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आपराधिक कानून

आपराधिक मामले का उन्मोचन

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 26-Apr-2024

फाज़िद और अन्य बनाम वी. XXXX एवं अन्य

"न्यायालयों को आदेश पारित करने के संबंध में कारणों का वर्णन किया जाना होगा और गूढ़ एवं गैर-आख्यापक प्रस्थिति के रूप में कारणों को दर्ज किये बिना एक आदेश कानून के तहत सिद्ध नहीं होगा।"

न्यायमूर्ति ए. बदरुद्दीन

स्रोत: केरल उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केरल उच्च न्यायालय ने फाज़िद और अन्य बनाम वी. XXXX एवं अन्य के मामले में निर्णय किया कि न्यायालयों को आदेश पारित करने के लिये कारण का विवरण देना होगा तथा गूढ़ व गैर-आख्यापक प्रस्थिति के रूप में कारणों को दर्ज किये बिना एक आदेश कानून के तहत सिद्ध नहीं होगा।

फाज़िद और अन्य बनाम वी. XXXX एवं अन्य की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 397 और धारा 401 के तहत दंड पुनरीक्षण याचिका दायर की गई।
  • पुनरीक्षण याचिकाकर्त्ता न्यायिक प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट न्यायालय के रिकॉर्ड में अभियुक्त नंबर 1 से 4 हैं, जिनपर अभियोजन पक्ष ने भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) के उपबंधों के तहत दंडनीय अपराध करने का आरोप लगाया।
  • याचिकाकर्त्ताओं ने पहले एक मजिस्ट्रेट न्यायालय के समक्ष मामले से उन्मोचन की मांग करते हुए एक याचिका दायर की थी। ट्रायल कोर्ट द्वारा उनकी याचिका खारिज किये जाने के पश्चात्, उन्होंने मजिस्ट्रेट के आदेश की शुद्धता पर प्रश्न उठाया और राहत के लिये उच्च न्यायालय का रुख किया।
  • याचिकाकर्त्ताओं के काउंसेल ने कहा कि उन्मोचन आदेश को खारिज करते समय, यह आवश्यक है कि न्यायालय का आदेश गूढ़ नहीं होना चाहिये और उन्मोचन की याचिका रद्द करने के कारणों को स्पष्ट रूप से बताना चाहिये।
  • दंड पुनरीक्षण याचिका को गुणहीन पाया गया और तद्नुसार इसे उच्च न्यायालय द्वारा खारिज कर दिया गया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति ए. बदरुद्दीन ने कहा कि उन्मोचन/आरोपमुक्त किये जाने के आदेश की अनिवार्यताओं के संबंध में विधिक स्थिति सुव्यवस्थित रूप से तय है। इसकी अनुमति देने अथवा इसे खारिज करते हुए उन्मोचन करने का आदेश पारित करते समय न्यायालयों को ऐसे आदेश पारित करने के कारणों का वर्णन करना होगा और गूढ़ एवं गैर-आख्यापक प्रस्थिति के रूप में कारणों को दर्ज किये बिना एक आदेश कानून के तहत सिद्ध नहीं होगा।

इसमें शामिल प्रासंगिक विधिक उपबंध कौन-से हैं?

CrPC की धारा 397

यह धारा पुनरीक्षण की शक्तियों का प्रयोग करने के लिये अभिलेख मंगाने से संबंधित है। यह निर्दिष्ट करता है कि-

(1) उच्च न्यायालय या कोई सेशन न्यायाधीश अपनी स्थानीय अधिकारिता के अंदर स्थित किसी अवर दंड न्यायालय के समक्ष की किसी कार्यवाही के अभिलेख को, किसी अभिलिखित या पारित किये गए निष्कर्ष, दंडादेश अथवा आदेश की शुद्धता, वैधता अथवा औचित्य के बारे में और ऐसे अवर न्यायालय की किन्हीं कार्यवाहियों की नियमितता के बारे में अपना समाधान करने के प्रयोजन से, मंगा सकता है और उसकी परीक्षा कर सकता है तथा ऐसा अभिलेख मंगाते समय निदेश दे सकता है कि अभिलेख की परीक्षा लंबित रहने तक किसी दंडादेश का निष्पादन निलंबित किया जाए एवं यदि अभियुक्त परिरोध में है तो उसे ज़मानत पर अथवा उसके अपने बंधपत्र पर छोड़ दिया जाए।

स्पष्टीकरण- सभी मजिस्ट्रेट, चाहे वे कार्यपालक हों या न्यायिक और चाहे वे आरंभिक अधिकारिता का प्रयोग कर रहे हों, या अपीली अधिकारिता का, इस उपधारा के और धारा 398 के प्रयोजनों के लिये सेशन न्यायाधीश से अवर समझे जाएंगे।

(2) उपधारा (1) द्वारा प्रदत्त पुनरीक्षण की शक्तियों का प्रयोग किसी अपील, जाँच, विचारण अथवा अन्य कार्यवाही में पारित किसी अंतर्वर्ती आदेश की बाबत नहीं किया जाएगा।

(3) यदि किसी व्यक्ति द्वारा इस धारा के अधीन आवेदन या तो उच्च न्यायालय को या सेशन न्यायाधीश को किया गया है तो उसी व्यक्ति द्वारा कोई और आवेदन उनमें से दूसरे के द्वारा ग्रहण नहीं किया जाएगा।

CrPC की धारा 401

यह धारा उच्च न्यायालय की पुनरीक्षण की शक्तियों से संबंधित है। यह निर्दिष्ट करता है-

(1) ऐसी किसी कार्यवाही के मामले में, जिसका अभिलेख उच्च न्यायालय ने स्वयं मंगवाया है या जिसकी उसे अन्यथा जानकारी हुई है, वह धारा 386, 389, 390 और 391 द्वारा अपील न्यायालय को या धारा 307 द्वारा सेशन न्यायालय को प्रदत्त शक्तियों में से किसी का स्वविवेकानुसार प्रयोग कर सकता है और जब वे न्यायाधीश, जो पुनरीक्षण न्यायालय में पीठासीन हैं, राय में समान रूप से विभाजित हैं तब मामले का निपटारा धारा 392 द्वारा उपबंधित रीति से किया जाएगा।

(2) इस धारा के अधीन कोई आदेश, जो अभियुक्त या अन्य व्यक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है, तब तक न किया जाएगा जब तक उसे अपनी प्रतिरक्षा में या तो स्वयं या प्लीडर द्वारा सुने जाने का अवसर न मिल चुका हो।

(3) इस धारा की कोई बात उच्च न्यायालय को दोषमुक्ति के निष्कर्ष को दोषसिद्धि के निष्कर्ष में संपरिवर्तित करने के लिये प्राधिकृत करने वाली न समझी जाएगी।

(4) जहाँ इस संहिता के अधीन अपील हो सकती है किंतु कोई अपील की नहीं जाती है वहाँ उस पक्षकार की प्रेरणा पर, जो अपील कर सकता था, पुनरीक्षण की कोई कार्यवाही ग्रहण न की जाएगी।

(5) जहाँ इस संहिता के अधीन अपील होती है किंतु उच्च न्यायालय को किसी व्यक्ति द्वारा पुनरीक्षण के लिये आवेदन किया गया है और उच्च न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि ऐसा आवेदन इस गलत विश्वास के आधार पर किया गया था कि उससे कोई अपील नहीं होती है तथा न्याय के हित में ऐसा करना आवश्यक है तो उच्च न्यायालय पुनरीक्षण के लिये आवेदन को अपील की अर्जी मान सकता है एवं उस पर तद्नुसार कार्यवाही कर सकता है।