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आपराधिक कानून

एक ही घटना के लिये दुबारा FIR

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 15-Oct-2024

संगीता मिश्रा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं 6 अन्य

“जहाँ अपराध पहले FIR के दायरे में नहीं आता है, वहाँ दूसरी FIR की अनुमति होगी।”

न्यायमूर्ति मंजू रानी चौहान

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने संगीता मिश्रा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं 6 अन्य के मामले में माना है कि दूसरी प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) तभी स्वीकार्य है जब उसमें उसी मामले में प्राप्त निष्कर्षों एवं साक्ष्यों के भिन्न संस्करण हों जिसके लिये पहली FIR दर्ज की गई थी।

संगीता मिश्रा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं 6 अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्तमान मामले में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 302 एवं 201 के अधीन FIR दर्ज की गई थी।
  • आरोप लगाया गया था कि एक अज्ञात व्यक्ति का जला हुआ शव मिला था तथा पोस्टमार्टम रिपोर्ट के माध्यम से यह पाया गया कि उसकी हत्या गला घोंटकर की गई थी और साक्ष्य मिटाने के लिये शव को जला दिया गया था।
  • पुलिस अधिकारी द्वारा विवेचना के बाद शव की पहचान आवेदक एवं उसके बेटे द्वारा की गई, तथा घटना से पहले ही उनके द्वारा गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराई गई थी।
  • यह कहा गया कि आवेदक के ससुर ने अपनी संपत्ति के संबंध में पारिवारिक समझौता किया था तथा अपने बेटों के बीच हिस्सा बांट दिया था, जो आवेदक या उसके पति के ज्ञान में नहीं था।
  • आवेदिका के पति, ससुर, जेठ व देवर के मध्य विवाद उत्पन्न हो गया, अतः आवेदिका की सास द्वारा आवेदिका को पारिवारिक समझौते की शर्त के अनुपालन हेतु विधिक नोटिस भेजा गया।
  • उक्त विवाद को सुलझाने के लिये चन्द्र मोहन (आवेदिका का देवर) उसके पति के पास आया, तद्नुसार आवेदिका का पति भी उसके साथ चला गया।
  • पति के वापस न आने पर आवेदिका ने उसकी खोजबीन की, परन्तु वह नहीं मिला।
  • पुलिस ने आवेदक के गुमशुदगी की शिकायत दर्ज करने के निवेदन को अनदेखा कर दिया तथा इस बीच आवेदक के विरुद्ध मौजूदा मामला दर्ज कर लिया गया।
  • आरोप पत्र दाखिल करने के बाद आवेदक को गिरफ़्तार कर जेल भेज दिया गया।
  • रिहा होने के बाद आवेदक ने दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 156(3) के अधीन एक आवेदन दायर किया। ट्रायल कोर्ट ने इस बात पर विचार किये बिना आवेदन को खारिज कर दिया कि आवेदक के पति की हत्या की FIR पहले ही दर्ज हो चुकी है जिसके लिये आवेदक को पहले ही दोषसिद्धि दी जा चुकी है।
  • इस तथ्य पर विचार किये बिना कि वास्तविक अपराधी अभी भी पुलिस की पकड़ से बाहर हैं, पुनरीक्षण आवेदन को भी खारिज कर दिया गया।
  • इन सभी निर्णयों से व्यथित होकर आवेदक ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष वर्तमान अपील प्रस्तुत की।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मामले में पाया कि:
    • एक ही मामले के आधार पर एक ही आरोपी के विरुद्ध दो बार FIR नहीं हो सकतीं।
    • जब किसी मामले में एक-दूसरे के विरोधी संस्करण हों तो उसके लिये दो FIR दर्ज की जा सकती हैं तथा पुलिस दोनों FIR के अधीन जाँच कर सकती है।
    • जब पहली FIR दूसरी FIR के दायरे में नहीं आती है, तो दूसरी FIR की अनुमति होगी।
  • इसलिये, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया तथा मामले को विधि द्वारा स्थापित परिस्थिति के आधार पर निपटान हेतु वापस भेज दिया।

FIR क्या है?

परिचय:

  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 173 में संज्ञेय मामलों में सूचना से संबंधित प्रावधान दिये गए हैं।
  • पहले यह CrPC की धारा 154 के अंतर्गत आता था।
  • इसे आमतौर पर FIR के नाम से जाना जाता है, हालाँकि इस शब्द का प्रयोग संहिता में नहीं किया गया है।
  • जैसा कि इसके उपनाम से पता चलता है, यह किसी पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी द्वारा दर्ज की गई संज्ञेय अपराध की सबसे प्रारंभिक एवं पहली सूचना होती है।

उद्देश्य:

  • FIR का मुख्य उद्देश्य आपराधिक विधि को गति प्रदान करना तथा कथित आपराधिक गतिविधि के विषय में सूचना एकत्रित करना तथा अपराध से जुड़ी घटनाओं का सही या लगभग सही संस्करण प्राप्त करना है।
  • यह अभियोजन पक्ष की ओर से अपने दम पर इस अंतराल को भरने की अवांछनीय प्रवृत्ति पर रोक लगाता है।
  • आरोपी को बाद में बदलाव या परिवर्धन से बचाने के लिये।

अर्हता:

  • यह संज्ञेय अपराध के घटित होने से संबंधित एक सूचना है।
  • यह मुखबिर द्वारा मौखिक या लिखित रूप में दी जाती है।
  • यदि मौखिक रूप से दी जाती है, तो इसे पुलिस थाने के प्रभारी अधिकारी या उसके निर्देश पर लिखित रूप में दिया जाना चाहिये तथा यदि लिखित रूप में दी जाती है या लिखित रूप में दी जाती है, तो इसे देने वाले व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षरित किया जाना चाहिये।
  • लिखित रूप में दी गई सूचना मुखबिर को पढ़कर सुनाई जानी चाहिये तथा इसकी एक प्रति मुखबिर को तुरंत निःशुल्क दी जानी चाहिये।
  • सूचना का सार एक पुस्तक में ऐसे प्रारूप में दर्ज किया जाएगा, जैसा राज्य सरकार इस संबंध में निर्धारित कर सकती है। इस पुस्तक को सामान्य डायरी कहा जाता है।

सामग्री:

  • इसमें घटित प्रत्येक छोटी-छोटी घटना का उल्लेख होना आवश्यक नहीं है।
  • इसमें केवल प्राप्त सूचना के सार का उल्लेख होना आवश्यक है तथा इसे प्रत्येक तथ्य का भंडार नहीं कहा जा सकता।

FIR  का साक्ष्य मूल्य:

  • विधि का एक स्थापित सिद्धांत यह है कि FIR को साक्ष्य का एक ठोस भाग नहीं माना जा सकता है तथा इसे केवल एक महत्त्वपूर्ण साक्ष्य के रूप में माना जा सकता है।
  • इसका प्रयोग न तो वाद में प्रदाता के विरुद्ध किया जा सकता है अगर वह स्वयं आरोपी बन जाता है तथा न ही अन्य साक्षियों की पुष्टि या खंडन करने के लिये किया जा सकता है।
  • इसका प्रयोग केवल कुछ सीमित उद्देश्यों के लिये किया जा सकता है जैसे:
    • FIR को अभियोजन पक्ष द्वारा प्रदाता के अभिकथन की पुष्टि करने के उद्देश्य से सिद्ध किया जाता है।
    • इसका उपयोग प्रथम सूचना प्रदाता के अभिकथन का खंडन करने के लिये भी किया जा सकता है। इसका प्रयोग यह दिखाने के लिये किया जा सकता है कि मामले में अभियुक्त को फंसाना बाद में नहीं सोचा गया था।
    • जहाँ FIR को मुखबिर के आचरण के एक भाग के रूप में साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है, इसे ठोस साक्ष्य के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
    • यदि मुखबिर की मृत्यु हो जाती है, तथा FIR में उसकी मृत्यु के कारण या उसकी मृत्यु से संबंधित परिस्थितियों के विषय में अभिकथन होता है, तो इसे ठोस साक्ष्य के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।

महत्त्वपूर्ण निर्णय:

  • राम लाल नारंग बनाम राज्य (दिल्ली प्रशासन) (1979):
    • इस मामले में न्यायालय ने कहा कि उत्तरवर्ती FIR तभी कायम रखी जा सकेगी जब किसी बड़े षड़यंत्र के विषय में तथ्यात्मक आधार पर नई खोज की जाएगी।
  • करी चौधरी बनाम श्रीमती सीता देवी एवं अन्य (2002):
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि एक ही मामले में एक ही आरोपी के विरुद्ध दुबारा FIR नहीं हो सकतीं। लेकिन जब एक ही घटना के संबंध में विरोधाभासी अभिकथन होते हैं, तो वे सामान्यतया दो अलग-अलग FIR का रूप ले लेते हैं तथा एक ही जाँच एजेंसी द्वारा दोनों के अधीन जाँच की जा सकती है।
  • उपकार सिंह बनाम वेद प्रकाश एवं अन्य (2004):
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि उसी घटना के संबंध में प्रति-शिकायत के रूप में दूसरी शिकायत दर्ज करना CrPC के अधीन निषिद्ध नहीं है, यदि वास्तविक आरोपी द्वारा किये गए अपराध के संबंध में वह मिथ्या शिकायत दर्ज करने का पहला अवसर प्राप्त करता है तथा उसे क्षेत्राधिकार वाली पुलिस द्वारा पंजीकृत कर लिया जाता है, तो ऐसे अपराध का पीड़ित व्यक्ति, संबंधित घटना के विषय में अपना संस्करण देते हुए शिकायत दर्ज करने से वंचित हो जाएगा, परिणामस्वरूप वह वास्तविक आरोपी को सजा दिलाने के अपने वैध अधिकार से वंचित हो जाएगा।
  • निर्मल सिंह कहलों (2009):
    • इस मामले में यह देखा गया कि दुबारा FIR न केवल इसलिये यथावत रखी जा सकती है क्योंकि इसमें अलग-अलग संस्करण थे, बल्कि इसलिये भी कि तथ्यात्मक आधार पर नई खोज की गई है।
  • बाबू भाई बनाम गुजरात राज्य एवं अन्य (2010):
    • इस मामले में यह देखा गया कि उत्तरवर्ती FIR के मामले में, न्यायालय को दोनों FIR को संस्थित करने वाले तथ्यों एवं परिस्थितियों की जाँच करनी होगी तथा यह पता लगाने के लिये 'समानता का परीक्षण' लागू करना होगा कि क्या दोनों FIR एक ही घटना के संबंध में या एक ही लेनदेन के दो या अधिक भागों के संबंध में एक ही घटना से संबंधित हैं।
    • ऐसे मामले में जहाँ दूसरी FIR में संस्करण अलग है तथा वे दो अलग-अलग घटनाओं के संबंध में हैं, दूसरी FIR अनुमेय है।
    • यह भी देखा गया कि एक ही घटना के संबंध में प्रतिदावे से संबंधित FIR जिसमें घटनाओं का एक अलग संस्करण है, अनुमेय है।
  • अंजू चौधरी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2013):
    • इस मामले में यह माना गया कि पहली FIR में निहित एक ही अपराध या घटना के संबंध में दूसरी FIR स्वीकार्य नहीं है, लेकिन, जहाँ अपराध पहले FIR के दायरे में नहीं आता है, वहाँ दूसरा FIR स्वीकार्य होगी।
    • समानता का परीक्षण लागू किया जाना चाहिये।
  • अवधेश कुमार झा उर्फ ​​अखिलेश कुमार झा एवं अन्य बनाम बिहार राज्य (2016):
    • इस मामले में यह माना गया कि दूसरी FIR में लगाए गए आरोपों का सार पहली FIR से भिन्न है तथा अलग लेनदेन से संबंधित है, इसलिये दूसरी FIR से उत्पन्न मामला कायम है।

जीरो FIR

  • जब किसी पुलिस स्टेशन को किसी अन्य पुलिस स्टेशन के अधिकार क्षेत्र में किये गए कथित अपराध के विषय में शिकायत मिलती है, तो वह एक FIR दर्ज करता है, तथा फिर इसे आगे की जाँच के लिये संबंधित पुलिस स्टेशन को अंतरित कर देता है। इसे जीरो FIR कहा जाता है। कोई नियमित FIR नंबर नहीं दिया जाता है।
  • जीरो FIR प्राप्त करने के बाद, संबंधित पुलिस स्टेशन एक नई FIR दर्ज करता है तथा जाँच प्रारंभ करता है।