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सिविल कानून

CPC की धारा 151 और 152

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 11-Mar-2024

अंजुमन इंतजामिया मस्जिद प्रबंध समिति वाराणसी बनाम शैलेन्द्र कुमार पाठक व्यास एवं अन्य

"जब CPC एक प्रक्रियात्मक पहलू के संबंध में निष्क्रिय होती है, तो न्यायालय की अंतर्निहित शक्ति पक्षकारों के बीच वास्तविक और उचित न्याय करने में उसकी सहायता कर सकती है।"

न्यायमूर्ति रोहित रंजन अग्रवाल

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

  • हाल ही में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अंजुमन इंतजामिया मस्जिद प्रबंध समिति वाराणसी बनाम शैलेन्द्र कुमार पाठक व्यास एवं अन्य के मामले में माना है कि जब सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) एक प्रक्रियात्मक पहलू के संबंध में निष्क्रिय होती है, तो न्यायालय की अंतर्निहित शक्ति पक्षकारों के बीच वास्तविक और उचित न्याय करने में उसकी सहायता कर सकती है।

अंजुमन इंतज़ामिया मस्जिद प्रबंध समिति वाराणसी बनाम शैलेन्द्र कुमार पाठक व्यास एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में, अंजुमन इंतेज़ामिया मस्जिद समिति (मस्जिद समिति) द्वारा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष दो अपीलें दायर की गईं, जिसमें वाराणसी न्यायालय द्वारा पारित आदेशों को चुनौती दी गई, जिसमें ज़िला मजिस्ट्रेट को मस्जिद परिसर के अंदर व्यास जी तहखाना नामक सीलबंद तहखानों में से एक के अंदर हिंदुओं के लिये पूजा अनुष्ठान करने हेतु सात दिनों के भीतर उचित व्यवस्था करने का निर्देश दिया गया।
  • इन अपीलों पर दोनों पक्षकारों की सहमति से एक साथ सुनवाई की गई और बाद में इन्हें खारिज़ कर दिया गया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति रोहित रंजन अग्रवाल ने कहा कि CPC संपूर्ण नहीं है, इसका सीधा-सा कारण यह है कि विधायिका उन सभी संभावित परिस्थितियों पर विचार करने में असमर्थ है जो भविष्य में किसी मुकदमेबाज़ी में उत्पन्न हो सकती हैं और परिणामस्वरूप, उनके लिये प्रक्रिया प्रदान करने में असमर्थ है। यह पूर्णतः स्थापित है कि CPC एक प्रक्रियात्मक पहलू के संबंध में निष्क्रिय होती है, CPC की धारा 151 के तहत न्यायालय की अंतर्निहित शक्ति पक्षकारों के बीच वास्तविक और पर्याप्त न्याय करने में उसकी सहायता कर सकती है।
  • आगे यह माना गया कि CPC की धारा 151 और धारा 152 को लिया जाना चाहिये क्योंकि पक्षकारों के बीच पर्याप्त न्याय करने के लिये प्रक्रियात्मक कानून मौजूद हैं। यह माना गया कि धारा 152 न केवल न्यायालय की ओर से हुई चूक को सुधारने का अवसर प्रदान करती है, बल्कि पक्षकारों द्वारा भूलवश अपनी दलीलों में की गई गलतियों को सुधारने में भी सक्षम बनाती है।

इसमें कौन-से प्रासंगिक विधिक प्रावधान शामिल हैं?

CPC की धारा 151:

परिचय:

  • यह धारा न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों की व्यावृत्ति से संबंधित है।
  • इसमें कहा गया है कि इस संहिता की किसी भी बात के बारे में यह नहीं समझा जाएगा कि वह ऐसे आदेशों के देने की न्यायालय की अंतर्निहित शक्ति को परिसीमित या अन्यथा प्रभावित करती है, जो न्याय के उद्देश्यों के लिये या न्यायालय की आदेशिका के दुरुपयोग का निवारण करने के लिये आवश्यक है।
  • यह धारा पक्षकारों को कोई ठोस अधिकार प्रदान नहीं करती है बल्कि इसका उद्देश्य प्रक्रिया के नियमों से उत्पन्न होने वाली कठिनाइयों को दूर करना है।

निर्णयज विधि:

  • राम चंद बनाम कन्हयालाल (1966) में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि CPC की धारा 151 के तहत अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये भी किया जा सकता है।

CPC की धारा 152:

परिचय:

  • यह धारा निर्णयों, डिक्रियों या आदेशों के संशोधन से संबंधित है।
  • इसमें कहा गया है कि निर्णयों, डिक्रियों या आदेशों में की लेखन या गणित संबंधी भूलें या किसी आकस्मिक भूल या लोप के कारण हुई गलतियाँ न्यायालय द्वारा स्वप्रेरणा से या पक्षकारों में से किसी के आवेदन पर किसी भी समय सुधारी जा सकेंगी।
  • यह धारा दो महत्त्वपूर्ण सिद्धांतों पर आधारित है:
    • न्यायालय के किसी कार्य से किसी भी पक्षकार पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ना चाहिये।
    • यह देखना न्यायालयों का कर्त्तव्य होता है कि उनके अभिलेख सत्य हैं और वे मामलों की सही स्थिति का प्रतिनिधित्व करते हैं।

निर्णयज विधि:

  • संपूर्ण सिंह बनाम नंदू (2004) के मामले में, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने माना कि CPC की धारा 152 एक प्रशंसनीय सिद्धांत पर आधारित है कि न्यायालय का कोई भी कार्य किसी भी पक्षकार पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालेगा और न्यायालय का यह कर्त्तव्य है कि वह देखे कि उसके अभिलेख सत्य हैं तथा मामलों की सही स्थिति को दर्शाते हैं।