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सांविधानिक विधि
धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण करने एवं प्रचार करने का अधिकार
« »10-Jul-2024
श्रीनिवास राव नायक बनाम उत्तर प्रदेश राज्य “अनुच्छेद 25 धर्म को मानने और उसका प्रचार करने के अधिकार को सुनिश्चित करता है, परंतु इसमें दूसरों का धर्म संपरिवर्तन करने का अधिकार शामिल नहीं है”। न्यायमूर्ति रोहित रंजन अग्रवाल |
स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने श्रीनिवास राव नायक बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में धार्मिक अभिव्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा धर्म संपरिवर्तन के सामूहिक कृत्य के बीच अंतर को स्पष्ट किया। न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि संविधान के अधीन व्यक्तियों को स्वतंत्र रूप से अपना धर्म चुनने तथा उसका पालन करने का अधिकार है, परंतु वे दूसरों को अपने धर्म में परिवर्तित नहीं कर सकते।
श्रीनिवास राव नायक बनाम उत्तर प्रदेश राज्य की पृष्ठभूमि क्या थी?
- आवेदक उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अधिनियम, 2021 की धारा 3/5 (1) के अधीन मामले में शामिल है।
- घटना 15 फरवरी 2024 को सह-अभियुक्त विश्वनाथ के घर निचलौल, ज़िला महराजगंज में घटित हुई।
- सूचना प्रदाता को विश्वनाथ के घर आमंत्रित किया गया, जहाँ उसे कई ग्रामीण मिले, जिनमें से अधिकांश अनुसूचित जाति समुदाय से थे।
- घर पर सह-आरोपी विश्वनाथ, उसका भाई बृजलाल, आवेदक और रविंद्र नामक व्यक्ति मौजूद थे।
- सूचना प्रदाता को हिंदू धर्म छोड़कर ईसाई धर्म अपनाने के लिये कहा गया और जीवन की पीड़ाएँ समाप्त करने तथा प्रगति होने का वादा किया गया।
- बताया जाता है कि कुछ गाँववालों ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया है और प्रार्थना करने लगे हैं।
- सूचना प्रदाता ने पुलिस को सूचना दी।
- आवेदक का दावा है कि वह सह-आरोपी में से एक का घरेलू सहायक है तथा आंध्र प्रदेश का निवासी है।
- आवेदक के अधिवक्ता ने तर्क दिया कि FIR में अधिनियम द्वारा परिभाषित किसी भी "धर्म परिवर्तक" की पहचान नहीं की गई है।
- अभियोजन पक्ष का कहना है कि सामूहिक धर्म संपरिवर्तन हो रहा था और आवेदक इसमें सक्रिय रूप से भाग ले रहा था।
- पुलिस ने धर्मांतरण की घटना की पुष्टि करने वाले स्वतंत्र साक्षियों के बयान दर्ज किये।
- न्यायालय ने अधिनियम के अधीन अविधिक धार्मिक संपरिवर्तन के प्रथम दृष्टया साक्ष्य पाए।
- न्यायालय ने ज़मानत याचिका अस्वीकार करते हुए कहा कि अधिनियम की धारा 3 के अधीन धर्म संपरिवर्तन पर रोक है, जो धारा 5 के तहत दण्डनीय है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अधिनियम, 2021 के उद्देश्यों और कारणों का उद्देश्य गलत बयानी, बल, अनुचित प्रभाव, ज़बरदस्ती, प्रलोभन, कपटपूर्ण तरीके से या विवाह के माध्यम से एक धर्म से दूसरे धर्म में अविधिक रूप से धर्म संपरिवर्तन को रोकना है।
- न्यायालय ने दोहराया कि यद्यपि भारत का संविधान धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है, परंतु अंतःकरण और धर्म की स्वतंत्रता के व्यक्तिगत अधिकार को धर्म संपरिवर्तन के सामूहिक अधिकार के रूप में नहीं समझा जा सकता।
- न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि अधिनियम की धारा 3 स्पष्ट रूप से गलत बयानी, बल, धोखाधड़ी, अनुचित प्रभाव, ज़बरदस्ती और प्रलोभन के आधार पर एक धर्म से दूसरे धर्म में धर्म संपरिवर्तन पर रोक लगाती है।
- न्यायालय ने कहा कि भारत के संविधान, 1950 का अनुच्छेद 25, अंतःकरण की स्वतंत्रता और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण करने तथा प्रचार करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है, परंतु यह किसी भी नागरिक को किसी अन्य नागरिक को एक धर्म से दूसरे धर्म में परिवर्तित करने की अनुमति नहीं देता है।
- न्यायालय ने कहा कि 2021 का अधिनियम संवैधानिक प्रावधान के अनुरूप बनाया गया है।
संविधान का अनुच्छेद 25 क्या है?
- विधिक प्रावधान:
- अनुच्छेद 25 अंतःकरण की स्वतंत्रता तथा धर्म की अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने से संबंधित है।
- लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा इस भाग के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए, सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता तथा धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण करने तथा प्रचार करने का समान रूप से अधिकार है।
- इस अनुच्छेद की कोई भी बात किसी मौजूदा विधि के संचालन को प्रभावित नहीं करेगी या राज्य को कोई विधि बनाने से नहीं रोकेगी:
(a) किसी भी आर्थिक, वित्तीय, राजनीतिक या अन्य धर्मनिरपेक्ष गतिविधि को विनियमित या प्रतिबंधित करना जो धार्मिक अभ्यास से जुड़ी हो;
(b) सामाजिक कल्याण और सुधार के लिये प्रावधान करना या सार्वजनिक प्रकृति की हिंदू धार्मिक संस्थाओं को हिंदुओं के सभी वर्गों और समुदायों के लिये खोलना।
- अनुच्छेद 25:
- यह सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता तथा धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने की गारंटी देता है।
- यह अधिकार सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन है।
- यह राज्य को धार्मिक प्रथाओं से जुड़ी आर्थिक, वित्तीय, राजनीतिक या अन्य धर्मनिरपेक्ष गतिविधियों को विनियमित या प्रतिबंधित करने की अनुमति देता है।
- यह राज्य को सामाजिक कल्याण और सुधार के लिये विधान बनाने की अनुमति देता है, जिसमें हिंदुओं के सभी वर्गों तथा समुदायों के लिये हिंदू धार्मिक संस्थानों को खोलना भी शामिल है।
- इस अनुच्छेद में दो स्पष्टीकरण शामिल हैं:
- स्पष्टीकरण I: कृपाण पहनना और रखना सिख धर्म के पालन में शामिल माना जाता है।
- स्पष्टीकरण II: हिंदुओं के संदर्भ में सिख, जैन या बौद्ध धर्म को मानने वाले लोग शामिल हैं, और हिंदू धार्मिक संस्थाओं की व्याख्या तद्नुसार की जाती है।
- यद्यपि यह धर्म के प्रचार-प्रसार के अधिकार की गारंटी देता है, परंतु इसमें किसी अन्य व्यक्ति को अपने धर्म में परिवर्तित करने का अधिकार शामिल नहीं है, जैसा कि उच्चतम न्यायालय ने विभिन्न निर्णयों में स्पष्ट किया है।
- यह स्वतंत्रता नागरिकों तथा गैर-नागरिकों सहित सभी व्यक्तियों के लिये उपलब्ध है।
अनुच्छेद 25: अंतःकरण की स्वतंत्रता तथा धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता
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धर्म की स्वतंत्रता पर प्रमुख निर्णयज विधियाँ क्या हैं?
- बिजोए इमैनुएल एवं अन्य बनाम केरल राज्य (1986):
- इस मामले में, यहोवा संप्रदाय के तीन बच्चों को स्कूल से निलंबित कर दिया गया क्योंकि उन्होंने राष्ट्रगान गाने से इनकार कर दिया था और दावा किया था कि यह उनके धर्म के सिद्धांतों के विरुद्ध है।
- न्यायालय ने कहा कि निष्कासन मौलिक अधिकारों और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है।
- आचार्य जगदीश्वर आनंद बनाम पुलिस आयुक्त, कलकत्ता (1983):
- न्यायालय ने माना कि आनंद मार्ग कोई अलग धर्म नहीं बल्कि एक धार्मिक संप्रदाय है और सार्वजनिक सड़कों पर तांडव करना आनंद मार्ग का अनिवार्य अभ्यास नहीं है।
- एम. इस्माइल फारूकी बनाम भारत संघ (1994):
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि मस्जिद इस्लाम का अनिवार्य भाग नहीं है और मुसलमान कहीं भी, यहाँ तक कि खुले में भी नमाज़ अदा कर सकता है।
- रतिलाल पानचंद गांधी बनाम बॉम्बे राज्य (1954):
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि धार्मिक प्रथाएँ भी धार्मिक आस्था या सिद्धांतों की तरह ही धर्म का भाग हैं।
- हालाँकि न्यायालय ने यह भी कहा कि यह संरक्षण केवल धर्म के आवश्यक और अभिन्न अंगों तक ही सीमित है।
- आयुक्त, हिंदू धार्मिक बंदोबस्ती, मद्रास बनाम श्री शिरुर मठ के श्री लक्ष्मीन्द्र तीर्थ स्वामीयार (1954):
- इस मामले ने "आवश्यक धार्मिक प्रथाओं" परीक्षण को स्थापित किया।
- न्यायालय ने कहा कि किसी धर्म का अनिवार्य भाग क्या है, इसका निर्धारण उस धर्म के सिद्धांतों के संदर्भ में किया जाना चाहिये।
- सरदार सैयदना ताहिर सैफुद्दीन साहब बनाम बॉम्बे राज्य (1962):
- न्यायालय ने कहा कि दाऊदी बोहरा समुदाय के मुखिया को अपने सदस्यों को बहिष्कृत करने का अधिकार है, क्योंकि यह एक आवश्यक धार्मिक प्रथा है।
- स्टैनिस्लॉस बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1977):
- न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 25 के तहत धर्म का प्रचार करने के अधिकार में किसी अन्य व्यक्ति को अपने धर्म में परिवर्तित करने का अधिकार शामिल नहीं है।
- इस निर्णय ने धर्मांतरण विरोधी विधानों की वैधता को यथावत् रखा।
- इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन बनाम केरल राज्य (2018)- सबरीमाला मंदिर मामला:
- न्यायालय ने माना कि मासिक धर्म की आयु वाली महिलाओं को सबरीमाला मंदिर में प्रवेश करने से रोकना कोई आवश्यक धार्मिक प्रथा नहीं है।
- इसमें इस बात पर ज़ोर दिया गया कि संवैधानिक नैतिकता को धार्मिक विश्वासों और प्रथाओं पर प्रभावी होना चाहिये।