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सिविल कानून

सारवान रेस ज्यूडिकाटा

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 22-Sep-2023

समीर कुमार मजूमदार बनाम भारत संघ

उच्चतम न्यायालय ने रेस ज्यूडिकाटा के सुस्थापित कानूनी सिद्धांत की फिर से पुष्टि की।

न्यायमूर्ति जे. के. माहेश्वरी और के. वी. विश्वनाथन

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

उच्चतम न्यायालय (एससी) की एक डिविजन बेंच ने समीर कुमार मजूमदार बनाम भारत संघ के मामले में रेस ज्यूडिकाटा के सुस्थापित कानूनी सिद्धांत की फिर से पुष्टि की।

पृष्ठभूमि

  • मामले के तथ्य इस पृष्ठभूमि से उत्पन्न होते हैं कि अपीलकर्ता (समीर कुमार मजूमदार) रेलवे हायर सेकेंडरी स्कूल (इसके बाद स्कूल), अलीपुरद्वार जंक्शन में एक स्कूल शिक्षक था।
    • उनकी प्रारंभिक नियुक्ति एक स्थानापन्न शिक्षक (Substitute Teacher) के रूप में की गई थी।
    • उन्होंने तर्क दिया कि स्कूल की छुट्टियों की पूर्व संध्या पर उन्हें बर्खास्त करके और उसके बाद उन्हें फिर से नियुक्त करके उनकी सेवा में कृत्रिम अंतराल पैदा किया गया।
      • उन्हें 09 जून, 1990 और 22 सितंबर, 1990 को दो बार बर्खास्त किया गया और क्रमशः 24 जुलाई 1990 और 1 नवंबर 1990 को फिर से नियुक्त किया गया।
  • सेवा में और अधिक अंतराल आने के भय से, उन्होंने केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (CAT), गुवाहाटी बेंच के समक्ष एक आवेदन दायर किया और बर्खास्तगी के पत्रों को रद्द करने की प्रार्थना की और सेवा को नियमित करने की भी प्रार्थना की।
    • केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (CAT), गुवाहाटी ने एक अंतरिम आदेश पारित किया जिसके बाद उन्होंने अपनी सेवाएं जारी रखीं। अपीलकर्ता का आवेदन अंततः इस आधार पर खारिज़कर दिया गया:
      • केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (CAT), गुवाहाटी ने श्रीमती जयश्री देब रॉय (दत्ता) बनाम द यूनियन ऑफ इंडिया एवं अन्य (1989) के मामले पर भरोसा किया।
      • वर्तमान मामले में ट्रिब्यूनल ने कहा कि स्थानापन्न शिक्षक एक अधिकार के रूप में नियमितीकरण का दावा नहीं कर सकते। केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (CAT) ने यह भी माना कि नियमित नियुक्ति के लिये रेलवे भर्ती बोर्ड (आरआरबी) द्वारा चयन होना आवश्यक है।
  • उच्चतम न्यायालय में एक अपील की गई थी जिसमें यह माना गया था कि "अपीलकर्ता स्क्रीनिंग कमेटी द्वारा स्क्रीनिंग की प्रक्रिया के माध्यम से नियमित आधार पर नौकरी में आमेलन (Absorption) के हकदार हैं और उन्हें नियमित आमेलन (Absorption) के उद्देश्य से रेलवे भर्ती बोर्ड (आरआरबी) द्वारा चयनित होने की आवश्यकता नहीं है।
  • अपीलकर्ता को स्क्रीनिंग कमेटी द्वारा आयोजित स्क्रीनिंग प्रक्रिया से गुजरना पड़ा और बाद में मौजूदा रिक्ति को भरने के लिये स्कूल में प्राथमिक शिक्षक के पद पर नियुक्त किया गया।
  • इससे व्यथित होकर, अपीलकर्ता ने इस आधार पर फिर से केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (CAT), गुवाहाटी का दरवाजा खटखटाया कि उसे सहायक शिक्षक के रूप में नौकरी में नियुक्त किया जाना चाहिये था क्योंकि उसने एक स्थानापन्न सहायक शिक्षक के रूप में काम किया था और कक्षा XI और XII को पढ़ाया था।
  • केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (CAT) ने अपीलकर्ता के आवेदन को खारिज़ कर दिया और उच्च न्यायालय ने भी इसे बरकरार रखा। इसलिये, वर्तमान मामला उच्चतम न्यायालय में दायर किया गया था।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • उच्चतम न्यायालय का विचार था कि उच्च माध्यमिक खंड में सहायक शिक्षक के रूप में आमेलन के लिये अपीलकर्ता का दावा मान्य नहीं था।
    • यह ध्यान दिया गया कि अपीलकर्ता को शुरू में प्राथमिक शिक्षक के वेतनमान के साथ एक स्थानापन्न शिक्षक के रूप में नियुक्त किया गया था। कार्यवाही के शुरुआती दौर के दौरान, ऐसा कोई दावा नहीं किया गया कि उन्होंने स्कूल में सहायक शिक्षक के रूप में काम किया है। केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (CAT) के समक्ष प्रस्तुत तर्क भी सेवाओं के नियमितीकरण के लिये ही था।
  • न्यायालय ने अपीलकर्ता के मामले को रेस ज्यूडिकाटा के नज़रिये से भी परखा और माना कि उच्च माध्यमिक खंड में सहायक शिक्षक के रूप में आमेलन के लिये अपीलकर्ता का अनुरोध स्पष्ट रूप से सारवान रेस ज्यूडिकाटा के सिद्धांत द्वारा वर्जित है।

कानूनी प्रावधान

रेस ज्यूडिकाटा और सारवान रेस ज्यूडिकाटा का सिद्धांत

  • रेस ज्यूडिकाटा - रेस का अर्थ है 'बात' और ज्यूडिकाटा का अर्थ है 'पहले से ही तय' इसलिये रेस ज्यूडिकाटा का सीधा-सा अर्थ है 'वह चीज जो तय हो चुकी है'।
  • यह सिद्धांत इन कहावतों पर आधारित है:
    • इंटरेस्ट रिपब्लिका यूट सिट फिनिस लिटियम (Interest Reipublicae Ut Sit Finis Litium) - यह राज्य के हित में है कि मुकदमेबाजी की एक सीमा होनी चाहिये।
    • निमो डेबेट बिस वेक्सारी प्रो ऊना एट एडेम कॉसा (Nemo Debet Bis Vexari Pro Una Et Eadem Causa) - किसी को भी एक ही कारण से दो बार परेशान नहीं किया जाएगा।
    • रेस ज्यूडिकाटा प्रो वेरिटेट असीसीपिटुर (Res judicata pro veritate accipitur) - एक न्यायिक निर्णय को सही माना जाना चाहिये।
  • यह अवधारणा सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 11 के तहत निहित है जबकि यह अवधारणा सीपीसी की धारा 11 स्पष्टीकरण IV द्वारा सारवान रेस ज्यूडिकाटा प्रदान किया गया है।
    • धारा 11-- कोई भी न्यायालय किसी ऐसे वाद या विवाद्यक का विचारण नहीं करेगा जिसमें प्रत्यक्षतः और सारतः विवाद्य विषय उसी हक के अधीन मुकदमा करने वाले उन्हीं पक्षकारों के बीच या ऐसे पक्षकारों के बीच के, जिनसे व्युत्पन्न अधिकार के अधीन वे या उनमे में से कोई दावा करते हैं, किसी पूर्ववर्ती वाद में भी एस्से न्यायालय में प्रत्यक्षत और सारतः विवाद्य रहा है, जो ऐसे पश्चातवर्ती वाद का, जिसमें ऐसा विवाद्यक वाद में उठाया गया है, विचरण करने के लिये सक्षम था और ऐसे न्यायालय द्वारा सुना जा चुका है और अंतिम रूप से विनिश्चित किया जा चुका है।
    • स्पष्टीकरण 4-- ऐसे किसी भी विषय के बारे में, जो ऐसे पूर्ववर्ती वाद में प्रतिरक्षा या आक्रमण का आधार बनाया जा सकता था और बनाना जाना चाहिये था, समझा जायेगा कि ऐसे वाद में प्रत्यक्षतः और सारतः विवाद्य रहा है।
    • किसी मामले पर क्षेत्राधिकार के बिना किसी न्यायालय द्वारा पारित डिक्री न्यायिक नहीं है।
    • यह कानून और तथ्यों का एक मिश्रित प्रश्न है, और रोक केवल निर्णय पर ही लागू नहीं होती बल्कि मामले में शामिल तथ्यों और परिस्थितियों पर भी लागू होती है।
    • सारवान रेस ज्यूडिकाटा का तात्पर्य यह है कि जो मामला किसी मुकदमे में उठाया जा सकता था और उठाया जाना चाहिये था, लेकिन उठाया नहीं गया है, उसे धारा 11 के तहत निर्धारित शर्तों को पूरा करने वाले बाद के मुकदमे में नहीं उठाया जा सकता है।

केस कानून

  • सुलोचना अम्मा बनाम नारायण नायर (1993): उच्चतम न्यायालय द्वारा यह माना गया कि रेस जुडिकाटा न केवल न्यायालय के समक्ष सभी न्यायिक कार्यवाही पर लागू होता है, बल्कि ट्रिब्यूनल की सभी अर्ध-न्यायिक कार्यवाही पर भी लागू होता है।
  • श्योदान सिंह बनाम दरियाओ कुँवर (1996): यह माना गया कि प्रश्न का निर्धारण करने के लिये, जो कि पूर्व का मुकदमा है, मुकदमा दायर करने की तारीख मायने नहीं रखती बल्कि निर्णय की तारीख पर विचार किया जाना चाहिये।

सारवान रेस ज्यूडिकाटा केस कानून

उत्तर प्रदेश राज्य बनाम नवाब हुसैन (1977)

  • एक पुलिस उप-निरीक्षक (SI) को उप-महानिरीक्षक (DIG) द्वारा उसके पद से बर्खास्तगी का सामना करना पड़ा।
  • उन्होंने उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर करके इस बर्खास्तगी को चुनौती दी, जिसमें कहा गया कि बर्खास्तगी का आदेश जारी होने से पहले उन्हें अपना मामला पेश करने का उचित अवसर नहीं दिया गया था।
  • हालाँकि, इस तर्क को खारिज़ कर दिया गया और उनकी याचिका खारिज़ कर दी गई।
  • इसके बाद, उप-निरीक्षक (SI) ने एक मुकदमा दायर किया, जिसमें एक अतिरिक्त दावा पेश किया गया कि चूंकि उसकी नियुक्ति पुलिस महानिरीक्षक (IGP) द्वारा की गई थी, इसलिये उप-महानिरीक्षक (DIG) के पास उसे बर्खास्त करने का अधिकार नहीं था।
  • राज्य ने तर्क दिया कि यह मुकदमा सारवान निर्णय के सिद्धांत द्वारा वर्जित था। ट्रायल कोर्ट, अपीलीय न्यायालय और उच्च न्यायालय सभी ने यही निर्धारित किया कि मुकदमा वर्जित नहीं था।
  • उच्चतम न्यायालय ने अंततः फैसला सुनाया कि मुकदमे को सारवान निर्णय द्वारा वर्जित कर दिया गया था क्योंकि वादी को इस तर्क के बारे में पता था और वह इसे पहले की रिट याचिका में उठा सकता था।