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सिविल कानून
खंडपीठ के समक्ष की जा सकती है अवमान आदेश की अपील
05-Dec-2024
दीपक कुमार एवं अन्य बनाम देविना तिवारी एवं अन्य "प्रतिवादी के पास एकमात्र कानूनी उपाय विशेष अनुमति याचिका के माध्यम से विद्वान एकल न्यायाधीश के आदेश को चुनौती देना था।" न्यायमूर्ति बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन की पीठ ने वे शर्तें निर्धारित कीं, जब अवमानना के मामले में एकल न्यायाधीश द्वारा पारित आदेश के विरुद्ध खंडपीठ में अपील की जा सकेगी।
- उच्चतम न्यायालय ने दीपक कुमार एवं अन्य बनाम देविना तिवारी एवं अन्य मामले में यह निर्णय दिया।
दीपक कुमार एवं अन्य बनाम देविना तिवारी एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में प्रतिवादी (देविना तिवारी) ने अप्रैल 2015 के पिछले उच्च न्यायालय के आदेश से संबंधित अवमानना याचिका दायर की।
- उच्च न्यायालय के 2015 के मूल निर्णय में कॉलेज को प्रतिवादी को सेवा में बहाल करने का निर्देश दिया गया था।
- 5 जनवरी, 2022 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की एकल पीठ ने अवमानना याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि कोई अवमानना नहीं की गई है।
- इसके बाद प्रतिवादी ने एकल पीठ के इस आदेश के खिलाफ उच्च न्यायालय की खंडपीठ के समक्ष अपील दायर की।
- खंडपीठ/डिवीजन बेंच ने अंतरिम आदेश पारित कर प्रतिवादी को 15 दिनों के भीतर कार्यभार ग्रहण रिपोर्ट प्रस्तुत करने की अनुमति दी तथा अतिरिक्त मुख्य स्थायी अधिवक्ता को कॉलेज से निर्देश प्राप्त करने का निर्देश दिया।
- अपीलकर्त्ता (दीपक कुमार) ने इस अपील की स्वीकार्यता को चुनौती दी और तर्क दिया कि मिदनापुर पीपुल्स को-ऑप बैंक लिमिटेड मामले के आधार पर यह अपील स्वीकार्य नहीं है।
- प्रतिवादी के वकील ने तर्क दिया कि चूँकि एकल न्यायाधीश ने मामले के गुण-दोष पर विचार किया था, इसलिये अपील मिदनापुर निर्णय के खंड V के तहत स्वीकार्य थी।
- इस प्रकार, मामला सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष लाया गया था।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि एकल न्यायाधीश ने स्पष्ट रूप से कहा था कि अप्रैल 2015 के न्यायालय के मूल आदेश के संबंध में कोई अवमानना नहीं की गई थी।
- सर्वोच्च न्यायालय के पूर्ववर्ती मिदनापुर निर्णय के अनुसार, अवमानना की कार्यवाही शुरू करने से इनकार करने वाला ऐसा आदेश अपील योग्य नहीं है।
- मिदनापुर निर्णय के खंड V का उपयोग करने का प्रतिवादी का तर्क उच्चतम न्यायालय द्वारा खारिज कर दिया गया।
- उच्चतम न्यायालय ने पाया कि एकल न्यायाधीश के आदेश में मूल मामले के गुण-दोष पर कोई निर्णय शामिल नहीं था।
- प्रतिवादी के पास उपलब्ध एकमात्र कानूनी उपाय सीधे उच्चतम न्यायालय में विशेष अनुमति याचिका दायर करना था।
- इसलिये, न्यायालय ने अंततः प्रतिवादी द्वारा उच्च न्यायालय की खंडपीठ के समक्ष दायर अपील को खारिज कर दिया।
न्यायालय अवमान अधिनियम, 1971 (CC एक्ट) क्या है?
- CC एक्ट वर्ष 1971 में संसद द्वारा पारित किया गया तथा 24 दिसंबर, 1974 को लागू हुआ।
- CC एक्ट का मुख्य उद्देश्य न्यायालयों की अखंडता की रक्षा करना है।
- यह CC एक्ट न्यायालय को अपने अवमान के विरुद्ध दंड देने की अंतर्निहित शक्तियाँ प्रदान करता है।
- CC एक्ट न्यायिक संस्थाओं को प्रेरित हमलों और अनुचित आलोचना से बचाने का प्रयास करता है, तथा इसके अधिकार को कम करने वालों को दंडित करने के लिये एक कानूनी तंत्र के रूप में कार्य करती है।
- जब संविधान को अपनाया गया था, तो न्यायालय अवमान को अनुच्छेद 19 (2) के तहत वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंधों में से एक बनाया गया था। भारतीय संविधान (COI) के अनुच्छेद 144 के अनुसार, संविधान में संशोधन के लिये।.
- इसके अलावा, COI के अनुच्छेद 129 में सर्वोच्च न्यायालय को स्वयं के अवमान हेतु दंडित करने की शक्ति प्रदान की गई है।
- अनुच्छेद 215 उच्च न्यायालयों को समतुल्य शक्ति प्रदान करता है।
- अवमानना दो प्रकार की होती है:
- सिविल अवमानना: यह न्यायालय के किसी निर्णय, डिक्री, निर्देश, आदेश, रिट या अन्य प्रक्रिया की जानबूझकर अवज्ञा या न्यायालय को दिये गए वचन का जानबूझकर उल्लंघन है।
- आपराधिक अवमानना: न्यायालय की आपराधिक अवमानना का अर्थ किसी ऐसे मामले का प्रकाशन या किसी ऐसे कार्य को करना है, जो न्यायलय के अधिकार को अवरुद्ध अथवा कम करता है या किसी न्यायिक कार्यवाही के नियत क्रम में हस्तक्षेप करता है या किसी अन्य तरीके से न्याय प्रशासन को बाधित करता है।
सी.सी. अधिनियम के अंतर्गत अपील का प्रावधान क्या है?
अपील से संबंधित प्रावधान सीसी अधिनियम की धारा 19 के तहत दिये गए हैं-
- खंड (1) में कहा गया है कि अवमानना के लिये दंडित करने के अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए उच्च न्यायालय के किसी आदेश या निर्णय के विरुद्ध अपील अधिकार के रूप में होगी-
- जहाँ आदेश या निर्णय एकल न्यायाधीश का हो, वहाँ निर्णय न्यायालय के कम-से-कम दो न्यायाधीशों की पीठ को भेजा जाएगा।
- जहाँ आदेश या निर्णय किसी न्यायपीठ का है, वहाँ उच्चतम न्यायालय में, परंतु जहाँ आदेश या निर्णय किसी संघ राज्यक्षेत्र में न्यायिक आयुक्त के न्यायालय का है, वहाँ ऐसी अपील उच्चतम न्यायालय में होगी।
- खंड (2) में कहा गया है कि किसी अपील के लंबित रहने तक अपीलीय न्यायालय आदेश दे सकता है कि-
- जिस दंड या आदेश के विरुद्ध अपील की गई है उसका निष्पादन निलंबित किया जाए।
- यदि अपीलकर्त्ता कारावास में है तो उसे ज़मानत पर रिहा किया जाए।
- इस अपील पर सुनवाई की जाए, भले ही अपीलकर्त्ता ने अपनी अवमानना का निवारण नहीं किया है।
- खंड (3) में कहा गया है कि जहाँ कोई व्यक्ति किसी आदेश से व्यथित है, जिसके विरुद्ध अपील दायर की जा सकती है, वह उच्च न्यायालय को यह संतुष्टि कराता है कि वह अपील करने का इच्छुक है, तो उच्च न्यायालय उप-धारा (2) द्वारा प्रदत्त सभी या किसी भी शक्ति का प्रयोग कर सकता है।
- खंड (4) में कहा गया है कि उपधारा (1) के अंतर्गत अपील दायर की जाएगी-
- उच्च न्यायालय की पीठ में अपील के मामले में, तीस दिन के भीतर।
- सर्वोच्च न्यायालय में अपील के मामले में, जिस आदेश के विरुद्ध अपील की गई है, उसकी तारीख से साठ दिनों के भीतर।
आदेशों के विरुद्ध अपील को नियंत्रित करने वाले सिद्धांत क्या हैं?
मिंडनापुर पीपुल्स को-ऑप बैंक लिमिटेड एवं अन्य बनाम चुन्नीलाल नंदा एवं अन्य (2006) मामले में सिद्धांत निर्धारित किये:
- धारा 19 के अंतर्गत अपील केवल उच्च न्यायालय द्वारा अवमानना के लिये दंड लगाने संबंधी आदेश या निर्णय के विरुद्ध की जा सकेगी।
- निम्नलिखित परिस्थितियों में कोई अपील नहीं की जा सकती (हालाँकि विशेष परिस्थितियों में उन्हें संविधान के अनुच्छेद 136 के तहत चुनौती दी जा सकती है):
- अवमानना के लिये कार्यवाही शुरू करने से इनकार करने वाला आदेश
- अवमानना की कार्यवाही शुरू करने का आदेश
- अवमानना की कार्यवाही समाप्त करने का आदेश
- अवमाननाकर्त्ता को दोषमुक्त करने का आदेश
- उच्च न्यायालय अवमानना की कार्यवाही में यह सुनिश्चित कर सकता है कि क्या कोई अवमानना की गई है और यदि हाँ, तो सज़ा क्या होनी चाहिए।
- ऐसी कार्यवाही में पक्षों के बीच विवाद के गुण-दोष से संबंधित किसी भी मुद्दे पर निर्णय देना उचित नहीं है।
- पक्षों के बीच विवाद के गुण-दोष पर उच्च न्यायालय द्वारा जारी कोई निर्देश या लिया गया निर्णय 'अवमानना के लिये दंडित करने के अधिकार क्षेत्र' के अंतर्गत नहीं आएगा। इसलिये सी.सी. अधिनियम की धारा 19 के अंतर्गत अपील योग्य नहीं होगा।
- एकमात्र अपवाद यह है जहाँ ऐसा निर्देश या निर्णय अवमानना के लिये दंडित करने वाले आदेश से आनुषंगिक या अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ हो, ऐसी स्थिति में अधिनियम की धारा 19 के तहत अपील, आनुषंगिक या अभिन्न रूप से जुड़े निर्देशों को भी शामिल कर सकती है।
- यदि उच्च न्यायालय किसी अवमानना कार्यवाही में पक्षकारों के बीच विवाद से संबंधित किसी मुद्दे पर निर्णय देता है, तो पीड़ित व्यक्ति के पास उपाय उपलब्ध है।
- ऐसे आदेश को अंतर-न्यायालय अपील में चुनौती दी जा सकती है (यदि आदेश एकल न्यायाधीश का है और अंतर-न्यायालय अपील का प्रावधान है), या संविधान के अनुच्छेद 136 के तहत अपील करने के लिये विशेष अनुमति मांगकर (अन्य मामलों में)।
सिविल कानून
गर्भपात के बाद महिला जज को बर्खास्त करने पर उच्चतम न्यायालय का निर्णय
05-Dec-2024
अदिति कुमार शर्मा बनाम मध्य प्रदेश राज्य एवं अन्य। “उच्चतम न्यायालय ने गर्भपात के बाद महिला जज को बर्खास्त करने पर मध्य प्रदेश हाईकोर्ट से सवाल किया। 'अगर पुरुषों को मासिक धर्म होता तो उन्हें पता होता'। न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति एन.के. सिंह |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की इस बात के लिये कड़ी आलोचना की कि उसने एक महिला न्यायिक अधिकारी के प्रदर्शन का मूल्यांकन करते समय गर्भपात के कारण हुए उसके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियों को नज़रअंदाज़ कर दिया। न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना की अगुआई वाली पीठ ने प्रदर्शन मूल्यांकन में लिंग आधारित पूर्वाग्रहों को उजागर किया तथा पुरुष न्यायाधीशों के लिये समान मानकों की अनुपस्थिति पर सवाल उठाया। यह दो महिला न्यायिक अधिकारियों की बर्खास्तगी जुड़ा मामला था जिस पर न्यायालय ने स्वत: संज्ञान लिया था।
अदिति कुमार शर्मा बनाम मध्य प्रदेश राज्य और अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के छह न्यायिक अधिकारियों को एक साथ सेवा से बर्खास्त कर दिया गया।
- दो महिला न्यायिक अधिकारियों को बर्खास्त रखा गया , जबकि चार अन्य को उच्च न्यायालय द्वारा बहाल कर दिया गया।
- यह विशिष्ट मामला एक महिला न्यायिक अधिकारी के कार्यनिष्पादन मूल्यांकन पर केंद्रित है।
- प्रदर्शन आकलन का आधार:
- एक वर्ष में केवल दो सिविल मुकदमों का निपटान किया गया।
- केवल 1.36 परफॉरमेंस यूनिट्स अर्जित कीं।
- कोविड-19 अवधि के दौरान निपटान दर औसत से कम रही।
- प्रदर्शन को प्रभावित करने वाली व्यक्तिगत चुनौतियाँ:
- गर्भपात होना
- कोविड-19 से संक्रमित होना
- एक भाई का कैंसर से ग्रसित होना
- पेशेवर दस्तावेज़ीकरण:
- पिछली वार्षिक गोपनीय रिपोर्टों (ACRs) में अच्छी (Good) और बहुत अच्छी (Very Good) जैसी टिप्पणियाँ थीं।
- रतलाम के एक निरीक्षण न्यायाधीश ने बर्खास्तगी के बाद "औसत" (Average) टिप्पणियाँ प्रदान कीं।
- बर्खास्तगी से पहले उनके विरुद्ध शिकायतों का निर्णायक रूप से समाधान नहीं किया गया।
- न्यायिक अधिकारी ने अपनी बर्खास्तगी को चुनौती दी तथा मामले को सर्वोच्च न्यायालय के ध्यान में लाया गया।
- इस मामले में न्यायिक निष्पादन मूल्यांकन में संभावित लिंग-आधारित असमानताओं और पेशेवर मूल्यांकन में व्यक्तिगत कठिनाइयों पर विचार करने जैसी आवश्यकताओं के बारे में बताया गया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति एन.के. सिंह की अध्यक्षता वाली उच्चतम न्यायालय की पीठ ने न्यायिक अधिकारियों के लिये मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के प्रदर्शन मूल्यांकन मानदंडों का आलोचनात्मक अवलोकन किया।
- पीठ ने मूल्यांकन पद्धति की कड़ी आलोचना की, जिसमें व्यक्तिगत चिकित्सा और मानसिक स्वास्थ्य चुनौतियों, विशेष रूप से महिला न्यायिक अधिकारियों से संबंधित चुनौतियों पर विचार नहीं किया गया।
- इस पर न्यायमूर्ति नागरत्ना ने टिप्पणी की: "मुझे उम्मीद है कि पुरुष जजों पर भी ऐसे मानदंड लागू किये जाएंगे। मुझे यह कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं है।"
- महिला, वह गर्भवती हो गई है और उसका गर्भपात हो गया! एक महिला की मानसिक तथा शारीरिक बीमारी जिसका गर्भपात हो गया।
- यह क्या है? मैं चाहती हूं कि पुरुषों को मासिक धर्म हो। तब उन्हें पता चलेगा कि यह क्या है। हमें खेद है।
- यह एक हाईकोर्ट है, जो महिला न्यायिक अधिकारी से निपट रहा है। उसने यहाँ लिखा है कि ऐसा गर्भपात के कारण हुआ है। पुरुष जजों के लिये भी इसी तरह के मानदंड हैं!
- न्यायमूर्ति नागरत्ना ने लैंगिक रूप से पक्षपातपूर्ण प्रदर्शन मापदंडों को स्पष्ट रूप से चुनौती दी, और सवाल उठाया कि क्या ऐसे कड़े मानदंड पुरुष न्यायाधीशों पर भी समान रूप से लागू होंगे।
- न्यायालय ने पेशेवर प्रदर्शन मूल्यांकन में गर्भपात, कोविड-19 संक्रमण और पारिवारिक स्वास्थ्य संकट जैसी व्यक्तिगत परिस्थितियों को भी शामिल करने की आवश्यकता पर बल दिया।
कार्यस्थलों पर मासिक धर्म अवकाश अनिवार्य करने पर सुप्रीम कोर्ट के क्या विचार हैं?
- मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में उच्चतम न्यायालय ने मासिक धर्म अवकाश नीति के क्रियान्वयन की जटिल बारीकियों को स्पष्ट किया था तथा कार्यस्थल पर ऐसे प्रावधानों पर दो विपरीत दृष्टिकोणों को मान्यता दी थी।
- पीठ ने यह चेतावनी भी दी कि मासिक धर्म अवकाश को अनिवार्य बनाने से महिलाओं को नुकसान हो सकता है, क्योंकि इससे नियोक्ता महिला कर्मचारियों को नियुक्त करने के प्रति अनिच्छुक हो सकते हैं, जिससे महिलाओं के रोज़गार के अवसरों पर अनपेक्षित नकारात्मक परिणाम हो सकते हैं।
- न्यायालय ने कहा कि मासिक धर्म अवकाश मूलतः एक नीतिगत मुद्दा है , जिसे न्यायिक हस्तक्षेप के बजाय सरकारी और संगठनात्मक स्तर पर नीति निर्माताओं द्वारा ही सबसे बेहतर ढंग से संबोधित किया जा सकता है।
- न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की तीन सदस्यीय पीठ ने मासिक धर्म अवकाश अनिवार्य करने का आग्रह करने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि याचिकाकर्त्ता को पहले ही संबंधित सरकारी प्राधिकारियों को ज्ञापन सौंपने की सलाह दी जा चुकी है।
- इस मुद्दे के महत्त्व को स्वीकार करते हुए, न्यायालय ने कहा कि नीति निर्माण में महिलाओं की कार्यबल भागीदारी पर संभावित प्रभावों पर सावधानीपूर्वक विचार करने की आवश्यकता है और इसे उपयुक्त सरकारी निकायों पर छोड़ दिया जाना चाहिये।
मासिक धर्म अवकाश के संबंध में क्या विधायी उपाय किये जा रहे हैं?
- संसद में मासिक धर्म अवकाश और मासिक धर्म स्वास्थ्य उत्पाद विधेयक प्रस्तुत करने के प्रयास किये गए हैं, लेकिन वे अभी तक सफल नहीं हुए हैं।
- उदाहरण: मासिक धर्म लाभ विधेयक, 2017 (The Menstruation Benefits Bill, 2017) और महिला यौन, प्रजनन तथा मासिक धर्म अधिकार विधेयक, 2018 (Women’s Sexual, Reproductive and Menstrual Rights Bill in 2018)।
महिलाओं को मासिक धर्म अवकाश और मासिक धर्म स्वास्थ्य उत्पादों तक निशुल्क पहुँच का अधिकार विधेयक, 2022
- विधेयक में सभी प्रतिष्ठानों तथा शैक्षणिक संस्थानों में कामकाजी महिलाओं और छात्राओं के लिये तीन दिन का सवेतन मासिक धर्म अवकाश प्रदान करने के साथ ही मासिक धर्म स्वास्थ्य उत्पादों तक निशुल्क पहुँच प्रदान करने के लिये एक व्यापक रूपरेखा का प्रस्ताव है।
- इस विधेयक का उद्देश्य मासिक धर्म स्वास्थ्य से जुड़े महत्त्वपूर्ण मुद्दों को संबोधित करना है, जिसमें यह तथ्य भी शामिल है कि लगभग 40% लड़कियाँ निजता की कमी, असुविधा और सामाजिक कुरीतियों जैसी विभिन्न चुनौतियों के कारण मासिक धर्म के दौरान स्कूल नहीं जा पाती हैं।
- मासिक धर्म संबंधी उत्पादों का निशुल्क वितरण सुनिश्चित करने, कीमतों को विनियमित करने, जागरूकता पैदा करने तथा सीमांत महिलाओं के लिये पहुँच को प्राथमिकता देने के लिये एक महिला मासिक धर्म स्वास्थ्य उत्पाद मूल्य विनियमन प्राधिकरण की स्थापना प्रस्तावित है।
- यह विधायी पहल अंतर्राष्ट्रीय प्रथाओं से प्रेरित है, जिसमें बताया गया है कि जापान, ताइवान, चीन, कोरिया, इंडोनेशिया और मैक्सिको जैसे देशों ने पहले ही मासिक धर्म अवकाश नीतियाँ लागू कर दी हैं।
- यह विधेयक मासिक धर्म अवकाश को प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार (अनुच्छेद 21) के विस्तार के रूप में प्रस्तुत करता है, जिसमें तर्क दिया गया है कि महिलाओं से मासिक धर्म के दौरान काम करने की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिये, क्योंकि इससे शारीरिक असुविधा, मानसिक स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियाँ और स्वच्छता-संबंधी कठिनाइयाँ होती हैं।
व्यापारिक सन्नियम
मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम की धारा 20
05-Dec-2024
दीपक माणकलाल कटारिया बनाम अहसोक मोतीलाल कटारिया और अन्य। "न्यायिक निर्णय के लिये इस अंतर को ठीक से समझना बहुत ज़रूरी है। अधिकार क्षेत्र से तात्पर्य किसी विवाद का निपटारा करने और बाध्यकारी निर्णय देने के लिये न्यायालय या न्यायाधिकरण की शक्ति एवं अधिकार से है।" न्यायमूर्ति अमित बोरकर |
स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, दीपक माणकलाल कटारिया बनाम अशोक मोतीलाल कटारिया एवं अन्य के मामले में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने माना है कि "अधिकार क्षेत्र" और "अनुरक्षणीयता" अलग-अलग कानूनी अवधारणाएँ हैं, जिन्हें अक्सर गलती से एक-दूसरे के स्थान पर प्रयोग किया जाता है।
दीपक माणकलाल कटारिया बनाम अशोक मोतीलाल कटारिया एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह मामला दीपक माणकलाल कटारिया (याचिकाकर्त्ता) और अहसोक मोतीलाल कटारिया (प्रतिवादी संख्या 1) के बीच संपत्ति विवाद से जुड़ा है, जो 28 मई, 1995 को निष्पादित एक मध्यस्थता समझौते से उत्पन्न हुआ है।
- वर्ष 1994 में दोनों पक्षों के बीच चल और अचल संपत्ति को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया।
- एक मध्यस्थ नियुक्त किया गया और 17 फरवरी, 1997 को एक प्रारूप मध्यस्थता पंचाट प्रस्तुत किया गया।
- याचिकाकर्त्ता ने इस प्रारूप को स्वीकार कर लिया, लेकिन प्रतिवादी संख्या 1 ने इसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया, जिसका अर्थ था कि अंतिम मध्यस्थता निर्णय कभी औपचारिक रूप से नहीं दिया गया।
- 17 मार्च, 1998 को याचिकाकर्त्ता ने मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 (ए एंड सी) की धारा 9 के तहत प्रतिवादी नंबर 1 के खिलाफ अंतरिम निषेधाज्ञा की मांग करते हुए एक सिविल आवेदन दायर किया।
- ट्रायल कोर्ट ने 7 अप्रैल, 1998 को प्रारंभिक तौर पर एक अस्थायी निषेधाज्ञा प्रदान की थी।
- प्रतिवादी संख्या 1 ने इस निषेधाज्ञा को चुनौती दी और ज़िला न्यायाधीश ने निषेधाज्ञा को खारिज कर दिया तथा निर्णय दिया कि ए एंड सी अधिनियम के तहत सिविल न्यायाधीश उचित "न्यायालय" नहीं है।
- याचिकाकर्त्ता ने इस आदेश को विभिन्न कानूनी माध्यमों से चुनौती दी, जिसमें एक रिट याचिका और सर्वोच्च न्यायालय में एक विशेष अनुमति याचिका भी शामिल थी, जिसे खारिज कर दिया गया।
- इसके बाद, याचिकाकर्त्ता ने ए एंड सी अधिनियम, 1940 की धारा 20 के तहत एक और आवेदन दायर किया, जिसमें चल रहे विवाद को हल करने की मांग की गई।
- मुख्य मुद्दा मध्यस्थता समझौते और उससे संबंधित कानूनी कार्यवाहियों के क्षेत्राधिकार तथा प्रक्रियागत जटिलताओं पर केंद्रित है, विशेष रूप से वर्ष 1940 के मध्यस्थता अधिनियम से वर्ष 1996 के ए एंड सी अधिनियम में हुए बदलावों के संदर्भ में।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
बॉम्बे उच्च न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं:
- अधिकार क्षेत्र और रखरखाव के बीच अंतर
- न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि "अधिकार क्षेत्र" और "अनुरक्षणीयता" अलग-अलग कानूनी अवधारणाएँ हैं, जिन्हें अक्सर गलती से एक-दूसरे के स्थान पर प्रयोग किया जाता है।
- अधिकार क्षेत्र से तात्पर्य किसी विवाद पर निर्णय देने के लिये न्यायालय की शक्ति और अधिकार से है।
- रखरखाव कानूनी कार्यवाही की प्रक्रियात्मक वैधता से संबंधित है।
- अधिकार क्षेत्र के प्रकार
- न्यायालय ने तीन प्रकार के अधिकार क्षेत्रों पर विस्तार से चर्चा की:
- विषय-वस्तु क्षेत्राधिकार: किसी विशिष्ट प्रकार के मामले से निपटने की शक्ति
- प्रादेशिक अधिकार क्षेत्र: न्यायालय के अधिकार का भौगोलिक क्षेत्र
- आर्थिक क्षेत्राधिकार: न्यायालय की शक्ति की मौद्रिक सीमाएँ
- ट्रायल कोर्ट के आदेश का आलोचनात्मक विश्लेषण
- उच्च न्यायालय ने यह निष्कर्ष निकाला कि ट्रायल कोर्ट ने अधिकार क्षेत्र और अनुरक्षणीयता की अवधारणाओं को गलत रूप से एक साथ मिला दिया।
- ट्रायल कोर्ट ने यह निष्कर्ष निकाला कि उसके पास अधिकार क्षेत्र नहीं है, जबकि उसे मामले की स्थिरता की जाँच करनी चाहिये थी।
- उत्तरदाताओं के पूर्व बयानों का महत्त्व
- न्यायालय ने कहा कि प्रतिवादियों ने स्वयं पहले सर्वोच्च न्यायालय की कार्यवाही में स्वीकार किया था कि मध्यस्थता समझौता 1940 के अधिनियम से संबंधित था।
- अधिनियम, 1996 की धारा 85(2)(ए) में दिये गए बचत प्रावधान के संदर्भ में यह स्वीकारोक्ति विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण थी।।
- प्रक्रियागत दोष
- ट्रायल कोर्ट ने अनुचित रूप से अनुरक्षणीयता पर विचार किया, जबकि उसने पहले ही यह निष्कर्ष निकाल लिया था कि मामले में अधिकार क्षेत्र का अभाव है।
- न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि क्षेत्राधिकार से संबंधित निर्णय मामले के गुण-दोष पर आगे विचार-विमर्श में बाधा उत्पन्न करते है।
- बॉम्बे उच्च न्यायालय ने वर्ष 1940 के ए एंड सी अधिनियम की धारा 20 की व्याख्या इस प्रकार की कि यह पक्षकारों को मध्यस्थता समझौते दाखिल करने और मध्यस्थों की नियुक्ति के लिये अदालत से हस्तक्षेप करने की अनुमति देता है।
- सिविल जज का अधिकार क्षेत्र उन मामलों पर निर्णय लेने की क्षमता से प्राप्त होता है, जो मुकदमे के दायरे में आते हैं।
- अंततः बॉम्बे उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया तथा उसे निर्देश दिया कि वह आवेदन पर कानून के अनुसार, गुण-दोष के आधार पर निर्णय करे।
ए एंड सी अधिनियम, 1940 की धारा 20 क्या है?
न्यायालय में मध्यस्थता समझौते हेतु आवेदन दाखिल करने हेतु:
- उपधारा (1): दाखिल करने की शर्तें
- मुकदमा दायर करने से पहले पक्षों को मध्यस्थता समझौता करना होगा।
- समझौते की विषय-वस्तु या उसके किसी भाग पर लागू होता है।
- समझौते में एक मतभेद उत्पन्न हो गया है।
- पक्षकार अध्याय II के तहत कार्यवाही करने के बजाय अधिकार क्षेत्र वाले न्यायालय में आवेदन कर सकते हैं।
- उपधारा (2): आवेदन की अनिवार्यताएँ
- लिखित में होना चाहिये।
- एक वाद के रूप में क्रमांकित और पंजीकृत
- पार्टियों का वर्गीकरण:
- यदि सभी पक्ष आवेदन करें: कुछ वादी के रूप में, अन्य प्रतिवादी के रूप में
- यदि केवल कुछ पक्ष ही आवेदन करते हैं: आवेदक वादी के रूप में, अन्य प्रतिवादी के रूप में
- उपधारा (3): न्यायालय की प्रारंभिक प्रतिक्रिया
- न्यायालय को सभी समझौता पक्षों (आवेदकों को छोड़कर) को नोटिस जारी करना होगा।
- नोटिस में पक्षों को कारण बताना आवश्यक है।
- यह उत्तर देने के लिये समय-सीमा निर्दिष्ट करता है कि अनुबंध क्यों दाखिल नहीं किया जाना चाहिये।
- उपधारा (4): जब कोई पर्याप्त कारण नहीं दिखाया जाता है
- न्यायालय समझौते को दाखिल करने का आदेश देगा।
- संदर्भ आदेश बनाएँ
- पक्षों द्वारा नियुक्त मध्यस्थ (सहमति से या अन्यथा)
- यदि पक्षकार सहमत नहीं हो पाते हैं, तो न्यायालय मध्यस्थ नियुक्त करेगा।
- उपधारा (5): अनुवर्ती कार्यवाही
- मध्यस्थता अधिनियम के अन्य प्रावधानों के अनुसार आगे बढ़ती है।
- जहाँ तक प्रावधान लागू होते हैं, उन्हें लागू करता है।