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आपराधिक कानून
यौन हमला सिद्ध करने हेतु शारीरिक चोटों की भूमिका
20-Jan-2025
दलीप कुमार उर्फ दल्ली बनाम उत्तरांचल राज्य "यह एक आम मिथक है कि यौन उत्पीड़न के बाद चोटें लगना स्वाभाविक है। पीड़ित व्यक्ति आघात के प्रति अलग-अलग तरीके से प्रतिक्रिया करते हैं, जो डर, सदमे, सामाजिक कलंक या असहायता की भावना जैसे कारकों से प्रभावित होते हैं।" न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय एवं न्यायमूर्ति एस.वी.एन. भट्टी |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय और न्यायमूर्ति एसवीएन भट्टी की पीठ ने दोहराया कि यौन उत्पीड़न सिद्ध करने के लिये शारीरिक चोटें आवश्यक नहीं हैं।
- उच्चतम न्यायालय ने दिलीप कुमार उर्फ दल्ली बनाम उत्तरांचल राज्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
दिलीप कुमार उर्फ दल्ली बनाम उत्तरांचल राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- अभियोक्त्री (जवाहरी लाल की बेटी, PW-1) का कथित तौर पर 18 मार्च 1998 को लगभग 3:00 बजे व्यपहरण किया गया था।
- दूसरी प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) घटना के 24 घंटे से अधिक समय बाद 19.03.1998 को शाम 7:00 बजे दर्ज की गई थी।
- अपीलकर्त्ता दलीप कुमार उर्फ दल्ली का नाम FIR में नहीं था, लेकिन बाद में उन पर भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 363, 366-A, 366, 376 के साथ 149 एवं 368 के अधीन आरोप लगाए गए।
- अभियोक्त्री ने अपने अभिकथन में कहा कि:
- अपीलकर्त्ता के साथ विवाह की बातचीत चल रही थी, लेकिन जातिगत मतभेदों के कारण उसके पिता ने इसका विरोध किया।
- वह स्वेच्छा से अपीलकर्त्ता के साथ गई थी तथा कथित व्यपहरण के दौरान उसने कोई शोर नहीं मचाया।
- इसके अतिरिक्त, सरिता जो अभियोक्त्री की छोटी बहन थी तथा जिसने उसे अपीलकर्त्ता के साथ जाते हुए देखा था, उसे साक्षी के रूप में प्रस्तुत नहीं किया गया।
- यह ध्यान देने योग्य है कि प्रस्तुत किये गए चिकित्सा साक्ष्य से पता चला है कि अभियोक्त्री पर चोट या यौन हमले के कोई निशान नहीं थे।
- इसके अतिरिक्त, अभियोक्त्री की उम्र 16-18 वर्ष के बीच होने का अनुमान लगाया गया था।
- अधीनस्थ न्यायालयों ने निम्नलिखित निर्णय दिये:
- ट्रायल कोर्ट ने यौन उत्पीड़न (धारा 376) सहित अधिक गंभीर आरोपों से आरोपियों को दोषमुक्त कर दिया। हालाँकि अपीलकर्त्ता एवं एक अन्य आरोपी को धारा 363 (व्यपहरण) और 366-A (अप्राप्तवय लड़की को अवैध संभोग के लिये प्रेरित करना) के अधीन दोषी ठहराया गया।
- उच्च न्यायालय ने धारा 363 एवं 366-A के अधीन अपीलकर्त्ता की सजा को यथावत रखा।
- इस प्रकार, सजा के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की गई।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- यौन उत्पीड़न को सिद्ध करने के लिये शारीरिक चोट के संबंध में न्यायालय ने माना कि यौन उत्पीड़न को सिद्ध करने के लिये शारीरिक चोट आवश्यक नहीं है।
- उपर्युक्त के संबंध में, न्यायालय ने रूढ़िवादिता पर उच्चतम न्यायालय की पुस्तिका का उदाहरण दिया।
- न्यायालय ने कहा कि यह एक आम मिथक है कि यौन उत्पीड़न से चोट लगनी ही चाहिये, हालाँकि, पीड़ित भय, सदमे, सामाजिक कलंक या असहायता की भावनाओं जैसे कारकों से प्रभावित होकर विभिन्न तरीकों से आघात का परिणाम दर्शाते हैं।
- वर्तमान तथ्यों में न्यायालय ने पाया कि अभियोक्त्री ने स्वयं यह प्रमाणित किया है कि उसे अपीलकर्त्ता द्वारा बलपूर्वक नहीं ले जाया गया था। इस प्रकार, IPC की धारा 366 A की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिये तत्त्व पर्याप्त नहीं हैं।
- इसके अतिरिक्त, एक अन्य महत्त्वपूर्ण साक्षी सरिता को अभियोजन पक्ष द्वारा रोक लिया गया था तथा अभियोक्त्री की आयु 18 वर्ष होने की संभावना को पूरी तरह से खारिज नहीं किया जा सकता है।
- इसलिये, अभियोजन पक्ष IPC की धारा 366 A एवं धारा 363 के तत्त्वों को सिद्ध करने में विफल रहा।
भारतीय न्याय संहिता, 2023 के अंतर्गत यौन हमला क्या है?
- भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) के अध्याय V में महिलाओं एवं बच्चों के विरुद्ध अपराधों का उल्लेख किया गया है।
- BNS की धारा 74 में महिला की शील भंग करने के आशय से उस पर हमला करने या आपराधिक बल का प्रयोग करने के अपराध का प्रावधान है।
BNS की धारा 74 के तत्त्व इस प्रकार हैं:
- निषिद्ध कार्य:
- किसी महिला के विरुद्ध हमला या आपराधिक बल का प्रयोग निषिद्ध है, यदि यह विशिष्ट आशय या ज्ञान के साथ किया गया हो।
- आशय या ज्ञान:
- अपराधी को या तो:
- महिला की शील भंग करने का आशय रखना, या
- इस ज्ञान के साथ कि उनके कार्यों से उसकी शील भंग होने की संभावना है।
- अपराधी को या तो:
- सज़ा:
- कारावास:
- न्यूनतम अवधि: 1 वर्ष।
- अधिकतम अवधि: 5 वर्ष।
- अर्थदण्ड:
- अपराधी को अर्थदण्ड भी देना होगा।
- कारावास:
- उद्देश्य:
- इस धारा का उद्देश्य महिलाओं की गरिमा, शील एवं व्यक्तिगत अखंडता की रक्षा करना है, तथा ऐसे कृत्यों को अपराध घोषित करना है जो उनकी शील का उल्लंघन करते हैं।
- गैर-शमनीय अपराध:
- इस धारा के अंतर्गत अपराध का समाधान पक्षों के बीच आपसी समझौते से नहीं किया जा सकता तथा इसे गंभीर प्रकृति का माना जाता है।
- लिंग-विशिष्ट संरक्षण:
- यह विधान विशेष रूप से महिलाओं के विरुद्ध किये गए अपराधों से संबंधित है।
उच्चतम न्यायालय की रूढ़िवादी पुस्तिका में यौन हमले के संबंध में क्या दिशानिर्देश दिये गए हैं?
- लैंगिक रूढ़िवादिता पर पुस्तिका भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा विधिक भाषा एवं निर्णयों में उल्लिखित लैंगिक रूढ़िवादिता को पहचानने, समझने एवं उसका सामना करने में न्यायाधीशों एवं विदि विशेषज्ञों की सहायता करने के आशय से जारी की गई है।
- पुस्तिका में यौन हमले के विषय में उल्लिखित कुछ रूढ़िवादिताएँ इस प्रकार हैं:
रूढ़िवादिता |
वास्तविकता |
पुरुषों द्वारा यौन हमला या बलात्संग की शिकार महिलाएँ लगातार रोती रहती हैं और उदास या आत्महत्या करने की सोचती हैं। अगर किसी महिला का व्यवहार इस सांचे के अनुरूप नहीं है, तो वह बलात्संग के विषय में झूठ बोल रही है। |
अलग-अलग लोग दर्दनाक घटनाओं पर अलग-अलग तरह से प्रतिक्रिया करते हैं। उदाहरण के लिये, माता-पिता की मृत्यु के कारण एक व्यक्ति सार्वजनिक रूप से रो सकता है जबकि इसी तरह की स्थिति में दूसरा व्यक्ति सार्वजनिक रूप से कोई भावना प्रदर्शित नहीं कर सकता है। इसी तरह, किसी पुरुष द्वारा यौन उत्पीड़न या बलात्संग किये जाने पर एक महिला की प्रतिक्रिया उसकी व्यक्तिगत विशेषताओं के आधार पर भिन्न हो सकती है। कोई भी “सही” या “उचित” तरीका नहीं है जिससे कोई पीड़ित या पीड़ित व्यवहार करे। |
जिन महिलाओं पर पुरुषों द्वारा यौन हमला या बलात्संग कारित किया जाता है, वे तुरंत ही अन्याय की शिकायत करती हैं। अगर वे कुछ समय बाद शिकायत करती हैं, तो वे झूठ बोल रही होती हैं। |
यौन अपराध की रिपोर्ट करने के लिये साहस एवं शक्ति की आवश्यकता होती है क्योंकि इससे कलंक जुड़ा होता है। यौन हिंसा से जुड़े कलंक के कारण महिलाओं के लिये दूसरों को घटना के विषय में उल्लेख करना कठिन हो जाता है। |
किसी पुरुष के लिये किसी सेक्स वर्कर के साथ बलात्संग करना संभव नहीं है। |
किसी पुरुष द्वारा सेक्स वर्कर का बलात्संग करना संभव है। सेक्स वर्कर अपने पेशे के कारण किसी भी या सभी पुरुषों के साथ यौन संबंध बनाने के लिये सहमति नहीं देते हैं। बलात्संग का अपराध तब भी हो सकता है जब सेक्स वर्कर किसी भी कारण से सहमति न दे, जिसमें यह कारण भी शामिल है कि पुरुष उसे भुगतान करने के लिये तैयार नहीं था। सेक्स वर्कर उन समूहों में से एक हैं जो यौन हिंसा के लिये सबसे अधिक संवेदनशील हैं। |
बलात्संग एक ऐसा अपराध है जो पीड़िता/उत्तरजीवी या उसके परिवार के सम्मान को कलंकित करता है। लेकिन यदि बलात्संगी पीड़िता/उत्तरजीवी से विवाह कर लेता है तो उसका सम्मान बहाल हो जाता है। |
बलात्संग से पीड़िता या उसके परिवार की इज्जत पर दाग नहीं लगता। बलात्संगी का पीड़िता से विवाह करने से इज्जत बहाल नहीं होती। बल्कि, इससे पीड़िता/पीड़ित के दुख में और बढ़ोत्तरी होता है तथा बलात्संगी को और हिंसा करने के लिये बढ़ावा मिलता है। विवाह बलात्संग की हिंसा का उपाय नहीं है। बलात्संग एक आपराधिक अपराध है, जिसे विवाह से बदला नहीं जा सकता। |
पुरुष अपनी यौन इच्छाओं पर नियंत्रण नहीं रख पाते। |
पुरुष, अन्य सभी मनुष्यों की तरह, अपनी यौन इच्छाओं सहित अपने सभी कार्यों पर नियंत्रण रखते हैं। इस तरह के तर्क पुरुषों की एजेंसी को कम आंकते हैं तथा फिर इस कथित एजेंसी की कमी को बहाना बनाते हैं। |
किसी महिला के साथ, जिसने पहले यौन संबंध बनाए हों, बलात्संग नहीं किया जा सकता क्योंकि उसकी “नैतिकताएँ दोषपूर्ण” या “चरित्र दूषित” है। |
जो महिला एक पुरुष के साथ यौन क्रियाकलाप के लिये सहमति देती है, वह सभी पुरुषों के साथ यौन क्रियाकलाप के लिये सहमति नहीं देती। |
आपराधिक कानून
स्वतंत्र एवं निष्पक्ष विचारण का अधिकार
20-Jan-2025
नरेंद्र कुमार सोनी बनाम राजस्थान राज्य “CrPC की धारा 91 को लागू करने के पीछे विधायी मंशा यह सुनिश्चित करना है कि जाँच, पूछताछ, विचारण या अन्य कार्यवाही के दौरान सही तथ्यों को प्रकटित करने में मामले से संबंधित कोई भी ठोस सामग्री या साक्ष्य अनदेखा न किया जाए।” न्यायमूर्ति अनूप कुमार ढांड |
स्रोत: राजस्थान उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, राजस्थान उच्च न्यायालय ने नरेन्द्र कुमार सोनी बनाम राजस्थान राज्य (2025) के मामले में माना है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 91 के अंतर्गत कॉल/टावर लोकेशन का विवरण मांगने में अनुच्छेद 21 के अंतर्गत स्वतंत्र एवं निष्पक्ष जाँच/विचारण का आरोपी का अधिकार, पुलिस अधिकारियों के गोपनीयता के अधिकार पर प्रभावी होगा।
नरेन्द्र कुमार सोनी बनाम राजस्थान राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- नरेंद्र कुमार सोनी (याचिकाकर्त्ता) एक भ्रष्टाचार विरोधी मामले में आरोपी हैं, जहाँ कथित तौर पर 10 मार्च 2023 को ट्रैप की कार्यवाही की गई थी।
- याचिकाकर्त्ता का दावा है कि उन्हें मामले में मिथ्या आरोपी बनाया गया है तथा निर्दिष्ट समय के दौरान कोई वास्तविक ट्रैप कार्यवाही नहीं हुई।
- ट्रैप कार्यवाही के दौरान दो साक्षी सोनू मीणा और जितेन्द्र मीणा को संलिप्त दिखाया गया। याचिकाकर्त्ता का तर्क है कि CCTV फुटेज के अनुसार, घटनास्थल पर केवल तीन लोग मौजूद थे:
- याचिकाकर्त्ता स्वयं, शिकायतकर्त्ता का भाई एवं एक अज्ञात व्यक्ति।
- याचिकाकर्त्ता ने CrPC की धारा 91 के अंतर्गत एक आवेदन किया जिसमें निम्नलिखित के लिये मोबाइल टावर स्थानों को संरक्षित करने का निवेदन किया गया:
- शिकायतकर्त्ता
- विवेचना अधिकारी
- दो साक्षी (सोनू मीणा एवं जितेन्द्र मीणा)
- ट्रैप पक्षकार के अन्य सदस्य
- ट्रायल कोर्ट (विशेष न्यायाधीश, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, कोटा) ने आवेदन को आंशिक रूप से स्वीकार कर लिया-
- शिकायतकर्त्ता एवं विवेचना अधिकारी के मोबाइल लोकेशन को सुरक्षित रखने की अनुमति दी गई।
- सोनू मीणा, जितेन्द्र मीणा और ट्रैप में उल्लिखित पक्षकारों के अन्य सदस्यों के मोबाइल लोकेशन को सुरक्षित रखने के निवेदन को अस्वीकार कर दिया गया।
- याचिकाकर्त्ता ने राजस्थान उच्च न्यायालय में एक आपराधिक विविध याचिका के माध्यम से इस आंशिक अस्वीकृति को चुनौती दी, जिसमें विशेष रूप से सोनू मीणा एवं जितेन्द्र मीणा के लिये टावर लोकेशन की मांग की गई थी
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
राजस्थान उच्च न्यायालय ने अवलोकन किया कि:
- निष्पक्ष विचारण का अधिकार:
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत निष्पक्ष विचारण के अभिन्न अंग हैं।
- सर्वोत्तम उपलब्ध साक्ष्य या प्रभावी विचारण से मना करना निष्पक्ष विचारण से मना करने के तुल्य होगा।
- गोपनीयता बनाम न्याय:
- जबकि कॉल डिटेल को सुरक्षित रखना पुलिस अधिकारियों के गोपनीयता अधिकारों का उल्लंघन हो सकता है, COI के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत निष्पक्ष विचारण के लिये अभियुक्त के अधिकार को प्राथमिकता दी जाती है।
- कुछ गोपनीयता उल्लंघनों को उचित ठहराया जा सकता है यदि इससे सत्यता का पता लगाने और न्याय प्रदान करने में सहायता मिलती है।
- इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य:
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 65A एवं 65B के अंतर्गत आपराधिक अभियोजन के वाद में इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड स्वीकार्य हैं।
- इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड देने से मना करना, जो अभियुक्त के बचाव में सहायता कर सकता है, जो न्याय की विफलता का कारण बन सकता है।
- CrPC की धारा 91:
- इस धारा का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कोई भी महत्त्वपूर्ण साक्ष्य अनदेखा न रह जाए।
- यह न्यायालय को प्रासंगिक साक्ष्य उपलब्ध कराकर निष्पक्ष मामले के समाधान में सहायता करता है।
- यह महत्त्वपूर्ण दस्तावेजों के नष्ट होने या खोने से बचाने में सहायता करता है।
- आरोपी को आदेश दिये जाने से पहले ऐसे साक्ष्य की आवश्यकता एवं प्रासंगिकता सिद्ध करनी चाहिये।
- टावर लोकेशन डेटा:
- कॉल विवरण और टावर लोकेशन को सुरक्षित रखना आवश्यक है, क्योंकि ये साक्ष्य हमेशा के लिये खो सकते हैं।
- न्यायालय ने अभियुक्तों के अपने बचाव के लिये दस्तावेज प्राप्त करने के लिये धारा 91 CrPC का सहारा लेने के अधिकार को मान्यता दी।
निष्पक्ष विचारण का अधिकार क्या है?
परिचय:
- निष्पक्ष विचारण न्याय को बनाए रखती है तथा सामाजिक अखंडता सुनिश्चित करती है। इनके बिना, दोषपूर्ण दोषसिद्धि होती है, जिससे न्याय प्रणाली में विश्वास समाप्त हो जाता है। सरकारों को नागरिक स्वतंत्रता का सम्मान करते हुए विधि एवं व्यवस्था को बनाए रखना चाहिये।
विधिक प्रावधान:
Provision |
Concept |
Right Provided |
संविधान का अनुच्छेद 20(2) |
दोहरा परिसंकट |
|
संविधान का अनुच्छेद 22(2) |
गिरफ्तारी एवं नजरबंदी के विरुद्ध सुरक्षा |
|
CrPC की धारा 300(1) भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 337 |
दोहरा परिसंकट |
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CrPC की धारा 24 (8) BNSS की धारा 18 |
अपनी पसंद का अधिवक्ता नियुक्त करने का अधिकार |
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CrPC की धारा 243 BNSS की धारा 266 |
आत्मरक्षा का अधिकार |
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CrPC की धारा 303 BNSS की धारा 340 |
अपनी पसंद का अधिवक्ता द्वारा बचाव का अधिकार |
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नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय विनियम, 1996 का अनुच्छेद 9 |
स्वतंत्रता एवं निष्पक्ष विचारण |
|
नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय विनियम, 1996 का अनुच्छेद 14 |
न्यायालय के समक्ष समता का अधिकार |
|
ऐतिहासिक मामले:
- श्याम सिंह बनाम राजस्थान राज्य (1973):
- न्यायालय ने कहा कि निर्णय पर पूर्वाग्रह के प्रभाव का निर्धारण करना महत्त्वपूर्ण नहीं है; महत्त्वपूर्ण यह है कि क्या वादी को यह आशंका है कि न्यायिक पूर्वाग्रह ने अंतिम निर्णय को प्रभावित किया है।
- जाहिरा हबीबाबाद शेख़ एवं अन्य बनाम गुजरात राज्य (2006)
- उच्चतम न्यायालय अभियुक्तों एवं पीड़ितों दोनों के लिये निष्पक्ष व्यवहार पर बल देता है, तथा आपराधिक अभियोजन का वाद में निष्पक्षता के अंतर्निहित अधिकार पर प्रकाश डालता है।
- हिमांशु सिंह सभरवा बनाम मध्य प्रदेश राज्य अन्य (2008)
- न्यायालयों को निष्पक्ष विचारण सुनिश्चित करने के लिये प्रासंगिक विधिक प्रावधानों के अंतर्गत अधिकार प्राप्त हैं, तथा जब उचित प्रक्रिया से समझौता किया जाता है तो वे हस्तक्षेप करते हैं।
सिविल कानून
वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम की धारा 13
20-Jan-2025
सिनर्जीज़ कास्टिंग लिमिटेड बनाम नेशनल रिसर्च डेवलपमेंट कॉरपोरेशन एवं अन्य (2025) “दिल्ली उच्च न्यायालय ने पुनः पुष्टि की: वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम की धारा 13 मध्यस्थता मामलों में अपील का स्वतंत्र अधिकार प्रदान नहीं करती” न्यायमूर्ति नवीन चावला एवं न्यायमूर्ति शालिन्दर कौर |
स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति नवीन चावला एवं न्यायमूर्ति शालिंदर कौर की पीठ ने स्पष्ट किया कि मध्यस्थता पंचाट को न तो अपास्त करने और न ही अपास्त करने से मना करने वाले आदेश माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 37 (1) (c) के अंतर्गत अपील योग्य नहीं हैं। न्यायालय ने कहा कि मध्यस्थता मामलों में अपील अधिनियम की धारा 37 एवं 50 के अंतर्गत स्पष्ट रूप से अनुमत अपील तक सीमित हैं।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने सिनर्जीस कास्टिंग लिमिटेड बनाम राष्ट्रीय अनुसंधान विकास निगम एवं अन्य (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।
- इसने यह भी माना कि वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 की धारा 13, अपील करने का स्वतंत्र अधिकार प्रदान नहीं करती है, जिससे मध्यस्थता अपीलों के प्रति प्रतिबंधात्मक दृष्टिकोण को बल मिलता है।
सिनर्जीज़ कास्टिंग लिमिटेड बनाम राष्ट्रीय अनुसंधान विकास निगम एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह मामला FAO(OS) (COMM) 1/2025 से संबंधित है, जहाँ अपीलकर्त्ता ने O.M.P.(COMM) 7/2024 में एकल न्यायाधीश द्वारा पारित दिनांक 10.09.2024 के आदेश को चुनौती दी थी।
- "सिनर्जीज कास्टिंग लिमिटेड अपने अधिकृत प्रतिनिधि के माध्यम से बनाम राष्ट्रीय अनुसंधान विकास निगम एवं अन्य" शीर्षक वाला मूल मामला एकल न्यायाधीश के समक्ष था।
- एकल न्यायाधीश ने अपीलकर्त्ता को आठ सप्ताह के अंदर उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार जनरल के पास मूल पंचाट राशि जमा करने का निर्देश दिया था।
- इस तरह की जमा राशि पर, विवादित पंचाट का निष्पादन माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 (A & C अधिनियम) की धारा 34 के अंतर्गत संस्थित याचिका के लंबित रहने तक स्थगित रहना था।
- अपीलकर्त्ता ने 29 दिनों के विलंब से अपील दायर की, जिसके लिये क्षमा मांगी गई तथा उसे स्वीकृत कर लिया गया।
- अपीलकर्त्ता ने तर्क दिया कि हालाँकि अपील A & C अधिनियम की धारा 37 के अंतर्गत बनाए रखने योग्य नहीं हो सकती है, यह वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 की धारा 13 के अंतर्गत बनाए रखने योग्य होगी।
- अपीलकर्त्ता ने अपील की स्थिरता का समर्थन करने के लिये सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश XLIII नियम 1 और दिल्ली उच्च न्यायालय अधिनियम, 1966 की धारा 10 पर भी विश्वास किया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने फुरेस्ट डे लॉसन लिमिटेड बनाम जिंदल एक्सपोर्ट्स लिमिटेड में उच्चतम न्यायालय के निर्णय का संदर्भ दिया, जिसने अभिनिर्धारित किया कि A & C अधिनियम एक स्व-निहित संहिता है, जो इसमें उल्लेखित न की गई अपीलों के विरुद्ध नकारात्मक प्रभाव रखती है।
- न्यायालय ने कांडला एक्सपोर्ट कॉरपोरेशन बनाम OCI कॉरपोरेशन का उदाहरण दिया, जिसने पुष्टि की कि A & C अधिनियम की धारा 37 या 50 के अंतर्गत स्पष्ट रूप से प्रदान किये गए मामलों को छोड़कर मध्यस्थता मामलों में कोई अपील स्वीकार्य नहीं है।
- न्यायालय ने BGS SGS सोमा JV बनाम NHPC लिमिटेड मामले में कहा कि A & C अधिनियम एक विशेष अधिनियम होने के कारण वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, जो एक सामान्य अधिनियम है, पर प्रभावी है।
- न्यायालय ने कहा कि वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 की धारा 13 केवल अपील के लिये मंच प्रदान करती है तथा अपील का कोई स्वतंत्र अधिकार प्रदान नहीं करती है।
- न्यायालय ने विनिश्चय किया कि भले ही कोई आदेश सामान्यतः CPC के आदेश XLIII नियम 1 के अंतर्गत अपील योग्य हो, लेकिन अपील योग्य होने के लिये उसे A&C अधिनियम की धारा 37 के अंतर्गत होना चाहिये।
- न्यायालय ने पाया कि आरोपित आदेश ने एकल न्यायाधीश के समक्ष चुनौती में दिये गए मध्यस्थता पंचाट को न तो अपास्त किया और न ही अपास्त करने से मना किया।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि यह आदेश A & C अधिनियम की धारा 37(1)(c) के अंतर्गत नहीं आता है और इसलिये अपील योग्य नहीं है।
- इन टिप्पणियों के आधार पर, न्यायालय ने अपील को बनाए रखने योग्य नहीं माना तथा तदनुसार इसे खारिज कर दिया।
वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 क्या है?
परिचय:
- वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 भारत में वाणिज्यिक विवादों की बढ़ती जटिलता को दूर करने के लिये बनाया गया एक विशेष विधान है, जो 23 अक्टूबर 2015 को अधिनियम संख्या 4, 2016 के रूप में लागू हुआ, जिसने वाणिज्यिक विवादों को कुशलतापूर्वक हल करने के लिये एक समर्पित ढाँचा प्रस्तुत किया है।
- यह अधिनियम जिला स्तर पर वाणिज्यिक मामलों पर विशेष अधिकारिता के साथ वाणिज्यिक न्यायालयों की स्थापना करता है, जिससे वादियों के लिये न्याय सुनिश्चित एवं सुलभ होता है, तथा साथ ही विशेष रूप से प्रशिक्षित न्यायाधीशों के माध्यम से वाणिज्यिक विवाद समाधान में विशेषज्ञता बनाए रखी जाती है, जिन्हें जटिल वाणिज्यिक मामलों का निपटान करने का अनुभव होता है।
- यह विभिन्न वाणिज्यिक संव्यवहार, संविदाओं एवं करार को शामिल करते हुए "वाणिज्यिक विवादों" की एक व्यापक परिभाषा प्रदान करता है, जिससे यह स्पष्टता एवं निश्चितता उत्पन्न होती है कि कौन से मामले इसके अधिकारिता में आते हैं तथा वाणिज्यिक न्यायालयों द्वारा उनका निपटान किया जा सकता है।
- संविधि मुकदमेबाजी के विभिन्न चरणों एवं मामलों के शीघ्र निपटान के लिये सख्त समयसीमा को अनिवार्य बनाता है, जिसका उद्देश्य नियमित न्यायालयों में वाणिज्यिक मुकदमेबाजी से संबंधित विलंब को कम करना है।
- अधिनियम की एक विशिष्ट विशेषता यह है कि इसमें वाणिज्यिक मामलों में विशेषज्ञता रखने वाले न्यायाधीशों के साथ एक विशेष न्यायिक अवसंरचना का निर्माण किया गया है, जिससे विवाद समाधान प्रक्रिया में वाणिज्यिक वादियों के बीच विश्वास को बढ़ावा देते हुए सूचित एवं त्वरित निर्णय लेने में सक्षम बनाया जा सके।
- यह अधिनियम भारत के वाणिज्यिक विवाद समाधान तंत्र में एक महत्वपूर्ण सुधार का प्रतिनिधित्व करता है, जो वाणिज्यिक विवादों को हल करने के लिये एक सुव्यवस्थित, कुशल एवं विशेष मंच प्रदान करके व्यापार समुदाय की विशिष्ट आवश्यकताओं को संबोधित करता है।
वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 की धारा 13:
- कोई भी पीड़ित व्यक्ति किसी वाणिज्यिक न्यायालय (जिला न्यायाधीश स्तर से नीचे) के निर्णय/आदेश के विरुद्ध निर्णय/आदेश की तिथि से 60 दिनों के अंदर वाणिज्यिक अपीलीय न्यायालय में अपील कर सकता है।
- जिला न्यायाधीश स्तर के वाणिज्यिक न्यायालयों या उच्च न्यायालय के वाणिज्यिक प्रभाग के निर्णयों/आदेशों के लिये, अपील 60 दिनों के अंदर उस उच्च न्यायालय के वाणिज्यिक अपीलीय प्रभाग में की जा सकती है।
- यह प्रावधान विशेष रूप से वाणिज्यिक प्रभाग/वाणिज्यिक न्यायालय द्वारा पारित आदेशों के विरुद्ध अपील की अनुमति देता है, जो इस प्रकार हैं:
- सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (संशोधित) के आदेश XLIII के अंतर्गत सूचीबद्ध।
- माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 37 के अंतर्गत सूचीबद्ध।
- इस अधिनियम के अंतर्गत प्रावधान के अतिरिक्त वाणिज्यिक प्रभाग या वाणिज्यिक न्यायालय के किसी आदेश/डिक्री के विरुद्ध कोई अपील नहीं की जाएगी, भले ही:
- कोई अन्य लागू विधान।
- किसी उच्च न्यायालय का पेटेंट पत्र।
- यह धारा वाणिज्यिक न्यायालय के स्तर के आधार पर दो स्तरीय अपीलीय संरचना स्थापित करती है:
- अधीनस्थ न्यायालयों से वाणिज्यिक अपीलीय न्यायालय।
- जिला न्यायाधीश/उच्च न्यायालय प्रभाग से वाणिज्यिक अपीलीय प्रभाग।
- अपील के दोनों स्तरों के लिये 60 दिनों की समय सीमा एक समान है, जिसकी गणना निर्णय या आदेश की तिथि से की जाती है।
- यह धारा वाणिज्यिक मामलों के लिये एक व्यापक एवं अनन्य अपीलीय तंत्र बनाती है, जो अन्य सामान्य अपीलीय प्रावधानों को अनदेखा कर देती है।
- यह धारा विशेष रूप से CPC और मध्यस्थता अधिनियम के अंतर्गत कुछ सूचीबद्ध आदेशों को अपने अपीलीय अधिकारिता में शामिल करती है, जबकि अन्य सभी को बाहर रखती है।
माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 34 क्या है?
- धारा में प्रावधान है कि मध्यस्थता निर्णय के विरुद्ध केवल उपधारा (2) एवं (3) के अंतर्गत निर्णय को अपास्त करने के लिये आवेदन के माध्यम से ही सहारा लिया जा सकता है।
- न्यायालय द्वारा मध्यस्थता निर्णय को अपास्त करने के आधार दो श्रेणियों में विभाजित हैं:
- जहाँ आवेदन करने वाला पक्ष साक्ष्य प्रस्तुत करता है।
- जहाँ न्यायालय स्वयं कुछ मुद्दे प्राप्त करता है।
- धारा 34(2)(a) के अंतर्गत, किसी पक्ष को निम्नलिखित का प्रमाण प्रस्तुत करना होगा:
- पक्षकार की अक्षमता
- अमान्य मध्यस्थता करार
- मध्यस्थ की नियुक्ति या कार्यवाही की अनुचित सूचना
- मध्यस्थता की सीमा से बाहर विवादों का निपटान करने वाला पंचाट
- अधिकरण की अनुचित संरचना या प्रक्रिया
- धारा 34(2)(b) के अंतर्गत, न्यायालय निर्णय को अपास्त कर सकता है यदि:
- विवाद का विषय विधि के अंतर्गत मध्यस्थता योग्य नहीं है।
- यह निर्णय भारत की लोक नीति के साथ टकराव करता है।
- किसी पंचाट को भारत की लोक नीति के साथ तभी विरोधाभासी माना जाएगा जब:
- यह धोखाधड़ी या भ्रष्टाचार से प्रेरित था।
- यह भारतीय विधि की मौलिक नीति का उल्लंघन करता है।
- यह नैतिकता या न्याय की मूलभूत धारणाओं के साथ टकराव करता है।
- गैर-अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता के लिये, एक अतिरिक्त आधार मौजूद है - यदि पंचाट के शीर्षक के रूप में पेटेंट अवैधता दिखाई देती है तो पंचाट को अपास्त किया जा सकता है।
- आवेदन दाखिल करने की समय सीमा:
- पंचाट प्राप्त करने के 3 महीने के अंदर।
- पर्याप्त कारण होने पर अतिरिक्त 30 दिन।
- अन्य पक्ष को पूर्व सूचना देना अनिवार्य।
- आवेदन का निपटान दूसरे पक्ष को नोटिस की प्राप्ति की तिथि से एक वर्ष के अंदर शीघ्रता से किया जाना चाहिये।
- न्यायालय अधिकरण को कार्यवाही फिर से प्रारंभ करने की अनुमति देने के लिये कार्यवाही स्थगित कर सकता है या पंचाट को अपास्त करने के आधार को समाप्त करने के लिये कार्यवाही कर सकता है।