BNSS की धारा 210
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आपराधिक कानून

BNSS की धारा 210

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 25-Jun-2024

रोशन लाल उर्फ ​​रोशन राजभर एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य

“न्यायालय ने संज्ञान एवं समन आदेश को रद्द करते हुए निर्णय दिया कि न्यायिक आदेशों के लिये पूर्व-मुद्रित प्रपत्रों का उपयोग अस्वीकार्य है तथा इसमें उचित न्यायिक विचार का अभाव है”।

न्यायमूर्ति सैयद कमर हसन रिज़वी

स्रोत: इलाहाबाद  उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में रोशन लाल उर्फ रोशन राजभर ​​बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य मामले ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा आजमगढ़ में एक मजिस्ट्रेट द्वारा जारी समन आदेश को रद्द करने के निर्णय के कारण ध्यान आकर्षित किया।

  • उच्च न्यायालय ने पाया कि मजिस्ट्रेट ने पूर्व-मुद्रित प्रोफार्मा का यंत्रवत् प्रयोग किया था तथा आदेश जारी करते समय न्यायिक विवेक का प्रयोग नहीं किया था।

रोशन लाल उर्फ ​​रोशन राजभर एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • रोशन लाल के विरुद्ध आजमगढ़ में अतिरिक्त सिविल जज (न्यायिक प्रभाग)/न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष आपराधिक मामला चलाया गया था।
  • जुलाई 2022 में मजिस्ट्रेट ने इस मामले में संज्ञान एवं समन आदेश जारी किया।
  • रोशन लाल ने जुलाई 2022 से संज्ञान एवं समन आदेश और आपराधिक मामले में चल रही कार्यवाही को चुनौती देते हुए याचिका दायर की।
  • उन्होंने दावा किया कि उन्हें आपराधिक मामले में मिथ्या रूप से फँसाया गया है तथा उन्होंने आरोप लगाया कि विपक्षी पक्ष ने उन्हें परेशान करने और अनुचित दबाव डालने के लिये मामला दर्ज किया है।
  • रोशन लाल ने तर्क दिया कि उनके मध्य विवाद पूरी तरह से सिविल प्रकृति का था, न कि आपराधिक।
  • न्यायालय ने मजिस्ट्रेट द्वारा जारी चुनौती वाले आदेश की समीक्षा की।
  • यह देखा गया कि मजिस्ट्रेट ने आदेश के लिये एक मुद्रित प्रोफार्मा का उपयोग किया था और मजिस्ट्रेट ने इस प्रोफार्मा पर न्यायालय की मुहर के ऊपर अपना संक्षिप्त हस्ताक्षर किया था।

न्यायालय की टिप्पणियाँ थीं?

  • न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता (IPC) की धारा 434 (शरारत) एवं 506 (आपराधिक धमकी) के अधीन मामले में आजमगढ़ में मजिस्ट्रेट न्यायालय द्वारा जारी संज्ञान एवं समन आदेश को खारिज कर दिया।
  • न्यायालय ने कहा कि किसी भी न्यायिक आदेश को पारित करते समय, जिसमें आरोप-पत्र का संज्ञान लेने का आदेश भी शामिल है, संबंधित न्यायालय न्यायिक विवेक प्रयोग करने के लिये बाध्य है। संज्ञान लेने का आदेश यंत्रों की सहायता लेकर पारित नहीं किया जा सकता।
  • न्यायालय ने 25 जुलाई 2022 के विवादित समन/संज्ञान आदेश को विधिक रूप से अस्थिर पाया। एक मुद्रित प्रोफार्मा पर रिक्त स्थान भरकर यंत्रों का व्यापक प्रयोग करके तैयार किया गया यह आदेश न्यायिक विवेक के स्पष्ट अनुपस्थिति को दर्शाता है, जिससे न्याय विफल हुआ।
  • न्यायालय ने पाया कि संबंधित मजिस्ट्रेट ने केवल वाद संख्या, अभियुक्त का नाम, भारतीय दण्ड संहिता की संबंधित धाराएँ, पुलिस स्टेशन का नाम, आदेश जारी करने की तिथि तथा अगली निर्धारित तिथि जैसे विशिष्ट विवरण भरे हैं। न्यायिक विवेक के उचित उपयोग के लिये यह कार्यवाही अपर्याप्त मानी गई।
  • न्यायालय ने पाया कि आरोपित संज्ञान एवं समन आदेश में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 434 एवं 506 के अधीन अपराधों का संज्ञान लेने से पहले आरोपी-आवेदक के विरुद्ध आगे बढ़ने के लिये रिकॉर्ड पर सामग्री की पर्याप्तता के विषय में संबंधित मजिस्ट्रेट द्वारा कोई विचार नहीं दर्शाया गया है।
  • न्यायालय ने, न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने एवं न्याय के उद्देश्यों को सुरक्षित करने के लिये, CrPC की धारा 482 के अधीन अपनी शक्ति के प्रयोग में वर्तमान आवेदन पर विचार करना आवश्यक पाया।

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 210 क्या है?

  • BNSS की धारा 210 दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 190 के अधीन दिये गए अपराध का संज्ञान लेने की मजिस्ट्रेट की शक्ति से संबंधित है।
  • यह धारा मजिस्ट्रेट द्वारा अपराधों के संज्ञान से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि
    • इस अध्याय के उपबंधों के अधीन रहते हुए, कोई प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट और उपधारा (2) के अधीन इस निमित्त विशेष रूप से सशक्त कोई द्वितीय श्रेणी मजिस्ट्रेट किसी अपराध का संज्ञान ले सकेगा-
      • ऐसे तथ्यों की शिकायत प्राप्त होने पर जो ऐसे अपराध का गठन करते हैं
      • ऐसे तथ्यों की पुलिस रिपोर्ट पर
      • किसी पुलिस अधिकारी के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति से प्राप्त सूचना पर, या
      • अपने स्वयं के ज्ञान पर, कि ऐसा अपराध किया गया है।
  • मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट किसी भी द्वितीय श्रेणी मजिस्ट्रेट को उपधारा (1) के अधीन ऐसे अपराधों का संज्ञान लेने के लिये सशक्त कर सकता है, जिनकी जाँच या विचारण करना उनके क्षेत्राधिकार के अंदर है।
  • यदि किसी मजिस्ट्रेट ने धारा 190(1) (a) या (b) के अधीन किसी अपराध का संज्ञान लिया है तथा यदि मजिस्ट्रेट को अधिकार क्षेत्र की कमी के आधार पर संज्ञान लेने के लिये विधि द्वारा सशक्त नहीं किया गया था, तो संज्ञान लेने के लिये उसके द्वारा की गई कार्यवाही तब तक रद्द नहीं की जाएगी जब तक यह ज्ञात हो कि संज्ञान सद्भावपूर्वक लिया गया था।
  • इस धारा के अधीन संज्ञान लेने के लिये अभियुक्त की उपस्थिति की आवश्यकता नहीं है।
  • मजिस्ट्रेट BNSS की धारा 210 द्वारा दी गई शक्ति के अधीन संज्ञेय अपराधों की जाँच का आदेश भी दे सकता है।

निर्णयज विधियाँ:

  • पश्चिम बंगाल राज्य बनाम अबनी कुमार बनर्जी (1950)- इस मामले में, कलकत्ता उच्च न्यायालय ने संज्ञान लेने वाले शब्दों के दायरे पर चर्चा की और कहा कि यह शब्द CrPC में कहीं भी परिभाषित नहीं है, लेकिन मामले की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए, यह कहा जा सकता है कि एक मजिस्ट्रेट ने संज्ञान लिया है जब वह किसी मामले में अपने न्यायिक विवेक का उपयोग करता है।