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आपराधिक कानून

यौन उत्पीड़न के आरोपों की प्रारंभिक जाँच

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 06-Nov-2024

XXX बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य 

“धारा 156(3) CrPC के अधीन आवेदन में पीड़िता द्वारा लगाए गए आरोपों की प्रारंभिक विवेचना पुलिस को सौंपना और प्रस्तावित आरोपी के पक्ष में प्रस्तुत पुलिस रिपोर्ट पर विश्वास करना न तो वांछनीय है और न ही वैध है।”

न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्र

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने XXX बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में माना है कि वर्तमान मामले में, जहाँ आरोप यौन उत्पीड़न एवं छेड़छाड़ के थे, पुलिस को प्रारंभिक जाँच करने का निर्देश देना तथा आरोपी के पक्ष में पुलिस रिपोर्ट पर विश्वास करना न तो वांछित है और न ही वैध है।

XXX बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्तमान मामले में आवेदक (पीड़िता) ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 156 (3) के अधीन एक आवेदन दाखिल किया। 
  • पीड़िता ने आरोप लगाया कि जब वह स्कूल में अपना शिक्षण कार्य समाप्त करने के बाद अपने कार्यालय की ओर जा रही थी, तो अचानक विपक्षी ने उसके साथ दुर्व्यवहार किया तथा अश्लील कृत्य भी किया।
  • विपक्षी पक्ष ने उसे अनुचित तरीके से स्पर्श करने और उसके साथ छेड़छाड़ करने की कोशिश की तथा इस तरह उसकी शील भंग की।
  • उसकी चीखें सुनकर उसका पति मौके पर पहुँच गया जबकि विपक्षी पक्ष भागने की कोशिश करने लगा तथा उसने पीड़िता के पति को जान से मारने की धमकी भी दी।
  • पीड़िता के प्रति विपक्षी पक्ष का यह एक बहुत ही सामान्य कृत्य था, जिसकी शिकायत पुलिस में भी की गई थी लेकिन कोई कार्यवाही नहीं की गई।
  • CrPC की धारा 156(3) के अधीन मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (CJM) के समक्ष एक आवेदन प्रस्तुत किया गया। 
  • प्रारंभिक जाँच रिपोर्ट के आधार पर CJM ने यह कहते हुए आवेदन खारिज कर दिया कि:
    • यह आवेदन आवेदक एवं उसके पति की विपक्षी पक्ष के साथ व्यक्तिगत शत्रुता के कारण किया गया है। 
    • रिपोर्ट में विपक्षी पक्ष के विरुद्ध कोई साक्ष्य नहीं है। 
    • यह कृत्य किसी भी संज्ञेय अपराध की श्रेणी में नहीं आता है।
  • मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के निर्णय से व्यथित होकर वर्तमान पुनरीक्षण आवेदन इलाहाबाद उच्च न्यायालय में प्रस्तुत किया गया है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि:
    • उदाहरण के आधार पर प्रारंभिक जाँच का दायरा यह पता लगाना है कि प्राप्त सूचना से कोई संज्ञेय अपराध सामने आता है या नहीं, न कि सत्यता की जाँच करना। 
    • प्रारंभिक जाँच मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों के आधार पर की जाती है।
    • उदाहरणों देते हुए यह पाया गया कि CrPC की धारा 156(3) के अधीन आवेदन पर मजिस्ट्रेट आपराधिक अभियोजन प्रारंभ करने से पहले प्रारंभिक जाँच के लिये निर्देश दे सकता है। 
    • मजिस्ट्रेट को कोई भी आदेश पारित करते समय दिमाग लगाने की आवश्यकता होती है।
    • मामले को लगाए गए आरोपों, घटना के समय और यदि कोई संज्ञेय अपराध दूर से भी बनता है, तो उसे ध्यान में रखते हुए निपटान किया जाना चाहिये।
    • मजिस्ट्रेट को मामले के आरोपों की प्रकृति की पुष्टि करने के लिये पहल करनी चाहिये तथा वित्तीय क्षेत्र, वैवाहिक/पारिवारिक विवाद, वाणिज्यिक अपराध, चिकित्सा उपेक्षा के मामले, भ्रष्टाचार के मामले या आपराधिक अभियोजन प्रारंभ करने में असामान्य विलंब/आलस्य वाले मामलों में प्रारंभिक जाँच की अनुमति दी गई है। (सूची संपूर्ण नहीं है)।
  • यह माना गया कि वर्तमान मामले में जहाँ आरोप यौन उत्पीड़न एवं छेड़छाड़ के थे, पुलिस को प्रारंभिक जाँच करने का निर्देश देना तथा आरोपी के पक्ष में पुलिस रिपोर्ट पर विश्वास करना न तो वांछित है और न ही वैध है। 
  • उपरोक्त टिप्पणियों के आधार पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने CJM द्वारा पारित आदेश को रद्द कर दिया और मामले को उनके पास वापस भेज दिया तथा CJM को निर्देश दिया कि वे आवेदक को उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित न्यायिक पूर्वनिर्णय के अनुपालन में सुनवाई का अवसर प्रदान करें।

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 175(3) क्या है?

  • परिचय:
    • BNSS की धारा 175(3) में यह प्रावधानित किया गया है कि संहिता की धारा 210 के अधीन संज्ञान लेने के लिये सशक्त मजिस्ट्रेट संज्ञेय अपराध के लिये जाँच का आदेश दे सकता है। 
    • BNSS की धारा 175(3) के अधीन एक आवेदन संज्ञेय अपराध प्रकटन करता है, फिर संबंधित मजिस्ट्रेट का कर्त्तव्य है कि वह FIR के पंजीकरण का निर्देश दे, जिसकी विवेचना जाँच एजेंसी द्वारा विधि के अनुसार की जानी है।
    • यदि प्राप्त सूचना से संज्ञेय अपराध का प्रकटन नहीं होता है, लेकिन जाँच की आवश्यकता का संकेत मिलता है, तो यह पता लगाने के लिये प्रारंभिक जाँच की जा सकती है कि संज्ञेय अपराध का प्रकटन हुआ है या नहीं। 
    • कोई भी न्यायिक मजिस्ट्रेट अपराध का संज्ञान लेने से पहले CrPC की धारा 175(3) के अधीन जाँच का आदेश दे सकता है।
  • आवश्यक तत्त्व 
    • धारा 175 (3) के अधीन पुलिस जाँच का आदेश देने की शक्ति संज्ञान-पूर्व चरण में प्रयोग की जा सकती है। 
    • धारा 175 (3) के अधीन शक्ति का प्रयोग मजिस्ट्रेट द्वारा अपराध का संज्ञान लेने से पहले किया जा सकता है। 
    • धारा 175 की उप-धारा (3) के अधीन किया गया आदेश पुलिस को जाँच की अपनी पूर्ण शक्तियों का प्रयोग करने के लिये एक अनिवार्य अनुस्मारक या सूचना की प्रकृति का होता है।

निर्णयज विधियाँ 

  • हर प्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2006)
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यदि CrPC की धारा 156(3) के अधीन आवेदन से संज्ञेय अपराध का प्रकटन होता है तथा CrPC की धारा 156(3) के चरण में, जो कि संज्ञेय चरण है, एक बार आवेदन के माध्यम से संज्ञेय अपराध का प्रकटन हो जाने पर, अपराधों के पंजीकरण एवं जाँच के लिये आदेश देना संबंधित न्यायालय का कर्त्तव्य है, क्योंकि अपराध का पता लगाना एवं अपराध की रोकथाम पुलिस का सबसे महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्य है, न कि न्यायालय का।
  • ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश सरकार (2014)
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यदि प्राप्त सूचना से संज्ञेय अपराध का प्रकटन नहीं होता, परंतु जाँच की आवश्यकता का संकेत मिलता है, तो प्रारंभिक जाँच केवल यह पता लगाने के लिये की जा सकती है कि संज्ञेय अपराध का प्रकटन हुआ है या नहीं।
  • प्रियंका श्रीवास्तव एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2015)
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि इस देश में एक ऐसा चरण आ गया है जहाँ दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के आवेदन को आवेदक द्वारा विधिवत शपथ पत्र द्वारा समर्थित किया जाना है जो मजिस्ट्रेट के अधिकार क्षेत्र का आह्वान करना चाहता है।