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सिविल कानून
निषेधाज्ञा वाद की अनुरक्षणीयता
16-Jan-2025
कृष्णा चंद्र बेहरा बनाम नारायण नायक एवं अन्य "विधि में यह तथ्य अच्छी तरह सुस्थापित है कि यदि प्रतिवादी वादी के स्वामित्व पर विवाद नहीं करते हैं तो वाद केवल इस आधार पर विफल नहीं होना चाहिये कि मामला केवल निषेधाज्ञा के लिये संस्थित किया गया है।" न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति आर. महादेवा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने अभिनिर्धारित किया कि निषेधाज्ञा के लिये वाद केवल तभी संस्थित किया जा सकता है, जब प्रतिवादी संपत्ति के स्वामित्व के संबंध में कोई विवाद न करे।
- उच्चतम न्यायालय ने कृष्ण चंद्र बेहरा एवं अन्य बनाम नारायण नायक एवं अन्य (2024) मामले में यह निर्णय दिया।
कृष्ण चंद्र बेहरा एवं अन्य बनाम नारायण नायक एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में वादी ने निम्नलिखित राहत की मांग करते हुए वाद संस्थित किया:
- प्रतिवादी को वाद की भूमि में प्रवेश करने से सदैव के लिये रोक दिया जाता है।
- प्रतिवादी को वाद की भूमि पर वादी के कब्जे में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये।
- प्रतिवादी को वाद के निपटान तक वाद की भूमि में प्रवेश न करने और वर्तमान में खड़ी धान की फसल को न काटने का अस्थायी रूप से निषेधाज्ञा दी गई है।
- स्वामित्व हेतु वाद में ट्रायल कोर्ट द्वारा वादी के पक्ष में डिक्री पारित की गई थी। प्रतिवादियों ने ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित डिक्री के विरुद्ध जिला न्यायाधीश, जयपुर के समक्ष अपील करने को प्राथमिकता दिया।
- यह अपील खारिज कर दी गई तथा ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित डिक्री की पुष्टि की गई।
- इसके बाद प्रतिवादियों ने सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 100 के अंतर्गत द्वितीयक अपील के माध्यम से उच्च न्यायालय में अपील की।
- इसके बाद प्रतिवादी सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 100 के अंतर्गत द्वितीयक अपील के माध्यम से उच्च न्यायालय गए।
- इस मामले में उच्च न्यायालय ने विचारण के लिये निम्नलिखित दो विधिक प्रश्न समक्ष रखे:
- क्या अधीनस्थ न्यायालयों ने कब्जे एवं स्वामित्व की घोषणा की राहत मांगे बिना ही निषेधाज्ञा की राहत मांगने में चूक की है।
- क्या अधीनस्थ न्यायालयों ने कथित दस्तावेज को बिक्री मानने में सही किया है, जबकि इस तथ्य पर विवाद है कि दस्तावेज बिक्री हेतु है या सशर्त बिक्री द्वारा बंधक है।
- उच्च न्यायालय ने प्रतिवादियों के पक्ष में पहला मामला तय किया तथा ट्रायल कोर्ट एवं प्रथम अपीलीय न्यायालय द्वारा पारित निर्णय एवं डिक्री को रद्द कर दिया।
- उच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के पक्ष में राहत देने में एकमात्र आधार यह दिया कि निषेधाज्ञा की राहत सरलता से मांगी गई थी।
- इस प्रकार, मामला उच्चतम न्यायालय के समक्ष था।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि यह सुस्थापित विधि है कि यदि प्रतिवादी वादी के स्वामित्व पर विवाद नहीं करते हैं तो केवल इस आधार पर वाद विफल नहीं होना चाहिये कि मामला केवल निषेधाज्ञा के लिये संस्थित किया गया है तथा घोषणा के रूप में किसी मुख्य राहत की मांग नहीं की गई है।
- न्यायालय ने कहा कि वर्तमान तथ्यों में जब प्रतिवादियों (मूल प्रतिवादियों) की ओर से विधिक सलाहकार अधिवक्ता से इस विषय में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि चूंकि प्रतिवादियों के पास कब्जा है, इसलिये अपीलकर्ताओं के लिये - यहाँ वादी के रूप में - यह अनिवार्य है कि वे वाद की संपत्ति पर कब्जे की मांग करते हुए मुख्य राहत के लिये प्रार्थना करें।
- यह पाया गया कि उच्च न्यायालय ने इस तथ्य पर कोई टिप्पणी नहीं की कि वादग्रस्त संपत्ति पर किसका कब्जा है।
- उपरोक्त तथ्यों के मद्देनजर न्यायालय ने उच्च न्यायालय द्वारा पारित निर्णय को रद्द कर दिया तथा मामले को विधि के अनुसार द्वितीय अपील पर नए सिरे से विचार करने के लिये उच्च न्यायालय को वापस भेज दिया।
निषेधाज्ञा का वाद क्या है?
- निषेधाज्ञा एक उपाय है जो किसी व्यक्ति के पक्ष में मौजूद किसी भी दायित्व के उल्लंघन को रोकने के लिये न्यायालय से मांगा जाता है।
- निषेधाज्ञा की अवधि के अनुसार निषेधाज्ञा दो प्रकार की होती है:
- स्थायी निषेधाज्ञा:
- स्थायी निषेधाज्ञा एक न्यायालयी आदेश है जो किसी पक्ष को कुछ विशेष कृत्य करने से रोकता है या उन्हें विनिर्दिष्ट कार्य करने के लिये बाध्य करता है।
- इसे अंतिम एवं स्थायी उपाय माना जाता है, जो प्रारंभिक निषेधाज्ञा से अलग है, जो किसी विधिक कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान अस्थायी आधार पर जारी की जाती है।
- विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 (SRA) की धारा 38 के अंतर्गत स्थायी या शाश्वत निषेधाज्ञा दी जाती है।
- SRA की धारा 38 की उपधारा (1) में प्रावधानित किया गया है कि वादी को उसके पक्ष में विद्यमान किसी दायित्व के उल्लंघन को रोकने के लिये, चाहे वह स्पष्ट रूप से हो या निहितार्थ से, शाश्वत निषेधाज्ञा दी जा सकती है।
- अस्थायी निषेधाज्ञा:
- CPC का आदेश XXXIX विशेष रूप से अस्थायी निषेधाज्ञा से संबंधित है।
- यह उन शर्तों को रेखांकित करता है जिनके अंतर्गत कोई न्यायालय किसी पक्ष को कोई विशेष कार्य करने से रोकने या किसी पक्ष को कोई विनिर्दिष्ट कार्य करने के लिये बाध्य करने के लिये निषेधाज्ञा दे सकता है।
- मुख्य विचारणीय तथ्य निम्नलिखित हैं:
- मामले के गुण-दोष के आधार पर सफलता की संभावना।
- आवेदक को अपूरणीय क्षति की संभावना।
- पक्षों के बीच सुविधा का संतुलन।
निषेधाज्ञा वाद की अनुरक्षणीयता पर महत्त्वपूर्ण मामले क्या हैं?
टी.वी. रामकृष्ण रेड्डी बनाम एम. मल्लप्पा (2021):
- न्यायालय ने इस मामले में यह अभिनिर्धारित किया कि निषेधाज्ञा के लिये वाद केवल उन मामलों में संस्थित किया जा सकता है, जहाँ संपत्ति पर वादी का स्वामित्व संदिग्ध न हो।
अनाथुला सुधाकर बनाम पी. बुची रेड्डी (मृत) (2008):
- यह एक ऐतिहासिक मामला है, जिसमें न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि निषेधाज्ञा के लिये वाद कब संस्थित किया जा सकता है:
- न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि निम्नलिखित मामलों में सरलतापूर्वक निषेधाज्ञा के लिये वाद संस्थित किया जा सकता है:
- यदि कोई व्यक्ति वादी की संपत्ति के स्वामित्व के विषय में संदेह व्यक्त करता है तथा वादी के पास संपत्ति का कब्जा नहीं है, तो वादी को हस्तक्षेप रोकने के अतिरिक्त निवेदन के साथ या उसके बिना, स्वामित्व एवं कब्जे की घोषणा के लिये मामला दर्ज करना चाहिये।
- यदि वादी का स्वामित्व स्पष्ट है तथा उस पर प्रश्न नहीं किया गया है, लेकिन वे कब्जे में नहीं हैं, तो उन्हें हस्तक्षेप को रोकने के निवेदन के साथ-साथ कब्जे के लिये मामला दर्ज करना होगा।
- यदि वादी के पास कब्जा है, लेकिन हस्तक्षेप या बेदखल होने का खतरा है, तो वे हस्तक्षेप को रोकने के लिये निवेदन करते हुए बस एक मामला दर्ज कर सकते हैं।
- न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि निम्नलिखित मामलों में सरलतापूर्वक निषेधाज्ञा के लिये वाद संस्थित किया जा सकता है:
- न्यायालय ने आगे इस प्रश्न का उत्तर दिया कि क्या निषेधाज्ञा के लिये वाद में स्वामित्व का मुद्दा सीधा एवं मूलतः मुद्दा होगा:
- निषेधाज्ञा के लिये वाद मुख्य रूप से कब्जे पर केंद्रित होता है, न कि स्वामित्व (शीर्षक) पर।
- आमतौर पर, ऐसे मामलों में स्वामित्व (शीर्षक) के प्रश्न पर सीधे या महत्त्वपूर्ण रूप से विचार नहीं किया जाता है।
- न्यायालय कब्जे की स्थिति के आधार पर निषेधाज्ञा के लिये निवेदन पर निर्णय लेगा।
- हालाँकि, खाली पड़ी ज़मीन पर विवाद जैसी स्थितियों में, विधिक कब्ज़ा (विधिपूर्वक कब्ज़ा) स्थापित करने के लिये स्वामित्व सिद्ध करने की आवश्यकता हो सकती है।
- ऐसे मामलों में, कब्ज़ा के प्रश्न पर निर्णय लेने के लिये स्वामित्व का निर्धारण करना आवश्यक हो जाता है।
- इसके अतिरिक्त निम्नलिखित बिन्दु अभिनिर्धारित किये गए कि क्या निषेधाज्ञा के लिये वाद में स्वामित्व के मुद्दे पर निर्णय लिया जा सकता है:
- जब स्वामित्व (टाइटल) के संबंध में उचित तर्क एवं साक्ष्य प्रस्तुत हों तथा मामला सीधा हो, तो न्यायालय निषेधाज्ञा के वाद में भी स्वामित्व के प्रश्न पर निर्णय कर सकता है।
- यह सामान्य नियम का अपवाद है कि स्वामित्व संबंधी विवादों का निर्णय निषेधाज्ञा के वाद में नहीं किया जाता है।
- यदि कोई व्यक्ति जिसके पास स्पष्ट स्वामित्व एवं कब्ज़ा है, निषेधाज्ञा के लिये आवेदन करता है, तो उसे घोषणा के लिये अधिक जटिल एवं महंगे वाद में बाध्य नहीं किया जाना चाहिये, सिर्फ इसलिये कि कोई व्यक्ति दोषपूर्ण तरीके से उसके स्वामित्व को चुनौती देता है या उसकी संपत्ति पर अतिक्रमण करने का प्रयास करता है।
- न्यायालय को अपने विवेक का प्रयोग बुद्धिमत्ता से करते हुए यह निर्धारित करना चाहिये:
- निषेधाज्ञा के वाद में स्वामित्व की जाँच कब की जाए, तथा
- वादी को घोषणा के लिये व्यापक वाद संस्थित करने का निर्देश कब दिया जाए।
- निर्णय प्रत्येक मामले के विनिर्दिष्ट तथ्यों एवं परिस्थितियों पर निर्भर होना चाहिये।
पारिवारिक कानून
संरक्षकत्व का अधिकार
16-Jan-2025
अमित धामा बनाम श्रीमती पूजा और 2 अन्य "केवल इसलिये कि जब दम्पति पृथक हुए थे, उस समय मां को अपनी बेटी की संगति से वंचित रखा गया था तथा तथ्य यह है कि बेटी कुछ समय तक पिता की संगति में रही थी, यह तथ्य अपने आप में अप्राप्तवय बेटी की संरक्षकत्व उसकी मां को देने से मना करने के लिये पर्याप्त कारण नहीं होगा, जो उसकी नैसर्गिक अभिभावक है।" न्यायमूर्ति अश्विनी कुमार मिश्रा एवं न्यायमूर्ति डोनाडी रमेश |
स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अमित धामा बनाम श्रीमती पूजा एवं दो अन्य के मामले में यह माना कि केवल इसलिये कि बेटी कुछ समय से पिता की संरक्षकत्व में थी, मां को संरक्षकत्व देने से मना करने के लिये पर्याप्त कारण नहीं था।
अमित धामा बनाम श्रीमती पूजा एवं दो अन्य के मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- अमित धामा (अपीलकर्त्ता-पति) एवं श्रीमती पूजा (प्रतिवादी-पत्नी) का विवाह 23 मई 2010 को संपन्न हुआ।
- विवाह से दो बालक पैदा हुए:
- 2 अप्रैल 2013 को एक बेटे का जन्म हुआ।
- 29 सितंबर 2020 को एक बेटी का जन्म हुआ।
- दोनों पक्षों के बीच वैवाहिक मतभेद उत्पन्न हो गए, जिसके कारण वे अलग हो गए तथा पृथक रहने लगे।
- पति (अपीलकर्त्ता) ने हिंदू विवाह अधिनियम 1955 (HMA) की धारा 13 के अंतर्गत विवाह-विच्छेद की कार्यवाही आरंभ की है, जो लंबित है।
- बेटा वर्तमान में फरीदाबाद के एक बोर्डिंग स्कूल में अध्ययनरत है, जहाँ सभी शैक्षणिक व्यय पिता द्वारा वहन किये जाते हैं।
- 4 वर्ष एवं 3 महीने की अप्राप्तवय बेटी पिता के संरक्षकत्व में थी।
- पत्नी (प्रतिवादी) ने संरक्षकत्व एवं प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 (G & W) की धारा 7 एवं 12 के अंतर्गत अप्राप्तवय बेटी के संरक्षकत्व के लिये याचिका संस्थित की। (जी एंड डब्ल्यू)।
- कुटुंब न्यायालय ने 31 अगस्त 2024 को एकपक्षीय आदेश पारित कर अप्राप्तवय बेटी का संरक्षकत्व मां को दे दी।
- पति ने कुटुंब न्यायालय के आदेश को चुनौती देते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय में प्रथम अपील संस्थित की, जिसमें कहा गया कि:
- उन्होंने अप्राप्तवय बेटी का संरक्षकत्व उसकी मां को देने का निर्देश दिया।
- न्यायालय ने माता-पिता दोनों को पंद्रह दिन के अंतराल पर मिलने का अधिकार दिया।
- पत्नी स्नातक है और फिलहाल अपने माता-पिता के साथ रहती है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं:
- न्यायालय ने पक्षों के बीच सौहार्दपूर्ण समाधान की संभावना तलाशने के लिये कई बार प्रयास किया, लेकिन वह असफल रहा।
- न्यायालय ने कार्यवाही के दौरान बच्चों से सीधे बातचीत की।
- मुख्य विधिक अवलोकन:
- विधिक तौर पर माँ को 5 वर्ष से कम आयु के अप्राप्तवय बच्चों की नैसर्गिक अभिभावक माना जाता है।
- बाल संरक्षकत्व के मामलों में प्राथमिक चिंता बालक का कल्याण एवं भलाई है।
- संरक्षकत्व हस्तांतरण का मनोवैज्ञानिक तनाव, प्रासंगिक होते हुए भी, अन्य हितों के साथ संतुलित होना चाहिये।
- मामले के संबंध में विनिर्दिष्ट टिप्पणियाँ:
- माँ, जो स्नातक है और अपने माता-पिता के साथ रहती है, को अनुकूल माना गया।
- माँ के विरुद्ध कोई ऐसा आरोप नहीं लगाया गया जिससे संकेत मिलता हो कि उसकी संरक्षकत्व में बेटी के कल्याण से समझौता किया जाएगा।
- इस तथ्य पर विचार किया गया कि दोनों बालक माँ से दूर थे।
- न्यायालय ने पाया कि चार वर्ष की बेटी की विभिन्न शारीरिक, भावनात्मक एवं मनोवैज्ञानिक आवश्यकताएँ माँ की देखरेख में बेहतर तरीके से पूरी की जा सकती हैं।
- न्यायालय ने पिता की इस तर्क को खारिज कर दिया कि अगर संरक्षकत्व माँ को सौंप दी गई तो बेटी को आघात पहुँचेगा।
- न्यायालय ने कहा कि सिर्फ़ इसलिये कि बेटी कुछ समय से पिता की संरक्षकत्व में थी, माँ को संरक्षकत्व देने से मना करने के लिये पर्याप्त कारण नहीं था।
- उच्च न्यायालय ने कुटुंब न्यायालय के पाक्षिक मुलाकात के अधिकार के आदेश को यथावत रखा तथा पक्षकारों को आवश्यकता पड़ने पर मुलाकात की शर्तों में संशोधन की अनुमति दी।
बालक की अंतरिम संरक्षकत्व के संबंध में विधि क्या है?
संरक्षकत्व एवं प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 की धारा 12:
- यह धारा अप्राप्तवय को प्रस्तुत करने तथा उसके शरीर एवं संपत्ति की अंतरिम सुरक्षा के लिये अंतरिम आदेश देने की शक्ति से संबंधित है।
- इस धारा की उपधारा (1) में यह प्रावधान है कि न्यायालय निर्देश दे सकता है कि अप्राप्तवय का संरक्षकत्व धारण करने वाला व्यक्ति, यदि कोई हो, उसे ऐसे स्थान एवं समय पर तथा ऐसे व्यक्ति के समक्ष प्रस्तुत करेगा या प्रस्तुत कराएगा जिसे वह नियुक्त करे, तथा अप्राप्तवय के शरीर या संपत्ति का अस्थायी संरक्षकत्व एवं सुरक्षा के लिये ऐसा आदेश दे सकता है जिसे वह उचित समझे।
- इस धारा की उपधारा (2) में यह प्रावधान है कि यदि अप्राप्तवय महिला है, जिसे सार्वजनिक रूप से उपस्थित होने के लिये बाध्य नहीं किया जाना चाहिये, तो उपधारा (1) के अंतर्गत उसके प्रस्तुत होने के निर्देश में उसे देश की प्रथाओं एवं रीतियों के अनुसार प्रस्तुत किये जाने की अपेक्षा की जाएगी।
- उपधारा (3) में यह प्रावधान है कि इस धारा का कोई भी तथ्य निम्नलिखित को अधिकृत नहीं करेगी-
- न्यायालय द्वारा किसी अप्राप्तवय लड़की को उसके पति होने के आधार पर उसका संरक्षक होने का दावा करने वाले व्यक्ति की अस्थायी संरक्षकत्व में रखना, जब तक कि वह अपने माता-पिता, यदि कोई हो, की सहमति से पहले से ही उसकी संरक्षकत्व में न हो, या
- कोई भी व्यक्ति जिसे अप्राप्तवय की संपत्ति की अस्थायी संरक्षकत्व एवं प्रतिपाल्यता सौंपी गई हो, वह संपत्ति पर कब्जे वाले किसी भी व्यक्ति को विधि के सम्यक् क्रम के अतिरिक्त किसी अन्य तरीके से बेदखल कर सकता है।
बाल कल्याण का सिद्धांत क्या है?
- हिंदू अप्राप्तवयता एवं संरक्षकता अधिनियम, 1956 (HMGA) की धारा 13:
- इस धारा में यह प्रावधान है कि न्यायालय द्वारा किसी व्यक्ति को हिन्दू अवयस्क का संरक्षक नियुक्त या घोषित करते समय अवयस्क का कल्याण सर्वोपरि माना जाएगा।
- संरक्षकत्व एवं प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 की धारा 17:
- यह धारा संरक्षक नियुक्त करते समय विचार किये जाने वाले मामलों का प्रावधान करती है।
- धारा 17 (1) में यह प्रावधान है कि किसी अप्राप्तवय के संरक्षक की नियुक्ति या घोषणा करते समय न्यायालय, इस धारा के प्रावधानों के अधीन रहते हुए, इस तथ्य से निर्देशित होगा कि अप्राप्तवय जिस विधि के अधीन है, उसके अनुरूप परिस्थितियों में अप्राप्तवय के कल्याण के लिये क्या प्रतीत होता है।
- धारा 17 (2) में यह प्रावधान है कि अप्राप्तवय के कल्याण के विषय में विचार करते समय न्यायालय को अप्राप्तवय की आयु, लिंग एवं धर्म, प्रस्तावित अभिभावक के चरित्र एवं क्षमता तथा अप्राप्तवय से उसके नातेदारों की निकटता, मृतक माता-पिता की इच्छाएँ, यदि कोई हों, तथा प्रस्तावित अभिभावक के अप्राप्तवय या उसकी संपत्ति के साथ मौजूदा या पिछले संबंधों को ध्यान में रखना होगा।
- धारा 17 (3) में प्रावधान है कि यदि अप्राप्तवय इतना बड़ा है कि वह बुद्धिमानी से अपनी पसंद बना सके, तो न्यायालय उस पसंद पर विचार कर सकता है।
- धारा 17 (5) में प्रावधान है कि न्यायालय किसी व्यक्ति को उसकी इच्छा के विरुद्ध अभिभावक नियुक्त या घोषित नहीं करेगा।
बालक के संरक्षकत्व से संबंधित मामले क्या हैं?
- शाज़िया अमन खान एवं अन्य बनाम उड़ीसा राज्य (2024):
- बालक की प्रतिभा एवं व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के लिये बालक की अनुरक्षणीयता एवं सुरक्षा एक आवश्यक तत्त्व है।
- विधि का एक और सिद्धांत जो बालक के संरक्षकत्व के संदर्भ में स्थापित है, वह है बालक की इच्छा, अगर वह सक्षम है।
- न्यायालय ने माना कि बालक के कल्याण को देखा जाना चाहिये न कि पक्षों के अधिकारों को।
- आशीष रंजन बनाम अनुपम टंडन (2010):
- यह एक सुस्थापित सिद्धांत है कि संरक्षकत्व के प्रश्न का निर्धारण करते समय बालक के कल्याण को उच्चत्तम महत्व दिया जाना चाहिये, न कि संविधि के अंतर्गत माता-पिता के अधिकारों को।
- बालक के कल्याण पर विचार करते समय, "बालक के नैतिक एवं नैतिक कल्याण के साथ-साथ उसकी शारीरिक भलाई को भी न्यायालय द्वारा तौला जाना चाहिये"
- बालक को संपत्ति या वस्तु के रूप में नहीं माना जा सकता है तथा इसलिये, ऐसे मुद्दों को न्यायालय द्वारा प्रेम, स्नेह एवं भावनाओं के साथ सावधानी एवं सतर्कता के साथ मानवीय स्पर्श के साथ संभाला जाना चाहिये।
- कर्नल रमनीश पाल सिंह बनाम सुगंधी अग्रवाल (2024):
- न्यायालय ने कहा कि संरक्षकत्व के मामले पर निर्णय निम्नलिखित कारकों को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिये:
- अप्राप्तवय बच्चों को उपलब्ध कराए जाने वाले सामाजिक-आर्थिक एवं शैक्षिक अवसर;
- बालकों की स्वास्थ्य सेवा एवं समग्र कल्याण बढ़ते किशोरों के लिये अनुकूल भौतिक परिवेश प्रदान करने की क्षमता,
- लेकिन अप्राप्तवय बालकों की प्राथमिकता को भी ध्यान में रखना।
- न्यायालय ने कहा कि संरक्षकत्व के मामले पर निर्णय निम्नलिखित कारकों को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिये:
वाणिज्यिक विधि
प्रतिसंहरण याचिका
16-Jan-2025
मैकलियोड्स फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड बनाम पेटेंट नियंत्रक एवं अन्य "दिल्ली उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया है कि पेटेंट की अवधि समाप्त होने के बाद भी प्रतिसंहरण याचिका संस्थित की जा सकती है या यथावत रखी जा सकती है।" न्यायमूर्ति अमित बंसल |
स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
दिल्ली उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि पेटेंट अधिनियम की धारा 64 के अंतर्गत पेटेंट की अवधि समाप्त होने के बाद भी प्रतिसंहरण याचिका संस्थित की जा सकती है या उसे यथावत रखा जा सकता है। न्यायमूर्ति अमित बंसल ने स्पष्ट किया कि पेटेंट की अवधि समाप्त होने से अतिलंघन के वाद या प्रतिसंहरण याचिकाओं सहित संबंधित विधिक कार्यवाही निरर्थक नहीं हो जाती।
- न्यायालय ने प्रतिसंहरण याचिकाओं के संस्थित होने के प्रावधान को धारा 107 के अंतर्गत अविधि मान्यता के बचाव से पृथक करते हुए कहा कि केवल उच्च न्यायालय ही एकल प्रतिसंहरण याचिकाओं पर विचार कर सकते हैं।
मैकलियोड्स फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड बनाम पेटेंट नियंत्रक एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- मधुमेह रोधी दवाओं सहित दवा उत्पादों के विनिर्माण एवं विपणन में लगी मैकलियोड्स फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड ने पेटेंट अधिनियम, 1970 की धारा 64(1) के अंतर्गत भारतीय पेटेंट IN 243301 को चुनौती देते हुए प्रतिसंहरण याचिका संस्थित की।
- विचाराधीन पेटेंट, जो बोह्रिंजर इंगेलहेम फार्मा GmbH & Co. KG (एक जर्मन कंपनी) के नाम पर पंजीकृत है, 'LINAGLIPTIN' नामक एक औषधीय उत्पाद से संबंधित है, जो एक मधुमेह रोधी उत्पाद है।
- पेटेंट का अधिकार बोह्रिंजर को 5 अक्टूबर 2022 को प्रदान किया गया था, जिसकी प्राथमिकता तिथि 21 अगस्त 2002 है।
- मैकलियोड्स ने 22 फरवरी 2022 को जेनेरिक LINAGLIPTIN के अपने नियोजित वाणिज्यिक लॉन्च से ठीक पहले 17 फरवरी 2022 को प्रतिसंहरण याचिका संस्थित की।
- इसके बाद, बोह्रिंजर ने 19 फरवरी 2022 को हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के समक्ष मैकलियोड्स के विरुद्ध अतिलंघन का वाद संस्थित किया।
- विषय पेटेंट की अवधि 18 अगस्त 2023 को समाप्त हो गई।
- बोह्रिंजर ने कई आवेदन संस्थित किये:
- एक याचिका में प्रतिसंहरण याचिका को खारिज करने की मांग की गई है, जिसमें दावा किया गया है कि यह पेटेंट अनुदान के बारह वर्ष बाद संस्थित की गई थी।
- एक अन्य याचिका में प्रतिसंहरण याचिका को हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय में स्थानांतरित करने का निवेदन किया गया है।
- इसके बाद मैकलियोड्स ने उच्चतम न्यायालय में एक स्थानांतरण याचिका संस्थित कर हिमाचल प्रदेश मामले को दिल्ली उच्च न्यायालय में स्थानांतरित करने की मांग की, जो अभी भी लंबित है।
- न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने पेटेंट अधिनियम की धारा 64 के अंतर्गत प्रतिसंहरण याचिका के संस्थित होने और धारा 107 के अंतर्गत अविधि मान्यता के बचाव के बीच अंतर किया, तथा उनके मौलिक रूप से भिन्न विधिक निहितार्थों एवं प्रक्रियाओं को ध्यान में रखा।
- न्यायालय ने कहा कि जिला न्यायालय पेटेंट अतिलंघन के वाद और धारा 107 के अंतर्गत संबंधित बचावों पर निर्णय दे सकते हैं, लेकिन केवल उच्च न्यायालयों के पास प्रतिसंहरण याचिकाओं पर विचार करने का अधिकार है।
- न्यायालय ने कहा कि एक सफल प्रतिसंहरण याचिका के परिणामस्वरूप रजिस्टर से पेटेंट को पूरी तरह से हटा दिया जाता है, जैसे कि वह कभी अस्तित्व में ही न हो, जबकि धारा 107 के अंतर्गत अविधि मान्यता का पता लगाने के लिये रजिस्टर में सुधार के लिये अतिरिक्त कदम उठाने की आवश्यकता होती है।
- न्यायालय ने कहा कि अतिलंघन के वाद में निष्कर्ष व्यक्तिगत रूप से संचालित होते हैं (केवल प्रतियोगी पक्षों को बाध्यकारी), जबकि पेटेंट प्रतिसंहरण विमुद्रीकरण में संचालित होता है (सभी पक्षों को सार्वभौमिक रूप से प्रभावित करता है)।
- न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि किसी पक्ष के पास लंबित वाद में या तो प्रतिसंहरण याचिका संस्थित करने या प्रति-दावा संस्थित करने का स्वतंत्र विकल्प है, तथा इस विकल्प को सीमित करने वाली कोई सांविधिक सीमा नहीं है।
- न्यायालय ने माना कि पेटेंट की समाप्ति स्वतः ही प्रतिसंहरण याचिका को निष्फल नहीं बना देती है, विशेष रूप से तब जब क्षतिपूर्ति का दावा करने वाली संबंधित अतिलंघन कार्यवाही लंबित हो।
- न्यायालय ने पुष्टि की कि पेटेंट अधिनियम की धारा 2(1)(t) के अंतर्गत "हितधारक व्यक्ति" के पास पेटेंट की समाप्ति के बाद भी प्रतिसंहरण याचिका जारी रखने का अधिकार है, विशेषकर तब, जब वे लंबित अतिलंघन कार्यवाही में संभावित दायित्व का सामना कर रहे हों।
प्रतिसंहरण याचिकाएँ क्या हैं?
- परिचय:
- प्रतिसंहरण याचिका किसी दिये गए पेटेंट को चुनौती देने और उसे संभावित रूप से अमान्य करने का एक विधिक तंत्र है। यह पेटेंट अधिनियम, 1970 की धारा 64 के अंतर्गत प्रदान किया गया एक सांविधिक उपचार है।
- फाइलिंग प्राधिकारी:
- प्रतिसंहरण याचिकाएँ केवल उच्च न्यायालय के समक्ष ही संस्थित की जा सकती हैं।
- इन्हें अधीनस्थ न्यायालयों या किसी अन्य प्राधिकरण के समक्ष संस्थित नहीं किया जा सकता।
- विधिक स्थिति:
- पेटेंट अधिनियम की धारा 2(1)(t) के अंतर्गत परिभाषित "किसी भी इच्छुक व्यक्ति" द्वारा संस्थित किया जा सकता है।
- केंद्र सरकार द्वारा संस्थित किया जा सकता है।
- चल रहे पेटेंट अतिलंघन के वाद में प्रति-दावे के रूप में संस्थित किया जा सकता है।
- समय संबंधी पहलू:
- पेटेंट की अवधि के दौरान संस्थित किया जा सकता है।
- यदि अतिलंघन की कार्यवाही लंबित है तो पेटेंट की समाप्ति के बाद भी जारी रखा जा सकता है।
- प्रतिसंहरण याचिका संस्थित करने के लिये कोई सांविधिक समय सीमा निर्धारित नहीं है।
- सफल याचिका का प्रभाव:
- इसके परिणामस्वरूप पेटेंट को पेटेंट रजिस्टर से पूरी तरह निरसित कर दिया जाता है।
- रेम में संचालित होता है (सभी पक्षों को सार्वभौमिक रूप से प्रभावित करता है)।
- पेटेंट को आरंभ से ही शून्य बना देता है।
- प्रक्रियात्मक आवश्यकताएँ:
- सभी पंजीकृत पेटेंट स्वामियों को इसकी संसूचना की जानी चाहिये।
- पेटेंट में पंजीकृत हित रखने वाले सभी व्यक्तियों को इसकी संसूचना की जानी चाहिये।
- धारा 64 के अंतर्गत प्रतिसंहरण के आधार निर्दिष्ट करने चाहिये।
- विशिष्ट विशेषताएँ:
- अतिलंघन के वाद में धारा 107 के अंतर्गत अविधि मान्यता बचाव से अलग।
- अतिलंघन की कार्यवाही में अविधि मान्यता चुनौतियों की तुलना में कार्यवाही में व्यापक।
- विशिष्ट दावों के बजाय पूरे पेटेंट को चुनौती दी जा सकती है।
- साक्ष्य का भार:
- याचिकाकर्त्ता को धारा 64 के अंतर्गत प्रतिसंहरण के लिये कम से कम एक आधार स्थापित करना होगा।
- प्रमाण का मानक संभावनाओं के संतुलन पर आधारित है।
- प्रतिसंहरण के आधारों का समर्थन करने के लिये तकनीकी साक्ष्य की आवश्यकता हो सकती है।
अधिनियम की धारा 64 क्या है?
- मौलिक उद्देश्य:
- धारा 64 पेटेंट के प्रतिसंहरण के लिये आधार प्रदान करती है, जो अधिनियम के लागू होने से पहले और बाद में दिये गए पेटेंटों पर लागू होता है।
- कौन आवेदन कर सकता है:
- प्रतिसंहरण याचिकाएँ निम्नलिखित द्वारा संस्थित की जा सकती हैं:
- कोई भी इच्छुक व्यक्ति
- केंद्र सरकार
- उच्च न्यायालय के समक्ष पेटेंट अतिलंघन के वाद में प्रति-दावे के रूप में
- प्रतिसंहरण याचिकाएँ निम्नलिखित द्वारा संस्थित की जा सकती हैं:
- प्रतिसंहरण के मुख्य आधार:
- पूर्व दावे एवं पात्रता:
- इस आविष्कार का दावा पहले से ही एक अन्य भारतीय पेटेंट में किया जा चुका है, जिसकी प्राथमिकता तिथि पहले ही तय की जा चुकी है।
- पेटेंट ऐसे व्यक्ति को दिया गया था जो आवेदन करने का अधिकारी नहीं था।
- पेटेंट दोषपूर्ण तरीके से प्राप्त किया गया था, जिससे दूसरों के अधिकारों का अतिलंघन हुआ।
- तकनीकी वैधता:
- विषय-वस्तु अधिनियम के अंतर्गत आविष्कार नहीं है।
- आविष्कार में नवीनता का अभाव है (नया नहीं)।
- आविष्कार स्पष्ट है या इसमें आविष्कारात्मक कदम का अभाव है।
- आविष्कार उपयोगी नहीं है।
- प्रकटीकरण संबंधी मुद्दे:
- आविष्कार एवं उसकी विधि का अपर्याप्त या अनुचित वर्णन।
- अस्पष्ट या अपर्याप्त रूप से परिभाषित संस्थित दावा।
- आविष्कार करने की सबसे उत्तम ज्ञात विधि का प्रकटन करने में विफलता।
- प्रक्रियागत अतिलंघन:
- मिथ्या सुझाव या प्रतिनिधित्व के माध्यम से प्राप्त पेटेंट।
- नियंत्रक को आवश्यक सूचना का प्रकटन करने में विफलता।
- गोपनीयता निर्देशों का अतिलंघन।
- धोखाधड़ी से प्राप्त विनिर्देशन में संशोधन।
- पूर्व दावे एवं पात्रता:
- विशेष ध्यान योग्य तथ्य:
- नवीनता एवं स्पष्टता के आकलन के लिये, व्यक्तिगत दस्तावेजों या गुप्त परीक्षणों/उपयोग पर विचार नहीं किया जाता है।
- पेटेंट प्रक्रियाओं द्वारा बनाए गए आयातित उत्पाद आयात की तिथि से भारत में ज्ञान/उपयोग का गठन करते हैं।
- सरकारी अधिकार:
- यदि पेटेंटधारक आविष्कार को सार्वजनिक उद्देश्यों के लिये उपयोग करने के सरकारी निवेदन का पालन करने में विफल रहता है, तो केंद्र सरकार प्रतिसंहरण के लिये याचिका संस्थित कर सकती है।
- प्रक्रियागत आवश्यकताएँ:
- प्रतिसंहरण याचिका की सूचना सभी पंजीकृत पेटेंट स्वामियों और पेटेंट में पंजीकृत हित धारण करने वालों को दी जानी चाहिये।
- अतिरिक्त आधार:
- जैविक सामग्री के स्रोत/उत्पत्ति का प्रकटन न करना या दोषपूर्ण उल्लेख करना।
- स्थानीय/स्वदेशी समुदायों में उपलब्ध ज्ञान के आधार पर पूर्वानुमान लगाना।
पेटेंट अधिनियम, 1970 की धारा 107 क्या है?
- मौलिक उद्देश्य:
- धारा 107 पेटेंट अतिलंघन के वाद में प्रावधानित बचाव प्रदान करती है।
- यह प्रतिवादियों के लिये उपलब्ध बचाव की दो अलग-अलग श्रेणियाँ प्रदान करती है।
- प्राथमिक बचाव - प्रतिसंहरण का आधार:
- धारा 64 के अंतर्गत पेटेंट प्रतिसंहरण के लिये प्रयोग किये जा सकने वाले हर आधार का प्रयोग बचाव के तौर पर किया जा सकता है।
- इसमें नवीनता की कमी, स्पष्टता, प्रकटीकरण की अपर्याप्तता आदि जैसे आधार शामिल हैं।
- प्रतिवादी अलग से प्रतिसंहरण याचिका संस्थित किये बिना पेटेंट वैधता को चुनौती दे सकता है।
- द्वितीयक रक्षा - अनुमत उपयोग:
- पेटेंट अधिनियम की धारा 47 के अंतर्गत अनुमत गतिविधियों से संबंधित है।
- मशीनें/उपकरण बनाने, उपयोग करने या आयात करने पर लागू होता है।
- प्रक्रियाओं का उपयोग करने या दवाइयों या औषधियों का आयात/उपयोग/वितरण करने तक विस्तारित होता है।
- धारा 47 की शर्तों के अनुसार की गई गतिविधियाँ वैध बचाव के रूप में कार्य करती हैं।
- विधिक प्रभाव:
- धारा 107(1) बचाव में सफलता विशिष्ट पेटेंट दावों को अमान्य कर सकती है।
- प्रतिसंहरण के विपरीत, यह रजिस्टर से पेटेंट को नहीं हटाता है।
- अविधि मान्यता का पता लगाना व्यक्तिगत रूप से संचालित होता है (केवल पक्षों के बीच)।
- अधिकारिता संबंधी पहलू:
- पेटेंट अतिलंघन के वाद पर अधिकारिता धारण करने वाले किसी भी न्यायालय के समक्ष संस्थित किया जा सकता है।
- प्रतिसंहरण याचिकाओं के विपरीत, यह उच्च न्यायालयों तक सीमित नहीं है।
- जिला न्यायालय इन बचावों पर निर्णय दे सकते हैं।
- प्रक्रियागत भेद:
- अलग से याचिका या प्रति-दावा की आवश्यकता नहीं है।
- याचिका में लिखित अभिकथन/बचाव किया जा सकता है।
- सभी पेटेंट स्वामियों को नोटिस देने की कोई आवश्यकता नहीं है।
- कार्यक्षेत्र की सीमा:
- धारा 107 के अंतर्गत अविधि मान्यता का पता लगाने के लिये रजिस्टर सुधार के लिये अतिरिक्त कदम उठाने की आवश्यकता होती है।
- इससे स्वचालित रूप से पेटेंट प्रतिसंहरण नहीं होता है।
- वैध दावों को अभी भी तीसरे पक्ष के विरुद्ध लागू किया जा सकता है।