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आपराधिक कानून

FIR का रजिस्ट्रीकरण

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 29-Mar-2024

विश्वनाथ बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य

CrPC की धारा 195 (1) (b) (ii) ऐसे मामले में FIR के रजिस्ट्रीकरण पर रोक नहीं लगाती है, जहाँ न्यायालय के बाहर दस्तावेज़ में कथित कूटरचना की गई है।

न्यायमूर्ति सुरेंद्र सिंह-प्रथम

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने विश्वनाथ बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य के मामले में माना है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 195 (1) (b) (ii) ऐसे मामले में FIR के रजिस्ट्रीकरण पर रोक नहीं लगाती है, जहाँ न्यायालय के बाहर दस्तावेज़ में कथित कूटरचना की गई है।

विश्वनाथ बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित 20 अक्तूबर, 2022 के आक्षेपित निर्णय और आदेश को चुनौती देने के लिये पुनरीक्षणकर्त्ता द्वारा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष एक दाण्डिक पुनरीक्षण दायर किया गया है।
  • आक्षेपित आदेश द्वारा, ट्रायल कोर्ट ने CrPC की धारा 156 (3) के तहत दायर पुनरीक्षणकर्त्ता के आवेदन को खारिज़ कर दिया है, जिसमें थाना प्रभारी, थाना कोतवाली, जनपद बस्ती को विरोधी पक्षकार के विरुद्ध आपराधिक मामला दर्ज करने और जाँच करने का निर्देश दिया गया था।
  • ट्रायल कोर्ट ने आगे उल्लेख किया है कि CrPC की धारा 195 (1) (b) (i) के तहत न्यायालयी कार्यवाही में कूटरचित दस्तावेज़ दाखिल करने के संबंध में FIR का रजिस्ट्रीकरण वर्जित है।
  • पुनरीक्षणकर्त्ता के संबंधित अधिवक्ता ने प्रस्तुत किया कि पुनरीक्षणकर्त्ता ने CrPC की धारा 156 (3) के तहत एक आवेदन दायर किया है जिसमें आरोप लगाया गया है कि विरोधी पक्षकार ने कूटरचना की है और रजिस्ट्रीकृत वसीयत विलेख प्राप्त किया है।
  • ट्रायल कोर्ट के निर्णय को रद्द करते हुए उच्च न्यायालय ने दाण्डिक पुनरीक्षण की अनुमति दी।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति सुरेंद्र सिंह-प्रथम ने कहा कि CrPC की धारा 195 (1) (b) ऐसे कूटरचित दस्तावेजों से संबंधित आपराधिक मामले के रजिस्ट्रीकरण पर कोई रोक नहीं लगाती है, यह केवल इस बात पर रोक लगाती है कि मजिस्ट्रेट ऐसे कूटरचित दस्तावेज़ों के संबंध में किसी अपराध का संज्ञान तब तक नहीं लेगा जब तक कि वह न्यायालय न हो, जिसमें कूटरचना की गई है।
  • आगे कहा गया कि CrPC की धारा 195 (1) (b) (ii) ऐसे मामले में FIR के रजिस्ट्रीकरण पर रोक नहीं लगाती है, जहाँ न्यायालय के बाहर दस्तावेज़ में कथित कूटरचना की गई है और उसके बाद, कथित कूटरचित दस्तावेज़ न्यायालय में लंबित मामले की न्यायिक कार्यवाही के दौरान दायर किया गया था।

इसमें कौन-से प्रासंगिक विधिक प्रावधान शामिल हैं?

CrPC की धारा 195(1)(b):

  • इस धारा में कहा गया है कि कोई न्यायालय-
    (i) भारतीय दण्ड संहिता (IPC) की निम्नलिखित धाराओं अर्थात् 193 से 196 (जिनके अंतर्गत ये दोनों धाराएँ भी हैं ), 199, 200, 205 से 211 (जिनके अंतर्गत ये दोनों धाराएँ भी हैं) और 228 में से किन्हीं के अधीन दण्डनीय किसी अपराध का, जब ऐसे अपराध के बारे में यह अभिकथित है कि वह किसी न्यायालय में की कार्यवाही में या उसके संबंध में किया गया है; अथवा
    (ii) उसी संहिता की धारा 463 में वर्णित या धारा 471, धारा 475 या धारा 476 के अधीन दण्डनीय अपराध का, जब ऐसे अपराध के बारे में यह अभिकथित है कि वह किसी न्यायालय में की कार्यवाही में पेश की गई साक्ष्य में दी गई किसी दस्तावेज़ के बारे में किया गया है; अथवा
    (iii) उपखंड (i) या उपखंड (ii) में विनिर्दिष्ट किसी अपराध को करने के लिये आपराधिक षड्यंत्र या उसे करने के प्रयत्न या उसके दुष्प्रेरण के अपराध का, संज्ञान ऐसे न्यायालय के, या न्यायालय के ऐसे अधिकारी के, जिसे वह न्यायालय इस निमित्त लिखित रूप में प्राधिकृत करे या किसी अन्य न्यायालय के, जिसके वह न्यायालय अधीनस्थ है लिखित परिवाद पर ही करेगा अन्यथा नहीं।
  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 215 इस प्रावधान से संबंधित है।

CrPC की धारा 156(3):

  • CrPC की धारा 156(3) में कहा गया है कि धारा 190 के अधीन सशक्त किया गया कोई मजिस्ट्रेट पूर्वोक्त प्रकार के अन्वेषण का आदेश कर सकता है।
  • CrPC की धारा 156(3) के तहत एक आवेदन संज्ञेय अपराध का खुलासा करता है, तो यह संबंधित मजिस्ट्रेट का कर्त्तव्य है कि वह FIR के रजिस्ट्रीकरण का निर्देश दे, जिसकी जाँच कानून के अनुसार जाँच एजेंसी द्वारा की जानी है।
  • यदि प्राप्त जानकारी स्पष्ट रूप से संज्ञेय अपराध के घटित होने का खुलासा नहीं करती है, लेकिन जाँच की आवश्यकता का संकेत देती है, तो यह सुनिश्चित करने के लिये प्रारंभिक जाँच की जा सकती है कि संज्ञेय अपराध का खुलासा हुआ है या नहीं।
  • कोई भी न्यायिक मजिस्ट्रेट अपराध पर संज्ञान लेने से पहले CrPC की धारा 156(3) के तहत जाँच का आदेश दे सकता है।

कूटरचना:

  • IPC के अध्याय XVIII में निहित धारा 463 कूटरचना के अपराध को परिभाषित करती है।
  • इस धारा में कहा गया है कि जो कोई, किसी मिथ्या दस्तावेज़ या मिथ्या इलैक्ट्रानिक अभिलेख अथवा दस्तावेज़ या इलैक्ट्रानिक अभिलेख के किसी भाग को इस आशय से रचता है कि लोक को या किसी व्यक्ति को नुकसान या क्षति कारित की जाए, या किसी दावे या हक का समर्थन किया जाए, या यह कारित किया जाए कि कोई व्यक्ति संपत्ति अलग करे या कोई अभिव्यक्त या विवक्षित संविदा करे या इस आशय से रचता है कि कपट करे, या कपट किया जा सके, वह कूटरचना करता है।
  • IPC की धारा 465 कूटरचना के लिये सज़ा से संबंधित है और कहती है कि जो कोई कूटरचना करेगा, वह दोनों में से किसी भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी, या ज़ुर्माने से, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा।