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आपराधिक कानून

ठोस साक्ष्य

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 30-Aug-2024

प्रेम प्रकाश बनाम प्रवर्तन निदेशालय के माध्यम से भारत संघ

"अपीलकर्त्ता के साथ सह-अभियुक्त होने के कारण, अपीलकर्त्ता के विरुद्ध उसका बयान, यह मानते हुए कि वर्तमान अपीलकर्त्ता  के विरुद्ध कुछ भी दोषपूर्ण है, ठोस साक्ष्य का चरित्र नहीं धारण करेगा।"

न्यायमूर्ति बी.आर. गवई एवं के.वी. विश्वनाथन

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने प्रेम प्रकाश बनाम प्रवर्तन निदेशालय के माध्यम से भारत संघ के मामले में कहा है कि,

  • अभियुक्त का बयान जो कि दोष (आरोप) सिद्ध करने वाला है, वह ठोस साक्ष्य नहीं माना जाएगा।
  • सह-अभियुक्त के उस बयान का प्रयोग जाँच एजेंसियों द्वारा अभियुक्त को फँसाने के लिये नहीं किया जा सकता।
  • प्रेम प्रकाश बनाम प्रवर्तन निदेशालय के माध्यम से भारत संघ मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
  • वर्तमान मामले में, भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धाराओं 406, 420, 467, 468, 447, 504, 506, 341, 323 एवं 34 के अधीन दण्डनीय अपराधों के लिये प्रवर्तन मामला सूचना रिपोर्ट (ECIR) पंजीकृत की गई थी, जहाँ अपीलकर्त्ता को आरोपी के रूप में नामित नहीं किया गया था।
  • IPC की धारा 420 एवं 467 के अधीन अपराध होने के मद्देनज़र, PMLA के अधीन जाँच प्रारंभ की गई थी, यहाँ तक ​​​​कि अपीलकर्त्ता भी का नाम नहीं था, हालाँकि ECIR में कुछ अज्ञात व्यक्तियों के शामिल होने का उल्लेख किया गया था।
  • प्रवर्तन निदेशालय (ED) ने अपराध की जाँच की।
  • आरोप यह था कि आरोपी राजेश राय ने अवैध रूप से और धोखाधड़ी से इम्तियाज़ अहमद एवं आरोपी भरत प्रसाद के नाम पर पावर ऑफ अटॉर्नी बनाई तथा उक्त पावर ऑफ अटॉर्नी के आधार पर एक जाली विक्रय विलेख तैयार किया तथा अपीलकर्त्ता के एक साथी आरोपी पुनीत भार्गव को ज़मीन बेच दी।
  • यह भी आरोप लगाया गया है कि उक्त भूमि को आरोपी पुनीत भार्गव ने दो विक्रय विलेखों के माध्यम से आरोपी बिष्णु कुमार अग्रवाल को अंतरित कर दिया था।
  • सह-अभियुक्त द्वारा यह आरोप लगाया गया था कि अपीलकर्त्ता ने एक अन्य आरोपी व्यक्ति छवि रंजन की सहायता से, सर्कल अधिकारियों को प्रभावित करके भूमि का म्यूटेशन करवा लिया और इसलिये, अभियोजन पक्ष के अनुसार, अपीलकर्त्ता की भूमिका महत्त्वपूर्ण है।
  • अपीलकर्त्ता ने कहा कि,
    • वह बिष्णु कुमार अग्रवाल को जानता था और विवाह समारोहों के दौरान उनसे मिला था।
    • सह-आरोपी पुनीत भार्गव उसका छोटा भाई जैसा था जो उसके पैतृक स्थान से था और वह उसे बचपन से जानता था।
    • अफशर अली सहित कई व्यक्ति चेशायर होम की संपत्ति के लिये उससे मिलने आते थे और उसने उन्हें राजदीप कुमार से मिलवाया और संपत्ति का सत्यापन करवाया।
    • पुनीत भार्गव की सहमति से उसने संपत्ति को पुनीत भार्गव के नाम पर पंजीकृत करवाया तथा बाद में इसे बिष्णु कुमार अग्रवाल को 1.78 करोड़ रुपए में बेच दिया।
  • सह-आरोपी अफशर अली ने कहा कि,
    • उन्होंने अपीलकर्त्ता से मुलाकात की और उन्हें विवादों एवं पुलिस की सतर्कता के विषय में सूचना दी।
    • अपीलकर्त्ता ने भूमि की स्थिति का जायज़ा लिया और तत्कालीन उपायुक्त छवि रंजन को बुलाया और उन्हें बताया कि पुलिस द्वारा देखी गई सतर्कता को हटाने के बाद चेशायर होम संपत्ति की रजिस्ट्री की जानी थी।
    • इसके बाद, अपीलकर्त्ता ने 1.5 करोड़ रुपए की राशि तय की और तय की गई राशि को स्वीकार करने के बाद, उन्होंने अपीलकर्त्ता से अनुरोध किया कि वह भूमि के दो भूखंडों को अनब्लॉक करने की व्यवस्था करे, जोकि डिप्टी कमिश्नर कार्यालय द्वारा अवरुद्ध कर दिये गए थे।
    • अपीलकर्त्ता ने उक्त कार्य के लिये 1 करोड़ रुपए की मांग की थी तथा उक्त राशि को उक्त प्रतिफल में समायोजित कर दिया गया था और अपीलकर्त्ता ने ही पुनीत भार्गव के नाम पर पंजीकरण करने के लिये कहा था।
    • अपीलकर्त्ता ने ही बिष्णु कुमार अग्रवाल के साथ सौदा तय किया था।
  • प्रतिवादी ने तर्क दिया कि सह-आरोपी द्वारा दिया गया बयान अपीलकर्त्ता के विरुद्ध ठोस साक्ष्य है।
  • अपीलकर्त्ता को 11 अगस्त 2023 को अभिरक्षा में लिया गया था। वह 25 अगस्त 2022 से पहले से ही अभिरक्षा में था।
  • अपीलकर्त्ता ने तर्क दिया कि विभिन्न साक्षियों की जाँच के कारण उसे ज़मानत नहीं दी गई जो उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
  • अपीलकर्त्ता की ज़मानत याचिका विशेष न्यायाधीश और उच्च न्यायालय द्वारा खारिज कर दी गई थी।
  • व्यथित होकर अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष विशेष अनुमति याचिका दायर की।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने PMLA की धारा 45 के प्रावधानों पर ध्यान दिया, जिसमें ज़मानत देने के लिये दो शर्तें बताई गई हैं।
    • यह प्रावधान ज़मानत के सामान्य नियम का अपवाद नहीं है, बल्कि यह ज़मानत देने से पहले पालन की जाने वाली दोहरी शर्तें प्रदान करता है।
    • उच्चतम न्यायालय ने सामान्य नियम पर प्रकाश डाला कि "ज़मानत नियम है और जेल अपवाद"।
  • उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि,
    • जब कोई आरोपी PMLA के अधीन अभिरक्षा में होता है, चाहे वह किसी भी मामले में अभिरक्षा में हो, तो उसी जाँच एजेंसी के समक्ष धारा 50 PMLA के अधीन कोई भी बयान देने वाले के विरुद्ध अस्वीकार्य है।
    • अपीलकर्त्ता के बयान को संक्षेप में लिया जाए तो प्रथम दृष्टया उसके विरुद्ध मनी लॉन्ड्रिंग का मामला नहीं बनता है। यह कूटरचना में अपीलकर्त्ता की प्रथम दृष्टया संलिप्तता की ओर भी इशारा नहीं करता है।
    • अपीलकर्त्ता के विरुद्ध सह-अभियुक्त का बयान, यह मानते हुए कि अपीलकर्त्ता के विरुद्ध कुछ भी आपत्तिजनक है, ठोस साक्ष्य की प्रकृति का नहीं होगा।
    • अभियोजन पक्ष अपना मामला सिद्ध करने के लिये इस तरह के बयान से शुरुआत नहीं कर सकता।
    • न्यायालय ने कहा कि ऐसी स्थिति में, सह-अभियुक्त के संस्वीकृति से निपटने के दौरान भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 30 के अधीन निर्धारित संविधि लागू रहेगा।
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि सह-अभियुक्त अफशर अली के बयान से प्रथम दृष्टया विक्रय विलेख और अन्य दस्तावेज़ों की कूटरचना में अपीलकर्त्ता की भूमिका या धन शोधन के अपराध में शामिल होने के विषय में कुछ भी संकेत नहीं मिलता है।
  • इसलिये, उच्चतम न्यायालय ने माना कि,
    • अन्य जाँच में अपीलकर्त्ता के बयान का प्रयोग वर्तमान मामले में PMLA की धारा 50 के अधीन नहीं किया जा सकता।
    • यदि अपीलकर्त्ता के बयान को निर्माता के विरुद्ध अभियोजन योग्य माना जाता है, तो वह साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 के अंतर्गत आएगा, क्योंकि उसने यह बयान उसी जाँच एजेंसी द्वारा प्रारंभ की गई एक अन्य कार्यवाही के अधीन न्यायिक अभिरक्षा में दिया है।
    • सह-आरोपी अफसर अली के बयान को जाँच एजेंसी को पहले अन्य साक्ष्यों के साथ जोड़ना होगा ताकि इसे ठोस साक्ष्य बनाया जा सके।
    • मौजूदा मामले में आरोपी ने PMLA की धारा 45 के अधीन दी गई दोहरी शर्त पूरी कर ली है।
  • इसलिये उच्चतम न्यायालय ने अपीलकर्त्ता की याचिका स्वीकार कर ली तथा ज़मानत दे दी।

प्रेम प्रकाश बनाम प्रवर्तन निदेशालय के माध्यम से भारत संघ मामले में कौन-से अन्य मामले संदर्भित किये गए थे?

  • कश्मीरा सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य, (1952):
    • जहाँ न्यायालय ने कहा कि "इस तरह के मामले को देखने का उचित तरीका यह है कि सबसे पहले अभियुक्त के विरुद्ध साक्ष्यों को इकट्ठा किया जाए तथा संस्वीकृति को विचारण से पूरी तरह बाहर रखा जाए तथा देखा जाए कि अगर उस पर विश्वास किया जाता है, तो क्या उसके आधार पर सुरक्षित रूप से दोषसिद्धि की जा सकती है।
    • यदि यह संस्वीकृति से स्वतंत्र रूप से विश्वास करने योग्य है, तो निश्चित रूप से संस्वीकृति को सहायता कहना आवश्यक नहीं है।"
  • विजय मदनलाल चौधरी एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (2022):
    • जहाँ यह माना गया कि यदि बयान ED अधिकारी द्वारा औपचारिक गिरफ्तारी के बाद दर्ज किया जाता है, तो साक्ष्य अधिनियम की धारा 20(3) या धारा 25 के परिणाम लागू हो सकते हैं, जिससे यह आग्रह किया जा सकता है कि चूँकि यह संस्वीकृति की प्रकृति का है, इसलिये इसे आरोपी के विरुद्ध सिद्ध नहीं किया जाएगा।

ठोस साक्ष्य क्या है?

परिचय:

  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम 2023 (BSA) की धारा 2(e) के अधीन साक्ष्य को इस प्रकार परिभाषित किया गया है:
    • इलेक्ट्रॉनिक रूप से दिये गए बयानों सहित सभी बयान, जिन्हें न्यायालय जाँच के अंतर्गत तथ्यों के मामलों के संबंध में साक्षियों द्वारा अपने समक्ष प्रस्तुत करने की अनुमति देता है या आवश्यकता होती है और ऐसे बयानों को मौखिक साक्ष्य कहा जाता है।
    • न्यायालय के निरीक्षण के लिये प्रस्तुत किये गए इलेक्ट्रॉनिक या डिजिटल रिकॉर्ड सहित सभी दस्तावेज़ एवं ऐसे दस्तावेज़ों को दस्तावेज़ी साक्ष्य कहा जाता है।
  • ठोस साक्ष्य:
    • वह साक्ष्य जिसके लिये मुद्दे में तथ्यों को सिद्ध या दोषपूर्ण सिद्ध करने के लिये किसी पुष्टिकरण की आवश्यकता नहीं होती, वह मूल साक्ष्य होता है।
    • यह साक्ष्य अपने आप में पर्याप्त वजन रखता है तथा इसके लिये किसी और निरीक्षण की आवश्यकता नहीं होती।
    • यह परिस्थितिजन्य एवं प्रत्यक्ष दोनों हो सकता है।

साक्ष्य को मूल साक्ष्य माना गया:

  • साक्षी की गवाही को केस-टू-केस आधार पर ठोस साक्ष्य माना जाना चाहिये। [भगवान सिंह बनाम पंजाब राज्य (1952)]।
  • संस्वीकृति को ठोस साक्ष्य माना जाना चाहिये। [बिश्वनाथ प्रसाद बनाम द्वारका प्रसाद (1974)]।
  • फोटोग्राफिक साक्ष्य या रिकॉर्डिंग जिनकी विश्वसनीयता स्थापित है, उन्हें ठोस साक्ष्य माना जाता है। [एन. श्री राम रेड्डी बनाम श्री वी. वी. गिरी इन रेफरेंस टू ए टेप (2014)]।
  • फोरेंसिक रिपोर्ट को केस-टू-केस आधार पर ठोस साक्ष्य माना जाता है। [नीतीश कुमार मर्डर केस]
  • विशेषज्ञ की गवाही को ठोस साक्ष्य माना जाता है जिसका उचित समर्थन हो। [दयाल सिंह बनाम उत्तरांचल राज्य (2012)]
  • प्रत्यक्ष साक्ष्य ठोस साक्ष्य है। [अवध बिहारी शर्मा बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1956)]
  • परिस्थितिजन्य साक्ष्य प्रत्यक्षतः अपराध के होने का संकेत देते हैं। [अशोक कुमार बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1990)]