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सांविधानिक विधि
दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016
« »23-Apr-2024
X बनाम Y "दिव्यांग बच्चों की माताओं को बाल देखभाल अवकाश देने से मना करना कार्यबल में महिलाओं की समान भागीदारी सुनिश्चित करने के संवैधानिक कर्त्तव्य का उल्लंघन होगा”। भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डीवाई चंद्रचूड़ एवं न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने माना कि दिव्यांग बच्चों की माताओं को बालकों की देखभाल के लिये अवकाश देने से मना करना कार्यबल में महिलाओं की समान भागीदारी सुनिश्चित करने के संवैधानिक कर्त्तव्य का उल्लंघन होगा।
मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में याचिकाकर्त्ता हिमाचल प्रदेश के नालागढ़ के एक कॉलेज में कार्यरत एक सहायक प्रोफेसर हैं।
- याचिकाकर्त्ता ने बाल देखभाल अवकाश की मांग करते हुए राज्य से संपर्क किया था, क्योंकि उसका बेटा ऑस्टियोजेनेसिस इम्परफेक्टा, एक दुर्लभ आनुवंशिक विकार से पीड़ित है तथा उसकी कई बार सर्जरी हो चुकी है।
- उसके लगातार उपचार के कारण उनकी सभी स्वीकृत छुट्टियाँ समाप्त हो गई थीं। लेकिन बाल-देखभाल अवकाश का प्रावधान न अपनाने के कारण उसका आवेदन अस्वीकार कर दिया गया।
- महिला ने हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय में अपील की, जिसने उसकी याचिका खारिज कर दी।
- इसके बाद उन्होंने उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की।
- अपील को स्वीकार करते हुए, न्यायालय ने हिमाचल प्रदेश राज्य सरकार को अपनी बाल देखभाल अवकाश नीति को संशोधित करने का आदेश दिया जो कि दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 के प्रावधानों के अनुरूप हो।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डीवाई चंद्रचूड़ एवं न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला की खंडपीठ ने कहा कि बाल देखभाल अवकाश एक महत्त्वपूर्ण संवैधानिक उद्देश्य को पूरा करता है, जहाँ महिलाओं को कार्यबल में समान अवसर से वंचित नहीं किया जाता है। छुट्टियों से मना करने पर एक माँ को नौकरी छोड़ने के लिये विवश होना पड़ सकता है तथा यह उस माँ के लिये अधिक आवश्यक होता है, जिसके पास विशेष बच्चा है।
- आगे यह माना गया कि कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी केवल विशेषाधिकार का मामला नहीं है, बल्कि भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 15 द्वारा संरक्षित एक संवैधानिक अधिकार है। एक आदर्श नियोक्ता के रूप में राज्य, उन विशेष चिंताओं से अनभिज्ञ नहीं रह सकता जो कार्यबल में महिलाओं के मामले में उत्पन्न होती हैं।
इसमें कौन-से प्रासंगिक विधिक प्रावधान शामिल हैं?
दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम, 2016
- इसे 27 दिसंबर 2016 को दिव्यांग व्यक्ति (समान अवसर, अधिकारों का संरक्षण एवं पूर्ण भागीदारी) अधिनियम, 1995 के स्थान पर अधिनियमित किया गया था।
- यह अधिनियम 19 अप्रैल 2017 को लागू हुआ, जिससे भारत में दिव्यांग व्यक्तियों (PWDs) के अधिकारों एवं मान्यता के एक नए युग की शुरुआत हुई।
- यह अधिनियम शारीरिक, बौद्धिक, मानसिक एवं संवेदी-हानि सहित 21 स्थितियों को शामिल करने के लिये दिव्यांगता के दायरे को विस्तृत करता है।
- यह अनिवार्य करता है कि शैक्षणिक संस्थान एवं सरकारी संगठन दिव्यांग व्यक्तियों के लिये सीटें तथा पद आरक्षित करें, जिससे उनकी शिक्षा और रोज़गार के अवसरों तक पहुँच सुनिश्चित हो सके।
- अधिनियम सार्वजनिक स्थानों, परिवहन, सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकियों में बाधा मुक्त वातावरण के निर्माण पर बल देता है, जिससे दिव्यांग व्यक्तियों की अधिक भागीदारी संभव हो सके।
- यह सरकार को दिव्यांग व्यक्तियों की सामाजिक सुरक्षा, स्वास्थ्य देखभाल एवं पुनर्वास के लिये योजनाएँ और कार्यक्रम तैयार करने का आदेश देता है।
- अधिनियम सार्वभौमिक पहुँच सुनिश्चित करने के लिये सार्वजनिक भवनों के लिये दिशा-निर्देश एवं मानक तैयार करने का आदेश देता है।
COI का अनुच्छेद 15:
- यह अनुच्छेद धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव के निषेध से संबंधित है।
- इस अनुच्छेद में प्रावधान है कि किसी भी नागरिक के साथ केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा।
- इस अनुच्छेद के अपवाद में कहा गया है कि महिलाओं, बच्चों, किसी भी सामाजिक या शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग के नागरिकों के उत्थान के लिये कुछ प्रावधान किये जा सकते हैं (जैसे कि आरक्षण एवं मुफ्त शिक्षा के अवसर)।