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सांविधानिक विधि

नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 6A

 18-Oct-2024

नागरिकता अधिनियम 1955 धारा 6A

“न्यायालय ने नागरिकता अधिनियम की धारा 6A की वैधता की पुष्टि की, जो असम समझौते को 4:1 बहुमत से स्वीकार करती है।”

भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरेश, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

उच्चतम न्यायालय ने नागरिकता अधिनियम की धारा 6A की संवैधानिक वैधता 4:1 बहुमत से यथावत रखा, जो असम समझौते को मान्यता देती है। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में बहुमत की राय ने स्थानीय आबादी की सुरक्षा के साथ मानवीय चिंताओं को संतुलित करने की आवश्यकता पर बल दिया, जबकि असहमति जताने वाले न्यायमूर्ति पारदीवाला ने तर्क दिया कि यह प्रावधान अपनी मनमानी प्रकृति एवं अप्रभावी प्रवर्तन तंत्र के कारण समय के साथ असंवैधानिक हो गया है।

धारा 6A नागरिकता अधिनियम 1955 की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • यह मामला नागरिकता अधिनियम 1955 की धारा 6A से संबंधित है, जिसे 1985 में असम समझौते के बाद नागरिकता (संशोधन) अधिनियम के द्वारा जोड़ा गया था - यह भारत सरकार एवं असम आंदोलन के नेताओं के बीच एक समझौता था।
  • धारा 6A ने बांग्लादेश से असम आए प्रवासियों की नागरिकता के लिये विशेष प्रावधान जोड़े, उन्हें दो श्रेणियों में विभाजित किया:
    • वे लोग जिन्होंने 1 जनवरी 1966 से पहले प्रवेश किया था।
    • वे लोग जिन्होंने 1 जनवरी 1966 एवं 25 मार्च 1971 के बीच प्रवेश किया था।
  • 25 मार्च 1971 की कट-ऑफ तिथि इसलिये चुनी गई क्योंकि इसी दिन बांग्लादेश ने स्वतंत्रता की घोषणा की थी, जिससे एक बड़ा शरणार्थी संकट उत्पन्न हो गया था।
  • गुवाहाटी के एक नागरिक समाज समूह असम संयुक्त महासंघ ने 2012 में इस प्रावधान को चुनौती दी थी, जिसमें तर्क दिया गया था कि असम एवं अन्य राज्यों के लिये अलग-अलग नागरिकता नियम भेदभावपूर्ण थे।
  • याचिकाकर्त्ताओं ने यह भी दावा किया कि यह विधि सांस्कृतिक संरक्षण के अधिकार, असम के नागरिकों के राजनीतिक अधिकारों और भारत के लोकतंत्र एवं संघीय प्रणाली के बुनियादी ढाँचे सहित मौलिक संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन करता है।
  • विधिक चुनौती के रूप में प्रश्न किया गया कि क्या संसद के पास एक राज्य (असम) के लिये विशेष नागरिकता प्रावधान बनाने का संवैधानिक अधिकार है जो शेष भारत से अलग है।
  • मुख्य चुनौती यह थी कि क्या यह विधि असम की मूल आबादी की पर्याप्त सुरक्षा करता है, तथा दशकों से वहाँ बसे प्रवासियों की मानवीय आवश्यकताओं को पूरा करता है या नहीं।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने 4:1 बहुमत से नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 6A को संवैधानिक रूप से वैध माना तथा इसे असम में अवैध प्रवासन से निपटने के लिये एक वैध विधायी समाधान के रूप में मान्यता दी।
  • धारा 6A भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 6 एवं 7 का अनुपालन करती है, क्योंकि यह बांग्लादेश मुक्ति आंदोलन सहित ऐतिहासिक घटनाओं के आधार पर तर्कसंगत कट-ऑफ तिथियों (1 जनवरी 1966 एवं 25 मार्च 1971) के साथ असम में प्रवासन को संबोधित करती है।
  • न्यायालय ने असम में आप्रवासियों के लिये तीन अलग-अलग वर्गीकरण स्थापित किये:
    • 1966 से पहले के प्रवासियों को भारतीय नागरिक माना जाता है।
    • 1966-1971 के प्रवासी पात्रता शर्तों के अधीन नागरिकता प्राप्त कर सकते हैं।
    • 25 मार्च 1971 के बाद, प्रवासियों को अवैध अप्रवासी के रूप में वर्गीकृत किया जाता है, जिन्हें निर्वासित किया जा सकता है।
  • न्यायालय ने उन तर्कों को खारिज कर दिया कि धारा 6A अनुच्छेद 29(1) का उल्लंघन करती है, तथा इस तथ्य के अपर्याप्त साक्ष्य पाए कि प्रावधान के कार्यान्वयन से असमिया सांस्कृतिक एवं भाषाई अधिकारों का हनन हुआ है।
  • असम की भौगोलिक विशिष्टता को उचित माना गया, क्योंकि अन्य सीमावर्ती राज्यों की तुलना में छोटा भू-भाग होने के बावजूद प्रवासन से राज्य पर अद्वितीय जनसांख्यिकीय प्रभाव पड़ता है।
  • न्यायालय ने प्रवर्तन तंत्र को बढ़ाने का आदेश दिया, तथा अवैध अप्रवासियों की पहचान एवं निर्वासन प्रक्रियाओं के कार्यान्वयन की देखरेख के लिये एक निगरानी पीठ के गठन का निर्देश दिया।
  • असहमति जताने वाले (न्यायमूर्ति पारदीवाला) ने पता लगाने वाले तंत्र में अस्थायी अनुचितता एवं प्रक्रियात्मक दोषों का उदाहरण देते हुए धारा 6A को भावी प्रभाव से असंवैधानिक माना।
  • बहुमत ने धारा 6A को लागू करने के लिये संसद की विधायी क्षमता की पुष्टि की, तथा पाया कि इसने स्थानीय आबादी के हितों के साथ मानवीय चिंताओं को सफलतापूर्वक संतुलित किया है।
  • न्यायालय ने विधि के उद्देश्यों के समयबद्ध कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिये विदेशी अधिकरणों एवं संबंधित सांविधिक तंत्र को सशक्त करने का निर्देश दिया।

नागरिकता अधिनियम 1955 की धारा 6A क्या है?

  • धारा 6A को असम समझौते के अंतर्गत आने वाले व्यक्तियों की नागरिकता को संबोधित करने के लिये एक विशेष प्रावधान के रूप में अधिनियमित किया गया था, जो विशेष रूप से नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 1985 के लागू होने से पहले असम राज्य में शामिल क्षेत्रों पर लागू होता है।
  • प्रावधान भारतीय मूल के व्यक्ति को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित करता है जो या जिसके माता-पिता या दादा-दादी अविभाजित भारत में पैदा हुए हों।
  • धारा 6A अलग-अलग नागरिकता मार्गों वाले अप्रवासियों की दो अलग-अलग श्रेणियाँ बनाती है:
    • 1 जनवरी 1966 से पहले असम में प्रवेश करने वाले व्यक्ति: 1 जनवरी 1966 से भारत के माने गए नागरिक
    • 1 जनवरी 1966 एवं 24 मार्च 1971 के बीच प्रवेश करने वाले व्यक्ति: पंजीकरण एवं 10 वर्ष की प्रतीक्षा अवधि के बाद नागरिकता के लिये माने गए पात्र
  • 1966-1971 के दौरान विधि में यह अनिवार्य किया गया है:
    • विदेशी (अधिकरण) आदेश, 1964 के अंतर्गत अधिकरण द्वारा विदेशी के रूप में पहचान
    • निर्दिष्ट प्राधिकारियों के साथ अनिवार्य पंजीकरण
    • पहचान होने पर मतदाता सूची से नाम का निरसन
    • पूर्ण नागरिकता अधिकार प्राप्त करने से पहले 10 वर्ष की प्रतीक्षा अवधि
  • 10 वर्ष की अंतरिम अवधि के दौरान, पंजीकृत व्यक्तियों के पास:
    • भारतीय नागरिकों के समान अधिकार एवं दायित्व (पासपोर्ट अधिकार सहित)
    • चुनावी प्रक्रियाओं में भाग लेने पर प्रतिबंध
    • 10 वर्ष की अवधि पूरी होने के बाद पूर्ण नागरिकता अधिकार
  • इस प्रावधान में ऑप्ट-आउट तंत्र शामिल हैं:
    • 1966 से पहले के प्रवेश करने वालों के लिये भारतीय नागरिकता की इच्छा न होने की घोषणा करने के लिये 60 दिन की अवधि
    • 1966-1971 के प्रवेश करने वालों के लिये पंजीकरण प्रक्रिया से बाहर निकलने का समान विकल्प
  • धारा 6A में स्पष्ट रूप से निम्नलिखित को शामिल नहीं किया गया है:
    • वे व्यक्ति, जो 1985 के संशोधन से पहले ही भारतीय नागरिक थे
    • विदेशी अधिनियम, 1946 के अंतर्गत भारत से निष्कासित व्यक्ति
    • यह प्रावधान अन्य विधियों पर अधिभावी प्रभाव रखता है, जब तक कि धारा 6A में स्पष्ट रूप से अन्यथा प्रावधान न किया गया हो।
    • इस धारा के अंतर्गत "निर्दिष्ट क्षेत्र" से तात्पर्य उन क्षेत्रों से है जो 1985 के संशोधन से ठीक पहले बांग्लादेश में शामिल थे।

भारतीय संविधान के अंतर्गत नागरिकता का उपबंध

अनुच्छेद 5 (संविधान के प्रारंभ पर नागरिकता)

  • भारत में निवास करने वाले तथा यहाँ जन्मे व्यक्तियों को नागरिकता प्रदान की गई।
  • नागरिकता प्रदान की गई:
    • भारत में निवास करने वाले लोग, लेकिन भारत में पैदा नहीं हुए, लेकिन उनके माता-पिता में से कोई एक भारत में पैदा हुआ था।
    • कोई भी व्यक्ति जो संविधान लागू होने से ठीक पहले 5 वर्ष तक भारत में रहा हो।

    अनुच्छेद 6 (पाकिस्तान से आये कुछ व्यक्तियों की नागरिकता)

    • इस अनुच्छेद ने पाकिस्तान से भारत में प्रवास करने वाले लोगों को नागरिक का दर्जा प्रदान किया।
    • जो कोई भी 19 जुलाई 1949 से पहले भारत में प्रवास करता था, उसे भारत का नागरिक माना जाता था, यदि उसके माता-पिता या दादा-दादी में से कोई एक भारत में पैदा हुआ हो (दोनों शर्तें पूरी होनी चाहिये)।
    • जो लोग उपर्युक्त तिथि के बाद पाकिस्तान से भारत में प्रवास करते थे, उन्हें पंजीकरण की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था।

    अनुच्छेद 7 (पाकिस्तान चले गए कुछ व्यक्तियों की नागरिकता)

    • इसमें कहा गया है कि जो लोग 1 मार्च 1947 के बाद भारत से पाकिस्तान चले गए, लेकिन बाद में भारत लौट आए, उन्हें नागरिक माना जाएगा, बशर्ते वे पुनर्वास परमिट के साथ आए हों।

    अनुच्छेद 8 (भारत से बाहर रहने वाला भारतीय मूल का व्यक्ति)

    • अनुच्छेद में कहा गया है कि भारत से बाहर रहने वाला भारतीय मूल का कोई भी व्यक्ति, जिसके माता-पिता/दादा-दादी में से कोई एक भारत में पैदा हुआ हो, वह भारतीय राजनयिक मिशन में स्वयं को भारतीय नागरिक के रूप में पंजीकृत करा सकता है।

    अनुच्छेद 9

    • यह किसी अन्य देश की नागरिकता स्वेच्छा से प्राप्त करने वाले व्यक्ति की नागरिकता पर रोक लगाकर भारत में एकल नागरिकता की अवधारणा की पुष्टि करता है।

    अनुच्छेद 10

    • यह पुष्टि करता है कि कोई भी व्यक्ति जिसने इस भाग के किसी भी उपबंध के अंतर्गत भारतीय नागरिकता प्राप्त की है, वह नागरिक बना रहेगा तथा संसद द्वारा बनाए गए किसी भी विधि के अधीन भी होगा।

    अनुच्छेद 11

    • यह अनुच्छेद भारत की संसद को नागरिकता के अधिग्रहण या समाप्ति के संबंध में विधि निर्माण करने का अधिकार प्रदान करता है।

    सिविल कानून

    संभाव्यता की प्रधानता का अनुप्रयोग

     18-Oct-2024

    सजीना इकबाल एवं अन्य बनाम मिनी बाबू जॉर्ज एवं अन्य

    "इस तथ्य की ओर संकेत करने वाले पर्याप्त साक्ष्य हैं कि दुर्घटना में कार शामिल थी तथा अधीनस्थ न्यायालयों ने साक्ष्यों पर सही परिप्रेक्ष्य में विचार नहीं किया है।"

    न्यायमूर्ति सी.टी. रविकुमार एवं न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा

    स्रोत: उच्चतम न्यायालय

    चर्चा में क्यों?

    हाल ही में, सजीना इकबाल एवं अन्य बनाम मिनी बाबू जॉर्ज एवं अन्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि आकस्मिक दावों का निर्धारण करते समय संभाव्यता की प्रधानता के सिद्धांत को लागू किया जाना चाहिये, न कि उचित संदेह से परे साक्ष्य के परीक्षण को।

    सजीना इकबाल एवं अन्य बनाम मिनी बाबू जॉर्ज एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

    • यह मामला 10 जून 2023 को हुई एक घातक मोटर वाहन दुर्घटना से संबद्ध है।
    • मृतक इकबाल थोडुपुझा से मुत्तोम की ओर मोटरसाइकिल चला रहा था, तभी यह दुर्घटना हुई।
    • अपीलकर्त्ताओं (इकबाल की विधवा, अप्राप्तवय बच्चे एवं माता-पिता) का दावा है कि प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा चलाई जा रही एक कार विपरीत दिशा से आई तथा इकबाल की मोटरसाइकिल को टक्कर मार दी।
    • टक्कर के परिणामस्वरूप इकबाल गिर गया तथा उसे घातक चोटें आईं। उसे अस्पताल ले जाया गया, लेकिन उसकी चोटों के कारण उसकी मौत हो गई।
    • अपनी मृत्यु के समय, इकबाल पंजीयन विभाग में अपर डिविजन क्लर्क के पद पर कार्यरत थे, जिनकी मासिक आय 21,456 रुपये थी।
    • अपीलकर्त्ताओं ने दुर्घटना में कथित रूप से शामिल कार के मालिक (प्रतिवादी संख्या 1), चालक (प्रतिवादी संख्या 2) एवं बीमाकर्त्ता (प्रतिवादी संख्या 3) के विरुद्ध दावा याचिका दायर की।
    • प्रतिवादी संख्या 2 एवं 3 ने दुर्घटना में अपनी कार की संलिप्तता से अस्वीकार किया तथा दावा किया कि इकबाल की मोटरसाइकिल ने ओवरटेक करने के प्रयास में खड़ी बस को टक्कर मार दी।
    • प्रतिवादियों का तर्क है कि प्रतिवादी संख्या 2 दुर्घटना के बाद घटनास्थल पर पहुँचे तथा इकबाल को अस्पताल पहुँचाने में सहायता की।
    • यह मामला मुख्य रूप से यह निर्धारित करने के इर्द-गिर्द घूमता है कि क्या कार वास्तव में दुर्घटना में शामिल थी तथा क्या चालक की उपेक्षा का परिणाम थी।
    • दोनों पक्षों ने मोटर दुर्घटना दावा अधिकरण (MACT) के समक्ष अपने-अपने दावों का समर्थन करने के लिये साक्षी एवं दस्तावेजी साक्ष्य प्रस्तुत किये।
    • यह तर्क दिया गया है कि MACT और उच्च न्यायालय ने भी अनुमानों और तर्कों के आधार पर तथा साक्ष्यों को पूरी तरह से दोषपूर्ण तरीके से पढ़कर अपीलकर्त्ताओं के प्रतिकूल निष्कर्ष दर्ज किये हैं।
    • असंतुष्ट होकर अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष भारत के संविधान (COI) के अनुच्छेद 136 के अंतर्गत वर्तमान अपील दायर की।

    मोटर दुर्घटना दावा अधिकरण:

    • यह मोटर दुर्घटनाओं के परिणामस्वरूप होने वाली जान/संपत्ति की हानि एवं चोट के मामलों से संबंधित सभी दावों से निपटता है।
    • दावे सीधे अधिकरण के समक्ष दायर किये जाने हैं।
    • MACT के अंतर्गत न्यायालयों की अध्यक्षता जिला न्यायिक सेवा के न्यायिक अधिकारियों द्वारा की जाती है।
    • दावे निर्धारित प्रारूप में दायर किये जाने हैं।
    • MACT के समक्ष दाखिल करते समय दाखिल करने के लिये आवश्यक सामग्री एवं दस्तावेजों का भी अनुपालन किया जाना चाहिये।

    न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

    • उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं:
      • अधीनस्थ न्यायालयों के निष्कर्षों के विपरीत, दुर्घटना में कार की संलिप्तता को प्रदर्शित करने वाले पर्याप्त साक्ष्य मौजूद थे।
      • अधीनस्थ न्यायालयों के निष्कर्ष अनुमानों एवं साक्ष्यों की दोषपूर्ण निर्वचन पर आधारित थे।
      • महाजर (निरीक्षण रिपोर्ट) में दर्ज कार को हुए क्षति से स्पष्ट रूप से दुर्घटना में उसकी संलिप्तता का संकेत मिलता है।
    • उच्चतम न्यायालय ने अधीनस्थ न्यायालयों की इस तथ्य के लिये आलोचना की कि उन्होंने प्रत्यक्षदर्शी पर केवल इसलिये विश्वास नहीं किया क्योंकि पुलिस ने विवेचना के दौरान उसका अभिकथन दर्ज नहीं किया था।
      • इसने इस बात पर बल दिया कि मोटर दुर्घटना के मामलों में संभाव्यता की प्रबलता के सिद्धांत को लागू किया जाना चाहिये, न कि उचित संदेह से परे साक्ष्य के परीक्षण को।
    • इस बात पर बल दिया गया कि मोटर दुर्घटना के मामलों में संभाव्यता की प्रबलता के सिद्धांत को लागू किया जाना चाहिये, न कि संदेह से पूर्व साक्ष्य के परीक्षण को।
      • न्यायालय ने बस चालक एवं चाय की दुकान के मालिक की गवाही सहित सभी साक्ष्यों पर विचार करने के महत्त्व पर ध्यान दिया।
      • न्यायालय ने इस तथ्य पर प्रकाश डाला कि निरीक्षण रिपोर्ट ने कार के अगले भाग में हुई क्षति को स्पष्ट रूप से दर्ज किया है, जिससे यह निष्कर्ष निकालना असंभव है कि कार दुर्घटना में शामिल नहीं थी।
    • उच्चतम न्यायालय ने निर्धारित किया कि निचली न्यायालय साक्ष्यों पर उसके सही परिप्रेक्ष्य में विचार करने में विफल रहीं, जिसके परिणामस्वरूप कार की गैर-संलिप्तता के विषय में एक विकृत निष्कर्ष निकला।
    • उपरोक्त टिप्पणियों के आधार पर उच्चतम न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि साक्ष्यों का उचित मूल्यांकन करने पर केवल यही निष्कर्ष निकल सकता है कि कार उस दुर्घटना में शामिल थी जिसके कारण इकबाल की मृत्यु हुई।

    मोटर वाहन अधिनियम, 1988 क्या है?

    परिचय:

    • मोटर वाहन अधिनियम, 1939 के स्थान पर यह अधिनियम 1 जुलाई 1989 को लागू हुआ।
    • यह अधिनियम ड्राइवरों/कंडक्टरों के लाइसेंस, मोटर वाहनों के पंजीकरण, परमिट के माध्यम से मोटर वाहनों के नियंत्रण, राज्य परिवहन उपक्रमों से संबंधित विशेष प्रावधानों, यातायात विनियमन, बीमा, देयता, अपराध एवं दण्ड आदि के संबंध में विधायी प्रावधानों को विस्तार से प्रदान करता है।

    उद्देश्य:

    • सड़क सुरक्षा।
    • कुशल परिवहन।
    • सड़क उपयोगकर्त्ताओं के अधिकारों का संरक्षण।
    • यह अधिनियम यातायात विनियमन, वाहन मानकों, लाइसेंसिंग एवं उल्लंघन के लिये दण्ड के लिये एक व्यापक रूपरेखा प्रदान करता है।

    संभाव्यता की प्रधानता क्या है?

    परिचय:

    • यह मूल रूप से यह निर्धारित करता है कि कौन सा तथ्य या साक्ष्य होने की अधिक संभावना है।
    • इस अवधारणा में सभी संदेहों को समाप्त करना शामिल नहीं है, बल्कि यह प्रस्तुत किये गए दो तथ्यों का वजन करता है, जिसके आधार पर अधिक संभावना है।
    • यह उचित संदेह से परे सिद्ध करने के सिद्धांत के विपरीत है।
    • सिविल मामलों में साक्ष्य का भार उठाने वाले पक्ष को यह दिखाना होता है कि उनकी कहानी का पक्ष दूसरे पक्ष की तुलना में अधिक प्रशंसनीय है।

    संभाव्यता की प्रधानता के प्रमुख तत्त्व:

    • एक पक्ष का यह तथ्य सिद्ध होना चाहिये कि दूसरे पक्ष की तुलना में ऐसा होने की संभावना अधिक है।
    • अधिक विश्वसनीयता या वजन वाले साक्ष्य को मामले को समाप्त करने के लिये न्यायालय द्वारा निर्धारित किया जाएगा।
    • इस तरह के सिद्धांत संविदाओं, अपकृत्यों से संबंधित विवादों में लागू हो सकते हैं, जहाँ साक्ष्य का भार दावेदार पर होता है।
    • न्यायालय द्वारा मामले की गंभीरता एवं प्रस्तुत साक्ष्य के बीच संतुलन बनाया जाना चाहिये। साक्ष्य का मानक मुद्दे की गंभीरता के साथ बदलता रहता है।

    संभाव्यता की प्रधानता के सिद्धांत एवं उचित संदेह से परे सिद्ध करने के बीच अंतर:

    संभाव्यता की प्रधानता

    उचित संदेह से परे

    इसका उपयोग सिविल मामलों में किया जाता है

    इसका प्रयोग आपराधिक मामलों में किया जाता है

    इसके लिये  यह सिद्ध करना आवश्यक है कि किसी तथ्य के सत्य होने की संभावना अधिक है

    इसके लिये यह प्रमाणित करना आवश्यक है कि साक्ष्य के लिये कोई अन्य उचित स्पष्टीकरण नहीं है। प्रमाण का एक बहुत उच्च मानक

    साक्ष्य से यह पता चलना चाहिये कि दावे के सत्य होने की संभावना 50% से अधिक है

    साक्ष्य इतने सशक्त होने चाहिये कि प्रतिवादी के अपराध के विषय में कोई तार्किक संदेह न रहे

    इसे "न्याय के तराजू का एक पक्ष के पक्ष में थोड़ा सा झुकना" के रूप में समझा जा सकता है।

    इसे "किसी चीज़ के विषय में लगभग निश्चित होना" के रूप में समझा जा सकता है