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आपराधिक कानून
IPC की धारा 498-A के अधीन उत्पीड़न
21-Jan-2025
एम.एम. बनाम महाराष्ट्र राज्य "यह कथन कि जब तक वह निश्चित राशि नहीं देती, उसे बिना किसी कारण के सहवास नहीं होना चाहिये, मानसिक एवं शारीरिक उत्पीड़न नहीं माना जाएगा।" न्यायमूर्ति विभा कंकनवाड़ी एवं रोहित जोशी |
स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति विभा कंकनवाड़ी एवं न्यायमूर्ति रोहित जोशी की पीठ ने कहा है कि पति के साथ रहने के लिये किसी महिला से पैसे की मांग करना मानसिक या शारीरिक उत्पीड़न नहीं माना जाएगा।
- बॉम्बे उच्च न्यायालय ने एम.एम. बनाम महाराष्ट्र राज्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
एम.एम. बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- मोहम्मद मुदस्सर मोहम्मद अख्तर क़ादरी (आवेदक) ने 24 जून 2022 को आयशा मोहम्मद मुदस्सर कादरी (प्रतिवादी) से मुस्लिम रीति-रिवाजों के अनुसार निकाह किया।
- इस निकाह में कई परिवार के सदस्य सह-आवेदक (सात) के रूप में शामिल थे।
- 24 जुलाई 2023 को सभी सात आवेदकों के विरुद्ध प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई।
- FIR में निम्नलिखित अपराधों का आरोप लगाया गया है:
- धारा 498-A (विवाहित महिला के प्रति क्रूरता)।
- धारा 323 (स्वेच्छा से चोट पहुँचाने के लिये सज़ा)।
- धारा 504 (साशय अपमान)।
- धारा 506 (आपराधिक धमकी)।
- भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 34 (एकसमान आशय)।
- FIR में पत्नी के निम्नलिखित आरोप शामिल थे:
- निकाह के तीन महीने बाद ही उसे गांव से होने तथा खाना बनाने में असमर्थ होने का ताना मारा जाने लगा।
- पति को नगर परिषद में स्थायी नौकरी दिलाने के लिये पाँच लाख रुपये की मांग की गई।
- जब उसने पैसे देने में असमर्थता जताई, तो उसे कथित तौर पर साथ रहने के लिये वापस न आने को कहा गया।
- उसने अपने पिता को इस विषय में बताया, जिन्होंने रिश्तेदारों के साथ मिलकर मध्यस्थता का प्रयास किया, लेकिन कोई समझौता नहीं हो सका।
- पति ने कथित तौर पर उसके मायके जाकर उसके साथ दुर्व्यवहार किया।
- अन्य परिवार के सदस्यों ने कथित तौर पर उसके पति के साथ रहने के विरुद्ध उसे उकसाया।
- पैसे न लाने पर उसे जान से मारने की धमकी भी दी गई।
- मामला न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी के समक्ष लंबित हो गया।
- आवेदकों ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 482 के अधीन एक आवेदन किया, जिसमें FIR और उसके बाद की न्यायालयी कार्यवाही को रद्द करने की मांग की गई।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
बॉम्बे उच्च न्यायालय ने इस मामले के संबंध में कई महत्त्वपूर्ण टिप्पणियाँ कीं:
- न्यायालय ने सर्वप्रथम आरोपों की विशिष्टता से संबंधित समस्याओं पर ध्यान दिया।
- पत्नी ने मानसिक एवं शारीरिक उत्पीड़न का दावा किया, लेकिन उसने सामान्य ताना मारने के अतिरिक्त कोई विशेष विवरण नहीं दिया।
- न्यायालय ने विनिश्चय कि यह अविश्वसनीय है कि सभी सात आरोपी व्यक्तियों ने एक साथ उसे ताना मारा हो।
- न्यायालय ने शिकायत में प्रस्तुत आवासीय व्यवस्था पर प्रश्न किया। न्यायालय को यह असामान्य लगा कि विवाहित भाभी एवं उसके पति कथित तौर पर शिकायतकर्त्ता के साथ एक ही घर में रह रहे थे, जबकि अभिलेखों से पता चला कि वे वास्तव में औरंगाबाद में एक अलग क्षेत्र में रहते थे।
- चचेरे भाई के लिये भी यही सच था।
- 5,00,000 रुपये की मांग के संबंध में, न्यायालय ने विनिश्चय कि शिकायत में महत्त्वपूर्ण समय संबंधी विवरणों का अभाव था।
- पत्नी ने यह नहीं उल्लेख किया कि यह मांग कब की गई या यह कब तक जारी रही।
- न्यायालय ने कहा कि बिना किसी उचित प्रक्रिया के केवल यह कहना कि उसे सहवास के लिये वापस नहीं आना चाहिये, मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न नहीं माना जाएगा।
- न्यायालय ने जाँच प्रक्रिया में गंभीर मुद्दे पाए। उसने पुलिस की आलोचना की:
- साक्षियों के अभिकथनों को रिकॉर्ड करना जो "कॉपी-पेस्ट" संस्करण प्रतीत होते हैं, समान पैराग्राफ, विराम चिह्न एवं फ़ॉन्ट दिखाते हैं।
- ऐसे मामलों की जाँच में उचित संवेदनशीलता दिखाने में विफल होना।
- वैवाहिक घर के पड़ोसियों से पूछताछ नहीं करना।
- केवल पत्नी के रिश्तेदारों एवं उसके माता-पिता के पड़ोसियों के अभिकथन दर्ज करना।
- अन्य उपलब्ध साक्ष्यों या संभावनाओं पर विचार न करना।
- पति के घर की अनावश्यक रूप से तस्वीरें एवं पंचनामा बनाना।
- न्यायालय ने सभी नामित आरोपियों पर आरोप लगाने के विषय में भी महत्त्वपूर्ण टिप्पणी की।
- न्यायालय ने कहा कि जाँच अधिकारियों को अपने विवेक का प्रयोग केवल उन्हीं लोगों के विरुद्ध आरोप दायर करने में करना चाहिये जिनके विरुद्ध ठोस साक्ष्य हों, विशेषकर तब जब आरोपी व्यक्ति दूर रहते हों।
- न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि अनावश्यक उत्पीड़न एवं मिथ्या आरोपों से बचना चाहिये।
- सबसे महत्त्वपूर्ण टिप्पणी FIR के संबंध में थी।
- न्यायालय ने इसे "यथासंभव अस्पष्ट" पाया तथा निर्धारित किया कि यह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 34 के साथ धारा 498-A, 323, 504, 506 के अंतर्गत अपराधों के मूल तत्वों का प्रकटन करने में विफल रहा।
उपरोक्त टिप्पणियों के आधार पर बॉम्बे उच्च न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि यह एक अन्यायपूर्ण वाद को रोकने के लिये CrPC की धारा 482 के अधीन शक्तियों का प्रयोग करने के लिये उपयुक्त मामला था, जिसके परिणामस्वरूप FIR एवं लंबित न्यायालयी कार्यवाही दोनों को रद्द कर दिया गया।
भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) से संबंधित प्रावधान क्या हैं?
- BNS की धारा 85 में यह प्रावधानित किया गया है:
- किसी महिला के पति या पति के रिश्तेदार द्वारा उसके साथ क्रूरता करना।
- किसी महिला के पति या पति के रिश्तेदार द्वारा उसके साथ क्रूरता करना। जो कोई, किसी महिला का पति या पति का रिश्तेदार होते हुए, ऐसी महिला के साथ क्रूरता करता है, उसे तीन वर्ष तक के कारावास से दण्डित किया जाएगा तथा वह अर्थदण्ड से भी दण्डनीय होगा।
- यह प्रावधान पहले IPC की धारा 498A के अंतर्गत आता था।
- किसी महिला के पति या पति के रिश्तेदार द्वारा उसके साथ क्रूरता करना।
- BNS की धारा 3(5) में यह प्रावधानित किया गया है:
- जब कोई आपराधिक कृत्य सभी के एकसमान आशय को अग्रसर करने में कई व्यक्तियों द्वारा कारित किया जाता है, तो ऐसे व्यक्तियों में से प्रत्येक उस कृत्य के लिये उसी तरह उत्तरदायी होता है जैसे कि वह कृत्य स्वयं अकेले उसके द्वारा किया गया हो।
- यह प्रावधान पहले IPC की धारा 34 के अंतर्गत आता था।
वाणिज्यिक विधि
माध्यस्थम अधिनियम 1966 की धारा 31(5)
21-Jan-2025
हेल्थ केयर, मेडिकल एवं जनरल स्टोर्स बनाम अमूल्य इन्वेस्टमेंट बॉम्बे उच्च न्यायालय ने कहा, "किसी कर्मचारी को हस्ताक्षरित माध्यस्थम पंचाट देना वैध सेवा नहीं है, धारा 31(5) के अंतर्गत यह अवैध है।" न्यायमूर्ति ए.एस. चंदुरकर एवं राजेश एस. पाटिल |
स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
बॉम्बे उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि एक अनाधिकृत कर्मचारी, जैसे कि एक क्लर्क, को हस्ताक्षरित माध्यस्थम पंचाट की सेवा माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 31 (5) के अंतर्गत वैध सेवा नहीं मानी जाती है। निर्णय में अभिनिर्धारित किया गया है कि माध्यस्थम करार के प्रत्येक पक्ष को धारा 34 (3) के अंतर्गत परिसीमा अवधि के लिये पंचाट की एक हस्ताक्षरित प्रति प्राप्त करनी होगी।
- न्यायमूर्ति ए.एस.चंदुरकर एवं राजेश एस.पाटिल ने हेल्थ केयर, मेडिकल एंड जनरल स्टोर्स बनाम अमूल्य इन्वेस्टमेंट (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
हेल्थ केयर, मेडिकल एवं जनरल स्टोर्स बनाम अमूल्य इन्वेस्टमेंट मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- हेल्थ केयर, मेडिकल एंड जनरल स्टोर्स (भागीदारी फर्म) और अमूल्य इन्वेस्टमेंट (मालिकाना फर्म) के बीच व्यापारिक लेन-देन थे, जो 15 जनवरी, 2016 और 7 फरवरी, 2016 के पत्रों द्वारा शासित थे, जिसमें माध्यस्थम खंड शामिल था।
- भागीदारी फर्म में तीन भागीदार शामिल थे:
- सीताराम गोविंद नारकर,
- स्वप्निल विजय शेट्टी, और
- दयानंद विद्याधर शेट्टी.
- पक्षों के बीच विवाद उत्पन्न हो गया, जिसके कारण अमूल्य निवेश ने माध्यस्थम खंड को लागू किया और एकमात्र मध्यस्थ, श्री चिराग जे. शाह के समक्ष कार्यवाही आरंभ की।
- मध्यस्थ ने 1 जुलाई, 2017 को एक पंचाट पारित किया, जिसमें दावेदार के रूप में अमूल्य निवेश को विभिन्न राहतें प्रदान की गईं।
- पंचाट के पैराग्राफ 51 के अनुसार, मध्यस्थ ने हस्ताक्षर किये तथा दो मुहर लगी मूल प्रतियाँ जारी कीं, एक प्रत्येक पक्ष के लिये, जबकि एक प्रति अपने पास रखी।
- भागीदारी फर्म एवं उसके भागीदारों ने दावा किया कि उन्हें माध्यस्थम कार्यवाही या पंचाट के दौरान कभी भी सेवा नहीं दी गई।
- 5 अगस्त, 2023 को, भागीदारी फर्म के अधिवक्ता ने मध्यस्थ से कार्यवाही की प्रमाणित प्रतियों का निवेदन किया।
- मध्यस्थ ने 10 अगस्त 2023 को अपने प्रत्युत्तर में कहा कि उसने सभी दस्तावेज दावेदार को लौटा दिये हैं तथा उनके पास उनकी कस्टडी नहीं है।
- इसके बाद, भागीदारी फर्म ने 7 सितंबर 2023 को माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 (A & C अधिनियम) की धारा 34 के अंतर्गत माध्यस्थम याचिका संस्थित की।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि A & C अधिनियम की धारा 2(1)(h) में "पक्ष" की परिभाषा ऐसे व्यक्ति के रूप में दी गई है जो माध्यस्थम करार का पक्षकार है, तथा यह परिभाषा अभिकर्त्ताओं या प्रतिनिधियों को शामिल करने के लिये योग्य नहीं है।
- न्यायालय ने कहा कि धारा 31(5) में अनिवार्य रूप से प्रत्येक पक्ष को पंचाट की हस्ताक्षरित प्रति प्रदान करने की आवश्यकता होती है, जिससे पाँच पक्षों के लिये केवल दो हस्ताक्षरित प्रतियों के साथ इस आवश्यकता को पूरा करना असंभव हो जाता है।
- न्यायालय ने पाया कि भागीदारी फर्म के एक कर्मचारी श्री बोटेकर द्वारा प्रेषित पंचाट, अधिनियम की धारा 31(5) के अंतर्गत वैध सेवा नहीं मानी गई, क्योंकि किसी कर्मचारी को दी गई सेवा, एजेंट को दी गई सेवा से कमतर दर्जा रखती है।
- न्यायालय ने पाया कि तीसरे अपीलकर्त्ता की डाक पावती पर किसी भी तरह का हस्ताक्षर नहीं था, जो स्पष्ट रूप से सेवा की अनुपस्थिति को दर्शाता है।
- न्यायालय ने कहा कि एकल न्यायाधीश ने धारा 31(5) के प्रावधानों के गैर-अनुपालन के पहलू की पर्याप्त रूप से जाँच नहीं की है।
- न्यायालय ने कहा कि केवल दावेदार एवं भागीदारी फर्म को पक्षकार मानना, जबकि व्यक्तिगत भागीदारों की अनदेखी करना, प्रत्येक पक्ष को सेवा प्रदान करने की सांविधिक आवश्यकता का उल्लंघन है।
- न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि निर्णय को चुनौती देने की परिसीमा अवधि 10 अगस्त, 2023 से आरंभ होनी चाहिये, जब मध्यस्थ ने निर्णय की प्रति जारी करने से मना कर दिया था।
- न्यायालय ने कहा कि मध्यस्थ निर्णय की सेवा महज औपचारिकता नहीं है, बल्कि यह पक्षों के अधिकारों एवं परिसीमा अवधि को प्रभावित करने वाला एक महत्त्वपूर्ण मामला है।
माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 31 क्या है?
- पंचाट का स्वरूप: पंचाट लिखित रूप में होना चाहिये तथा मध्यस्थ अधिकरणों के सदस्यों द्वारा हस्ताक्षरित होना चाहिये।
- एक से अधिक मध्यस्थ: कई मध्यस्थों वाले मामलों में, यदि हस्ताक्षर न किये जाने के कारण बताए गए हों तो बहुमत के हस्ताक्षर ही पर्याप्त होते हैं।
- तर्कपूर्ण पंचाट: पंचाट में उन कारणों का उल्लेख होना चाहिये जिन पर वह आधारित है, जब तक कि:
- पक्ष सहमत हैं कि किसी कारण की आवश्यकता नहीं है, या
- यह धारा 30 के अंतर्गत सहमत शर्तों पर एक पंचाट है
- आवश्यक विवरण: पंचाट में निम्नलिखित का उल्लेख होना चाहिये:
- पंचाट की तिथि
- माध्यस्थम का स्थान (धारा 20 के अनुसार)
- पंचाट उसी स्थान पर बनाया गया माना जाता है
- सेवा की आवश्यकता: निर्णय देने के बाद, हस्ताक्षरित प्रति प्रत्येक पक्ष को सौंपी जानी चाहिये।
- अंतरिम निर्णय: अधिकरणों अंतिम निर्णय के लिये पात्र मामलों पर कार्यवाही के दौरान अंतरिम निर्णय दे सकता है।
- ब्याज का घटक:
- अधिकरणों कार्यवाही के कारण से लेकर पंचाट तिथि तक उचित दरों पर ब्याज शामिल कर सकता है।
- पंचाट तिथि से लेकर भुगतान तिथि तक वर्तमान दर से 2% अधिक पर पंचाट पश्चात ब्याज।
- वर्तमान दर ब्याज अधिनियम, 1978 की परिभाषा को संदर्भित करती है।
- लागत का निर्धारण: मध्यस्थ अधिकरणों धारा 31A के अनुसार लागत निर्धारित करेगा।
माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 34 क्या है?
धारा 34
- धारा 34 एक महत्त्वपूर्ण प्रावधान है जो माध्यस्थम पंचाट को चुनौती देने की प्रक्रिया को नियंत्रित करता है, तथा पंचाट को रद्द करने की मांग करने वाले पक्षों के लिये एकमात्र उपाय प्रदान करता है।
- यह विशिष्ट आधार प्रदान करता है जिसके अंतर्गत न्यायालय माध्यस्थम पंचाट को रद्द कर सकता है, जिसमें पक्षों की अक्षमता, अमान्य माध्यस्थम करार, अनुचित नोटिस, परिसीमा से बाहर के पंचाट एवं प्रक्रियात्मक अनियमितताएँ शामिल हैं।
- इस प्रावधान में घरेलू एवं अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक माध्यस्थम पंचाट दोनों शामिल हैं, साथ ही पेटेंट अवैधता के संबंध में धारा 34(2A) के अंतर्गत घरेलू पंचाटों के लिये अतिरिक्त आधार भी शामिल हैं।
- धारा इस तथ्य पर बल देती है कि पंचाटों को चुनौती दी जा सकती है यदि वे भारत की लोक नीति के साथ टकराव करते हैं, जिसमें धोखाधड़ी, भ्रष्टाचार, मौलिक नीति का उल्लंघन, या नैतिकता या न्याय की मूलभूत धारणाओं के साथ टकराव शामिल है।
धारा 34(3)
- धारा 34(3) में माध्यस्थम निर्णय को रद्द करने के लिये आवेदन दाखिल करने के लिये तीन महीने की सख्त परिसीमा अवधि निर्धारित की गई है, जो चुनौती देने वाले पक्ष द्वारा निर्णय प्राप्त होने की तिथि से प्रारंभ होती है।
- यदि धारा 33 के अंतर्गत सुधार या निर्वचन के लिये निवेदन किया जाता है, तो तीन महीने की अवधि अधिकरणों द्वारा ऐसे निवेदन के निपटान की तिथि से प्रारंभ होती है।
- धारा 34(3) का प्रावधान न्यायालयों को परिसीमा अवधि को 30 दिनों तक (परन्तु इससे अधिक नहीं) बढ़ाने की अनुमति देता है, यदि वे संतुष्ट हों कि आवेदक को प्रारंभिक तीन महीनों के अंदर आवेदन करने से पर्याप्त कारणों से रोका गया था।
- यह प्रावधान तीन महीने और अतिरिक्त 30 दिन की अवधि समाप्त होने के बाद किसी भी आवेदन पर विचार करने पर पूर्ण प्रतिबंध लगाता है, जिससे यह एक अनिवार्य एवं अधिकारिता संबंधी आवश्यकता बन जाती है।
- यह सख्त समयसीमा माध्यस्थम पंचाटों की अंतिमता सुनिश्चित करने और लंबी चुनौतियों को रोकने के लिये विधायी आशय को दर्शाती है, जिससे माध्यस्थम कार्यवाही में दक्षता को बढ़ावा मिलता है।
बौद्धिक संपदा अधिकार
व्यापार चिह्न (ट्रेडमार्क) अधिनियम के अंतर्गत प्रवंचक समानता
21-Jan-2025
KRBL लिमिटेड बनाम प्रवीण कुमार बुयानी एवं अन्य "इस प्रकार, अतिलंघन कारित तब माना जाता है जब चिह्नों के बीच प्रवंचक ध्वन्यात्मक, दृश्य या विचार समानता होती है।" न्यायमूर्ति सी. हरि शंकर एवं न्यायमूर्ति अजय दिगपॉल |
स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति सी. हरिशंकर एवं न्यायमूर्ति अजय दिगपॉल की पीठ ने व्यापार चिह्न (ट्रेडमार्क) भारत गेट के उपयोग के विरुद्ध निर्णय दिया है, क्योंकि यह व्यापार चिह्न (ट्रेडमार्क) इंडिया गेट के समान है।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने KRBL लिमिटेड बनाम प्रवीण कुमार बुयानी एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
KRBL लिमिटेड बनाम प्रवीण कुमार बुयानी एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में अपीलकर्त्ता व्यापार चिह्न (ट्रेडमार्क) इंडिया गेट का पंजीकृत स्वामी था, जिसका उपयोग 1993 से चावल के लिये किया जा रहा है।
- प्रतिवादियों ने भारत गेट नाम से चावल का व्यवसाय भी आरंभ कर दिया।
- अपीलकर्त्ता ने व्यापार चिह्न (ट्रेडमार्क) भारत गेट का उपयोग करने वाले प्रतिवादियों के विरुद्ध स्थायी एवं अनिवार्य निषेधाज्ञा की मांग करते हुए वाणिज्यिक न्यायालय में अपील किया।
- अपीलकर्त्ता का मामला व्यापार चिह्न (ट्रेडमार्क) अधिनियम, 1999 (TMA) की धारा 29 के अंतर्गत व्यापार चिह्न (ट्रेडमार्क) का अतिलंघन था। शिकायत के साथ सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश 39 नियम 1 एवं 2 के अंतर्गत आवेदन किया गया था, जिसमें अंतरिम निषेधाज्ञा की मांग की गई थी।
- 9 अक्टूबर 2020 को, वाणिज्यिक न्यायालय ने अपीलकर्त्ताओं के पक्ष में तथा प्रतिवादियों के विरुद्ध एकपक्षीय अंतरिम निषेधाज्ञा दी।
- 9 जनवरी 2024 को पारित आदेश में आदेश 39 नियम 1 एवं 2 के अंतर्गत संस्थित आवेदन पर अंतिम निर्णय दिया गया तथा दी गई निषेधाज्ञा को अपास्त कर दिया गया।
- इस आदेश के विरुद्ध अपीलकर्त्ता ने दिल्ली उच्च न्यायालय में अपील किया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- व्यापार चिह्न (ट्रेडमार्क) के अतिलंघन के लिये परीक्षण अच्छी तरह से प्रावधानित है, अर्थात औसत बुद्धि एवं अपूर्ण स्मरण शक्ति वाले ग्राहक के दृष्टिकोण से भ्रम की संभावना।
- इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि अतिलंघन तब कारित होता है जब चिह्नों के बीच प्रवंचक ध्वन्यात्मक, दृश्य संबंधी या वैचारिक समानता होती है।
- न्यायालय ने माना कि वर्तमान तथ्यों में प्रतिवादी ने ऐसे शब्द चिह्न का उपयोग करने के अतिरिक्त जो ध्वन्यात्मक रूप से समान है तथा अपीलकर्त्ता के चिह्न के समान विचार का प्रतिनिधित्व करता है, अपीलकर्त्ता के चिह्न की आवश्यक विशेषताओं की भी नकल की है।
- यहाँ तक कि ऐसे मामलों में जहाँ कोई दृश्य संबंधी समानता नहीं है, उच्चतम न्यायालय ने माना कि ध्वन्यात्मक समानता के कारण अतिलंघन होगा।
- न्यायालय ने माना कि वर्तमान मामले में प्रतिवादी ने साशय अपीलकर्त्ता की सद्भावना का लाभ प्राप्त करने का प्रयास किया है।
- इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने माना कि इंडिया गेट चिह्न को TMA की धारा 17 के अंतर्गत निर्धारित तरीके से विच्छेदित नहीं किया जा सकता है।
- न्यायालय ने अंततः इस मामले में वाणिज्यिक न्यायालय के आदेश को खारिज कर दिया।
प्रवंचक समानता का पता कैसे लगाया जा सकता है?
- व्यापार चिह्न (ट्रेडमार्क) विधि में प्रवंचक समानता से तात्पर्य ऐसी स्थिति से है, जहाँ एक व्यापार चिह्न (ट्रेडमार्क) दूसरे से बहुत मिलता-जुलता है, जिससे जनता को प्रवंचित करने या भ्रमित करने की संभावना उत्पन्न होती है।
- यह अवधारणा तब भी लागू होती है, जब दोनों चिह्न समान न हों, क्योंकि दिखने, ध्वनि या अर्थ में उनकी समानता के कारण उपभोक्ता उन्हें दोषपूर्ण तरीके से एक-दूसरे से जोड़ सकते हैं।
- प्रवंचना की संभावना का आकलन औसत बुद्धि एवं अपूर्ण स्मरण शक्ति वाले ग्राहक के दृष्टिकोण से किया जाना चाहिये।
- “भ्रम”, फिर से, हर मामले में, उपभोक्ता द्वारा एक चिह्न को दूसरे के लिये भ्रामक समझने की आवश्यकता नहीं है।
- यह पर्याप्त है - जैसा कि TMA की धारा 29(4) स्वयं स्पष्ट करती है - यदि चिह्नों के बीच समानता ऐसे उपभोक्ता के मन में उनके बीच “संबंध” की धारणा व्यक्त करती है।
- यदि प्रतिवादी के चिह्न को पहली बार देखने के कुछ समय बाद, औसत बुद्धि एवं अपूर्ण स्मरणशक्ति वाला उपभोक्ता, भले ही एक मिनट के अंश के लिये, रुक जाता है और विचार करता है कि क्या यह वही चिह्न नहीं है, या वादी के उस चिह्न से संबद्ध नहीं है जिसे उसने पहले देखा था, तो अतिलंघन का अपकृत्य, प्रतिवादी द्वारा किया गया, स्वतः ही माना जाएगा।
- अतिलंघन कारित होना तब माना जाता है जब चिह्नों के बीच प्रवंचक ध्वन्यात्मक, दृश्य या विचार समानता होती है। उपभोक्ता को भ्रमित करने के लिये किसी एक तत्त्व की उपस्थिति ही पर्याप्त होगी। तब, भेद की अन्य सभी विशेषताएँ महत्त्वहीन हो जाएँगी।
- इसके अतिरिक्त, अपीलकर्त्ता के चिह्न की आवश्यक विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए, चिह्नों की समग्र रूप से तुलना की जानी चाहिये।
प्रवंचक समानता पर ऐतिहासिक मामले क्या हैं?
- पार्ले प्रोडक्ट्स (प्राइवेट) लिमिटेड बनाम जे.पी. एंड कंपनी (1972)
- इसलिये, यह स्पष्ट है कि इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिये कि क्या एक चिह्न दूसरे के समान प्रवंचक है, दोनों की व्यापक एवं आवश्यक विशेषताओं पर विचार किया जाना चाहिये।
- उन्हें यह पता लगाने के लिये एक साथ नहीं रखा जाना चाहिये कि क्या डिज़ाइन में कोई अंतर है तथा यदि ऐसा है, तो क्या वे इस तरह के चरित्र के हैं कि एक डिज़ाइन को दूसरे के लिये दोषपूर्ण नहीं माना जा सकता है।
- यह पर्याप्त होगा यदि विवादित चिह्न पंजीकृत चिह्न से इतनी समग्र समानता रखता हो कि एक व्यक्ति जो आमतौर पर एक चिह्न के साथ व्यवहार करता है, उसे भ्रमित करने की संभावना हो, ताकि यदि उसे दूसरा चिह्न प्रस्तुत किया जाए तो वह उसे स्वीकार कर ले।
- रेकिट एंड कोलमैन लिमिटेड बनाम बोर्डेन इंक (1990)
- इस मामले में न्यायालय ने "ट्रिनिटी" या "ट्रिपल आइडेंटिटी टेस्ट" की परिकल्पना की, जिसके अनुसार अतिलंघन कारित होना तब माना जाता है जब समान (या प्रवंचक रूप से समान) चिह्नों का उपयोग समान उत्पादों के लिये किया जाता है, जिनका एक ही बाजार होता है।
- चिह्नों की समानता, उन वस्तुओं की पहचान/समानता जिन पर चिह्नों का उपयोग किया जाता है, तथा बाजार की समानता, इसलिये अतिलंघन का एक वैध अनुमान प्रस्तुत करती है।
- के.आर. चिन्ना कृष्णा चेट्टियार बनाम श्री अंबल एंड कंपनी (1969)
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय दोनों मामलों में सूंघने के लिये प्रयोग किये जाने वाले निशान “श्री अम्बल” एवं “श्री अंदल” से निपट रहा था।
- न्यायालय ने माना कि दोनों निशानों के बीच कोई दृश्य संबंधी समानता नहीं थी, हालाँकि, दोनों निशानों के बीच समानता को कान के साथ-साथ आंख के संदर्भ में भी माना जाना चाहिये।