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सांविधानिक विधि

दोहरे खतरे के सिद्धांत का उपयोजन

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 30-Nov-2023

जितेंद्र सिंह और अन्य बनाम पंजाब राज्य और अन्य
"चेक की अस्वीकृति के लिये परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI अधिनियम) की धारा 138 के तहत दायर की गई शिकायत भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 420 और 406 के तहत धोखाधड़ी के लिये अगले मामले पर रोक नहीं लगाती है।"

न्यायमूर्ति अनूप चितकारा

स्रोत: पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति अनूप चितकारा ने परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI अधिनियम) की धारा 138 और भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 420 तथा 406 के बीच टकराव के कारण 'दोहरे खतरे' के उपयोजन पर गौर किया।

  • पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने यह निर्णय जितेंद्र सिंह और अन्य बनाम पंजाब राज्य और अन्य के मामले में दिया।

जितेंद्र सिंह और अन्य बनाम पंजाब राज्य और अन्य की पृष्ठभूमि क्या है?

  • आपराधिक अभियोजन चलाने की माँग करने वाले याचिकाकर्ताओं के विरुद्ध NI अधिनियम की धारा 138 के तहत दो शिकायतें और IPC की धारा 406/420 के तहत एक प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की गई थी।
  • शिकायतकर्ता ने तर्क दिया कि मामला न केवल चेक की अस्वीकृति का है, बल्कि आपराधिक मनःस्थिति (mens rea) के साथ विश्वास के उल्लंघन का भी है।
  • IPC की धारा 406 और 420 के तहत प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) वर्जित नहीं थी। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि चेक की अस्वीकृति को जारीकर्ता की ओर से धोखाधड़ी या दोषपूर्ण कृत्य का इरादा नहीं माना जा सकता है। इसलिये, FIR रद्द किये जाने योग्य थी।

न्यायालय की टिप्पणी क्या थी?

  • “यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 20(2) का उल्लंघन होगा कि IPC के तहत यह आरोप लगाकर FIR दर्ज की जाए कि वस्तु दोषपूर्ण इरादे से प्राप्त की गई थी और चेक भी ऐसे इरादे से जारी किये गए थे, और साथ ही NIA की धारा 138 या समान आरोपों के तहत अभियोजन की माँग करना और समान राशि के लिये समान लेनदेन भारत के संविधान के अनुच्छेद 20(2) का उल्लंघन होगा।”

'दोहरा खतरा' क्या है?

  • दोहरा खतरा एक कानूनी अवधारणा है जो किसी व्यक्ति पर एक ही अपराध के लिये दो बार मुकदमा चलाने या दंडित होने से रोकती है। यह आपराधिक कानून का एक मौलिक सिद्धांत है, जो व्यक्तियों को राज्य शक्ति के मनमाने उपयोग से बचाने और यह सुनिश्चित करने के लिये डिज़ाइन किया गया है कि वे एक ही अपराध के लिये कई निष्पादन और सुधार के अधीन न हों।
  • भारत में दोहरे खतरे के सिद्धांत को संविधान के अनुच्छेद 20(2) में दिया गया है, जो यह प्रावधान करता है कि किसी भी व्यक्ति पर एक ही अपराध के लिये एक से अधिक मुकदमा नहीं चलाया जाएगा और न ही उसे दंडित किया जाएगा।
    • CrPC की धारा 300 के तहत दोहरे खतरे के सिद्धांत को भी उठाया गया है।
  • दोहरे खतरे की उत्पत्ति का पता प्राचीन काल में लगाया जा सकता है, जब कई कानूनी प्रणालियों में एक ही अपराध के लिये किसी व्यक्ति पर दोबारा मुकदमा चलाने के विरुद्ध नियम थे।
  • अंग्रेज़ी आम कानून प्रणाली में दोहरे खतरे का सिद्धांत पहली बार 12वीं शताब्दी में स्थापित किया गया था।
  • 'दोहरे खतरे के नियम' का अपवाद:
    • यदि व्यक्ति को किसी अपराध से बरी कर दिया गया है, तो नए और निश्चायक प्रमाण स्थापित होने पर उस पर दोबारा मुकदमा चलाया जा सकता है।
    • यदि किसी व्यक्ति को निचले अपराध के लिये दोषी ठहराया गया है और बाद में उसके बड़े अपराध का पता चलता है, तो उस पर बड़े अपराध के लिये दोबारा मुकदमा चलाया जा सकता है।
    • यदि किसी व्यक्ति को सक्षम क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय द्वारा दोषी ठहराया गया है, तो उस पर अपील की जा सकती है और उच्च न्यायालय में उसी अपराध के लिये दोबारा मुकदमा चलाया जा सकता है।

मामले में उद्धृत ऐतिहासिक निर्णय क्या है?

  • अजय कुमार राधेश्याम गोयनका बनाम टूरिज़्म फाइनेंस कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड, (2023):
    • उच्चतम न्यायालय ने माना कि परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1882 की धारा 138 के साथ पठित 141 के साथ पठित दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 200 के तहत प्राकृतिक व्यक्तियों के विरुद्ध शुरू किया गया आपराधिक मुकदमा समाप्त नहीं होगा, और इसपर उच्चतम न्यायालय के दोनों माननीय न्यायाधीशों ने अलग-अलग लेकिन सहमति वाले निर्णय दिये हैं।