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आपराधिक कानून

TIP का साक्ष्यिक मूल्य

 18-Feb-2025

विनोद उर्फ नसमुल्ला बनाम छत्तीसगढ़ राज्य

"जब तक साक्षी बॉक्स में प्रवेश नहीं करता तथा स्वयं को प्रतिपरीक्षा के लिये प्रस्तुत नहीं करता, तब तक यह कैसे पता लगाया जा सकता है कि उसने किस आधार पर व्यक्ति या वस्तु की पहचान की।"

न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि TIP में अपीलकर्त्ता की पहचान करने वाले साक्षियों की सुनवाई के दौरान जाँच नहीं की गई, इसलिये TIP का कोई साक्ष्यिक मूल्य नहीं है।

  • उच्चतम न्यायालय ने विनोद उर्फ नस्मुल्ला बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।

विनोद उर्फ नस्मुल्ला बनाम छत्तीसगढ़ राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • यह मामला 28 सितंबर 1993 को रात करीब 11:30 बजे रायपुर जा रही आदर्श परिवहन बस सेवा की बस में हुई एक बस डकैती से जुड़ा है। 
  • अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया कि ड्राइवर के पीछे बैठे एक व्यक्ति ने ड्राइवर की कनपटी पर देसी पिस्तौल लगा दी और उसे बस रोकने को कहा। 
  • बस रुकने के बाद, कुल आठ लोगों (चार जो पहले से ही बस में थे और चार जो स्टॉप पर चढ़े थे) ने यात्रियों पर हमला करना आरंभ कर दिया और उनका सामान लूट लिया। 
  • घटना के दौरान, एक गोली चलाई गई, जिससे एक यात्री घायल हो गया।

  • बस चालक बस को अंबिकापुर पुलिस स्टेशन ले गया, जहाँ 29 सितंबर 1993 को रात 12:20 बजे FIR दर्ज की गई। 
  • पुलिस ने अपराधियों को भागने से रोकने के लिये बैरिकेड्स लगा दिये। 29 सितंबर 1993 को लगभग 3:00 बजे पुलिस कांस्टेबल खेमराज सिंह ने कथित तौर पर अपीलकर्त्ता विनोद उर्फ नस्मुल्ला को गिरफ्तार किया, जो कथित तौर पर एक देसी पिस्तौल और पाँच कारतूस (दो जिंदा और तीन खाली) लेकर जा रहा था। 
  • 30 सितंबर 1993 को एक टेस्ट आइडेंटिफिकेशन परेड (TIP) आयोजित की गई, जहाँ बस चालक राम सजीवन शर्मा और खलासी (क्लीनर) ऐनुल खान ने कथित तौर पर अपीलकर्त्ता की पहचान की। हालाँकि, बस कंडक्टर कमल सिंह उसे पहचानने में विफल रहा। 
  • अपीलकर्त्ता पर एक अन्य आरोपी मोहम्मद कलाम अंसारी के साथ सत्र न्यायालय, सरगुजा, अंबिकापुर में अभियोजन का वाद लाया गया। 
  • अभियोजन पक्ष ने कई साक्षी प्रस्तुत किये, जिनमें तीन चश्मदीद साक्षी शामिल थे जो बस में यात्री थे।
  • अपीलकर्त्ता या उसके पास से कोई भी चोरी या लूटी गई वस्तु बरामद नहीं की गई।
  • इस मामले में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 395 के साथ धारा 397 (मृत्यु या गंभीर चोट पहुँचाने के प्रयास के साथ डकैती) और शस्त्र अधिनियम, 1959 की धारा 25 के अधीन आरोप शामिल थे।
  • ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को डकैती का दोषी पाया। इसी के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील की गई।
  • उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के निर्णय को यथावत बनाए रखा तथा अपीलकर्त्ता की अपील को खारिज कर दिया। ट्रायल कोर्ट के निष्कर्षों में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं पाया गया
  • इसी के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील की गई है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं:
    • टेस्ट आइडेंटिफिकेशन परेड (TIP) के विषय पर:
      • TIP कोई ठोस साक्ष्य नहीं है, बल्कि केवल पुष्टि करने वाला साक्ष्य है। 
      • चूँकि TIP में अपीलकर्त्ता की पहचान करने वाले साक्षियों की सुनवाई के दौरान जाँच नहीं की गई थी, इसलिये TIP का कोई साक्ष्यिक मूल्य नहीं था।
    • PW संख्या-9 का परिक्षण (पुलिस कार्मिक):
      • उनकी डॉक पहचान अविश्वसनीय पाई गई क्योंकि:
      • वह बस में अपनी उपस्थिति के विषय में संतोषजनक ढंग से नहीं बता सका।
      • उपलब्ध होने के बावजूद, उसे TIP के लिये प्रयोग नहीं किया गया।
      • उसने स्वीकार किया कि वह पहले भी अपीलकर्त्ता से मिल चुका है, फिर भी उसे TIP के लिये प्रयोग नहीं किया गया।
    • गिरफ्तारी एवं बरामदगी:
      • गिरफ्तारी की कहानी अविश्वसनीय लगी क्योंकि:
      • यह असंभव था कि एक सशस्त्र व्यक्ति एक पुलिसकर्मी से बचने के लिये हथियार का उपयोग न करे।
      • प्रतिरोध का दावा करने के बावजूद किसी के घायल होने की सूचना नहीं मिली।
      • जब्ती ज्ञापन तैयार करने में 9 घंटे का विलंब का कारण स्पष्ट नहीं था।
      • पिस्तौल विवरण में विसंगति को अपर्याप्त रूप से स्पष्ट किया गया था।
    • अंतिम निष्कर्ष:
      • अभियोजन पक्ष उचित संदेह से परे अपराध सिद्ध करने में विफल रहा।
      • अपीलकर्त्ता को संदेह का लाभ दिया गया।
      • दोनों अधीनस्थ न्यायालयों के निर्णय को रद्द कर दिया गया।
      • अपीलकर्त्ता को सभी आरोपों से दोषमुक्त कर दिया गया।
      • अपीलकर्त्ता की जमानत राशि को क्षमा कर दिया गया।
  • उच्चतम न्यायालय के निर्णय ने मुख्य रूप से इस तथ्य पर प्रकाश डाला कि किस प्रकार दोनों अधीनस्थ न्यायालय साक्ष्यों की गंभीरतापूर्वक जाँच करने में विफल रहीं तथा अभियोजन पक्ष के मामले को संभाव्यता एवं स्थापित विधिक सिद्धांतों के आधार पर परखे बिना ही स्वीकार कर लिया।

टेस्ट आइडेंटिफिकेशन परेड (TIP) क्या है?

परिचय:

  • अभियुक्त की पहचान स्थापित करने के तरीकों में से एक TIP है जो भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 9 के अंतर्गत प्राप्त की जाती है।
  • IEA की धारा 9 प्रासंगिक तथ्यों को स्पष्ट करने या प्रस्तुत करने के लिये आवश्यक तथ्यों से संबंधित है। 
  • इसी धारा को भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) की धारा 7 के अंतर्गत शामिल किया गया है।

उद्देश्य:

  • परेड का उद्देश्य साक्षी की सत्यता का परीक्षण करना है, इस प्रश्न पर कि क्या वह कई लोगों में से किसी अज्ञात व्यक्ति को पहचानने में सक्षम है, जिसे उसने अपराध के संदर्भ में देखा था। 
  • इसके दो प्रमुख उद्देश्य हैं:
    • जाँच अधिकारियों को यह संतुष्टि प्रदान करना कि अपराध में एक निश्चित व्यक्ति शामिल था, जिसे साक्षी पहले से नहीं जानते थे। 
    • संबंधित साक्षी द्वारा न्यायालय के समक्ष दिये गए परीक्षण की पुष्टि के लिये साक्ष्य प्रस्तुत करना।

आवश्यक तत्त्व:

  • जहाँ तक संभव हो, जेल में न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा परीक्षण के लिये परेड आयोजित की जाएगी। 
  • पहचान परेड के दौरान पहचान करने वाले साक्षी द्वारा दिये गए अभिकथनों को कार्यवाही में दर्ज किया जाना चाहिये। अगर कोई साक्षी गलती भी करता है, तो उसे दर्ज किया जाना चाहिये। 
  • TIP विधि में साक्ष्य का एक ठोस टुकड़ा नहीं है तथा इसका प्रयोग केवल न्यायालय में दिये गए संबंधित साक्षी के साक्ष्यों की पुष्टि या खंडन के लिये किया जा सकता है।

भारतीय न्याय संहिता 2023 (BNS) की धारा 310:

  • यह धारा डकैती के विरुद्ध सजा से संबंधित है। 
  • इसमें प्रावधानित किया गया है कि जो कोई भी डकैती कारित करेगा, उसे आजीवन कारावास या दस वर्ष तक का कठोर कारावास की सजा दी जाएगी और अर्थदण्ड भी देना होगा। 
  • डकैती के अपराध को IPC की धारा 397 के अधीन वर्णित किया गया है।

आपराधिक कानून

नया जमानत आवेदन दाखिल करना

 18-Feb-2025

विपिन कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 

“एक बार पूर्व में दायर जमानत याचिका के अस्वीकृत होने के उपरांत पुनः जमानत याचिका दायर करना अधिकार का मामला है।”  

न्यायमूर्ति पंकज मित्तल और न्यायमूर्ति एस.वी.एन. भट्टी 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

न्यायमूर्ति पंकज मित्तल एवं न्यायमूर्ति एस.वी.एन. भट्टी की पीठ ने कहा कि पूर्व में दायर जमानत याचिका के अस्वीकृत होने के उपरांत पुनः जमानत याचिका दायर करना अधिकार का मामला है।  

  • उच्चतम न्यायालय ने विपिन कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2025) के मामले में यह निर्णय दिया। 

विपिन कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?  

  • अपीलकर्त्ता की पूर्व के जमानत आवेदन को उच्च न्यायालय ने 3 अक्टूबर 2023 को स्वीकार कर लिया था।   
  • उच्चतम न्यायालय ने जमानत देने वाले उच्च न्यायालय के आदेश को अपास्त कर दिया।  
  • इसके पश्चात् अपीलकर्त्ता ने उच्च न्यायालय के समक्ष जमानत के लिये नया आवेदन दाखिल किया। ​​ 
  • उच्चतम न्यायालय के समक्ष विवाद्यक यह था कि क्या नए जमानत आवेदन को स्वीकार किया जाना चाहिये।  

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?  

  • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि पिछली अस्वीकृति/रद्दीकरण के पश्चात् नए जमानत आवेदन दाखिल करना अधिकार का मामला है।   
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि केवल इसलिये जमानत आवेदन खारिज करना उच्च न्यायालय के लिये न्यायसंगत नहीं था क्योंकि उच्चतम न्यायालय ने विशेष रूप से नए आवेदन दाखिल करने की अनुमति नहीं दी थी।  
  • उच्च न्यायालय ने इस नए आवेदन को केवल इस आधार पर खारिज कर दिया कि पिछली जमानत को रद्द करते समय उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट रूप से नए आवेदन को दाखिल करने की स्वतंत्रता नहीं दी थी।   
  • उच्चतम न्यायालय ने उपरोक्त तर्क को खारिज कर दिया। 
  • उच्चतम न्यायालय ने 31 मई 2024 को उच्च न्यायालय के आदेश को अपास्त कर दिया है और मामले को गुण-दोष के आधार पर निर्णय के लिये उच्च न्यायालय को वापस भेज दिया है।  

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) के अधीन जमानत क्या है? 

  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता के अधीन धारा 2 (ख) के अधीन जमानत को परिभाषित किया गया है: 
    • “जमानत” का अर्थ है किसी व्यक्ति को छोड़ना  
      • अभियुक्त या 
      • अपराध करने का संदेह 
    • किसी व्यक्ति को विधि की अभिरक्षा से जमानत पर छोड़ा जाता है: 
      • किसी अधिकारी या न्यायालय द्वारा अधिरोपित की गई कुछ शर्तों पर 
      • ऐसे व्यक्ति द्वारा बंधपत्र या जमानतपत्र निष्पादित करने पर। 
  • धारा 2 (घ) जमानतपत्र से प्रतिभूति के साथ छोड़े जाने के लिये कोई वचनबंध अभिप्रेत है। 
  • धारा 2 (ड.) “बंधपत्र” को इस प्रकार परिभाषित करती है: 
    • व्यक्तिगत बंधपत्र या 
    • प्रतिभूति के बिना छोड़े जाने के लिये वचनबंध 

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता के अधीन जमानत को नियंत्रित करने वाले प्रावधान क्या हैं? 

  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता के अध्याय 35 में जमानत और बंधपत्रों के बारे में उपबंधित किया गया हैं। 
  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 478 से धारा 496 में जमानत से संबंधित उपबंध हैं। 
  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 485 में अभियुक्त और प्रतिभूओं के बंधपत्र का उपबंध है।  
  • धारा 485 (1) में उपबंध है कि: 
    • किसी व्यक्ति को बंधपत्र या जमानतपत्र पर छोड़े जाने जाने से पूर्व, उसे एक निश्चित राशि के लिये बंधपत्र निष्पादित करना होगा। 
    • बंधपत्र की राशि पुलिस अधिकारी या न्यायालय द्वारा निर्धारित की जाती है, जो उनके अनुसार पर्याप्त है।  
    • जब व्यक्ति को बंधपत्र या जमानतपत्र पर छोड़ा जाता है, तो एक या अधिक पर्याप्त प्रतिभूओं को भी बंधपत्र निष्पादित करना होगा। 
    • बंधपत्र में एक शर्त होती है कि व्यक्ति बंधपत्र में उल्लिखित निर्दिष्ट समय और स्थान पर उपस्थित होगा।  
    • व्यक्ति को पुलिस अधिकारी या न्यायालय द्वारा अन्यथा निर्देश दिये जाने तक निर्देशानुसार उपस्थित रहना आवश्यक है। 
    • यह उपबंध इस बात पर ध्यान दिये बिना लागू होता है कि छोड़ा जाना पुलिस अधिकारी या न्यायालय द्वारा अधिकृत है या नहीं। 
    • बंधपत्र का उद्देश्य आवश्यक कार्यवाही में व्यक्ति की उपस्थिति सुनिश्चित करना है।  
  • धारा 485 (2) में उपबंध है कि जहाँ किसी व्यक्ति को जमानत पर छोड़ने के लिये कोई शर्त अधिरोपित की जाती है, बंधपत्र या जमानतपत्र में वह शर्त भी सम्मिलित होनी चाहिये। 
  • धारा 485 (3) में उपबंध है कि यदि मामले की आवश्यकता हो, तो बंधपत्र या जमानतपत्र पर ,जमानत पर छोड़े गए व्यक्ति को उच्च न्यायालय, सेशन न्यायालय या अन्य न्यायालय में आरोप का उत्तर देने के लिये बुलाए जाने पर उपस्थित होने के लिये भी बाध्य करेगा। 
  • धारा 485 (4) में उपबंध है कि: 
    • न्यायालय प्रतिभूओं की पर्याप्तता या उपयुक्तता के संबंध में तथ्यों के सबूत के रूप में शपथपत्र को स्वीकार कर सकता है।   
    • यदि आवश्यक हो, तो न्यायालय प्रतिभूओं की उपयुक्तता या पर्याप्तता निर्धारित करने के लिये स्वयं जांच करने का विकल्प चुन सकता है। 
    • वैकल्पिक रूप से, न्यायालय अधीनस्थ मजिस्ट्रेट को प्रतिभू योग्यता पर जांच करने का निर्देश दे सकता है। 
    • यह उपबंध न्यायालय को प्रक्रिया की उचित निगरानी करते हुए प्रतिभू की उपयुक्तता की पुष्टि करने में लचीलापन प्रदान करता है। 
  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 486 प्रतिभूओं द्वारा घोषणा का उपबंध करती है।  
    • किसी अभियुक्त व्यक्ति को जमानत पर छोड़ने के लिये प्रतिभू के रूप में कार्य करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को न्यायालय के समक्ष घोषणा करनी चाहिये। 
    • इस घोषणा में उन व्यक्तियों की कुल संख्या का प्रकटन करना चाहिये जिनके लिये व्यक्ति प्रतिभू है (वर्तमान अभियुक्त सहित) सभी सुसंगत विवरणों के साथ। 
  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 487 अभिरक्षा से छोड़े जाने का उपबंध करती है  
    • बंधपत्र या जमानतपत्र के निष्पादन पर, जिस व्यक्ति की उपस्थिति के लिये इसे निष्पादित किया गया था, उसे तुरंत छोड़ दिया जाएगा। 
    • यदि व्यक्ति जेल में है, तब उसकी जमानत मंजूर करने वाला न्यायालय जेल के भारसाधक अधिकारी को उसके छोड़े जाने के लिये आदेश जारी करेगा। 
    • यह आदेश प्राप्त करने पर जेल अधिकारी व्यक्ति को छोड़ने के लिये बाध्य है। 
    • यद्यपि, इस उपबंध के अधीन ऐसे व्यक्ति को छोड़ने करने की आवश्यकता नहीं है जिसे उस मामले के अतिरिक्त किसी अन्य कारण से अभिरक्षा में लिया जा सकता है जिसके लिये बंधपत्र/जमानतपत्र निष्पादित किया गया था।

सिविल कानून

सरकारी प्लीडर के रूप में नियुक्ति का अधिकार की अस्वीकार्यता

 18-Feb-2025

श्रीमती शिनू के आर बनाम केरल राज्य

“सरकारी प्लीडर या लोक अभियोजक के रूप में नियुक्ति का कोई अधिकार नहीं, RPwD अधिनियम के अंतर्गत कोई दिव्यांगता आरक्षण नहीं।”

न्यायमूर्ति डी. के. सिंह

स्रोत: केरल उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, न्यायमूर्ति डी. के. सिंह की पीठ ने माना है कि दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 (RPwD अधिनियम) की धारा 34 के अंतर्गत दिव्यांग व्यक्तियों के लिये आरक्षण, सरकारी प्लीडर एवं लोक अभियोजक की नियुक्तियों पर लागू नहीं किया जा सकता है, क्योंकि उनके पास विशिष्ट कैडर क्षमता का अभाव है।

श्रीमती शिनु के. आर. बनाम केरल राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • यह मामला पठानमथिट्टा जिले में लोक अभियोजक के पद के लिये बेंचमार्क दिव्यांगता वाले व्यक्तियों के पक्ष में आरक्षण लागू करने के लिये रिट याचिकाओं के माध्यम से सामने आया। 
  • याचिकाकर्ताओं ने दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 की धारा 34 पर विश्वास किया, जो बेंचमार्क दिव्यांगता वाले व्यक्तियों के लिये कैडर की कुल रिक्तियों में 4% आरक्षण को अनिवार्य करता है। 
  • लोक अभियोजकों और सरकारी विधि अधिकारियों की नियुक्ति एवं सेवा की शर्तें केरल सरकार के विधि अधिकारी (नियुक्ति एवं सेवा की शर्तें) नियम, 1976 द्वारा शासित होती हैं। 
  • 1976 के नियमों के नियम 8(9) के अनुसार, जिला स्तर पर सरकारी विधि अधिकारियों की नियुक्ति की अवधि तीन वर्ष के लिये निर्धारित है।
  • 1976 के नियमों का नियम 17 सरकार को किसी भी सरकारी विधि अधिकारी की नियुक्ति को कार्यकाल समाप्ति से पहले बिना कारण बताए, एक महीने का नोटिस या उसके बदले में वेतन देकर समाप्त करने का अधिकार देता है। 
  • याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि चूँकि सरकारी अभियोजकों की नियुक्ति सरकार द्वारा की जाती है, इसलिये यह सार्वजनिक रोजगार है, जिससे दिव्यांगता आरक्षण को लागू करना आवश्यक हो जाता है। 
  • लोक अभियोजक ने तर्क दिया कि सरकारी अभियोजकों को मामलों की पैरवी करने के लिये बार से संविदा के आधार पर नियुक्त किया जाता है, तथा कोई औपचारिक कैडर संरचना मौजूद नहीं है। 
  • मामला मुख्य रूप से इस तथ्य पर केंद्रित था कि क्या सरकारी अभियोजक का पद 2016 के अधिनियम के अंतर्गत सांविधिक आरक्षण की गारंटी देने वाली कैडर-आधारित सेवा है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने माना कि धारा 34 के अंतर्गत 4% आरक्षण विशेष रूप से स्थापित कैडर सेवा संरचना के अंतर्गत रिक्तियों के विरुद्ध लागू है। 
  • सरकारी प्लीडर एवं लोक अभियोजकों की नियुक्ति परिभाषित कैडर शक्ति वाली सेवा में नियुक्ति नहीं है। 
  • न्यायालय ने कहा कि किसी भी व्यक्ति को सरकारी प्लीडर या लोक अभियोजक के रूप में नियुक्त होने का अंतर्निहित अधिकार नहीं है। 
  • सरकार और उसके विधिक अधिकारियों के बीच संबंध अनिवार्य रूप से नियोक्ता एवं कर्मचारी के बजाय कक्षीकार (क्लाइंट) और अधिवक्ता का है।
  • क्लाइंट होने के नाते, सरकार के पास न्यायालयों के समक्ष अपने हितों का प्रतिनिधित्व करने के लिये सबसे सक्षम अधिवक्ताओं को नियुक्त करने का विशेषाधिकार है।
  • न्यायालय ने कहा कि सार्वजनिक निकायों का दायित्व है कि वे सार्वजनिक हितों की रक्षा के लिये सबसे सक्षम विधिक प्रतिनिधियों को नियुक्त करें।
  • लोक अभियोजकों की नियुक्ति की संविदात्मक प्रकृति इसे सांविधिक आरक्षण की गारंटी देने वाले नियमित सार्वजनिक रोजगार से अलग करती है।
  • न्यायालय ने पुष्टि की कि सरकारी प्लीडरों एवं लोक अभियोजकों की नियुक्ति एवं निरंतरता सरकार की इच्छा पर निर्भर करती है।
  • औपचारिक कैडर संरचना का अभाव इन पदों पर धारा 34 के आरक्षण को लागू करने में बाधा उत्पन्न करता है।

दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 क्या है?

  • यह अधिनियम भारतीय संसद द्वारा विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (UNCRPD) को लागू करने के लिये बनाया गया था, जो 1995 के पहले के विकलांग व्यक्ति अधिनियम की जगह लेता है। 
  • यह अधिनियम पिछले विधान के अंतर्गत दिव्यांगता के दायरे को 7 प्रकारों से बढ़ाकर 21 प्रकारों तक कर देता है, जिसमें शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं कई दिव्यांगताएँ शामिल हैं। 
  • "विकलांग व्यक्ति" को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया जाता है, जिसके पास दीर्घकालिक शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक या संवेदी दिव्यांगता होती है, जो बाधाओं के साथ बातचीत करते समय समाज में उनकी समान भागीदारी में बाधा डालती है।
  • अधिनियम में "बेंचमार्क दिव्यांगता" की अवधारणा प्रस्तुत की गई है, जिसे अधिकृत प्रमाणन प्राधिकरण द्वारा प्रमाणित निर्दिष्ट दिव्यांगता के 40% से कम नहीं के रूप में परिभाषित किया गया है। 
  • यह विधान उच्च सहायता की आवश्यकता वाले व्यक्तियों को मान्यता देता है जिन्हें दैनिक गतिविधियों के लिये गहन सहायता की आवश्यकता होती है। 
  • यह अधिनियम केंद्र सरकार को वर्तमान में सूचीबद्ध 21 प्रकारों से परे निर्दिष्ट दिव्यांगताओं की अतिरिक्त श्रेणियों को अधिसूचित करने का अधिकार देता है। 
  • दिव्यांगताओं की व्यापक सूची में थैलेसीमिया, हीमोफीलिया, पार्किंसंस रोग एवं एसिड अटैक पीड़ित जैसी स्थितियाँ शामिल हैं, जिन्हें पहले मान्यता नहीं दी गई थी। 
  • यह अधिनियम भारत में दिव्यांगता के मुद्दों को संबोधित करने में चिकित्सा मॉडल से अधिकार-आधारित दृष्टिकोण की ओर एक आदर्श बदलाव का प्रतिनिधित्व करता है।

दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 की धारा 34 क्या है?

  • प्रत्येक उपयुक्त सरकार को बेंचमार्क दिव्यांगता वाले व्यक्तियों के लिये सरकारी प्रतिष्ठानों में पदों के प्रत्येक समूह के अंदर कैडर की कुल रिक्तियों में से न्यूनतम 4% आरक्षण सुनिश्चित करना चाहिए। 
  • 4% आरक्षण तीन श्रेणियों में से प्रत्येक के लिये 1% के रूप में वितरित किया जाता है:
    • अंधापन और कम दृष्टि, बहरापन और कम सुनने की समस्या, और मस्तिष्क पक्षाघात, कुष्ठ रोग से ठीक हुए लोग, बौनापन, एसिड अटैक पीड़ित और मांसपेशीय दुर्विकास सहित चलने-फिरने में अक्षमता।
  • शेष 1% (घ) ऑटिज्म, बौद्धिक दिव्यांगता, विशिष्ट अधिगम दिव्यांगता और मानसिक बीमारी, तथा (ङ) बधिर-अंधेपन सहित बहु दिव्यांगता वाले व्यक्तियों के लिये आरक्षित है। 
  • पदोन्नति में आरक्षण समय-समय पर उपयुक्त सरकार द्वारा जारी निर्देशों का पालन करेगा। 
  • उपयुक्त सरकार, मुख्य आयुक्त या राज्य आयुक्त के परामर्श से, कार्य की प्रकृति के आधार पर किसी भी सरकारी प्रतिष्ठान को इन प्रावधानों से छूट दे सकती है। 
  • यदि बेंचमार्क दिव्यांगता वाले उपयुक्त उम्मीदवारों की अनुपलब्धता के कारण रिक्तियों को भरा नहीं जा सकता है, तो उन्हें अगले भर्ती वर्ष में आगे ले जाया जाएगा और पाँच श्रेणियों के बीच अदला-बदली के माध्यम से भरा जा सकता है।
  • यदि अदला-बदली के बाद भी कोई विकलांग व्यक्ति उपलब्ध नहीं है, तो रिक्ति को बिना दिव्यांगता वाले व्यक्ति द्वारा भरा जा सकता है। 
  • उपयुक्त सरकार के पास बेंचमार्क दिव्यांगता वाले व्यक्तियों के रोजगार के लिये ऊपरी आयु सीमा में छूट प्रदान करने का अधिकार है।