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सिविल कानून

लोक न्यायालय द्वारा प्रदत्त पंचाट

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 04-Sep-2024

वीरेंद्र सिंह बनाम राजस्थान राज्य सड़क परिवहन निगम

"लोक न्यायालय द्वारा पारित निर्णय को सामान्य तरीके से चुनौती नहीं दी जा सकती, जब तक कि संबंधित पक्ष के विरुद्ध छल का आरोप न हो।"

न्यायमूर्ति अनूप कुमार ढांड

स्रोत: राजस्थान उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति अनूप कुमार ढांड की पीठ ने कहा कि लोक न्यायालय द्वारा प्रदत्त निर्णय को तभी चुनौती दी जा सकती है, जब वह क्षेत्राधिकार से परे पारित किया गया हो या किसी अन्य के माध्यम से या न्यायालय के साथ छल या कूटरचना करके प्राप्त किया गया हो।

वीरेंद्र सिंह बनाम राजस्थान राज्य सड़क परिवहन निगम मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वीरेंद्र सिंह को दो वर्ष की अवधि के लिये परिवीक्षा पर अनुकंपा के आधार पर कंडक्टर के पद पर नियुक्त किया गया था।
  • 26 दिसंबर 2014 को उनकी सेवाएँ इस आधार पर समाप्त कर दी गईं कि निरीक्षण के समय कुछ यात्री बिना टिकट के यात्रा करते पाए गए थे, जबकि इस तथ्य के बावजूद कि कर्मचारी द्वारा यात्रियों से टिकट के लिये अपेक्षित राशि वसूल की गई थी।
  • समाप्ति से व्यथित होकर न्यायालय ने एक रिट याचिका दायर की, लेकिन औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 (IDA) के अंतर्गत वाद संस्थित करने के वैकल्पिक उपचार की उपलब्धता के आधार पर इसे खारिज कर दिया गया।
  • उपरोक्त आदेश को खंड पीठ (डिवीज़न बेंच) के समक्ष चुनौती दी गई तथा उसे अनुमति दे दी गई।
  • इस आदेश को उच्चतम न्यायालय ने यथावत् रखा तथा कहा कि कर्मचारी की पदच्युति का आदेश कलंकपूर्ण था और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन था।
  • इस प्रकार, बर्खास्तगी के आदेश को रद्द कर दिया गया और अलग रखा गया तथा RSRTC को निर्देश जारी किया गया कि वह कर्मचारी को बिना बकाया वेतन के सेवा में बहाल करे।
  • RSRTC को सलाह दिये जाने पर कर्मचारी के विरुद्ध उचित अनुशासनात्मक जाँच करने की स्वतंत्रता दी गई।
  • याचिकाकर्त्ता RSRTC खंडपीठ के आदेश से संतुष्ट नहीं था तथा दोनों पक्षों की सहमति के आधार पर मामले को निपटान की संभावना तलाशने के लिये राष्ट्रीय लोक न्यायालय को भेजा गया था।
  • RSRTC ने अधिवक्ताओं की अनुपस्थिति के तकनीकी आधार पर विवादित पंचाट का विरोध किया है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • विचाराधीन आरोपित पंचाट से संकेत मिलता है कि इसे RSRTC कार्यालय आदेश/नीति निर्णय के अनुसार पारित किया गया था।
  • पंचाट कार्यालय आदेश के आधार पर तथा RSRTC के स्थायी अधिवक्ता द्वारा दी गई सहमति के आधार पर पारित किये गए।
  • इस तरह के सहमति पंचाट RSRTC के विरुद्ध एक निषेध के रूप में कार्य करते हैं तथा ये पक्षकारों पर बाध्यकारी होते हैं, जिससे RSRTC यह दलील देकर बच नहीं सकता कि अधिवक्ता को समझौता करने के लिये अधिकृत नहीं किया गया था।
  • इसलिये, याचिकाकर्त्ता को राष्ट्रीय लोक न्यायालय द्वारा पारित पंचाटों की वैधता पर तब तक प्रश्न न करने की अनुमति नहीं दी जा सकती जब तक कि रिकॉर्ड पर यह सिद्ध न हो जाए कि याचिकाकर्त्ता के साथ कोई छल या प्रवंचना कारित की गई है।

लोक न्यायालय क्या है?

परिचय:

  • 'लोक न्यायालय' प्राचीन भारत में प्रचलित न्याय निर्णय प्रणाली का एक पुराना रूप है तथा यह पारंपरिक भारतीय संस्कृति एवं सामाजिक जीवन का हिस्सा था।
  • 'लोक न्यायालय' का अर्थ है- "लोगों का न्यायालय"। 'लोक' का अर्थ है- "लोग" एवं 'न्यायालय' का अर्थ है- "न्यायालय"।
  • लोक न्यायालय विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 (LSA) के अंतर्गत स्थापित वैकल्पिक विवाद निवारण तंत्रों में से एक है।
  • यह एक ऐसा मंच है जहाँ न्यायालय के समक्ष लंबित विवादों/मामलों का सौहार्दपूर्ण ढंग से निपटान/समझौता किया जाता है।
  • लोक न्यायालय का उद्देश्य विवादों का लागत प्रभावी, समयबद्ध एवं सौहार्दपूर्ण समाधान प्रदान करना, न्यायालयों के मामलों के बोझ को कम करना और सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा देना है।
  • लोक न्यायालय एक ऐसा प्रवाधान है जहाँ दोनों पक्ष जीतते हैं और कोई भी हारता नहीं है।

लोक न्यायालय द्वारा पारित पंचाट:

  • LSA की धारा 21 में लोक न्यायालय के पंचाट का प्रावधान है।
  • धारा 21 (1) में यह प्रावधान है कि:
    • लोक न्यायालय द्वारा पारित प्रत्येक निर्णय को सिविल न्यायालय का निर्णय या किसी अन्य न्यायालय का आदेश माना जाएगा।
    • जहाँ लोक न्यायालय द्वारा समझौता या निपटान हो गया है, ऐसे मामले में भुगतान किया गया न्यायालय शुल्क न्यायालय शुल्क अधिनियम, 1870 के अंतर्गत प्रदान की गई विधि से वापस किया जाएगा।
  • धारा 21(2) में प्रावधान है कि लोक न्यायालय द्वारा दिया गया प्रत्येक निर्णय:
    • विवाद से संबंधित सभी पक्षों पर अंतिम एवं बाध्यकारी होगा।
    • निर्णय के विरुद्ध किसी भी न्यायालय में अपील नहीं की जाएगी।

लोक न्यायालय द्वारा पारित निर्णय की प्रवर्तनीयता पर क्या मामले हैं?

  • के. श्रीनिवासप्पा एवं अन्य बनाम एम. मल्लम्मा एवं अन्य (2022):
    • न्यायालय ने कहा कि लोक न्यायालय द्वारा पारित निर्णय के विरुद्ध रिट याचिका स्वीकार्य है, विशेषकर तब जब ऐसी याचिका समझौता निर्णय प्राप्त करने के तरीके में छल या कूटरचना का आरोप लगाते हुए दायर की गई हो।
    • रिट न्यायालय बिना किसी तर्क के लोक न्यायालय के आदेश को रद्द नहीं कर सकता।
    • लोक न्यायालय के निर्णय को, उस निर्णय में दर्ज तथ्यों को, जो छल से प्राप्त हुए हैं, रद्द किये बिना उलटा या रद्द नहीं किया जा सकता।
  • पी.टी. थॉमस बनाम थॉमस जॉब (2005):
    • जब लोक न्यायालय किसी वाद के पक्षकारों के मध्य हुए करार के आधार पर मामलों का निपटान करती है, तो समानता एवं प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करते हुए, लोक न्यायालय का ऐसा प्रत्येक निर्णय सिविल न्यायालय का आदेश माना जाएगा तथा ऐसा आदेश अंतिम होगा और पक्षकारों पर बाध्यकारी होगा।
    • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 96 के अंतर्गत कोई अपील उस निर्णय के विरुद्ध नहीं होगी, क्योंकि निर्णय अंतिम होता है।