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सिविल कानून

माध्यस्थम पंचाट में हस्तक्षेप

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 25-Dec-2024

State of Rajasthan v. M/s Leeladhar Devkinandan 

“यह एक सुस्थापित कानून है जो कि मध्यस्थ द्वारा समझौते की व्याख्या न्यायिक हस्तक्षेप के लिये खुली नहीं होगी, जब तक कि न्यायालय के समक्ष यह प्रदर्शित न हो जाए कि माध्यस्थम न्यायाधिकरण द्वारा की गई व्याख्या दोषपूर्ण थी।”

न्यायमूर्ति श्री चन्द्रशेखर एवं न्यायमूर्ति डॉ. नूपुर भाटी

स्रोत: Rajasthan High Court

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति श्री चंद्रशेखर और न्यायमूर्ति डॉ. नूपुर भाटी की पीठ ने कहा कि न्यायालयों के पास माध्यस्थम पंचाट में हस्तक्षेप की सीमित गुंजाइश है।               

राजस्थान राज्य बनाम मेसर्स लीलाधर देवकीनंदन मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • पुलिस लाइन के निर्माण के लिये पक्षकारों के बीच एक करार हुआ था।
  • समझौते के अनुसार कुल अनुबंध मूल्य 2,88,04,833/- रुपए था, समझौते के तहत कार्य 21 मार्च 1996 को कार्य आदेश संख्या 8024 जारी होने से दो वर्ष के भीतर पूरा किया जाना था। 
  • पक्षकारों के बीच विवाद करार के खंड 45 के तहत निर्धारित वृद्धि से संबंधित था। 
  • माध्यस्थम की नियुक्ति के लिये मामला उच्च न्यायालय के समक्ष आया। 
  • दावेदार द्वारा दायर आवेदन को स्वीकार कर लिया गया और दावेदार ने तीन अलग-अलग शीर्षकों के तहत दावे किये, जो इस प्रकार हैं:
    • 31,54,223/- रुपए की वृद्धि
    • दावे पर ब्याज
    • अधिशेष ब्याज 
  • माध्यस्थम न्यायाधिकरण ने निम्नलिखित फैसला दिया:
    • न्यायाधिकरण ने पुष्टि की कि करार में मूल्य वृद्धि खंड (खंड 45) लागू होता है। दावेदार की मूल्य वृद्धि की मांग वैध पाई गई, जिसकी खंड 45 के अनुसार गणना की गई।
    • यह नोट किया गया कि दावेदार आंशिक रूप से ज़िम्मेदार था और इसलिये दावा कम कर दिया गया।
  • वाणिज्यिक न्यायालय द्वारा माध्यस्थम पंचाट की पुष्टि की गई है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?  

  • न्यायालय ने पाया कि माध्यस्थम और सुलह अधिनियम, 1996 (A एंड C अधिनियम) की धारा 5, धारा 34 में उल्लिखित विशिष्ट आधारों को छोड़कर माध्यस्थम पंचाट में न्यायिक हस्तक्षेप को प्रतिबंधित करती है।
  • अधिनियम माध्यस्थम पंचाट की अंतिमता को बनाए रखने पर ज़ोर देता है, जब तक कि धारा 34 के तहत बाध्यकारी कारण न हों।
  • न्यायालय ने पाया कि खंड 45 विशिष्ट परिस्थितियों में श्रम और सामग्री के लिये मूल्य समायोजन की अनुमति देता है, जैसे कि जब विलंब ठेकेदार के कारण नहीं होता है और निर्धारित पूर्णता अवधि 12 माह से अधिक होती है।
  • माध्यस्थम न्यायाधिकरण ने खंड 45 की उचित व्याख्या की, और निष्कर्ष निकाला कि ठेकेदार उस विलंब के कारण वृद्धि का हकदार था, जो उसके कारण नहीं थी। यह व्याख्या तार्किक थी और विकृत नहीं थी।
  • न्यायालयों को माध्यस्थम के निष्कर्षों में तब तक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये जब तक कि व्याख्या स्पष्ट रूप से अनुचित या कानून के विपरीत न हो, जैसा कि मैकडरमोट इंटरनेशनल इंक. बनाम बर्न स्टैंडर्ड कंपनी लिमिटेड (2006) में पुष्टि की गई है।
  • यह तर्क कि पंचाट ने सार्वजनिक नीति का उल्लंघन किया है, खारिज़ कर दिया गया। न्यायाधिकरण ने सभी प्रासंगिक दस्तावेज़ों, पत्राचारों और तथ्यों पर विचार किया।
  • कार्य निष्पादन में विलंब आंशिक रूप से ठेकेदार के नियंत्रण से परे कारकों, जैसे भूमि अधिग्रहण के मुद्दे, डिज़ाईन में बदलाव और बजट सीमाओं के कारण हुई।
  • न्यायाधिकरण ने उचित ढंग से एक सिविल न्यायालय के फैसले पर भरोसा किया कि विलंब के लिये ठेकेदार पर लगाए गए दंड अनुचित थे।
  • अधिनियम की धारा 31(7) के अनुसार मध्यस्थ को ब्याज देने का अधिकार है, जिसके अनुसार माध्यस्थम खंड लागू होने की तिथि से ब्याज देने का प्रावधान है, जब तक कि अन्यथा सहमति न हो।
  • अपील को खारिज़ कर दिया गया क्योंकि न्यायाधिकरण के निष्कर्ष उचित और कानूनी सीमाओं के भीतर थे, जिसमें न्यायिक हस्तक्षेप की कोई गुंजाइश नहीं थी।

माध्यस्थम पंचाट में किस प्रकार हस्तक्षेप किया जा सकता है?

  • माध्यस्थम और सुलह अधिनियम, 1996 A & C अधिनियम) की धारा 5, धारा 34 में उल्लिखित विशिष्ट आधारों को छोड़कर, माध्यस्थम पंचाट में न्यायिक हस्तक्षेप उपबंधित है।
  • धारा 34 (1) में प्रावधान है कि माध्यस्थम पंचाट के विरुद्ध न्यायालय का आश्रय केवल उप-धारा (2) और उप-धारा (3) के अनुसार ऐसे पंचाट को अपास्त करने के लिये आवेदन करके ही लिया जा सकेगा।
  • धारा 34(2) में प्रावधान है कि कोई माध्यस्थम पंचाट न्यायालय द्वारा तभी अपास्त किया जा सकेगा जब:
    • आवेदन करने वाला पक्षकार माध्यस्थम न्यायाधिकरण के साक्ष्यों के आधार पर यह स्थापित करता है कि-
      • कोई पक्षकार किसी असमर्थता से ग्रस्त था, या
      • माध्यस्थम करार उस विधि के, जिसके अधीन पक्षकारों ने उसे किया है या उस बारे में कोई संकेत न होने पर, तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अधीन विधिमान्य नहीं है; या
      • आवेदन करने वाले पक्षकार को मध्यस्थ की नियुक्ति की या माध्यस्थम की कार्यवाही की उचित सूचना नहीं दी गई थी या वह  अपना मामला प्रस्तुत करने में अन्यथा असमर्थ था; या
      • माध्यस्थम पंचाट ऐसे विवाद से संबंधित है, जो अनुध्यात नहीं किया गया है या माध्यस्थम के लिये निवेदन करने के लिये रख गए निबंधनों के भीतर नहीं आता है, या उसमें ऐसी बैटन के बारे में विनिश्चय है जो माध्यस्थम के लिये निवेदित विषयक्षेत्र से बाहर हैं:
      • परंतु यदि माध्यस्थम के लिये निवेदित किये गए विषयों पर उन विनिश्चयों से पृथक किया जा सकता है जिन्हें निवेदित नहीं किया गया है, तो माध्यस्थम पंचाट के केवल उस भाग को जिसमें माध्यस्थम के लिये निवेदित नहीं किये गए विषयों पर विनिश्चय है, अपास्त किया जा सकेगा।
      • माध्यस्थम न्यायाधिकरण की संरचना या माध्यस्थम प्रक्रिया पक्षकारों के करार के अनुसार नहीं थी, जब तक कि ऐसा करार इस भाग के उपबंधों के के विरोध में न हो और जिससे पक्षकार नहीं हट सकते थे, या ऐसे करार के आभाव में इस भाग के अनुसार नहीं थी, या
  • न्यायालय का यह निष्कर्ष है कि-
    • विवाद की विषय-वस्तु वर्तमान में लागू विधि के तहत माध्यस्थम द्वारा निपटारे योग्य नहीं है, या
    • माध्यस्थम पंचाट भारत की सार्वजनिक नीति के विरुद्ध है।
      • स्पष्टीकरण 1 में यह प्रावधान है कि किसी भी संदेह से बचने के लिये, यह स्पष्ट किया जाता है कि कोई निर्णय भारत की सार्वजनिक नीति के विरोध में है, केवल तभी स्पष्टीकरण-उपखंड (ii) की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, किसी शंका को दूर करने के लिये यह
      • घोषित किया जाता है कि कोई पंचाट भारत की लोक नीति के विरुद्ध है यदि पंचाट का दिया जाना कपट या भ्रष्ट आचरण द्वारा उत्प्रेरित या प्रभावित किया गया था या धारा 75 अथवा धारा 81 के अतिक्रमण में था।
      • यह भारतीय कानून की मौलिक नीति का उल्लंघन है; या
      • यह नैतिकता या न्याय की सबसे बुनियादी धारणाओं के साथ संघर्ष में है।
  • धारा 34 (2A) अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक माध्यस्थम यानी घरेलू माध्यस्थम के अतिरिक्त अन्य माध्यस्थम पंचाट को रद्द करने का प्रावधान करती है।
    • यह प्रावधान यह प्रदान करता है कि अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता के अतिरिक्त अन्य माध्यस्थम से उत्पन्न होने वाले माध्यस्थम पंचाट को भी न्यायालय द्वारा रद्द किया जा सकता है, यदि न्यायालय पाता है कि पंचाट में पेटेंट संबंधी अवैधता दिखाई देती है।
      बशर्ते कि किसी पंचाट को केवल कानून के अनुचित प्रयोग या साक्ष्य के पुनर्मूल्यांकन के आधार पर रद्द नहीं किया जाएगा।
  • धारा 34 (3) में यह प्रावधान है कि अपास्त करने के लिये आवेदन उस तिथि से तीन माह बीत जाने के बाद नहीं किया जा सकेगा, जिस दिन आवेदन करने वाले पक्षकार को माध्यस्थम पंचाट प्राप्त हुआ था या, यदि धारा 33 के तहत अनुरोध किया गया था, तो उस तिथि से, जिस दिन माध्यस्थम न्यायाधिकरण द्वारा उस अनुरोध का निपटारा किया गया था:
  • बशर्ते कि यदि न्यायालय को यह विश्वास हो कि आवेदक को तीन माह की उक्त अवधि के भीतर आवेदन करने से पर्याप्त कारण से रोका गया था, तो वह तीस दिनों की अतिरिक्त अवधि के भीतर आवेदन पर विचार कर सकता है, लेकिन उसके बाद नहीं।
  • धारा 34 (4) में यह प्रावधान है कि उपधारा (1) के अंतर्गत आवेदन प्राप्त होने पर न्यायालय, जहाँ यह उचित हो और पक्षकार द्वारा ऐसा अनुरोध किया गया हो, माध्यस्थम न्यायाधिकरण को मध्यस्थ कार्यवाही पुनः आरंभ करने या ऐसी अन्य कार्रवाई करने का अवसर देने के लिये, जो माध्यस्थम न्यायाधिकरण की राय में माध्यस्थम पंचाट को अपास्त करने के आधार को समाप्त कर देगी, जो अपने द्वारा निर्धारित समयावधि के लिये कार्यवाही स्थगित कर सकता है।
  • धारा 34 (5) में यह प्रावधान है कि इस धारा के अंतर्गत आवेदन किसी पक्षकार द्वारा दूसरे पक्षकार को पूर्व सूचना जारी करने के पश्चात ही दाखिल किया जाएगा और ऐसे आवेदन के साथ आवेदक द्वारा उक्त अपेक्षा के अनुपालन का शपथ-पत्र संलग्न किया जाएगा।
  • धारा 34 (6) में यह प्रावधान है कि इस धारा के अंतर्गत आवेदन का शीघ्रता से और किसी भी स्थिति में, उपधारा (5) में निर्दिष्ट सूचना दूसरे पक्षकार को तामील किये जाने की तिथि से एक वर्ष की अवधि के भीतर निपटारा किया जाएगा।

माध्यस्थम पंचाट को रद्द करने के संबंध में महत्त्वपूर्ण मामले क्या हैं?

  • मैक डर्मॉट इंटरनेशनल इंक बनाम बर्न स्टैंडर्ड कंपनी लिमिटेड (2006):
    • वर्ष 1996 का अधिनियम न्यायालय की भूमिका को केवल निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिये माध्यस्थम पंचाट की समीक्षा करने तक सीमित करता है।
    • न्यायालय केवल धोखाधड़ी, मध्यस्थों द्वारा पक्षपात या प्राकृतिक न्याय के उल्लंघन के मामलों में हस्तक्षेप कर सकते हैं।
    • न्यायालय माध्यस्थम पंचाट में त्रुटियों को ठीक नहीं कर सकते हैं, लेकिन उन्हें रद्द कर सकते हैं, जिससे पक्षकारों को यदि चाहें तो माध्यस्थम को पुनः आरंभ करने की अनुमति मिलती है।
    • सीमित हस्तक्षेप न्यायालय के अधिकार क्षेत्र पर माध्यस्थम की समीचीनता और अंतिमता के लिये पक्षकारों की प्राथमिकता के अनुरूप है।
  • भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण बनाम मीस्नर हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी (2023):
    • उच्चतम न्यायालय ने अधिनियम के तहत माध्यस्थम पंचाट में सीमित न्यायिक हस्तक्षेप के सिद्धांत को दोहराया।
    • माध्यस्थम पंचाट को चुनौती देने के आधार मूल भारतीय कानून के उल्लंघन, अधिनियम के उल्लंघन या अनुबंध की शर्तों के उल्लंघन तक सीमित हैं।
    • न्यायालय ने ऐसी चुनौतियों के आधार के रूप में "पेटेंट अवैधता" की अवधारणा पर ज़ोर दिया।
    • धारा 34 के तहत न्यायिक समीक्षा का दायरा संकीर्ण है, तथा धारा 37 के तहत अपीलीय शक्तियाँ और भी अधिक सीमित हैं।
    • माध्यस्थम पंचाट को तब तक बरकरार रखा जाना चाहिये जब तक कि वे सार्वजनिक नीति का उल्लंघन न करें या स्पष्ट विधिक त्रुटियाँ प्रदर्शित न करें।
    • यह फैसला UHL पॉवर कंपनी लिमिटेड बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य और NHAI  बनाम ITD सीमेंटेशन (इंडिया) लिमिटेड जैसे पिछले उदाहरणों के अनुरूप है।
    • यह फैसला अनुबंधों की व्याख्या करने में मध्यस्थों की स्वायत्तता का सम्मान करता है और माध्यस्थम पंचाट में न्यायालय की भागीदारी को सीमित करता है।