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आपराधिक कानून

‘ज़मानत’ नियम है, जबकि ‘जेल’ अपवाद

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 29-Aug-2024

प्रेम प्रकाश बनाम प्रवर्तन निदेशालय के माध्यम से भारत संघ

"यह सिद्धांत कि ज़मानत, नियम है तथा जेल, अपवाद है, भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 का केवल एक संक्षिप्त रूप है"।

न्यायमूर्ति बी.आर. गवई तथा के.वी. विश्वनाथन

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में प्रेम प्रकाश बनाम प्रवर्तन निदेशालय के माध्यम से भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि धन शोधन निवारण अधिनियम 2002 (PMLA) में भी ज़मानत एक नियम है तथा जेल एक अपवाद है।

प्रेम प्रकाश बनाम प्रवर्तन निदेशालय के माध्यम से भारत संघ, मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्तमान मामले में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 406, 420, 467, 468, 447, 504, 506, 341, 323 एवं 34 के अधीन दण्डनीय अपराधों के लिये प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई थी।
  • IPC की धारा 420 एवं 467 के अधीन अपराध होने के मद्देनज़र PMLA के अधीन जाँच प्रारंभ की गई थी।
  • प्रवर्तन निदेशालय (ED) ने अपराध की जाँच की।
  • आरोप यह था कि आरोपी राजेश राय ने अवैध रूप से और धोखाधड़ी से इम्तियाज़ अहमद एवं आरोपी भरत प्रसाद के नाम पर पावर ऑफ अटॉर्नी बनाई तथा उक्त पावर ऑफ अटॉर्नी के आधार पर एक जाली विक्रय विलेख तैयार किया और अपीलकर्त्ता के साथी आरोपी पुनीत भार्गव को ज़मीन बेच दी।
  • यह भी आरोप है कि आरोपी पुनीत भार्गव ने दो बिक्री विलेखों के माध्यम से उक्त ज़मीन को आरोपी बिष्णु कुमार अग्रवाल को अंतरित कर दिया।
  • अपीलकर्त्ता को 11 अगस्त 2023 को अभिरक्षा में लिया गया था। वह पहले से ही 25 अगस्त 2022 से अभिरक्षा में था।
  • अपीलकर्त्ता ने तर्क दिया कि विभिन्न साक्षियों की जाँच के कारण उसे ज़मानत नहीं दी गई जो उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
  • अपीलकर्त्ता की ज़मानत याचिका को विशेष न्यायाधीश एवं उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया।
  • व्यथित होकर अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष विशेष अनुमति याचिका दायर की।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने PMLA की धारा 45 के प्रावधानों पर गौर किया, जिसमें ज़मानत देने के लिये दो शर्तें बताई गई हैं।
    • यह प्रावधान ज़मानत के सामान्य नियम का अपवाद नहीं है, बल्कि यह ज़मानत देने से पहले पालन की जाने वाली दोहरी शर्तें प्रदान करता है।
    • उच्चतम न्यायालय ने सामान्य नियम पर प्रकाश डालते हुए कहा कि "ज़मानत, एक नियम है तथा जेल, एक अपवाद है"।
  • उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि PMLA की धारा 45, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 का संक्षिप्त रूप है, जिसमें कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा।
  • उच्चतम न्यायालय ने आगे कहा कि व्यक्ति की स्वतंत्रता सदैव नियम है तथा इससे वंचित किया जाना अपवाद है। ‘वंचित किया जाना’ केवल विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया द्वारा ही की जा सकती है जो वैध एवं उचित होनी चाहिये।
  • इसलिये उच्चतम न्यायालय ने अपीलकर्त्ता की याचिका स्वीकार कर ली तथा ज़मानत दे दी।

PMLA के अधीन "ज़मानत नियम है" के सामान्य सिद्धांत की प्रयोज्यता क्या है?

परिचय:

  • भारत में ज़मानत के लिये विभिन्न अधिनियमों में अलग-अलग प्रावधान दिये गए हैं।
  • वर्ष 2019 में PMLA की धारा 45 (1) में संशोधन किया गया तथा ज़मानत देने के लिये दी गई दो अतिरिक्त शर्तों को हटा दिया गया क्योंकि वे COI के अनुच्छेद 14 एवं अनुच्छेद 21 का उल्लंघन कर रहे थे।
  • निकेश तात्राचंद शाह बनाम भारत संघ एवं अन्य (2017) के ऐतिहासिक निर्णय द्वारा ये संशोधन किये गए थे।
  • दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 438 एक प्रक्रियात्मक प्रावधान है जो प्रत्येक व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संबंधित है, जो निर्दोषता की धारणा के लाभ का अधिकारी है।
  • विधिविरुद्ध क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम, 1967 की धारा 43D (5) ज़मानत कार्यवाही के लिये आधार तैयार करती है, जिसमें रिहाई के लिये कठोर शर्तें निर्धारित की गई हैं।
  • इस प्रावधान के अधीन, UAPA के अध्याय IV एवं VI के अधीन दण्डनीय आरोपों का सामना करने वाले आरोपी को केवल पुलिस के दस्तावेज़ों के आधार पर न्यायालय में यह सिद्ध करना होगा कि आरोप प्रथम दृष्टया सत्य नहीं हैं।
  • यह विधिक ढाँचा निर्दोषता की मौलिक धारणा का उल्लंघन करते हुए, प्रभावी रूप से साक्ष्य का भार आरोपी पर डाल देता है।

PMLA के अधीन ज़मानत के लिये दो शर्तें:

  • धारा 45: इसमें कहा गया है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता में निहित किसी भी तथ्य के बावजूद, इस अधिनियम के अधीन किसी अपराध के आरोपी किसी भी व्यक्ति को ज़मानत पर या अपने स्वयं के बॉण्ड पर रिहा नहीं किया जाएगा, जब तक कि:
    • लोक अभियोजक को ऐसी रिहाई के लिये आवेदन का विरोध करने का अवसर दिया गया है।
    • जहाँ सरकारी अभियोजक आवेदन का विरोध करता है, न्यायालय को विश्वास है कि यह मानने के लिये उचित आधार हैं कि वह ऐसे अपराध का दोषी नहीं है तथा यह कि वह ज़मानत पर रहते हुए कोई अपराध करने की संभावना नहीं है।
    • बशर्ते कि कोई व्यक्ति, जो सोलह वर्ष से कम आयु का है, या महिला है या बीमार या अशक्त है, या अकेले या अन्य सह-अभियुक्तों के साथ एक करोड़ रुपए से कम की धनराशि के धन शोधन का आरोपी है, ज़मानत पर रिहा किया जा सकता है, यदि विशेष न्यायालय ऐसा निर्देश देती है।
    • आगे यह भी प्रावधान है कि विशेष न्यायालय धारा 4 के अंतर्गत दण्डनीय किसी अपराध का संज्ञान लिखित रूप में की गई शिकायत के अतिरिक्त नहीं लेगा।
      • निदेशक;
      • या केंद्रीय सरकार या राज्य सरकार का कोई अधिकारी जिसे केंद्रीय सरकार द्वारा इस निमित्त किये गए किसी साधारण या विशेष आदेश द्वारा लिखित रूप में प्राधिकृत किया गया हो।

ज़मानत क्या है?

परिचय:

  • ज़मानत विधिक अभिरक्षा में रखे गए व्यक्ति की सशर्त/अस्थायी रिहाई है (ऐसे मामलों में, जिन पर न्यायालय द्वारा अभी निर्णय दिया जाना है), जिसके लिये न्यायालय में आवश्यकता पड़ने पर उपस्थित होने का वचन दिया जाता है। यह रिहाई के लिये न्यायालय के समक्ष जमा की गई सुरक्षा/संपार्श्विक को दर्शाता है।
  • ज़मानत, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता के अंदर एक विधिक प्रावधान है, जो सुरक्षा जमा करने पर लंबित वाद या अपील के दौरान जेल से रिहाई की सुविधा प्रदान करता है।

भारत में ज़मानत के प्रकार:

  • नियमित ज़मानत: यह न्यायालय (देश के किसी भी न्यायालय) द्वारा किसी व्यक्ति को रिहा करने का निर्देश है, जो पहले से ही गिरफ़्तार है एवं पुलिस अभिरक्षा में है।
  • अंतरिम ज़मानत: न्यायालय द्वारा अस्थायी और छोटी अवधि के लिये दी गई ज़मानत, जब तक कि अग्रिम ज़मानत या नियमित ज़मानत की मांग करने वाला आवेदन न्यायालय के समक्ष लंबित है।
  • अग्रिम ज़मानत या गिरफ्तारी से पहले की ज़मानत: यह एक विधिक प्रावधान है जो किसी आरोपी व्यक्ति को गिरफ़्तार होने से पहले ज़मानत के लिये आवेदन करने की अनुमति देता है। भारत में, गिरफ्तारी से पहले की ज़मानत CrPC की धारा 438 के अधीन दी जाती है। यह केवल सत्र न्यायालय एवं उच्च न्यायालय द्वारा जारी की जाती है।
  • गिरफ्तारी से पहले ज़मानत का प्रावधान विवेकाधीन है, तथा न्यायालय अपराध की प्रकृति एवं गंभीरता, आरोपी के पिछले इतिहास और अन्य प्रासंगिक कारकों पर विचार करने के बाद ज़मानत दे सकती है। न्यायालय ज़मानत देते समय कुछ शर्तें भी लगा सकती है, जैसे पासपोर्ट सरेंडर करना, देश छोड़ने से बचना या नियमित रूप से पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट करना।

जेल एक अपवाद क्यों है?

  • किसी व्यक्ति को बिना किसी कारण के अभिरक्षा में रखना उसकी स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है।
  • किसी व्यक्ति को जाँच के उद्देश्य से तथा ऐसा करने की उचित आशंका होने पर परीक्षण-पूर्व चरण में अभिरक्षा में लिया जा सकता है।
  • किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण दण्डनीय है तथा प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के विरुद्ध है।
  • न्यायालयों का यह कर्त्तव्य है कि वे यह सुनिश्चित करें कि किसी व्यक्ति को तब तक अभिरक्षा में न रखा जाए जब तक कि यह न्याय के हित के विरुद्ध न हो।

ज़मानत नियम है जबकि जेल अपवाद, इस पर आधारित ऐतिहासिक निर्णय क्या हैं?

  • विधिक मामलों के अधीक्षक एवं स्मरणकर्त्ता बनाम अमिय कुमार रॉय चौधरी (1973):
    • इस मामले में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने ज़मानत देने के पीछे के सिद्धांत को समझाया।
  • राजस्थान राज्य बनाम बालचंद (1977):
    • न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने प्रसिद्ध रूप से कहा था, "मूल नियम शायद संक्षेप में ज़मानत के रूप में रखा जा सकता है, जेल के रूप में नहीं।"
    • इसने निर्दोषता की धारणा एवं एक आरोपी व्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को रेखांकित किया।
  • गुरबख्श सिंह सिब्बिया बनाम पंजाब राज्य (1980):
    • यह मामला अग्रिम ज़मानत से संबंधित था, लेकिन इसमें निर्दोषता की धारणा पर ज़ोर दिया गया।
    • न्यायालय ने माना कि ज़मानत का अधिकार सीधे संविधान के अनुच्छेद 21 से जुड़ा हुआ है।
  • सिद्धराम सतलिंगप्पा मेत्रे बनाम महाराष्ट्र राज्य (2011):
    • न्यायालय ने दोहराया कि ज़मानत नियम है जबकि जेल अपवाद है।
    • न्यायालय ने ज़मानत आवेदनों पर विचार करते समय व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं सामाजिक हितों के बीच संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया।
  • केरल राज्य बनाम रानीफ (2011):
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि ज़मानत तभी दी जानी चाहिये जब अभियुक्त यह दिखा सके कि यह मानने के लिये उचित आधार मौजूद हैं कि वह अपराध का दोषी नहीं है।
  • संजय चंद्रा बनाम CBI (2012):
    • न्यायालय ने माना कि ज़मानत का उद्देश्य न तो दण्डात्मक है तथा न ही निवारक।
    • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि दण्डात्मक उपाय के रूप में ज़मानत देने से मना करना निर्दोषता की धारणा की अवधारणा के विपरीत होगा।
  • NIA बनाम जहूर अहमद शाह वताली (2019):
    • इस मामले ने एक उदाहरण स्थापित किया है जिसके अंतर्गत न्यायालय UAPA के अधीन ज़मानत की कार्यवाही के दौरान अभियोजन पक्ष के साक्ष्य की आलोचनात्मक जाँच करने से विवश हैं।
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि "ज़मानत के लिये प्रार्थना पर विचार करने के चरण में, सामग्री का मूल्यांकन करना आवश्यक नहीं है, बल्कि व्यापक संभावनाओं के आधार पर केवल सामग्री के आधार पर राय बनाना है"।
  • वर्नोन बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य (2023):
    • इस मामले में एक सूक्ष्म दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया, जिसमें ज़मानत पात्रता निर्धारित करने से पहले साक्ष्य के सतही स्तर के विश्लेषण की आवश्यकता पर ज़ोर दिया गया।
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि, "यह प्रथम दृष्टया "परीक्षण" को संतुष्ट नहीं करेगा जब तक कि ज़मानत देने के प्रश्न की जाँच के चरण में साक्ष्य के सत्यापन योग्य मूल्य का कम-से-कम सतही विश्लेषण न हो और गुणवत्ता या सत्यापन योग्य मूल्य न्यायालय को उसके महत्त्व के विषय में संतुष्ट न कर दे"।