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हिंदू विवाह के प्रमाणन हेतु आर्य समाज प्रमाण-पत्र की वैधता

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 16-Jul-2024

श्रुति अग्निहोत्री बनाम आनंद कुमार श्रीवास्तव

"एक हिंदू विवाह के लिये आवश्यक प्रथागत संस्कारों एवं समारोहों के रूप में एक वैध विवाह की पूर्व शर्तों का कभी पालन नहीं किया गया और उक्त प्रमाण-पत्रों का विधि की दृष्टि में कोई महत्त्व नहीं है तथा वे स्वयं ऐसे विवाह को सिद्ध नहीं करते हैं”।

न्यायमूर्ति राजन रॉय एवं न्यायमूर्ति ओम प्रकाश शुक्ला

स्रोत: इलाहबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में श्रुति अग्निहोत्री बनाम आनंद कुमार श्रीवास्तव के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने माना है कि विवाह प्रमाण-पत्र में सप्तपदी का उल्लेख न होना विवाह के अनुष्ठान का प्रमाण नहीं है।

श्रुति अग्निहोत्री बनाम आनंद कुमार श्रीवास्तव मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्तमान मामले में, अपीलकर्त्ता अप्राप्तवय थी तथा प्रतिवादी लखनऊ में एक गुरु था।
  • अपीलकर्त्ता एवं उसका परिवार अपने पिता को छोड़कर प्रतिवादी गुरुजी के अनुयायी थे।
  • अपीलकर्त्ता ने आरोप लगाया कि एक दिन प्रतिवादी ने उसे एवं उसकी माँ को प्रसाद दिया तथा इसे खाने के बाद वे बेहोश हो गईं तथा उस दौरान प्रतिवादी ने उनसे कुछ दस्तावेज़ों पर हस्ताक्षर करवाए।
  • घटना के ठीक दो दिन बाद प्रतिवादी ने अपीलकर्त्ता के पिता को फोन करके बताया कि अपीलकर्त्ता और वह विवाहित हैं तथा उन्होंने विवाह पंजीकृत करा लिया है।
  • इसके बाद अपीलकर्त्ता के पिता ने धारा 419, 420, 496 भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराई।
  • अपीलकर्त्ता ने प्रतिवादी के विरुद्ध हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) की धारा 12 के अंतर्गत वाद संस्थित किया क्योंकि वह प्रतिवादी के साथ विवाह करने के लिये कभी सहमत नहीं हुई।
  • प्रतिवादी ने वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिये HMA, 1955 की धारा 9 के अंतर्गत वाद संस्थित किया।
  • ट्रायल कोर्ट ने प्रतिवादी के पक्ष में विवाह का निर्णय दिया क्योंकि साक्षियों के बयानों में विरोधाभास था तथा साथ ही बेटी एवं माँ के लिये कोई मेडिकल जाँच नहीं कराई गई थी कि क्या उन्होंने प्रसाद खाया था जिससे वे अचेत हो गई थीं।
  • साथ ही, अपीलकर्त्ता यह सिद्ध नहीं कर सकी कि वह उस समय आर्य समाज में उपस्थित नहीं थी जब कथित विवाह संपन्न हुआ था।
  • ट्रायल कोर्ट के निर्णय से व्यथित होकर अपीलकर्त्ता ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपील दायर की।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि अपीलकर्त्ता ने कभी इस बात पर सहमति नहीं जताई कि विवाह संपन्न हुआ था, तथा इस आरोप को विवाह की स्वीकृति नहीं माना जा सकता।
  • उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि पिता के कथनों पर विश्वास करना, जो घटना के समय उपस्थित नहीं थे, अपीलकर्त्ता एवं उसकी माँ के कथन पर बाध्यकारी नहीं हो सकता।
  • इसके अतिरिक्त उच्च न्यायालय ने यह भी माना कि विवाह हिंदू रीति-रिवाज़ों एवं संस्कारों के आधार पर संपन्न हुआ था, यह सिद्ध करने का भार प्रतिवादी पर है।
  • उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि आर्य समाज से प्राप्त प्रमाण-पत्र इस बात का पर्याप्त प्रमाण नहीं है कि विवाह हिंदू रीति-रिवाज़ों एवं विवाह के सभी संस्कारों का पालन करके संपन्न हुआ था।
  • इसलिये उच्च न्यायालय ने अपील को स्वीकार कर लिया तथा निर्णय दिया कि विवाह एक छल कृत्य किया था तथा विवाह को अमान्य घोषित कर दिया।

आर्य समाज क्या है?

  • परिचय:
    • आर्य समाज स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा स्थापित एक हिंदू सुधार आंदोलन है।
    • इसका उद्देश्य श्रेष्ठ समाज बनाने के लिये वेद, धर्म एवं सत्य को बढ़ावा देना है।
    • यह पहला मानव संगठन है जिसने नागरिक अधिकार आंदोलन को बढ़ाने के लिये कार्य किया।
  • आर्य समाज विवाह:
    • विवाह वैदिक रीति-रिवाज़ों के अनुसार संपन्न होते हैं।
    • यह हिंदू रीति-रिवाज़ों के लिये विवाह का एक वैकल्पिक तरीका है।
    • यह विवाहित जोड़ों के लिये बहुत महत्त्व रखता है।
  • आर्य समाज मंदिर के लिये पात्रता:
    • लड़की की आयु कम-से-कम 18 वर्ष एवं लड़के की आयु कम-से-कम 21 वर्ष होनी चाहिये।
    • आर्य समाज विवाह संपन्न करने के लिये दंपत्ति का हिंदू, सिख, बौद्ध या जैन धर्म से होना आवश्यक है।
    • मुस्लिम, जैन, ईसाई या पारसी धर्म से संबंधित व्यक्ति आर्य समाज विवाह संपन्न नहीं कर सकता।
    • अंतर्जातीय विवाह एवं अंतरधार्मिक विवाह भी आर्य समाज में संपन्न किये जाते हैं, यदि उनमें से कोई भी व्यक्ति ईसाई, पारसी, यहूदी या मुस्लिम नहीं है।
    • मुस्लिम, ईसाई, पारसी या यहूदी धर्म से संबंधित व्यक्ति भी आर्य समाज विवाह कर सकते हैं, यदि वे स्वेच्छा से शुद्धि नामक अनुष्ठान करते हैं।
  • आर्य समाज विवाह प्रमाण-पत्र की वैधता:
    • आर्य समाज विवाह प्रमाण-पत्र वैध हैं।
    • प्रमाण-पत्र के आधार पर विवाह को सिद्ध नहीं किया जा सकता।
    • वैध विवाह के प्रमाण के लिये समारोह एवं प्रमाण-पत्र जारी करने के साथ हिंदू रीति-रिवाज़ व संस्कार जुड़े होने चाहिये।

आर्य समाज विवाह पर महत्त्वपूर्ण निर्णय क्या हैं?

  • आशीष मोर्य बनाम अनामिका धीमान (2022): इस मामले में, उच्च न्यायालय ने माना कि आर्य समाज का विवाह प्रमाण-पत्र वैध विवाह का साक्ष्य नहीं है।
  • डॉली रानी बनाम मनीष कुमार चंचल (2024): इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि जब उनके मध्य कोई हिंदू विवाह नहीं हुआ था, तो उक्त प्रमाण-पत्र जारी करने का कोई महत्त्व नहीं था।

श्रुति अग्निहोत्री बनाम आनंद कुमार श्रीवास्तव मामले में HMA, 1955 के प्रावधान क्या हैं?

  • धारा 7: हिंदू विवाह के लिये समारोह:
    • खंड (1) में कहा गया है कि हिंदू विवाह किसी भी पक्ष के प्रथागत संस्कारों एवं समारोहों के अनुसार संपन्न किया जा सकता है।
    • खंड (2) में कहा गया है कि जहाँ ऐसे संस्कारों एवं समारोहों में सप्तपदी (अर्थात् पवित्र अग्नि के समक्ष वर एवं वधू द्वारा संयुक्त रूप से सात पग उठाना) निहित है, वहाँ सातवाँ कदम उठाए जाने पर विवाह पूर्ण एवं बाध्यकारी हो जाता है।
  • धारा 9 : दांपत्य अधिकार का प्रत्यास्थापन
    • इसमें कहा गया है कि जब पति या पत्नी में से कोई एक, बिना किसी उचित कारण के, दूसरे के साथ से अलग हो जाता है, तो पीड़ित पक्ष, ज़िला न्यायालय में याचिका द्वारा, दांपत्य अधिकारों का प्रत्यास्थापन के लिये आवेदन कर सकता है तथा न्यायालय, ऐसी याचिका में दिये गए कथनों की सत्यता के विषय में संतुष्ट होने पर तथा यह कि आवेदन को स्वीकार न करने का कोई विधिक आधार नहीं है, तद्नुसार दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन का आदेश दे सकता है।
    • स्पष्टीकरण--जहाँ यह प्रश्न उठता है कि क्या समाज से हटने के लिये कोई उचित कारण था, वहाँ उचित कारण सिद्ध करने का भार उस व्यक्ति पर होगा जो समाज से हट गया है।
  • धारा 12: शून्यकरणीय विवाह—
    • खंड (1) में कहा गया है कि इस अधिनियम के प्रारंभ से पहले या बाद में किया गया कोई भी विवाह शून्यकरणीय होगा तथा निम्नलिखित में से किसी भी आधार पर शून्यता की डिक्री द्वारा अपास्त किया जा सकता है, अर्थात्-
      • प्रतिवादियों के नपुंसकत्व के कारण विवाह सम्पन्न नहीं हुआ है।
      • यह विवाह धारा 5 के खंड (ii) में निर्दिष्ट शर्त का उल्लंघन है।
      • कि याचिकाकर्त्ता की सहमति, या जहाँ याचिकाकर्त्ता के विवाह में संरक्षक की सहमति धारा 5 के अधीन अपेक्षित थी, जैसा कि बाल विवाह अवरोध (संशोधन) अधिनियम, 1978 (1978 का 2) के प्रारंभ से ठीक पहले थी], ऐसे संरक्षक की सहमति समारोह की प्रकृति के विषय में या प्रत्यर्थी से संबंधित किसी भी महत्त्वपूर्ण तथ्य या परिस्थितियों के विषय में बलपूर्वक या छल द्वारा प्राप्त की गई थी।
        प्रतिवादी विवाह के समय याचिकाकर्त्ता के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति से गर्भवती थी।
    • खंड (2) में कहा गया है कि उपधारा (1) में किसी तथ्य के होते हुए भी, विवाह को शून्य करने के लिये कोई याचिका-
      • उपधारा (1) के खंड (ग) में विनिर्दिष्ट आधार पर विचार किया जाएगा, यदि—
        • याचिका डिक्री मिल जाने या, जैसा भी मामला हो, छल का पता चल जाने के एक वर्ष से अधिक समय बाद प्रस्तुत की गई हो।
        • याचिकाकर्त्ता ने, अपनी पूर्ण सहमति से, बल के बंद हो जाने या, जैसा भी मामला हो, छल का पता चल जाने के बाद विवाह के दूसरे पक्ष के साथ पति या पत्नी के रूप में निवास किया हो।
      • उपधारा (1) के खंड (घ) में विनिर्दिष्ट आधार पर तब तक विचारणीय नहीं होगा जब तक कि न्यायालय संतुष्ट न हो जाए-
        • कि याचिकाकर्त्ता विवाह के समय आरोपित तथ्यों से अनभिज्ञ था।
        • कि इस अधिनियम के प्रारंभ से पूर्व सम्पन्न विवाह के मामले में कार्यवाही ऐसे प्रारंभ के एक वर्ष के अंदर तथा ऐसे प्रारंभ के पश्चात् संपन्न विवाह के मामले में विवाह की तिथि से एक वर्ष के अंदर संस्थित की गई है।
        • याचिकाकर्त्ता द्वारा उक्त आधार के अस्तित्व की खोज के बाद से याचिकाकर्त्ता की सहमति से वैवाहिक संभोग नहीं हुआ है।