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सिविल कानून

संविधान के अनुच्छेद 226 के अनुसार बाल संरक्षकत्व

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 09-Sep-2024

सोमप्रभा राणा बनाम मध्य प्रदेश राज्य

“जब न्यायालय अवयस्क के संबंध में बंदी प्रत्यक्षीकरण के मुद्दे पर विचार करता है तो वह बालक को चल संपत्ति नहीं मान सकता”।

न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने कहा कि बालक के संरक्षकत्व के संबंध में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर निर्णय करते समय बालक के कल्याण के सिद्धांत पर विचार किया जाना चाहिये।      

  • उच्चतम न्यायालय ने सोमप्रभा राणा बनाम मध्य प्रदेश राज्य मामले में यह निर्णय दिया।

सोमप्रभा राणा बनाम मध्य प्रदेश राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • इस मामले में बालक की माँ की 27 दिसंबर 2022 को फाँसी लगाने से अप्राकृतिक मृत्यु हो गई।
  • प्रतिवादी संख्या 2, 3 (बालक के नाना-नानी) और 4 (बालक के पिता) ने भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 226 के अंतर्गत मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार का आह्वान किया।
  • प्रतिवादियों का मामला यह था कि जब चौथा प्रतिवादी (बालक का पिता) अपनी पत्नी के पोस्टमार्टम की औपचारिकताएँ पूरी करने में व्यस्त था, तब अपीलकर्त्ता संख्या 2 और 3 (मृतक माँ की सगी बहनें) अवयस्क बालक (माँ की मृत्यु की तिथि पर बालक की आयु 11 महीने थी) को ले गए।
  • यह ध्यान देने योग्य है कि चौथे प्रतिवादी को भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 498 A और धारा 304 B के अंतर्गत अपराधों के लिये गिरफ्तार किया गया था और 19 अप्रैल 2023 को ज़मानत दे दी गई थी।
  • उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को स्वीकार कर लिया और अपीलकर्त्ताओं को प्रतिवादियों को संरक्षकत्व सौंपने का निर्देश दिया।
  • उच्चतम न्यायालय ने 7 जुलाई 2023 को उपरोक्त निर्णय के क्रियान्वयन पर रोक लगा दी।
  • 5 दिसंबर 2023 को उच्चतम न्यायालय ने अनुमति प्रदान कर दी तथा स्थगन जारी रखा, परंतु न्यायालय ने कहा कि पति के लिये उचित न्यायालय के समक्ष संरक्षकत्व के लिये आवेदन करना स्वतंत्र होगा।
  • पति ने आज तक बालक की संरक्षकत्व के लिये कोई आवेदन नहीं किया है। अपीलकर्त्ताओं द्वारा संरक्षकत्व के लिये आवेदन किया गया था, परंतु बाद में उसे वापस ले लिया गया।
  • अब न्यायालय के समक्ष प्रश्न यह था कि:
    • क्या उच्च न्यायालय द्वारा उस बालक के संरक्षकत्व में व्यवधान डालना न्यायोचित था, जिसकी आयु, निर्णय पारित करने के समय एक वर्ष और 5 महीने थी?

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्च न्यायालय ने बालक के संरक्षकत्व केवल इसलिये समाप्त कर दिया क्योंकि प्रतिवादी ही बालक का जैविक पिता था।
  • उच्च न्यायालय ने बालक के कल्याण के मुद्दे पर विचार नहीं किया।
  • उच्चतम न्यायालय ने सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कही कि:
    • जब न्यायालय अवयस्क के मामले में बंदी प्रत्यक्षीकरण के मुद्दे पर विचार करता है, तो न्यायालय बालक को चल संपत्ति नहीं मान सकता और संरक्षकत्व में व्यवधान के बालक पर पड़ने वाले प्रभाव पर विचार किये बिना संरक्षकत्व हस्तांतरित नहीं कर सकता। ऐसे मुद्दों पर यंत्रवत् निर्णय नहीं लिया जा सकता।
  • पैरेन्स पैट्रिया के सिद्धांत को न्यायालयों द्वारा अनदेखा नहीं किया जाना चाहिये।
  • बालक की अल्पायु को देखते हुए तथा इस तथ्य को देखते हुए भी कि बच्चा लंबे समय से अपने माता-पिता और दादा-दादी से नहीं मिला है, न्यायालय ने बालक का संरक्षकत्व तत्काल पिता एवं दादा-दादी को सौंपने से इनकार कर दिया।
  • न्यायालय ने यह भी माना कि बालक के संरक्षकत्व के मामलों से निपटने वाली नियमित सिविल/कुटुंब न्यायालय ही लाभप्रद स्थिति में हैं।
  • हालाँकि न्यायालय ने कहा कि भले ही बालक का संरक्षकत्व पिता को न दिया जाए, फिर भी उसे बालक से मिलने का अधिकार अवश्य दिया जाना चाहिये।

COI के अनुच्छेद 226 के अंतर्गत क्षेत्राधिकार के प्रयोग के संबंध में बालक की अभिरक्षा पर विधान क्या है?

  • न्यायालय ने ऐसे मामलों में पालन किये जाने वाले निम्नलिखित सिद्धांत निर्धारित किये हैं:
    • बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट एक विशेषाधिकार रिट है। यह एक असाधारण एवं विवेकाधिकार उपाय है।
    • ऐसे मामलों में शक्तियों का प्रयोग करना या न करना उच्च न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है। यह सब व्यक्तिगत मामलों के तथ्यों पर निर्भर करता है।
    • यहाँ तक ​​कि यदि किसी विशेष मामले में उच्च न्यायालय पाता है कि बालक की हिरासत अवैध है, तो वह अनुच्छेद 226 के अंतर्गत क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने से इंकार कर सकता है, यदि उच्च न्यायालय का यह विचार है कि उसकी संरक्षकत्व में व्यवधान डालना अवयस्क के कल्याण/हित में नहीं होगा।
    • बालक के संरक्षकत्व से संबंधित प्रश्न पर निर्णय करते समय, अवयस्क बालक का कल्याण सर्वोपरि होना चाहिये।
    • उपरोक्त सिद्धांत किसी अवयस्क के संबंध में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर भी लागू होता है।

बालक के संरक्षकत्व के मामलों में बालक के सर्वोत्तम हित का सिद्धांत क्या है?

  • संरक्षकत्व एवं प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 की धारा 17:
    • धारा 17 (1) में यह प्रावधान है कि किसी अवयस्क के संरक्षक की नियुक्ति या घोषणा करने में न्यायालय, इस धारा के उपबंधों के अधीन रहते हुए, इस बात से निर्देशित होगा कि अवयस्क जिस विधान के अधीन है, उसके अनुरूप परिस्थितियों में अवयस्क के कल्याण के लिये क्या आवश्यक प्रतीत होता है।
    • धारा 17 (2) में यह प्रावधान है कि अवयस्क के कल्याण के विषय में विचार करते समय न्यायालय को अवयस्क की आयु, लिंग एवं धर्म, प्रस्तावित अभिभावक का चरित्र तथा क्षमता तथा अवयस्क से उसके रिश्तेदारों की निकटता, मृत माता-पिता की इच्छाएँ, यदि कोई हों, तथा प्रस्तावित अभिभावक के अवयस्क या उसकी संपत्ति के साथ मौजूदा या पिछले संबंधों को ध्यान में रखना होगा।
    • धारा 17 (3) में प्रावधान है कि यदि अवयस्क की आयु इतनी है कि वह अपनी बुद्धि से चुनाव कर सके, तो न्यायालय उस चुनाव पर विचार कर सकता है।
  • हिंदू अल्पसंख्यक एवं संरक्षकत्व अधिनियम, 1956 की धारा 13:
    • इस धारा में यह प्रावधान है कि न्यायालय द्वारा किसी व्यक्ति को हिंदू अवयस्क का संरक्षक नियुक्त या घोषित करते समय अवयस्क का कल्याण सर्वोपरि माना जाएगा।
  • आशीष रंजन बनाम अनुपम टंडन (2010):
    • बालक के कल्याण पर विचार करते समय, "बालक के नैतिक और नैतिक कल्याण के साथ-साथ उसकी शारीरिक देखभाल को भी न्यायालय द्वारा ध्यान में रखा जाना चाहिये"।
    • बालक को संपत्ति या वस्तु के रूप में नहीं देखा जा सकता, इसलिये न्यायालय को ऐसे मुद्दों को सावधानी एवं प्रेम, स्नेह तथा मानवीय संवेदनाओं के साथ संभालना होगा।
  • कर्नल रमनीश पाल सिंह बनाम सुगंधी अग्रवाल (2024):
    • न्यायालय ने कहा कि संरक्षकत्व के मामले पर निर्णय निम्नलिखित कारकों को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिये:
      • सामाजिक-आर्थिक और शैक्षिक अवसर जो अवयस्क बालकों को उपलब्ध कराए जा सकते हैं;
      • बालकों की स्वास्थ्य देखभाल और समग्र कल्याण
      • किशोरों के लिये अनुकूल भौतिक परिवेश उपलब्ध कराने की क्षमता, परंतु साथ ही अवयस्क बालकों के चुनाव को भी ध्यान में रखना।

बाल संरक्षणत्व का निर्णय लेने में पारिवारिक न्यायालय अधिक लाभप्रद स्थिति में क्यों हैं?

  • कुटुंब न्यायालय बालक के साथ प्रायः वार्तालाप कर सकता है।
  • व्यावहारिक रूप से, सभी कुटुंब न्यायालयों में एक बाल केंद्र/खेल क्षेत्र होता है।
  • बालक को खेल केंद्र में लाया जा सकता है, जहाँ न्यायिक अधिकारी बालक से वार्तालाप कर सकते हैं। पक्षों को एक ही स्थान पर बालक से मिलने की अनुमति दी जा सकती है।
  • न्यायालय बालक का मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन करने के लिये विशेषज्ञों की नियुक्ति कर सकता है।
  • यदि किसी पक्ष को बालक से मिलने की अनुमति देना आवश्यक हो, तो सिविल न्यायालय या कुटुंब न्यायालय इसकी निगरानी करने की बेहतर स्थिति में है।