक्त परिवार की संपत्ति थी जिसे 1963 में एक रिश्तेदार के नाम पर खरीदा गया था।
    • उन्होंने आरोप लगाया कि 1976 में मौखिक बंटवारे के अंतर्गत यह जमीन उन्हें आवंटित की गई थी।
  • प्रतिवादियों ने यह भी दावा किया कि 1968 से ही वे भूमि पर प्रतिकूल कब्जे में हैं, तथा वादी का मुकदमा परिसीमा के कारण वर्जित है, क्योंकि यह 12 वर्ष बाद दायर किया गया था।
  • ट्रायल कोर्ट ने वाद संस्थित कर दिया, तथा कहा कि भूमि संयुक्त परिवार की संपत्ति है तथा वाद परिसीमा के अंतर्गत समाप्त हो चुका है।
  • अपील पर, प्रथम अपीलीय न्यायालय ने इस निष्कर्ष को पलट दिया कि यह संयुक्त परिवार की संपत्ति थी, लेकिन फिर भी समय बीत जाने के कारण वाद को खारिज कर दिया।
  • वादी ने उच्च न्यायालय में अपील की, जिसने अधीनस्थ न्यायालयों के निर्णय को पलट दिया तथा वादी के पक्ष में वाद चलाने का आदेश दिया।
  • इसके बाद प्रतिवादियों ने उच्च न्यायालय के निर्णय को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय में अपील की। ​​
  • उच्चतम न्यायालय के समक्ष मुख्य मुद्दे थे:
    • क्या प्रतिवादियों ने प्रतिकूल कब्ज़ा स्थापित किया था?
    • परिसीमा अवधि की गणना के लिये सही प्रारंभिक बिंदु?
    • क्या प्रतिवादियों द्वारा पट्टेदार होने की पूर्व स्वीकृति ने उनके प्रतिकूल कब्ज़े के दावे को प्रभावित किया?

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि प्रतिकूल कब्जे के माध्यम से स्वामित्व सिद्ध करने की परिसीमा प्रतिवादी के प्रतिकूल कब्जे की तिथि से प्रारंभ होती है, न कि उस समय से जब वादी स्वामित्व का अधिकार प्राप्त करता है।
  • न्यायालय ने कहा कि एक बार जब वादी वाद की संपत्ति पर अपना स्वामित्व सिद्ध कर देता है, तो प्रतिकूल कब्जे का दावा करने वाले प्रतिवादी पर यह स्थापित करने का दायित्व होता है कि उन्होंने प्रतिकूल कब्जे के माध्यम से स्वामित्व को पूर्ण किया है।
  • न्यायालय ने कहा कि परिसीमा अधिनियम, 1963 के अनुच्छेद 65 के अनुसार, परिसीमा का प्रारंभिक बिंदु उस तिथि से प्रारंभ नहीं होता है जब वादी के लिये स्वामित्व का अधिकार उत्पन्न होता है, बल्कि उस तिथि से प्रारंभ होता है जब प्रतिवादी का कब्जा प्रतिकूल हो जाता है।
  • न्यायालय ने कहा कि जब प्रतिवादी पट्टेदार के रूप में वाद की संपत्ति पर कब्जा कर रहा था, तो वे संपत्ति पर प्रतिकूल कब्जे का दावा नहीं कर सकते थे, क्योंकि प्रतिवादी के कब्जे को केवल 'अनुमेय कब्जा' कहा जा सकता है।
  • न्यायालय ने दोहराया कि किरायेदार या पट्टेदार अपने मकान मालिक/पट्टादाता के विरुद्ध प्रतिकूल कब्जे का दावा नहीं कर सकते, क्योंकि उनके कब्जे की प्रकृति अनुमेय है।
  • न्यायालय ने पाया कि प्रतिवादी उस समय को स्थापित करने में विफल रहे, जब से उनका कब्जा वादी के स्वामित्व के प्रतिकूल हो गया, जो कि निर्धारित अवधि के लिये सदैव उपलब्ध होना चाहिये।
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि इस मामले में प्रतिवादियों द्वारा प्रतिकूल कब्जे का गठन करने की आवश्यकताओं को स्थापित नहीं किया गया था।

प्रतिकूल कब्ज़ा क्या है?

  • प्रतिकूल कब्ज़ा एक विधिक सिद्धांत है जो किसी व्यक्ति को सांविधिक रूप से प्रावधानित अवधि के लिये मालिक की अनुमति के बिना लगातार उस पर कब्ज़ा करके अचल संपत्ति का स्वामित्व प्राप्त करने की अनुमति देता है।
  • यह अवधारणा मुख्य रूप से 1963 के परिसीमा अधिनियम द्वारा शासित है, जो निजी संपत्ति के लिये 12 वर्ष एवं सरकारी स्वामित्व वाली भूमि के लिये 30 वर्ष की सांविधिक अवधि प्रावधानित करता है।
  • 22वें विधि आयोग की हालिया रिपोर्ट प्रतिकूल कब्ज़े एवं संपत्ति संबंधी विधि में इसके निहितार्थों की सूक्ष्म जाँच प्रदान करता है तथा अनुशंसा करती है कि 1963 के परिसीमा अधिनियम के अंतर्गत मौजूदा प्रावधानों में कोई परिवर्तन आवश्यक नहीं है।
    • प्रतिकूल कब्जे की अवधारणा इस विचार से उत्पन्न होती है कि भूमि को खाली नहीं छोड़ा जाना चाहिये, बल्कि उसका विवेकपूर्ण उपयोग किया जाना चाहिये।
  • कब्ज़ा वास्तविक स्वामी के अधिकारों के "प्रतिकूल" होना चाहिये, जिसका अर्थ है कि स्वामी की सहमति के बिना और स्वामी के अधिकारों के साथ असंगत तरीके से संपत्ति पर कब्ज़ा करना चाहिये।
  • यदि सभी तत्त्व पूरे हो जाते हैं, तो संपत्ति को पुनः प्राप्त करने का मूल स्वामी का अधिकार समाप्त हो जाता है, तथा प्रतिकूल कब्जेदार को विधिक शीर्षक प्राप्त होता है।
  • यह सिद्धांत भूमि के उत्पादक उपयोग को बढ़ावा देने, लापरवाह भूमि मालिकों को दण्डित करने तथा विस्तारित अवधि के बाद संपत्ति के स्वामित्व में निश्चितता प्रदान करने का कार्य करता है।
  • न्यायालयों ने लगातार माना है कि सार्वजनिक उद्देश्यों के लिये सरकार द्वारा रखी गई संपत्ति के विरुद्ध प्रतिकूल कब्जे का दावा नहीं किया जा सकता है, तथा सभी तत्त्वों को सिद्ध करने का भार प्रतिकूल कब्जे का दावा करने वाले व्यक्ति पर है।
    • यदि मूल स्वामी प्रतिकूल कब्जे के कारण अपने अधिकार खो देता है, तो संपत्ति उस व्यक्ति को अंतरित कर दी जानी चाहिये जिसका उस पर कब्जा था तथा जिसका उसमें हित है।

प्रतिकूल कब्जे के आवश्यक तत्त्व क्या हैं?

  • वास्तविक स्वामित्व
    • एक सच्चे स्वामी की तरह संपत्ति पर भौतिक कब्ज़ा या उसका उपयोग।
  • सार्वजनिक स्वामित्व:
    • दृश्यमान एवं स्पष्ट स्वामित्व, छिपा हुआ या गुप्त नहीं।
  • स्वामित्व की सार्वजनिक पहचान :
    • समुदाय में यह तथ्य इतनी व्यापक रूप से ज्ञात हो जाती है कि अन्य लोग अतिचारी को ही वास्तविक स्वामी के रूप में पहचान लेते हैं।
  • पक्षद्रोही:
    • वास्तविक स्वामी की अनुमति के बिना कब्जा करना, उनके अधिकारों का उल्लंघन है।
  • विशिष्टता:
    • वास्तविक स्वामी एवं अन्य को छोड़कर, अतिचारी का एकमात्र नियंत्रण।
  • सतत:
    • संपूर्ण सांविधिक अवधि के लिये निर्बाध कब्जा (जैसे, निजी भूमि के लिये 12 वर्ष, सरकारी भूमि के लिये 30 वर्ष)।

प्रतिकूल कब्जे से संबंधित महत्त्वपूर्ण प्रावधान क्या हैं?

  • परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 65, प्रथम अनुसूची:
    • अचल संपत्ति या उसमें स्वामित्व के आधार पर किसी हित के कब्जे के लिये मुकदमों के लिये 12 वर्ष की परिसीमा अवधि लागू करता है।
  • परिसीमा अधिनियम की धारा 27:
    • प्रतिकूल कब्जे के सिद्धांत के अपवाद के रूप में कार्य करता है।
    • यदि कोई व्यक्ति निर्दिष्ट समय अवधि के अंदर कब्जे की वसूली के लिये वाद संस्थित करने में विफल रहता है, तो संपत्ति पर कब्जा या स्वामित्व प्राप्त करने का उनका अधिकार समाप्त हो जाता है।
  • साक्ष्य का भार:
    • परिसीमा अधिनियम, 1963 ने प्रतिकूल कब्जे के दावेदार पर साक्ष्य का भार डाल दिया।
    • प्रतिकूल कब्जे के माध्यम से स्वामित्व का दावा करने वाले व्यक्ति को अपना दावा सिद्ध करना होगा।
  • स्वामित्व का अधिग्रहण:
    • परिसीमा अधिनियम, 1963 के अंतर्गत:
      • निजी भूमि के लिये: 12 वर्षों से अधिक समय तक कब्जे में रहने पर स्वामित्व प्राप्त हो सकता है।
      • सरकारी भूमि के लिये: 30 वर्षों से अधिक समय तक कब्जे में रहने पर स्वामित्व प्राप्त हो सकता है।
  • ऐतिहासिक संदर्भ:
    • परिसीमा अधिनियम, 1908 (1963 अधिनियम के पूर्ववर्ती) के अनुच्छेद 142 एवं 144 के अनुसार याचिकाकर्त्ता को 12 वर्षों की निरंतर अवधि के लिये वास्तविक स्वामित्व सिद्ध करना आवश्यक था।

प्रतिकूल कब्जे के मामले पर आधारित ऐतिहासिक निर्णय क्या हैं?

  • कर्नाटक वक्फ बोर्ड बनाम भारत सरकार (2004):
    • यह अवधारित किया गया है कि जब तक कोई व्यवधान न हो, तब तक स्वामी को संपत्ति पर नियंत्रण रखने वाला माना जाता है।
    • स्वामी द्वारा लंबे समय तक संपत्ति का उपयोग न करने से स्वामित्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
    • हालाँकि, अगर कोई अन्य व्यक्ति संपत्ति पर अधिकार का दावा करता है तथा स्वामी वर्षों तक विधिक कार्यवाही करने में विफल रहता है, तो स्थिति बदल सकती है।
  • अमरेंद्र प्रताप सिंह बनाम तेज बहादुर प्रजापति:
    • प्रतिकूल कब्जे को इस प्रकार परिभाषित किया जाता है कि जब कोई व्यक्ति बिना किसी अधिकार के किसी अन्य की संपत्ति पर कब्जा कर लेता है, स्वामित्व का दावा करते हुए कब्जा जारी रखता है, तथा 12 वर्षों के बाद वास्तविक स्वामी की निष्क्रियता के कारण स्वामित्व प्राप्त कर लेता है।
  • मल्लिकार्जुनैया बनाम नंजैया:
    • स्पष्ट किया गया कि प्रतिकूल कब्जे के लिये केवल निरंतर कब्जा पर्याप्त नहीं है।
    • कब्जा खुला, शत्रुतापूर्ण, अनन्य होना चाहिये, तथा वास्तविक स्वामी के ज्ञान के अनुसार स्वामित्व अधिकारों का दावा होना चाहिये।

सिविल कानून

माता-पिता का भरण-पोषण के लिये बेटी भी उत्तरदायी

 16-Oct-2024

संगीता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य

“आवेदक अपनी मां के प्रति अपना उत्तरदायित्व का निर्वहन करेगी तथा चिकित्सा व्यय की बकाया राशि का कम से कम 25% भुगतान करेगी।”

न्यायमूर्ति सौरभ श्याम शमशेरी

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति सौरभ श्याम शमशेरी की पीठ ने कहा कि बेटी का दायित्व अपनी मां का भरण-पोषण करना है।

  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने संगीता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य मामले में यह निर्णय दिया।

संगीता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में आवेदक एवं विपक्षी पक्षकार थे, जो आवेदक की मां है। उच्च न्यायालय ने पहले 14 अगस्त 2024 को एक आदेश पारित किया था,
  • जिसके अंतर्गत न्यायालय ने कहा था कि चूंकि विपक्षी आवेदक की मां है, इसलिये समझौते की संभावना है। इस प्रकार, न्यायालय ने विपक्षी पक्ष को शीघ्र उत्तर देने के लिये नोटिस जारी किया।
  • इस मामले में शिकायतकर्त्ता को इस्पात अस्पताल भाठा रोड, गोसाईंटोला, रांची, दक्षिण छोटा नागपुर डिवीजन, झारखंड में भर्ती कराया गया था।
  • दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC ) की धारा 482 के अंतर्गत आवेदन दायर किया गया था, जिसमें कुटुंब न्यायालय के आदेश को चुनौती दी गई थी, जिसमें बेटी को मां के भरण-पोषण के लिये  8000 रुपये प्रति माह देने का निर्देश दिया गया था।
  • इस प्रकार, यह मामला इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष था।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • आवेदक ने कहा कि वह अस्पताल में अपनी मां से मिलने जाएगी तथा उनसे एक मां के रूप में मिलेगी, न कि एक प्रतिद्वंद्वी के रूप में।
  • आवेदक बेटी को यह भी निर्देश दिया गया कि वह अस्पताल में भर्ती अपनी मां पर हुए चिकित्सा व्यय की बकाया राशि का कम से कम 25% भुगतान करके अपनी मां के प्रति अपना उत्तरदायित्व का निर्वहन करे।
  • न्यायालय ने इस मामले में दोनों पक्षों को इस मुद्दे को सुलझाने का प्रयास करने की सलाह भी दी। इस संबंध में न्यायालय ने रहीम के एक दोहे एवं तैत्तिरीय उपनिषद की शिक्षाओं का भी उदाहरण दिया।

भरण-पोषण क्या है?

  • भरण-पोषण सामान्यतया जीवन के लिये आवश्यक वस्तुओं का व्यय निहित होता है। हालाँकि, यह केवल दावेदार के जीवित रहने का अधिकार नहीं है।
  • हिंदू दत्तक ग्रहण एवं भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 3(b) के अंतर्गत 'भरण-पोषण' शब्द को भी परिभाषित किया गया है।
  • इसमें भोजन, कपड़े, आश्रय एवं शिक्षा और चिकित्सा व्यय जैसी मूलभूत आवश्यकताओं का प्रावधान शामिल है।

माता-पिता के भरण-पोषण के संबंध में क्या प्रावधान हैं?

  • हिंदू दत्तक ग्रहण एवं भरण-पोषण अधिनियम, 1956 (HAMA)
    • धारा 20 में बच्चों और वृद्ध माता-पिता के भरण-पोषण का प्रावधान है।
    • HAMA की धारा 20 (1) में प्रावधान है कि एक हिंदू अपने वृद्ध या अशक्त माता-पिता का भरण-पोषण करने के लिये बाध्य है।
    • इसके अतिरिक्त, HAMA की धारा 20 (3) में प्रावधान है कि अशक्त माता-पिता का भरण-पोषण करने का दायित्व केवल उस सीमा तक है, जब तक अशक्त माता-पिता अपने द्वारा अर्जित संपत्ति या अन्य संपत्ति से अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं।
  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS )
    • माता-पिता को भरण-पोषण देने का प्रावधान BNSS की धारा 144 में निहित है। इससे पहले यह दण्ड  प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC ) की धारा 125 में पाया गया था।
    • CrPC की धारा 125 (1) और BNSS की धारा 144 (1) में प्रावधान है कि पर्याप्त साधन रखने वाला कोई व्यक्ति यदि किसी विशेष श्रेणी के व्यक्ति का भरण-पोषण करने में उपेक्षा कारित करता है या मना करता है, तो उसे भरण-पोषण देने का आदेश दिया जा सकता है।
    • जिन व्यक्तियों का भरण-पोषण करने के लिये कोई व्यक्ति बाध्य है, उनमें "उसका पिता या माता सम्मिलित है, जो स्वयं का भरण-पोषण करने में असमर्थ है"।
    • यह धर्मनिरपेक्ष है तथा सभी नागरिकों पर लागू होता है।
  • माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण एवं कल्याण अधिनियम, 2007 (MWPS)
    • अधिनियम की धारा 4 में माता-पिता एवं वरिष्ठ नागरिकों के भरण-पोषण के संबंध में प्रावधान किया गया है।
    • धारा 4 (1) में प्रावधान है कि माता-पिता सहित कोई वरिष्ठ नागरिक जो अपनी अर्जित संपत्ति या अपनी संपत्ति से अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, वह धारा 5 के अंतर्गत आवेदन करने का अधिकारी होगा।
    • धारा 4 (1) के अंतर्गत जिन व्यक्तियों से भरण-पोषण मांगा जा सकता है, उनकी सूची इस प्रकार है:
      • माता-पिता या दादा-दादी के मामले में उनके एक या अधिक बच्चों के विरुद्ध आवेदन दायर किया जा सकता है, जो अप्राप्तवय नहीं हैं।
      • निःसंतान वरिष्ठ नागरिक के मामले में अधिनियम की धारा 2 (g) में निर्दिष्ट संबंधियों के विरुद्ध आवेदन दायर किया जा सकता है।
    • इसके अतिरिक्त , धारा 4 (3) में यह प्रावधान है कि माता-पिता के भरण-पोषण का दायित्व ऐसे माता-पिता (पिता या माता या दोनों) की आवश्यकताओं तक विस्तारित होता है, जैसा भी मामला हो, ताकि ऐसे माता-पिता सामान्य जीवन जी सकें।

क्या एक बेटी अपने माता-पिता का भरण-पोषण करने के लिये उत्तरदायी है?

  • इस मामले पर उच्चतम न्यायालय ने विजय मनोहर अर्बत बनाम काशीराम राजरा सवाई (1987) मामले में निर्णीत करते हुए कहा था।
    • इस मामले में तर्क यह था कि बेटी अपने माता-पिता का भरण-पोषण करने के लिये उत्तरदायी नहीं है, क्योंकि धारा 125 (1) (d) में प्रयुक्त शब्द "उसका पिता या माता" है।
    • न्यायालय ने माना कि शब्द 'उसका' शब्द की परिभाषा के अंतर्गत बेटी को दायित्व से मुक्त नहीं करता है।
    • CrPC की धारा 2 (y) में प्रावधान है कि यहाँ प्रयुक्त एवं परिभाषित नहीं किये गए शब्दों एवं अभिव्यक्तियों से वही तात्पर्य होगा जो भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) में दिया गया है।
    • IPC की धारा 8 में प्रावधान है कि सर्वनाम शब्द 'वह' एवं इसके व्युत्पन्नों में पुरुष व महिला दोनों सम्मिलित होंगे।
    • इस प्रकार IPC की धारा 8 को CrPC की धारा 2 (y) के साथ पढ़ने पर यह संकेत मिलता है कि धारा 125 (1) (d) में सर्वनाम शब्द 'उसका' में पुरुष व महिला दोनों शामिल हैं।
    • इसके अतिरिक्त न्यायालय ने यह भी माना कि बच्चों का नैतिक दायित्व है कि वे अपने माता-पिता का भरण-पोषण करें। यदि बेटियों को माता-पिता के भरण-पोषण के दायित्व से मुक्त कर दिया जाता है तो बेटा बेसहारा हो जाएगा।

सिविल कानून

आदेश XXI का नियम 99

 16-Oct-2024

रंजीत के.जी. एवं अन्य बनाम शीबा

"वह व्यक्ति जो डिक्री के लिये एक अजनबी माना जाता है, वह आदेश XXI नियम 99 CPC के अनुसार डिक्रीत संपत्ति में स्वतंत्र अधिकार, शीर्षक एवं हित के अपने दावे को बहुत अच्छी तरह से न्याय कर सकता है।"

न्यायमूर्ति पंकज मित्तल एवं न्यायमूर्ति आर. महादेवन

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, उच्चतम न्यायालय ने रंजीत के.जी. एवं अन्य बनाम शीबा के मामले में यह माना है कि कोई तीसरा पक्ष अपने अधिकारों का दावा करने के लिये मुकदमे के लंबित रहने के दौरान सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश XXI नियम 99 के अंतर्गत वाद दायर कर सकता है।

रंजीत के.जी. एवं अन्य बनाम शीबा मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्तमान मामले में, मूल विवाद एक संपत्ति के इर्द-गिर्द केंद्रित था, जो मूल रूप से अय्यपन (मृतक) की थी, जिसके आठ बच्चे थे।
  • अय्यपन ने कुंजन (मृतक) के पक्ष में क्रमशः 1911 एवं 1919 में दो बंधक निष्पादित किये। अय्यपन की मृत्यु के बाद, उनके छह बच्चों ने अपने 6/8 शेयर रघुथमन (तीसरे पक्ष) को उपहार विलेख द्वारा सौंप दिये।
  • शेष 2/8 शेयर प्रतिवादी नंबर 1, पद्मनाभन (न्यायिक देनदार) द्वारा प्राप्त किये गए थे।
  • बंधककर्त्ता कुंजन की मृत्यु के बाद, उसके अधिकार प्रतिवादी संख्या 1 एवं मूल वादी (डिक्री धारक) पद्माक्षी (जो उस समय अप्राप्तवय था) को अंतरित हो गए।
  • प्रतिवादी संख्या 1 ने पद्माक्षी की सहमति के बिना, नानू नामक व्यक्ति के पक्ष में 1,000/- रुपये का बंधक बनाया। नानू ने बाद में अपने अधिकार प्रतिवादी संख्या 10 (वीरन) को सौंप दिये, जिसने बाद में अपने अधिकार रघुनाथम को सौंप दिये।
  • पद्माक्षी ने अचल संपत्तियों में अपने अंश के विभाजन एवं अलग कब्जे के लिये ट्रायल कोर्ट में वाद संस्थित किया।
  • अंतिम आदेश पारित कर संपत्ति का आधा अंश वादी को आवंटित किया गया तथा प्रतिवादी संख्या 10 को बराबरी एवं अंतःकालीन लाभ के लिये कुछ राशि का भुगतान करने का निर्देश दिया गया।
  • वादी ने डिक्री को निष्पादित करने के लिये निष्पादन याचिका दायर की तथा डिक्री के अनुसार संपत्ति का एक अंश वादी को सौंप दिया गया।
  • इसके बाद, रघुथमन ने CPC के आदेश XXI नियम 99 के अंतर्गत संपत्ति की पुनः डिलीवरी, निषेधाज्ञा एवं हर्जाने की मांग करते हुए आवेदन दायर किये। तीनों आवेदनों पर संयुक्त रूप से सुनवाई की गई तथा ट्रायल कोर्ट ने उन्हें खारिज कर दिया।
  • व्यथित होकर, वही निष्पादन अपीलें केरल उच्च न्यायालय के समक्ष दायर की गईं, जिन्हें भी खारिज कर दिया गया।
  • रघुथमन के विधिक प्रतिनिधियों द्वारा उक्त निर्णय की समीक्षा के लिये आवेदन दायर किया गया था, जिस पर उच्च न्यायालय द्वारा पुनः सुनवाई की गई तथा बाद में आवेदन को अनुमति दी गई।
  • इसी आदेश को अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष चुनौती दी है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि:
    • एक व्यक्ति जो मूल डिक्री का पक्षकार नहीं है (तीसरा पक्ष) उसे सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश XXI नियम 99 के अंतर्गत न्यायालय में अपील करने का अधिकार है, अगर उसे डिक्री के निष्पादन के दौरान संपत्ति से बेदखल कर दिया जाता है।
    • आदेश XXI नियम 99 में "कोई भी व्यक्ति" शब्द में एक वादकालीन अंतरिती (कोई व्यक्ति जिसने वाद के लंबित रहने के दौरान संपत्ति में रुचि अर्जित की) शामिल है, जिसे मूल वाद में शामिल नहीं किया गया था।
    • एक वादकालीन क्रेता को अपने अधिकारों, शीर्षक, हित एवं संपत्ति के कब्जे की रक्षा करने का अधिकार है।
    • जब कोई तीसरा पक्ष संपत्ति की परिदान का विरोध करता है, तो डिक्री धारक पर यह दायित्व होता है कि वह CPC के आदेश 21 नियम 97 के अंतर्गत आवेदन दायर करके उन्हें पक्षकार बनाए।
    • एक बार जब आदेश XXI नियम 99 के अंतर्गत आवेदन दायर किया जाता है, तो ट्रायल कोर्ट को CPC के आदेश 21 नियम 101 के अंतर्गत पक्षों के अधिकार, शीर्षक एवं हित सहित सभी प्रतिद्वंद्वी दावों पर विचार करना चाहिये।
    • आदेश 21 के नियम 101 विवाद का निर्णय करने के लिये निष्पादन न्यायालय को अनिवार्य बनाकर एक अलग वाद संस्थित करने पर रोक लगाता है।
    • विभाजन डिक्री के निष्पादन के लिये परिसीमा अवधि के संबंध में, समय अंतिम डिक्री की तिथि की गणना प्रारंभ होती है, न कि उस तिथि से जब इसे स्टाम्प पेपर पर अंकित किया जाता है। विभाजन के वाद में अंतिम डिक्री का अंकित होना डिक्री की तिथि से संबंधित है।
    • कोई पक्ष डिक्री के अंकित होने के लिये स्टाम्प पेपर प्रस्तुत न करने के अपने स्वयं के कार्य द्वारा परिसीमा अवधि के चलने को रोक नहीं सकता है।
    • विभाजन डिक्री के निष्पादन के लिये परिसीमा अवधि की शुरुआत स्टाम्प पेपर पर डिक्री के अंकित होने पर आकस्मिक नहीं बनाई जा सकती है।
  • इसलिये उच्चतम न्यायालय ने,
    • निष्पादन याचिका में पारित आदेश को रद्द करने तथा मामले को नए सिरे से विचार के लिये ट्रायल कोर्ट को वापस भेजने के उच्च न्यायालय के निर्णय की पुष्टि की।
    • प्रतिवादियों द्वारा संपत्ति में दावा किये गए स्वतंत्र अधिकार, शीर्षक या हित सहित सभी मुद्दों को ट्रायल कोर्ट द्वारा निर्णयित किये जाने के लिये छोड़ दिया गया।

ऐतिहासिक निर्णय

  • विधिक प्रतिनिधि के माध्यम से चिरंजी लाल (मृत) बनाम विधिक प्रतिनिधि के माध्यम से हरि दास (मृत) (2005)
    • इस मामले में न्यायालय ने माना कि विभाजन डिक्री के लिये, परिसीमा अवधि अंतिम डिक्री की तिथि से प्रारंभ होती है, न कि जब इसे स्टाम्प पेपर पर अंकित किया जाता है।
    • यह निर्णय दिया गया कि कोई पक्ष स्टाम्प पेपर प्रस्तुत न करके परिसीमा अवधि की शुरुआत में विलंब नहीं कर सकता।
    • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि स्टाम्प पेपर पर डिक्री का अंकित होना डिक्री की तिथि से संबंधित है।
  • श्रीराम हाउसिंग फाइनेंस एंड इन्वेस्टमेंट (इंडिया) लिमिटेड बनाम ओमेश मिश्रा मेमोरियल चैरिटेबल ट्रस्ट (2022)
    • इस मामले में न्यायालय ने निष्पादन कार्यवाही में डिक्री धारक एवं तीसरे पक्ष के अधिकारों के बीच अंतर किया।
    • इसने स्पष्ट किया कि केवल डिक्री धारक ही CPC के आदेश XXI नियम 97 के अंतर्गत आवेदन दायर कर सकता है।
    • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि आदेश XXI नियम 99 उस व्यक्ति पर लागू होता है जिसे निष्पादन के दौरान संपत्ति से बेदखल कर दिया गया हो।
  • योगेश गोयनका बनाम गोविंद (2024)
    • इस मामले में न्यायालय ने स्पष्ट किया कि वादकालीन मामले के दौरान किये गए अंतरण स्वतः ही शून्य नहीं होते।
    • यह माना गया कि ऐसे अंतरण लंबित वाद में पक्षकारों के अधिकारों के अधीन हैं।
    • न्यायालय ने बाद में अंतरित व्यक्तियों को विधिक कार्यवाही में अपने हितों की रक्षा करने की अनुमति देने के लिये उदार दृष्टिकोण का समर्थन किया।

CPC के अंतर्गत आदेश XXI नियम 99 क्या है?

  • आदेश XXI में डिक्री के निष्पादन एवं डिक्री के अंतर्गत भुगतान के आदेश के नियम बताए गए हैं।
  • डिक्री शब्द को CPC की धारा 2(2) के अंतर्गत परिभाषित किया गया है जिसमें कहा गया है कि:
    • डिक्री का अर्थ है न्यायनिर्णय की औपचारिक अभिव्यक्ति जो, जहाँ तक ​​न्यायालय द्वारा इसे व्यक्त करने का संबंध है, वाद में विवादग्रस्त सभी या किसी भी मामले के संबंध में पक्षों के अधिकारों को निर्णायक रूप से निर्धारित करती है और यह प्रारंभिक या अंतिम हो सकती है। इसमें वादपत्र को अस्वीकार करना एवं धारा 144 के अंतर्गत किसी प्रश्न का निर्धारण करना शामिल माना जाएगा, लेकिन इसमें निम्नलिखित शामिल नहीं होंगे
      • कोई भी निर्णय जिसके विरुद्ध अपील किसी आदेश के विरुद्ध अपील के रूप में की जाती है, या
      • चूक के लिये बर्खास्तगी का कोई आदेश।

नियम 99: डिक्रीधारक या क्रेता द्वारा बेदखली

  • यह बताता है कि:
    • उपनियम (1) के अनुसार, जहाँ निर्णय ऋणी के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति को ऐसी संपत्ति के कब्जे के लिये डिक्री के धारक द्वारा अचल संपत्ति से बेदखल कर दिया जाता है या जहाँ ऐसी संपत्ति डिक्री के निष्पादन में उसके क्रेता द्वारा बेची गई है, तो वह ऐसे बेदखली की शिकायत करने के लिये न्यायालय में आवेदन कर सकता है।
    • उपनियम (2) के अनुसार, जहाँ ऐसा कोई आवेदन किया जाता है, वहाँ न्यायालय इसमें निहित प्रावधानों के अनुसार आवेदन पर न्यायनिर्णयन करेगा।

डिक्री का धारक

  • CPC के आदेश XXI नियम 10 में प्रयुक्त डिक्री धारक शब्द बहुत व्यापक है तथा इसमें न केवल डिक्री धारक शामिल है, बल्कि डिक्री के अंतरिती एवं डिक्री धारक के विधिक प्रतिनिधि को भी शामिल किया गया है। इसमें उन पक्षों को भी ध्यान में रखा जाता है, जिनका नाम डिक्री पर अंकित है।

डिक्री धारक

  • CPC की धारा 2(3) डिक्री धारक शब्द को परिभाषित करती है।
  • डिक्री धारक का अर्थ है कोई भी व्यक्ति जिसके पक्ष में कोई डिक्री पारित की गई हो या निष्पादन योग्य कोई आदेश दिया गया हो।

नोट: यद्यपि डिक्री धारक एवं डिक्री धारक शब्द समान प्रतीत होते हैं, लेकिन दोनों शब्दों के बीच विधिक अंतर है।

निर्णीत ऋणी

  • न्याय-देनदार से तात्पर्य ऐसे किसी व्यक्ति से है जिसके विरुद्ध कोई डिक्री पारित की गई हो या निष्पादन योग्य कोई आदेश दिया गया हो।
  • इस परिभाषा में मृतक न्याय-देनदार का विधिक प्रतिनिधि शामिल नहीं है।