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आपराधिक कानून

आरोपों का कुसंयोजन

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 18-Mar-2024

संतोष @ चंदू बनाम राज्य

“केरल उच्च न्यायालय ने माना कि जब तक न्याय का दुरुपयोग सिद्ध न हो जाए, आरोपों के कुसंयोजन के कारण हुई अनियमितता दोषसिद्धि को समाप्त नहीं करती।”

न्यायमूर्ति पी. जी. अजितकुमार

स्रोत: केरल उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, केरल उच्च न्यायालय ने संतोष @ चंदू बनाम राज्य के मामले में कहा है कि जब तक न्याय का दुरुपयोग सिद्ध न हो जाए, आरोपों के कुसंयोजन के कारण हुई अनियमितता दोषसिद्धि को समाप्त नहीं करती।

संतोष @ चंदू बनाम राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में, अपीलकर्त्ता एकमात्र अभियुक्त था और उसे भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) के प्रावधानों के तहत दण्डनीय अपराधों के लिये दोषी ठहराया गया था और सज़ा सुनाई गई थी।
  • ट्रायल कोर्ट ने एक संयुक्त मुकदमे में अपीलकर्त्ता को दोषी ठहराया, और उसने आरोपों के कुसंयोजन का आरोप लगाते हुए केरल उच्च न्यायालय के समक्ष अपील की।
  • अपीलकर्त्ता की ओर से यह प्रस्तुत किया गया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 218 के तहत आरोपों के इस तरह के कुसंयोजन से अपीलकर्त्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और इसलिये दोषसिद्धि को रद्द किया जाना चाहिये।
  • उच्च न्यायालय ने माना कि ट्रायल कोर्ट द्वारा दोषी ठहराए जाने में कोई अवैधता नहीं थी।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति पी. जी. अजितकुमार ने कहा कि अभियोजन पक्ष द्वारा दिये गए साक्ष्यों की प्रकृति से, जो ऊपर बताया गया है, यह स्पष्ट है कि आरोपों के प्रत्येक प्रमुख के संबंध में अलग-अलग सबूत लाए गए थे। संबंधित न्याय-मित्र (Amicus Curiae) द्वारा ऐसा कोई भी अवसर नहीं बताया गया है जिसके परिणामस्वरूप न्याय में बाधा उत्पन्न हुई हो या अपीलकर्त्ता के प्रति पूर्वाग्रह उत्पन्न हुआ हो। रिकॉर्ड पर मौजूद साक्ष्यों पर उत्सुकतापूर्वक विचार करने पर, मुझे विश्वास हो गया है कि इस तरह के आरोप के कुसंयोजन कारण न्याय में कोई विफलता नहीं हुई है। इतने आरोप के कुसंयोजन के बावजूद, इन परिस्थितियों में, अपीलकर्त्ता की दोषसिद्धि काफी कानूनी है। इसलिये, न्यायालय को दोषसिद्धि के निर्णय में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं मिलता है।
  • आगे यह माना गया कि CrPC की धारा 464 की उप-धारा (1) को पढ़ने पर यह स्पष्ट है कि आरोपों का कुसंयोजन एक अनियमितता है। यह स्पष्ट किया गया है कि जब तक न्याय में उनकी विफलता न हो, आरोपों के कुसंयोजन के कारण हुई अनियमितता किसी दोषसिद्धि को अमान्य नहीं करती।

इसमें कौन-से प्रासंगिक विधिक प्रावधान शामिल हैं?

CrPC की धारा 218:

  • यह धारा सुभिन्न अपराधों के लिये पृथक आरोपों से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि -
  • (1) प्रत्येक सुभिन्न अपराध के लिये, जिसका किसी व्यक्ति पर अभियोग है, पृथक् आरोप होगा और ऐसे प्रत्येक आरोप का विचारण पृथक्तः किया जाएगा।
  • परंतु जहाँ अभियुक्त व्यक्ति, लिखित आवेदन द्वारा, ऐसा चाहता है और मजिस्ट्रेट की राय है कि उससे ऐसे व्यक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा, वहाँ मजिस्ट्रेट उस व्यक्ति के विरुद्ध विरचित सभी या किन्हीं आरोपों का विचारण एक साथ कर सकता है।
  • (2) उपधारा (1) की कोई बात धारा 219, 220, 221 और 223 के उपबंधों के प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी।

CrPC की धारा 464:

परिचय:

  • यह धारा आरोप विरचित न करने या उसके अभाव या उसमें गलती का प्रभाव से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि-
    (1) किसी सक्षम अधिकारिता वाले न्यायालय का कोई निष्कर्ष, दण्डादेश या आदेश केवल इस आधार पर कि कोई आरोप विरचित नहीं किया गया अथवा इस आधार पर कि आरोप में कोई गलती, लोप या अनियमितता थी, जिसके अंतर्गत आरोपों का कुसंयोजन भी है, उस दशा में ही अविधिमान्य समझा जाएगा जब अपील, पुष्टीकरण या पुनरीक्षण न्यायालय की राय में उसके कारण वस्तुतः न्याय नहीं हो पाया है।
    (2) यदि अपील, पुष्टीकरण या पुनरीक्षण न्यायालय की यह राय है कि वस्तुतः न्याय नहीं हो पाया है तो वह —
    (a) आरोप विरचित न किये जाने वाली दशा में यह आदेश कर सकता है कि आरोप विरचित किया जाए और आरोप की विरचना के ठीक पश्चात् से विचारण पुन: प्रारंभ किया जाए।
    (b) आरोप में किसी गलती, लोप या अनियमितता होने की दशा में न्यायालय यह निदेश दे सकता है कि किसी ऐसी रीति से, जिसे वह ठीक समझे, विरचित आरोप पर नया विचारण किया जाए।
  • परंतु यदि न्यायालय की यह राय है कि मामले के तथ्य ऐसे हैं कि साबित तथ्यों की बाबत अभियुक्त के विरुद्ध कोई विधिमान्य आरोप नहीं लगाया जा सकता तो वह दोषसिद्धि को अभिखंडित कर देगा।

निर्णयज विधि:

  • कृष्णन कुट्टी बनाम केरल राज्य (2023) मामले में, केरल उच्च न्यायालय ने माना कि CrPC की धारा 464 में निहित प्रावधान के आलोक में आरोपों को जोड़ने में विधिक बाधा थी, इसके कारण मुकदमे को खारिज़ नहीं किया जा सकता है, बशर्ते कि इसके कारण न्याय में कोई विफलता न हुई हो।