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सिविल कानून

CPC की धारा 151 के अंतर्गत अंतरिम भरण-पोषण

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 05-Sep-2024

ABC बनाम XYZ

"जब संबंध विवादग्रस्त नहीं है, तो न्यायालय को अपनी अंतर्निहित शक्ति का प्रयोग करते हुए भरण-पोषण देने पर कोई रोक नहीं है।"

न्यायमूर्ति वी. लक्ष्मीनारायणन

स्रोत: मद्रास उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में मद्रास उच्च न्यायालय ने ABC बनाम XYZ के मामले में माना है कि मुस्लिम महिलाओं को सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 151 के अंतर्गत अंतरिम भरण पोषण का दावा करने का अधिकार है, जिन्होंने मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम, 1939 (DMM) के अंतर्गत तलाक के लिये आवेदन किया है।

ABC बनाम XYZ मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्तमान मामले में, याचिकाकर्त्ता पति है एवं प्रतिवादी पत्नी है।
  • प्रतिवादी ने याचिकाकर्त्ता को छोड़ दिया क्योंकि वह उसके साथ अनुचित व्यवहार करता था और शारीरिक एवं मौखिक रूप से उस पर हमला किया करता था।
    • बाद में वह पुनः याचिकाकर्त्ता के पास आई, तब याचिकाकर्त्ता ने उसे आश्वासन दिया कि वह ऐसा दोबारा नहीं करेगा।
  • कुछ समय बाद याचिकाकर्त्ता ने फिर से उसके एवं उसकी बेटी के साथ दुर्व्यवहार किया। यह शारीरिक, मौखिक, भावनात्मक एवं आर्थिक रूप से दुर्व्यवहार था। उसने कहा कि वह अपनी बेटी को अपने साथ अपने गृहनगर ले जाएगा, जिसके लिये प्रतिवादी ने मना कर दिया, जिससे पति क्रोधित हो गया, जिसने उसे बुरी तरह पीटा और बेटी को बेलगाम ले गया।
  • प्रतिवादी को अपने पति के हाथों बहुत कष्ट सहना पड़ा, इसलिये उसने DMM अधिनियम की धारा 2(viii) के अंतर्गत कार्यवाही शुरू करने का निर्णय किया।
  • प्रतिवादी ने याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध भरण-पोषण के लिये मामला दायर किया क्योंकि उसके पास कमाने का कोई साधन नहीं था क्योंकि उसकी नौकरी चली गई थी तथा वह आर्थिक संकट से जूझ रही थी, जबकि उसका पति अच्छा वेतन कमाता है और वह अपनी बेटी की शिक्षा के लिये भी भरण-पोषण चाहती थी।
  • याचिकाकर्त्ता ने सभी आरोपों से मना किया और कहा कि यह प्रतिवादी ही था जो याचिकाकर्त्ता को थप्पड़ मारता था एवं उसके साथ दुर्व्यवहार करता था।
  • यह मामला ट्रायल कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत किया गया और न्यायालय ने पत्नी/प्रतिवादी को सम्मान एवं आराम से रहने के लिये 20,000/- रुपए प्रतिमाह का भरण-पोषण देने का आदेश दिया तथा मुकदमेबाज़ी की लागत के रूप में 10,000/- रुपए दिये।
  • इस निर्णय से व्यथित होकर याचिकाकर्त्ता/पति ने मद्रास उच्च न्यायालय के समक्ष वर्तमान पुनरीक्षण याचिका दायर की।
  • प्रतिवादी को अंतरिम भरण-पोषण देने में ट्रायल कोर्ट द्वारा CPC की धारा 151 की प्रयोज्यता को चुनौती देने के लिये याचिका दायर की गई थी।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा कि जब पक्षों के बीच संबंध स्वीकार कर लिया जाता है तथा मामले के गुण-दोष के आधार पर न्यायालय CPC की धारा 151 के अंतर्गत सशक्त न्यायालय की प्रथम दृष्टया संतुष्टि पर पत्नी एवं बच्चों को भरण-पोषण प्रदान कर सकता है।
    • न्यायालय ने के मामले पर विश्वास किया। हाजी महोमेद अब्दुल रहमान बनाम ताजुन्निसा बेगम एवं अन्य (1952)
  • उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि भरण-पोषण देने का उद्देश्य दोनों पक्षों को समान अवसर प्रदान करना है।
    • यदि न्यायालय के पास ऐसी शक्ति नहीं है तो यह न्याय, समानता एवं अच्छे विवेक के विरुद्ध होगा।
  • मद्रास उच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि प्राचीन इस्लामी कानून के साथ-साथ DMM अधिनियम के अंतर्गत भी बेटी एवं पत्नी का भरण-पोषण करना पति का कर्त्तव्य है।
  • उच्च न्यायालय ने DMM अधिनियम की धारा 2 (ii) का भी उल्लेख किया, जिसमें कहा गया है कि यदि पति दो वर्ष की अवधि तक अपनी पत्नी का भरण-पोषण नहीं करता है तो यह तलाक का आधार है।
    • इसका तात्पर्य यह है कि अपनी पत्नी का भरण-पोषण करना पति का दायित्व है।
  • मद्रास उच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 के अनुसार पत्नी कई राहतों का दावा कर सकती है।
  • उपरोक्त टिप्पणियों के आधार पर मद्रास उच्च न्यायालय ने वर्तमान याचिका को खारिज कर दिया और ट्रायल कोर्ट के आदेश की पुष्टि की।

CPC की धारा 151 क्या है?

परिचय:

  • यह धारा उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्ति से संबंधित है।
  • इसमें प्रक्रियात्मक नियमों से उत्पन्न होने वाली कठिनाइयों को दूर करने के लिये उच्च न्यायालय की शक्ति के विषय में प्रावधान है।
  • इस शक्ति का प्रयोग न्यायालय द्वारा तब किया जाना है जब कोई स्पष्ट प्रावधान प्रदान नहीं किया गया हो।

CPC की धारा 151 की प्रयोज्यता:

  • न्यायालय को समानता, न्याय एवं अच्छे विवेक को सुनिश्चित करने के लिये निहित शक्ति का उपयोग करना चाहिये।
  • जब ​​कोई वैकल्पिक उपाय नहीं बचता है तो न्यायालय CPC की धारा 151 के अंतर्गत उत्तराधिकार में मिली शक्ति का उपयोग कर सकता है।
  • यह धारा पक्षकारों को कोई ठोस अधिकार प्रदान नहीं करती है, बल्कि न्याय के दौरान उत्पन्न होने वाली प्रक्रियागत असमानताओं को दूर करने में सहायता करती है।

CPC की धारा 151:

  • इसमें न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों की सुरक्षा का उल्लेख किया गया है।
    • इस संहिता की कोई भी बात न्यायालय की ऐसे आदेश देने की अंतर्निहित शक्ति को सीमित करने या अन्यथा प्रभावित करने वाली नहीं समझी जाएगी, जो न्याय के उद्देश्यों के लिये या न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये आवश्यक हो सकते हैं।

CPC की धारा 151 पर आधारित निर्णयज विधियाँ:

  • हाजी मोहम्मद अब्दुल रहमान बनाम ताजुन्निसा बेगम एवं अन्य (1952):
    • इस मामले में यह माना गया कि जब पक्षों के बीच संबंध स्वीकार कर लिया जाता है, तो न्यायालय के पास अंतरिम भरण-पोषण देने की अंतर्निहित शक्ति होती है।
  • सावित्री बनाम गोविंद सिंह रावत (1985):
    • इस मामले में न्यायालय ने कहा कि जब भी कोई कार्य विधि द्वारा किया जाना अपेक्षित हो तथा उस कार्य को करना तब तक असंभव पाया जाए जब तक कि व्यक्त शर्तों में प्राधिकृत न किया गया कार्य भी न किया जाए, तो उस अन्य कार्य को आवश्यक आशय द्वारा पूरा किया जाएगा।
  • राम चंद बनाम कन्हयालाल (1966):
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि CPC की धारा 151 के अंतर्गत निहित शक्तियों का प्रयोग न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये भी किया जा सकता है।
  • महेंद्र मणिलाल नानावती बनाम सुशीला (1965):
    • उच्चतम न्यायालय ने न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों की प्रकृति पर अपना दृष्टिकोण व्यक्त करते हुए कहा कि CPC सिविल प्रकृति के वाद की कार्यवाही की प्रक्रियात्मक स्थितियों से निपटने के लिये विधि का एक विशेष टुकड़ा है।
    • संहिता के अंतर्गत ही, कार्यवाही के दौरान उभरती स्थितियों के अनुसार न्यायालयों को कुछ छिपी हुई शक्तियाँ प्रदान की जाती हैं तथा न्यायालय स्पष्ट प्रावधानों के अभाव में उनका प्रयोग कर सकते हैं।
    • संहिता में जहाँ स्पष्ट प्रावधान हैं, वहाँ न्यायालयों को ऐसी शक्तियों का प्रयोग करने से रोक दिया गया है।
  • अब्दुल रहीम अत्तर बनाम अतुल अंबालाल बारोट (2005):
    • न्यायालय ने कहा कि अंतर्निहित शक्तियों का उपयोग किसी भी विधि के अंतर्गत दिये गए प्रावधान को निष्प्रभावी करने के लिये नहीं किया जा सकता।

मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम, 1939 का अवलोकन

  • यह अधिनियम मुस्लिम महिलाओं की सामाजिक स्थिति को सुधारने एवं बेहतर बनाने के लिये लाया गया था।
  • तलाक देते समय मुस्लिम महिलाओं पर होने वाली कठिनाइयों को कम करने के लिये यह अधिनियम लाया गया था।
  • पहले मुस्लिम महिलाओं का निकाह त्यागने पर स्वतः ही समाप्त हो जाता था। इस अधिनियम ने महिलाओं पर होने वाली ऐसी कठिनाइयों को रोका।
  • इस अधिनियम में कुल छह धाराएँ हैं।
  • इस अधिनियम की धारा 2 में तलाक के लिये स्पष्ट रूप से नौ आधार दिये गए हैं, जो मुस्लिम पत्नियों को होने वाले उत्पीड़न एवं कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए बनाए गए हैं, जो इस प्रकार हैं:
    • जब पति का पता चार वर्ष तक पता न चला हो।
    • जब पति ने दो वर्ष तक उसकी देखभाल करने में लापरवाही बरती हो या उसे देने में विफल रहा हो।
    • जब पति को सात वर्ष या उससे अधिक की कैद की सज़ा दी गई हो।
    • जब पति बिना किसी उचित कारण के तीन वर्ष तक अपने दांपत्य दायित्वों का पालन करने में विफल रहा हो।
    • जब पति विवाह के समय नपुंसक था तथा अब भी नपुंसक है।
    • जब पति दो वर्ष की अवधि से पागल हो या किसी भयंकर यौन रोग से पीड़ित हो।
    • जब वह अपने पिता या अन्य अभिभावक द्वारा पंद्रह वर्ष की आयु प्राप्त करने से पहले विवाहित हो गई हो, तथा अठारह वर्ष की आयु प्राप्त करने से पहले विवाह से मना कर दिया हो।
    • जब पति उसके साथ क्रूरता से पेश आता है।
    • किसी अन्य आधार पर जिसे मुस्लिम विधि के अंतर्गत विवाह विच्छेद के लिये वैध माना जाता है।