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CrPC की धारा 197

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 19-Jan-2024

षडाक्षरी बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य

"CrPC की धारा 197 केवल उन कार्यों या चूक तक ही सीमित है जो लोक सेवकों द्वारा आधिकारिक कर्त्तव्यों के निर्वहन में किये जाते हैं।"

न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और उज्जल भुइयाँ

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, उच्चतम न्यायालय ने षडाक्षरी बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य के मामले में माना है कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 197 केवल उन कार्यों या चूक तक ही सीमित है जो लोक सेवकों द्वारा आधिकारिक कर्त्तव्यों के निर्वहन में किये जाते हैं।

षडाक्षरी बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में, अपीलकर्त्ता ने शिकायत दर्ज कराई कि प्रतिवादी और एक अन्य व्यक्ति इस तथ्य को जानने के बावजूद कि वे फर्ज़ी दस्तावेज़ थे, जैसे मृत्यु प्रमाण पत्र, अपीलकर्त्ता की भूमि के मूल उत्तराधिकारी का वंश वृक्ष आदि, अवैध लाभ के लिये मृत व्यक्ति के नाम पर संपत्ति के दस्तावेज़ बना रहे थे।
  • प्रतिवादी कर्नाटक राज्य के हासन ज़िले में किरिगडालु सर्कल में ग्राम लेखाकार के रूप में कार्यरत है।
  • इसके बाद, प्रतिवादी ने कार्यवाही को रद्द करने के लिये CrPC की धारा 482 के तहत कर्नाटक उच्च न्यायालय के समक्ष एक याचिका दायर की।
  •  उच्च न्यायालय ने कार्यवाही रद्द कर दी।
  • इससे व्यथित होकर अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की।
  • उच्चतम न्यायालय द्वारा अपील स्वीकार कर ली गई।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

 न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और उज्जल भुइयाँ की पीठ ने कहा कि CrPC की धारा 197 सेवा के दौरान एक लोक सेवक के प्रत्येक कार्य या चूक के लिये सुरक्षा आवरण का विस्तार नहीं करती है। यह केवल उन कार्यों या चूक तक ही सीमित है जो लोक सेवकों द्वारा आधिकारिक कर्त्तव्य के निर्वहन में किये जाते हैं।

आगे यह कहा गया कि CrPC की धारा 197 के अनुसार फर्ज़ी दस्तावेज़ बनाने के कृत्य के लिये किसी लोक सेवक पर मुकदमा चलाने के लिये अभियोजन की पूर्व मंज़ूरी की आवश्यकता नहीं है क्योंकि कथित कृत्य उसके आधिकारिक कर्त्तव्य में शामिल नहीं हैं।

CrPC की धारा 197 क्या है?

परिचय:

 CrPC की धारा 197 न्यायाधीशों और लोक सेवकों के अभियोजन से संबंधित है जबकि यही प्रावधान भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता 2023 (BNSS) की धारा 218 के तहत शामिल किया गया है। इसमें कहा गया है कि-

(1) जब किसी व्यक्ति पर, जो न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट या ऐसा लोक सेवक है या था जिसे सरकार द्वारा या उसकी मंज़ूरी से ही उसके पद से हटाया जा सकता है, अन्यथा नहीं, किसी ऐसे अपराध का अभियोग है जिसके बारे में यह अभिकथित है कि वह उसके द्वारा तब किया गया था जब वह अपने पदीय कर्त्तव्य के निर्वहन हेतु कार्य कर रहा था जब उसका कार्य करना तात्पर्यित था, तब कोई भी न्यायालय ऐसे अपराध का संज्ञान, जैसा लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 में अन्यथा उपबंधित है, उसके सिवाय-

(a) ऐसे व्यक्ति की दशा में, जो संघ के कार्यकलाप के संबंध में, यथास्थिति, नियोजित है या अभिकथित अपराध के किये जाने के समय नियोजित था, केंद्रीय सरकार की;

(b) ऐसे व्यक्ति की दशा में, जो किसी राज्य के कार्यकलाप के संबंध में, यथास्थिति, नियोजित है या अभिकथित अपराध के किये जाने के समय नियोजित था, उस राज्य सरकार की, पूर्व मंज़ूरी से ही करेगा, अन्यथा नही।

(2) कोई भी न्यायालय संघ के सशस्त्र बल के किसी सदस्य द्वारा किये गए किसी अपराध का संज्ञान, जिसके बारे में यह अभिकथित है कि वह उसके द्वारा तब किया गया था, जब वह अपने पदीय कर्त्तव्य के निर्वहन में कार्य कर रहा था या जब उसका ऐसे कार्य करना तात्पर्यित था

केंद्रीय सरकार की पूर्व मंज़ूरी से ही करेगा, अन्यथा नहीं।

(3) राज्य सरकार अधिसूचना द्वारा निदेश दे सकती है कि उसमें यथाविनिर्दिष्ट बल के ऐसे वर्ग या प्रवर्ग के सदस्यों को जिन्हें लोक व्यवस्था बनाए रखने का कार्य-भार सौंपा गया है, जहाँ कहीं भी वे सेवा कर रहे हों, उपधारा (2) के उपबंध लागू होंगे और तब उस उपधारा के उपबंध इस प्रकार लागू होंगे मानो उसमें आने वाले ‘केंद्रीय सरकार’ पद के स्थान पर ‘राज्य सरकार’ पद रख दिया गया है।

(3A) उपधारा (3) में किसी बात के होते हुए भी, कोई भी न्यायालय ऐसे बलों के किसी सदस्य द्वारा, जिसे राज्य में लोक व्यवस्था बनाए रखने का कार्य-भार सौंपा गया है, किये गए किसी ऐसे अपराध का संज्ञान, जिसके बारे में यह अभिकथित है कि वह उसके द्वारा तब किया गया था जब वह, उस राज्य में संविधान के अनुच्छेद 356 के खंड (1) के अधीन की गई उद्घोषणा के प्रवृत रहने के दौरान, अपने पदीय कर्त्तव्य के निर्वहन हेतु कार्य कर रहा था या जब उसका ऐसे कार्य करना तात्पर्यित था, केंद्रीय सरकार की पूर्व मंज़ूरी से ही करेगा, अन्यथा नहीं।

(3B) इस संहिता में या किसी अन्य विधि में किसी प्रतिकूल बात के होते हुए भी, यह घोषित किया जाता है कि 20 अगस्त, 1991 को प्रांरभ होने वाली और दण्ड प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 1991 (1991 का 43), पर राष्ट्रपति जिस तारीख को अनुमति देते हैं उस तारीख की ठीक पूर्ववर्ती तारीख को समाप्त होने वाली अवधि के दौरान, ऐसे किसी अपराध के संबंध में जिसका उस अवधि के दौरान किया जाना अभिकथित है जब संविधान के अनुच्छेद 356 के खंड (1) के अधीन की गई उद्घोषणा राज्य में प्रवृत थी, राज्य सरकार द्वारा दी गई कोई मंज़ूरी पर किसी न्यायालय द्वारा किया गया कोई संज्ञान अविधिमान्य होगा और ऐसे विषय में केंद्रीय सरकार मंज़ूरी प्रदान करने के लिये सक्षम होगी तथा न्यायालय उसका संज्ञान करने के लिये सक्षम होगा।

(4) यथास्थिति, केंद्रीय सरकार या राज्य सरकार उस व्यक्ति का जिसके द्वारा और उस रीति का जिससे वह अपराध या वे अपराध, जिसके या जिनके लिये ऐसे न्यायाधीश, मजिस्ट्रेट या लोक सेवक का अभियोजन किया जाना है, अवधारण कर सकती है और वह न्यायालय विनिर्दिष्ट कर सकती है जिसके समक्ष विचारण किया जाना है।

निर्णयज विधि:

उड़ीसा राज्य बनाम गणेश चंद्र यहूदी, (2004) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि CrPC की धारा 197 के तहत दी गई सुरक्षा ज़िम्मेदार लोक सेवकों को उनके द्वारा किये गए कथित अपराधों के लिये संभावित रूप से कष्टप्रद आपराधिक कार्यवाही से बचाने के लिये है, जब वे लोक सेवक के रूप में कार्य कर रहे हों या कार्य करने का इरादा रखते हों