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पारिवारिक कानून
बाल अभिरक्षा से इनकार
« »22-Apr-2024
X बनाम Y "किसी भी मामले में व्यभिचार, विवाह विच्छेद का आधार है, लेकिन यह अभिरक्षा न देने का आधार नहीं हो सकता है”। न्यायमूर्ति राजेश पाटिल |
स्रोत: बाम्बे उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने माना कि व्यभिचार, किसी भी मामले में विवाह विच्छेद का आधार है, हालाँकि यह अभिरक्षा न देने का आधार नहीं हो सकता है।
इस मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में, याचिकाकर्त्ता (पति) एवं प्रतिवादी (पत्नी) का विवाह 18 फरवरी 2010 को हुआ था।
- पति IT प्रोफेशनल हैं तथा पत्नी पेशे से डॉक्टर हैं।
- 4 जनवरी 2015 को याचिकाकर्त्ता एवं प्रतिवादी के विवाह से बेटी का जन्म हुआ।
- पत्नी के मामले के अनुसार 7 दिसंबर 2019 को उसे वैवाहिक घर से बाहर निकाल दिया गया तथा बेटी की कस्टडी उसे नहीं दी गई। पति के मुताबिक, पत्नी अपनी मर्जी से वैवाहिक घर छोड़कर चली गई थी।
- इसके बाद, 27 जनवरी 2020 को पति ने पत्नी के विरुद्ध मुंबई के कुटुंब न्यायालय में हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) की धारा 13 (1) (i-a) के अधीन विवाह विच्छेद की याचिका दायर की।
- कुटुंब न्यायालय ने 9 वर्ष की अप्राप्तवय बेटी की अस्थायी अभिरक्षा की मांग करने वाली विवाह विच्छेद की याचिका में पति की अर्जी खारिज कर दी।
- इसके बाद पति ने बॉम्बे उच्च न्यायालय में रिट याचिका दायर की।
- उच्च न्यायालय ने याचिका खारिज करते हुए याचिकाकर्त्ता को अप्राप्तवय पुत्री की अभिरक्षा प्रतिवादी को सौंपने का निर्देश दिया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायमूर्ति राजेश पाटिल ने कहा कि व्यभिचार किसी भी मामले में विवाह विच्छेद का आधार है, लेकिन यह अभिरक्षा न देने का आधार नहीं हो सकता। भले ही कोई महिला एक अच्छी पत्नी न हो, लेकिन इससे तात्पर्य यह कभी नहीं कि वह एक अच्छी माँ भी नहीं है।
- आगे यह माना गया कि व्यभिचारी जीवनसाथी से तात्पर्य अक्षम माता या पिता होना नहीं है तथा ऐसे माता या पिता के विरुद्ध व्यभिचार के आरोप, बच्चे की अभिरक्षा से इनकार करने का एकमात्र निर्धारण कारक नहीं हो सकते हैं।
इसमें कौन-से प्रासंगिक विधिक प्रावधान शामिल हैं?
व्यभिचार
परिचय:
- भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC ) की धारा 497 ने व्यभिचार को अपराध घोषित कर दिया।
- इसमें ऐसे व्यक्ति को दोषी ठहराया गया जो किसी दूसरे पुरुष की पत्नी के साथ यौन संबंध स्थापित करता है।
- व्यभिचार के लिये अधिकतम पाँच वर्ष के लिये कारावास की सज़ा थी।
- हालाँकि महिलाओं को अभियोजन से छूट दी गई थी।
- यह धारा तब लागू नहीं होती थी जब कोई विवाहित पुरुष किसी अविवाहित महिला के साथ यौन संबंध बनाता था।
- इस धारा का उद्देश्य विवाह की पवित्रता की रक्षा करना था।
विधिक प्रावधान:
- इस अनुभाग को इस प्रकार पढ़ा जा सकता है:
- जब कोई व्यक्ति, ऐसे व्यक्ति के साथ संभोग करता है, जो किसी अन्य पुरुष की पत्नी है तथा जिसके विषय में वह जानता है या विश्वास करने का कारण रखता है, उस पुरुष की सहमति या सहभागिता के बिना, ऐसा संभोग बलात्संग के अपराध की श्रेणी में नहीं आता है, वह व्यभिचार के अपराध का दोषी है। जिसे किसी एक अवधि के लिये कारावास से दण्डित किया जाएगा जिसे पाँच वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, या ज़ुर्माना, या दोनों से दण्डित किया जाएगा। ऐसे मामले में पत्नी दुष्प्रेरक के रूप में दण्डनीय नहीं होगी।
व्यभिचार का अपराधीकरण:
- जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ के मामले में भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश (CJI) दीपक मिश्रा एवं वर्तमान (CJI) डी.वाई. चंद्रचूड़ एवं जस्टिस ए.एम. खानविलकर, आर.एफ. नरीमन व इंदु मल्होत्रा के नेतृत्व में उच्चतम न्यायालय की पाँच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने निर्णय सुनाया। भारत सरकार (2018) ने माना कि व्यभिचार कोई अपराध नहीं है तथा इसे IPC से निरसित कर दिया गया।
- हालाँकि यह स्पष्ट किया गया कि व्यभिचार, एक नागरिक दोष एवं विवाह विच्छेद का वैध आधार बना रहेगा।
विवाह विच्छेद का आधार:
- HMA की धारा 13(1)(i) के अनुसार, इस अधिनियम के प्रारंभ होने से पहले या बाद में किया गया कोई भी विवाह, पति या पत्नी द्वारा प्रस्तुत याचिका पर, इस आधार पर विवाह विच्छेद की डिक्री द्वारा भंग किया जा सकता है, कि दूसरे पक्ष ने विवाह संपन्न होने के बाद अपने जीवनसाथी के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति के साथ स्वैच्छिक संभोग किया है।
HMA की धारा 13(1) (i-a)
यह धारा विवाह विच्छेद के आधार के रूप में क्रूरता से संबंधित है।
- HMA में 1976 के संशोधन से पहले, हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत क्रूरता, विवाह विच्छेद का दावा करने का आधार नहीं था।
- यह अधिनियम की धारा 10 के अधीन न्यायिक पृथक्करण का दावा करने का केवल एक आधार था।
- 1976 के संशोधन द्वारा क्रूरता को विवाह विच्छेद का आधार बना दिया गया।
- इस अधिनियम में क्रूरता शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है।
- आम तौर पर, क्रूरता कोई भी ऐसा व्यवहार है, जो शारीरिक या मानसिक, जानबूझकर या अनजाने में होता है।
- उच्चतम न्यायालय द्वारा कई निर्णयों में दिये गए विधि के अनुसार क्रूरता दो प्रकार की होती है।
- शारीरिक क्रूरता - जीवनसाथी को पीड़ा पहुँचाने वाला हिंसक आचरण।
- मानसिक क्रूरता - जीवनसाथी को किसी प्रकार का मानसिक तनाव होता है, या उसे लगातार मानसिक पीड़ा से गुज़रना पड़ता है।
- शोभा रानी बनाम मधुकर रेड्डी (1988) में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि क्रूरता शब्द की कोई निश्चित परिभाषा नहीं हो सकती।
- मायादेवी बनाम जगदीश प्रसाद (2007) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि पति-पत्नी में से किसी एक द्वारा पीड़ा पहुँचाने के उद्देश्य से किया गया किसी भी प्रकार की मानसिक क्रूरता के कारण न केवल महिला, बल्कि पुरुष भी क्रूरता के आधार पर विवाह विच्छेद के लिये आवेदन कर सकते हैं।