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सिविल कानून
काम नहीं तो वेतन नहीं
« »19-Jul-2024
दिनेश प्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य “आरोपों से मुक्त एवं बहाल किया गया कर्मचारी पूर्ण वेतन पाने का अधिकारी है।” न्यायमूर्ति सलिल कुमार राय |
स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति सलिल कुमार राय की पीठ ने कहा कि जिस कर्मचारी को आरोपों से पूर्ण रूपेण मुक्त कर दिया गया है तथा बहाल कर दिया गया है, वह उस अवधि के लिये पूर्ण वेतन पाने का अधिकारी है, जब वह सेवा से निलंबित था।
- इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने दिनेश प्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में यह निर्णय दिया।
दिनेश प्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?
- याचिकाकर्त्ता उत्तर प्रदेश पुलिस में कर्मचारी है।
- उत्तर प्रदेश पुलिस अधीनस्थ अधिकारी (दण्ड एवं अपील) नियमावली 1991 के नियम 14 के अधीन याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही प्रारंभ की गई।
- उसके विरुद्ध आरोप-पत्र निर्गत किया गया कि उसने 2 दिन की अनाधिकृत छुट्टी ली थी।
- जाँच में याचिकाकर्त्ता को उसके विरुद्ध लगाए गए सभी आरोपों में दोषी पाया गया तथा बाद में उसे सेवा से अपदस्थ कर दिया गया।
- याचिकाकर्त्ता ने अपदस्थ करने के आदेश के विरुद्ध अपील दायर की। अपीलीय प्राधिकारी ने याचिकाकर्त्ता को उसके विरुद्ध लगाए गए आरोपों से मुक्त कर दिया तथा परिणामस्वरूप उसे सेवा में बहाल कर दिया गया।
- वित्तीय पुस्तिका खंड II भाग II से भाग IV के नियम 73 के अधीन उसे कारण बताओ नोटिस निर्गत किया गया कि जब वह सेवा से निलंबित था, उस अवधि के लिये उसकी सेवाओं को ‘काम नहीं तो वेतन नहीं' के सिद्धांत पर वेतन का भुगतान किये बिना नियमित क्यों न किया जाए।
- उपरोक्त को उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई।
न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?
- उच्च न्यायालय ने कहा कि जिस कर्मचारी को उसके विरुद्ध आरोपों से पूरी तरह मुक्त कर दिया गया है तथा बाद में उसे बहाल कर दिया गया है, वह वित्तीय पुस्तिका खंड-II के नियम 54 के आधार पर उस अवधि के लिये पूर्ण वेतन पाने का अधिकारी है, जब वह सेवा से निलंबित था।
- यह माना गया कि एकमात्र स्थिति जिसमें ऐसे कर्मचारी को वेतन देने से मना किया जा सकता है, वह यह है कि जिस अवधि में वह सेवा से निलंबित था, उस दौरान वह किसी रोज़गार में था और वह उस राशि से अधिक या उसके समतुल्य अर्जित कर रहा था जिसका वह अधिकारी है।
- न्यायालय ने कहा कि वित्तीय पुस्तिका खंड II के नियम 54 (2) एवं 54 (3) के आधार पर याचिकाकर्त्ता निर्दिष्ट अवधि के लिये पूर्ण वेतन एवं भत्ते का अधिकारी है।
- यह स्पष्ट है कि अपदस्थ करने या निलंबन के आदेश को अपास्त करने के बाद बहाल होने पर किसी सरकारी कर्मचारी को सेवा से निलंबित रहने की अवधि के लिये संपूर्ण वेतन एवं भत्ते देने से मना नहीं किया जा सकता।
वित्तीय पुस्तिका खंड II में सिद्धांत से संबंधित प्रावधान क्या हैं?
- वॉल्यूम II?
- उत्तर प्रदेश सरकार के प्राधिकरण द्वारा जारी वित्तीय पुस्तिका के नियम 73 में यह प्रावधान है कि:
- कोई सरकारी कर्मचारी जो अपने अवकाश की समाप्ति के उपरांत भी अनुपस्थित रहता है, उसे ऐसी अनुपस्थिति की अवधि के लिये कोई अवकाश-वेतन नहीं मिलेगा तथा वह अवधि उसके अवकाश खाते से इस प्रकार डेबिट की जाएगी मानो वह आधे औसत वेतन पर छुट्टी हो, जब तक कि सरकार द्वारा उसकी छुट्टी बढ़ाई न जाए।
- छुट्टी की समाप्ति के बाद ड्यूटी से जानबूझकर अनुपस्थित रहना नियम 15 के प्रयोजन के लिये कदाचार माना जाएगा।
- नियम 54 में यह प्रावधान है कि सरकारी कर्मचारी पूर्ण वेतन एवं भत्ते पाने का अधिकारी है, जो उसे तब मिलता यदि,
- वह सरकारी कर्मचारी जिसे सेवा से अपदस्थ करना या निलंबन के आदेश के अपील या समीक्षा में खारिज कर दिये जाने के बाद सेवा में बहाल कर दिया गया है, और
- उसे आरोपों से पूरी तरह दोषमुक्त कर दिया गया है
सेवा नियम का सिद्धांत “काम नहीं तो वेतन नहीं” क्या है?
- काम नहीं तो वेतन नहीं का सिद्धांत यह दर्शाता है कि अगर कर्मचारी ने काम नहीं किया है, तो उसे भुगतान नहीं किया जाएगा।
- यह सिद्धांत औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 (IDA) एवं मज़दूरी भुगतान अधिनियम, 1936 (PWA) जैसे कई भारतीय विधियों में अपनी उत्पत्ति पाता है।
- राजेंद्र शर्मा बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (2021) के मामले में, छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने माना कि यह सिद्धांत "रोज़गार के संविदा विधि में मौलिक अवधारणा" पर आधारित है।
- ‘काम नहीं तो वेतन नहीं’ के सिद्धांत ने कर्मचारियों की अनाधिकृत अनुपस्थिति, अवज्ञा एवं काम न करने को हतोत्साहित करने तथा व्यावसायिक परिचालन में व्यवधान को कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
- यह न्यायिक उदाहरणों के माध्यम से विकसित हुआ है तथा सेवा नियमों में भी इसका स्थान है।
'काम नहीं तो वेतन नहीं' सिद्धांत पर महत्त्वपूर्ण मामले क्या हैं?
- जे.एन. श्रीवास्तव बनाम भारत संघ (2012):
- "काम नहीं तो वेतन नहीं" का सिद्धांत उस स्थिति में लागू नहीं होता जब कर्मचारी काम करने के लिये तैयार एवं इच्छुक हो, लेकिन नियोक्ता उसे अपने कर्त्तव्य (यानी काम) करने से रोकता है।
- उक्त सिद्धांत उस मामले में लागू नहीं किया जा सकता जिसमें किसी कर्मचारी को नियोक्ता के कदाचार या चूक के कारण ड्यूटी से दूर रखा जाता है या अयोग्य घोषित कर दिया जाता है।
- हिमाचल प्रदेश राज्य बनाम सीता देवी (2020):
- हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने माना कि किसी भी महिला को मातृत्व लाभ से वंचित करना, चाहे उसकी नौकरी की स्थिति कुछ भी हो, संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन होगा।
- इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि मातृत्व लाभ मौलिक अधिकार का एक हिस्सा है।
- मुख्य क्षेत्रीय प्रबंधक, यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम सिराज उद्दीन खान (2019):
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने इस स्थापित सिद्धांत को दोहराया कि किसी को भी उस अवधि के लिये वेतन का दावा करने का निर्देश नहीं दिया जा सकता, जब वह बिना छुट्टी या बिना किसी औचित्य के अनुपस्थित रहा हो।
- राष्ट्रीय श्रमिक अघाड़ी बनाम महाराष्ट्र राज्य (2020):
- बॉम्बे उच्च न्यायालय की औरंगाबाद पीठ ने कहा कि कोविड-19 महामारी के समय में नियोक्ताओं द्वारा “काम नहीं तो वेतन नहीं” का सिद्धांत लागू नहीं किया जा सकता।
- शोभा राम रतूड़ी बनाम हरियाणा विद्युत प्रसारण निगम लिमिटेड (2016):
- ‘काम नहीं तो वेतन नहीं’ का सिद्धांत ज़्यादातर उन मामलों में लागू हो सकता है, जहाँ कर्मचारी स्वेच्छा से एवं अनाधिकृत रूप से कार्य से अनुपस्थित रहते हैं।
- सांविधिक छुट्टियों या नियोक्ता द्वारा स्वीकृत सवेतन अवकाश के कारण अनुपस्थिति भी इस सिद्धांत का एक सामान्य अपवाद है।