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पारिवारिक कानून

संरक्षकत्व का अधिकार

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 16-Jan-2025

अमित धामा बनाम श्रीमती पूजा और 2 अन्य

"केवल इसलिये कि जब दम्पति पृथक हुए थे, उस समय मां को अपनी बेटी की संगति से वंचित रखा गया था तथा तथ्य यह है कि बेटी कुछ समय तक पिता की संगति में रही थी, यह तथ्य अपने आप में अप्राप्तवय बेटी की संरक्षकत्व उसकी मां को देने से मना करने के लिये पर्याप्त कारण नहीं होगा, जो उसकी नैसर्गिक अभिभावक है।"

न्यायमूर्ति अश्विनी कुमार मिश्रा एवं न्यायमूर्ति डोनाडी रमेश

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अमित धामा बनाम श्रीमती पूजा एवं दो अन्य के मामले में यह माना कि केवल इसलिये कि बेटी कुछ समय से पिता की संरक्षकत्व में थी, मां को संरक्षकत्व देने से मना करने के लिये पर्याप्त कारण नहीं था।

अमित धामा बनाम श्रीमती पूजा एवं दो अन्य के मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • अमित धामा (अपीलकर्त्ता-पति) एवं श्रीमती पूजा (प्रतिवादी-पत्नी) का विवाह 23 मई 2010 को संपन्न हुआ। 
  • विवाह से दो बालक पैदा हुए:
    • 2 अप्रैल 2013 को एक बेटे का जन्म हुआ। 
    • 29 सितंबर 2020 को एक बेटी का जन्म हुआ।
  • दोनों पक्षों के बीच वैवाहिक मतभेद उत्पन्न हो गए, जिसके कारण वे अलग हो गए तथा पृथक रहने लगे। 
  • पति (अपीलकर्त्ता) ने हिंदू विवाह अधिनियम 1955 (HMA) की धारा 13 के अंतर्गत विवाह-विच्छेद की कार्यवाही आरंभ की है, जो लंबित है। 
  • बेटा वर्तमान में फरीदाबाद के एक बोर्डिंग स्कूल में अध्ययनरत है, जहाँ सभी शैक्षणिक व्यय पिता द्वारा वहन किये जाते हैं।
  • 4 वर्ष एवं 3 महीने की अप्राप्तवय बेटी पिता के संरक्षकत्व में थी।
  • पत्नी (प्रतिवादी) ने संरक्षकत्व एवं प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 (G & W) की धारा 7 एवं 12 के अंतर्गत अप्राप्तवय बेटी के संरक्षकत्व के लिये याचिका संस्थित की। (जी एंड डब्ल्यू)।
  • कुटुंब न्यायालय ने 31 अगस्त 2024 को एकपक्षीय आदेश पारित कर अप्राप्तवय बेटी का संरक्षकत्व मां को दे दी।
  • पति ने कुटुंब न्यायालय के आदेश को चुनौती देते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय में प्रथम अपील संस्थित की, जिसमें कहा गया कि:
    • उन्होंने अप्राप्तवय बेटी का संरक्षकत्व उसकी मां को देने का निर्देश दिया। 
    • न्यायालय ने माता-पिता दोनों को पंद्रह दिन के अंतराल पर मिलने का अधिकार दिया।
  • पत्नी स्नातक है और फिलहाल अपने माता-पिता के साथ रहती है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं:
    • न्यायालय ने पक्षों के बीच सौहार्दपूर्ण समाधान की संभावना तलाशने के लिये कई बार प्रयास किया, लेकिन वह असफल रहा। 
    • न्यायालय ने कार्यवाही के दौरान बच्चों से सीधे बातचीत की। 
  • मुख्य विधिक अवलोकन:
    • विधिक तौर पर माँ को 5 वर्ष से कम आयु के अप्राप्तवय बच्चों की नैसर्गिक अभिभावक माना जाता है।
    • बाल संरक्षकत्व के मामलों में प्राथमिक चिंता बालक का कल्याण एवं भलाई है।
    • संरक्षकत्व हस्तांतरण का मनोवैज्ञानिक तनाव, प्रासंगिक होते हुए भी, अन्य हितों के साथ संतुलित होना चाहिये।
  • मामले के संबंध में विनिर्दिष्ट टिप्पणियाँ:
    • माँ, जो स्नातक है और अपने माता-पिता के साथ रहती है, को अनुकूल माना गया। 
    • माँ के विरुद्ध कोई ऐसा आरोप नहीं लगाया गया जिससे संकेत मिलता हो कि उसकी संरक्षकत्व में बेटी के कल्याण से समझौता किया जाएगा। 
    • इस तथ्य पर विचार किया गया कि दोनों बालक माँ से दूर थे।
    • न्यायालय ने पाया कि चार वर्ष की बेटी की विभिन्न शारीरिक, भावनात्मक एवं मनोवैज्ञानिक आवश्यकताएँ माँ की देखरेख में बेहतर तरीके से पूरी की जा सकती हैं। 
    • न्यायालय ने पिता की इस तर्क को खारिज कर दिया कि अगर संरक्षकत्व माँ को सौंप दी गई तो बेटी को आघात पहुँचेगा। 
    • न्यायालय ने कहा कि सिर्फ़ इसलिये कि बेटी कुछ समय से पिता की संरक्षकत्व में थी, माँ को संरक्षकत्व देने से मना करने के लिये पर्याप्त कारण नहीं था।
    • उच्च न्यायालय ने कुटुंब न्यायालय के पाक्षिक मुलाकात के अधिकार के आदेश को यथावत रखा तथा पक्षकारों को आवश्यकता पड़ने पर मुलाकात की शर्तों में संशोधन की अनुमति दी।

बालक की अंतरिम संरक्षकत्व के संबंध में विधि क्या है?

संरक्षकत्व एवं प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 की धारा 12:

  • यह धारा अप्राप्तवय को प्रस्तुत करने तथा उसके शरीर एवं संपत्ति की अंतरिम सुरक्षा के लिये अंतरिम आदेश देने की शक्ति से संबंधित है। 
  • इस धारा की उपधारा (1) में यह प्रावधान है कि न्यायालय निर्देश दे सकता है कि अप्राप्तवय का संरक्षकत्व धारण करने वाला व्यक्ति, यदि कोई हो, उसे ऐसे स्थान एवं समय पर तथा ऐसे व्यक्ति के समक्ष प्रस्तुत करेगा या प्रस्तुत कराएगा जिसे वह नियुक्त करे, तथा अप्राप्तवय के शरीर या संपत्ति का अस्थायी संरक्षकत्व एवं सुरक्षा के लिये ऐसा आदेश दे सकता है जिसे वह उचित समझे।
  • इस धारा की उपधारा (2) में यह प्रावधान है कि यदि अप्राप्तवय महिला है, जिसे सार्वजनिक रूप से उपस्थित होने के लिये बाध्य नहीं किया जाना चाहिये, तो उपधारा (1) के अंतर्गत उसके प्रस्तुत होने के निर्देश में उसे देश की प्रथाओं एवं रीतियों के अनुसार प्रस्तुत किये जाने की अपेक्षा की जाएगी। 
  • उपधारा (3) में यह प्रावधान है कि इस धारा का कोई भी तथ्य निम्नलिखित को अधिकृत नहीं करेगी-
    • न्यायालय द्वारा किसी अप्राप्तवय लड़की को उसके पति होने के आधार पर उसका संरक्षक होने का दावा करने वाले व्यक्ति की अस्थायी संरक्षकत्व में रखना, जब तक कि वह अपने माता-पिता, यदि कोई हो, की सहमति से पहले से ही उसकी संरक्षकत्व में न हो, या
    • कोई भी व्यक्ति जिसे अप्राप्तवय की संपत्ति की अस्थायी संरक्षकत्व एवं प्रतिपाल्यता सौंपी गई हो, वह संपत्ति पर कब्जे वाले किसी भी व्यक्ति को विधि के सम्यक् क्रम के अतिरिक्त किसी अन्य तरीके से बेदखल कर सकता है।

बाल कल्याण का सिद्धांत क्या है?

  • हिंदू अप्राप्तवयता एवं संरक्षकता अधिनियम, 1956 (HMGA) की धारा 13:
    • इस धारा में यह प्रावधान है कि न्यायालय द्वारा किसी व्यक्ति को हिन्दू अवयस्क का संरक्षक नियुक्त या घोषित करते समय अवयस्क का कल्याण सर्वोपरि माना जाएगा।
  • संरक्षकत्व एवं प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 की धारा 17:
    • यह धारा संरक्षक नियुक्त करते समय विचार किये जाने वाले मामलों का प्रावधान करती है। 
    • धारा 17 (1) में यह प्रावधान है कि किसी अप्राप्तवय के संरक्षक की नियुक्ति या घोषणा करते समय न्यायालय, इस धारा के प्रावधानों के अधीन रहते हुए, इस तथ्य से निर्देशित होगा कि अप्राप्तवय जिस विधि के अधीन है, उसके अनुरूप परिस्थितियों में अप्राप्तवय के कल्याण के लिये क्या प्रतीत होता है।
    • धारा 17 (2) में यह प्रावधान है कि अप्राप्तवय के कल्याण के विषय में विचार करते समय न्यायालय को अप्राप्तवय की आयु, लिंग एवं धर्म, प्रस्तावित अभिभावक के चरित्र एवं क्षमता तथा अप्राप्तवय से उसके नातेदारों की निकटता, मृतक माता-पिता की इच्छाएँ, यदि कोई हों, तथा प्रस्तावित अभिभावक के अप्राप्तवय या उसकी संपत्ति के साथ मौजूदा या पिछले संबंधों को ध्यान में रखना होगा।
    • धारा 17 (3) में प्रावधान है कि यदि अप्राप्तवय इतना बड़ा है कि वह बुद्धिमानी से अपनी पसंद बना सके, तो न्यायालय उस पसंद पर विचार कर सकता है। 
    • धारा 17 (5) में प्रावधान है कि न्यायालय किसी व्यक्ति को उसकी इच्छा के विरुद्ध अभिभावक नियुक्त या घोषित नहीं करेगा।

बालक के संरक्षकत्व से संबंधित मामले क्या हैं?

  • शाज़िया अमन खान एवं अन्य बनाम उड़ीसा राज्य (2024):
    • बालक की प्रतिभा एवं व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के लिये बालक की अनुरक्षणीयता एवं सुरक्षा एक आवश्यक तत्त्व है।
    • विधि का एक और सिद्धांत जो बालक के संरक्षकत्व के संदर्भ में स्थापित है, वह है बालक की इच्छा, अगर वह सक्षम है।
    • न्यायालय ने माना कि बालक के कल्याण को देखा जाना चाहिये न कि पक्षों के अधिकारों को।
  • आशीष रंजन बनाम अनुपम टंडन (2010):
    • यह एक सुस्थापित सिद्धांत है कि संरक्षकत्व के प्रश्न का निर्धारण करते समय बालक के कल्याण को उच्चत्तम महत्व दिया जाना चाहिये, न कि संविधि के अंतर्गत माता-पिता के अधिकारों को।
    • बालक के कल्याण पर विचार करते समय, "बालक के नैतिक एवं नैतिक कल्याण के साथ-साथ उसकी शारीरिक भलाई को भी न्यायालय द्वारा तौला जाना चाहिये"
    • बालक को संपत्ति या वस्तु के रूप में नहीं माना जा सकता है तथा इसलिये, ऐसे मुद्दों को न्यायालय द्वारा प्रेम, स्नेह एवं भावनाओं के साथ सावधानी एवं सतर्कता के साथ मानवीय स्पर्श के साथ संभाला जाना चाहिये।
  • कर्नल रमनीश पाल सिंह बनाम सुगंधी अग्रवाल (2024):
    • न्यायालय ने कहा कि संरक्षकत्व के मामले पर निर्णय निम्नलिखित कारकों को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिये:
      • अप्राप्तवय बच्चों को उपलब्ध कराए जाने वाले सामाजिक-आर्थिक एवं शैक्षिक अवसर; 
      • बालकों की स्वास्थ्य सेवा एवं समग्र कल्याण बढ़ते किशोरों के लिये अनुकूल भौतिक परिवेश प्रदान करने की क्षमता, 
      • लेकिन अप्राप्तवय बालकों की प्राथमिकता को भी ध्यान में रखना।