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सिविल कानून
आदेश XXI का नियम 99
« »16-Oct-2024
रंजीत के.जी. एवं अन्य बनाम शीबा "वह व्यक्ति जो डिक्री के लिये एक अजनबी माना जाता है, वह आदेश XXI नियम 99 CPC के अनुसार डिक्रीत संपत्ति में स्वतंत्र अधिकार, शीर्षक एवं हित के अपने दावे को बहुत अच्छी तरह से न्याय कर सकता है।" न्यायमूर्ति पंकज मित्तल एवं न्यायमूर्ति आर. महादेवन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, उच्चतम न्यायालय ने रंजीत के.जी. एवं अन्य बनाम शीबा के मामले में यह माना है कि कोई तीसरा पक्ष अपने अधिकारों का दावा करने के लिये मुकदमे के लंबित रहने के दौरान सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश XXI नियम 99 के अंतर्गत वाद दायर कर सकता है।
रंजीत के.जी. एवं अन्य बनाम शीबा मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- वर्तमान मामले में, मूल विवाद एक संपत्ति के इर्द-गिर्द केंद्रित था, जो मूल रूप से अय्यपन (मृतक) की थी, जिसके आठ बच्चे थे।
- अय्यपन ने कुंजन (मृतक) के पक्ष में क्रमशः 1911 एवं 1919 में दो बंधक निष्पादित किये। अय्यपन की मृत्यु के बाद, उनके छह बच्चों ने अपने 6/8 शेयर रघुथमन (तीसरे पक्ष) को उपहार विलेख द्वारा सौंप दिये।
- शेष 2/8 शेयर प्रतिवादी नंबर 1, पद्मनाभन (न्यायिक देनदार) द्वारा प्राप्त किये गए थे।
- बंधककर्त्ता कुंजन की मृत्यु के बाद, उसके अधिकार प्रतिवादी संख्या 1 एवं मूल वादी (डिक्री धारक) पद्माक्षी (जो उस समय अप्राप्तवय था) को अंतरित हो गए।
- प्रतिवादी संख्या 1 ने पद्माक्षी की सहमति के बिना, नानू नामक व्यक्ति के पक्ष में 1,000/- रुपये का बंधक बनाया। नानू ने बाद में अपने अधिकार प्रतिवादी संख्या 10 (वीरन) को सौंप दिये, जिसने बाद में अपने अधिकार रघुनाथम को सौंप दिये।
- पद्माक्षी ने अचल संपत्तियों में अपने अंश के विभाजन एवं अलग कब्जे के लिये ट्रायल कोर्ट में वाद संस्थित किया।
- अंतिम आदेश पारित कर संपत्ति का आधा अंश वादी को आवंटित किया गया तथा प्रतिवादी संख्या 10 को बराबरी एवं अंतःकालीन लाभ के लिये कुछ राशि का भुगतान करने का निर्देश दिया गया।
- वादी ने डिक्री को निष्पादित करने के लिये निष्पादन याचिका दायर की तथा डिक्री के अनुसार संपत्ति का एक अंश वादी को सौंप दिया गया।
- इसके बाद, रघुथमन ने CPC के आदेश XXI नियम 99 के अंतर्गत संपत्ति की पुनः डिलीवरी, निषेधाज्ञा एवं हर्जाने की मांग करते हुए आवेदन दायर किये। तीनों आवेदनों पर संयुक्त रूप से सुनवाई की गई तथा ट्रायल कोर्ट ने उन्हें खारिज कर दिया।
- व्यथित होकर, वही निष्पादन अपीलें केरल उच्च न्यायालय के समक्ष दायर की गईं, जिन्हें भी खारिज कर दिया गया।
- रघुथमन के विधिक प्रतिनिधियों द्वारा उक्त निर्णय की समीक्षा के लिये आवेदन दायर किया गया था, जिस पर उच्च न्यायालय द्वारा पुनः सुनवाई की गई तथा बाद में आवेदन को अनुमति दी गई।
- इसी आदेश को अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष चुनौती दी है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि:
- एक व्यक्ति जो मूल डिक्री का पक्षकार नहीं है (तीसरा पक्ष) उसे सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश XXI नियम 99 के अंतर्गत न्यायालय में अपील करने का अधिकार है, अगर उसे डिक्री के निष्पादन के दौरान संपत्ति से बेदखल कर दिया जाता है।
- आदेश XXI नियम 99 में "कोई भी व्यक्ति" शब्द में एक वादकालीन अंतरिती (कोई व्यक्ति जिसने वाद के लंबित रहने के दौरान संपत्ति में रुचि अर्जित की) शामिल है, जिसे मूल वाद में शामिल नहीं किया गया था।
- एक वादकालीन क्रेता को अपने अधिकारों, शीर्षक, हित एवं संपत्ति के कब्जे की रक्षा करने का अधिकार है।
- जब कोई तीसरा पक्ष संपत्ति की परिदान का विरोध करता है, तो डिक्री धारक पर यह दायित्व होता है कि वह CPC के आदेश 21 नियम 97 के अंतर्गत आवेदन दायर करके उन्हें पक्षकार बनाए।
- एक बार जब आदेश XXI नियम 99 के अंतर्गत आवेदन दायर किया जाता है, तो ट्रायल कोर्ट को CPC के आदेश 21 नियम 101 के अंतर्गत पक्षों के अधिकार, शीर्षक एवं हित सहित सभी प्रतिद्वंद्वी दावों पर विचार करना चाहिये।
- आदेश 21 के नियम 101 विवाद का निर्णय करने के लिये निष्पादन न्यायालय को अनिवार्य बनाकर एक अलग वाद संस्थित करने पर रोक लगाता है।
- विभाजन डिक्री के निष्पादन के लिये परिसीमा अवधि के संबंध में, समय अंतिम डिक्री की तिथि की गणना प्रारंभ होती है, न कि उस तिथि से जब इसे स्टाम्प पेपर पर अंकित किया जाता है। विभाजन के वाद में अंतिम डिक्री का अंकित होना डिक्री की तिथि से संबंधित है।
- कोई पक्ष डिक्री के अंकित होने के लिये स्टाम्प पेपर प्रस्तुत न करने के अपने स्वयं के कार्य द्वारा परिसीमा अवधि के चलने को रोक नहीं सकता है।
- विभाजन डिक्री के निष्पादन के लिये परिसीमा अवधि की शुरुआत स्टाम्प पेपर पर डिक्री के अंकित होने पर आकस्मिक नहीं बनाई जा सकती है।
- इसलिये उच्चतम न्यायालय ने,
- निष्पादन याचिका में पारित आदेश को रद्द करने तथा मामले को नए सिरे से विचार के लिये ट्रायल कोर्ट को वापस भेजने के उच्च न्यायालय के निर्णय की पुष्टि की।
- प्रतिवादियों द्वारा संपत्ति में दावा किये गए स्वतंत्र अधिकार, शीर्षक या हित सहित सभी मुद्दों को ट्रायल कोर्ट द्वारा निर्णयित किये जाने के लिये छोड़ दिया गया।
ऐतिहासिक निर्णय
- विधिक प्रतिनिधि के माध्यम से चिरंजी लाल (मृत) बनाम विधिक प्रतिनिधि के माध्यम से हरि दास (मृत) (2005)
- इस मामले में न्यायालय ने माना कि विभाजन डिक्री के लिये, परिसीमा अवधि अंतिम डिक्री की तिथि से प्रारंभ होती है, न कि जब इसे स्टाम्प पेपर पर अंकित किया जाता है।
- यह निर्णय दिया गया कि कोई पक्ष स्टाम्प पेपर प्रस्तुत न करके परिसीमा अवधि की शुरुआत में विलंब नहीं कर सकता।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि स्टाम्प पेपर पर डिक्री का अंकित होना डिक्री की तिथि से संबंधित है।
- श्रीराम हाउसिंग फाइनेंस एंड इन्वेस्टमेंट (इंडिया) लिमिटेड बनाम ओमेश मिश्रा मेमोरियल चैरिटेबल ट्रस्ट (2022)
- इस मामले में न्यायालय ने निष्पादन कार्यवाही में डिक्री धारक एवं तीसरे पक्ष के अधिकारों के बीच अंतर किया।
- इसने स्पष्ट किया कि केवल डिक्री धारक ही CPC के आदेश XXI नियम 97 के अंतर्गत आवेदन दायर कर सकता है।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि आदेश XXI नियम 99 उस व्यक्ति पर लागू होता है जिसे निष्पादन के दौरान संपत्ति से बेदखल कर दिया गया हो।
- योगेश गोयनका बनाम गोविंद (2024)
- इस मामले में न्यायालय ने स्पष्ट किया कि वादकालीन मामले के दौरान किये गए अंतरण स्वतः ही शून्य नहीं होते।
- यह माना गया कि ऐसे अंतरण लंबित वाद में पक्षकारों के अधिकारों के अधीन हैं।
- न्यायालय ने बाद में अंतरित व्यक्तियों को विधिक कार्यवाही में अपने हितों की रक्षा करने की अनुमति देने के लिये उदार दृष्टिकोण का समर्थन किया।
CPC के अंतर्गत आदेश XXI नियम 99 क्या है?
- आदेश XXI में डिक्री के निष्पादन एवं डिक्री के अंतर्गत भुगतान के आदेश के नियम बताए गए हैं।
- डिक्री शब्द को CPC की धारा 2(2) के अंतर्गत परिभाषित किया गया है जिसमें कहा गया है कि:
- डिक्री का अर्थ है न्यायनिर्णय की औपचारिक अभिव्यक्ति जो, जहाँ तक न्यायालय द्वारा इसे व्यक्त करने का संबंध है, वाद में विवादग्रस्त सभी या किसी भी मामले के संबंध में पक्षों के अधिकारों को निर्णायक रूप से निर्धारित करती है और यह प्रारंभिक या अंतिम हो सकती है। इसमें वादपत्र को अस्वीकार करना एवं धारा 144 के अंतर्गत किसी प्रश्न का निर्धारण करना शामिल माना जाएगा, लेकिन इसमें निम्नलिखित शामिल नहीं होंगे
- कोई भी निर्णय जिसके विरुद्ध अपील किसी आदेश के विरुद्ध अपील के रूप में की जाती है, या
- चूक के लिये बर्खास्तगी का कोई आदेश।
- डिक्री का अर्थ है न्यायनिर्णय की औपचारिक अभिव्यक्ति जो, जहाँ तक न्यायालय द्वारा इसे व्यक्त करने का संबंध है, वाद में विवादग्रस्त सभी या किसी भी मामले के संबंध में पक्षों के अधिकारों को निर्णायक रूप से निर्धारित करती है और यह प्रारंभिक या अंतिम हो सकती है। इसमें वादपत्र को अस्वीकार करना एवं धारा 144 के अंतर्गत किसी प्रश्न का निर्धारण करना शामिल माना जाएगा, लेकिन इसमें निम्नलिखित शामिल नहीं होंगे
नियम 99: डिक्रीधारक या क्रेता द्वारा बेदखली
- यह बताता है कि:
- उपनियम (1) के अनुसार, जहाँ निर्णय ऋणी के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति को ऐसी संपत्ति के कब्जे के लिये डिक्री के धारक द्वारा अचल संपत्ति से बेदखल कर दिया जाता है या जहाँ ऐसी संपत्ति डिक्री के निष्पादन में उसके क्रेता द्वारा बेची गई है, तो वह ऐसे बेदखली की शिकायत करने के लिये न्यायालय में आवेदन कर सकता है।
- उपनियम (2) के अनुसार, जहाँ ऐसा कोई आवेदन किया जाता है, वहाँ न्यायालय इसमें निहित प्रावधानों के अनुसार आवेदन पर न्यायनिर्णयन करेगा।
डिक्री का धारक
- CPC के आदेश XXI नियम 10 में प्रयुक्त डिक्री धारक शब्द बहुत व्यापक है तथा इसमें न केवल डिक्री धारक शामिल है, बल्कि डिक्री के अंतरिती एवं डिक्री धारक के विधिक प्रतिनिधि को भी शामिल किया गया है। इसमें उन पक्षों को भी ध्यान में रखा जाता है, जिनका नाम डिक्री पर अंकित है।
डिक्री धारक
- CPC की धारा 2(3) डिक्री धारक शब्द को परिभाषित करती है।
- डिक्री धारक का अर्थ है कोई भी व्यक्ति जिसके पक्ष में कोई डिक्री पारित की गई हो या निष्पादन योग्य कोई आदेश दिया गया हो।
नोट: यद्यपि डिक्री धारक एवं डिक्री धारक शब्द समान प्रतीत होते हैं, लेकिन दोनों शब्दों के बीच विधिक अंतर है।
निर्णीत ऋणी
- न्याय-देनदार से तात्पर्य ऐसे किसी व्यक्ति से है जिसके विरुद्ध कोई डिक्री पारित की गई हो या निष्पादन योग्य कोई आदेश दिया गया हो।
- इस परिभाषा में मृतक न्याय-देनदार का विधिक प्रतिनिधि शामिल नहीं है।