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आपराधिक कानून

बिलकिस बानो निर्णय में परिहार

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 10-Jan-2024

स्रोत: द हिंदू

परिचय:

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने बिलकिस बानो बलात्कार मामले, जिसे बिलकिस याकूब रसूल बनाम भारत संघ एवं अन्य (2022) के नाम से भी जाना जाता है, के 11 दोषियों के आजीवन कारावास की सज़ा में दी गई परिहार को रद्द कर दिया। गुजरात राज्य द्वारा 1992 की अपनी रेमिशन पॉलिसी के तहत 10 अगस्त, 2023 को परिहार दी गई थी। परिहार के आदेश से पहले, उच्चतम न्यायालय की एक खंडपीठ ने माना कि गुजरात राज्य दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के तहत परिहार देने के लिये समुचित सरकार थी।

दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के तहत परिहार क्या है?

  • परिचय:
    • परिहार एक विधिक अवधारणा है जिसमें न्यायालय द्वारा दी गई सज़ा को घटाना या कम करना शामिल होता है।
  • CrPC की धारा 432- सज़ा को निलंबित करने या परिहार करने की शक्ति:
    • CrPC की धारा 432 राज्य सरकार या केंद्र सरकार को अपराध की प्रकृति के आधार पर दोषी की सज़ा को निलंबित करने या कम करने की शक्ति देती है।
    • इस शक्ति का प्रयोग कुछ कारकों जैसे अपराध की प्रकृति, अपराधी का चरित्र और मामले की परिस्थितियाँ, पर निर्भर करता है।
    • धारा 432 के तहत प्रदत्त विवेकाधिकार अनियंत्रित नहीं है।
  • CrPC की धारा 433- दंडादेश का लघुकरण:
    • धारा 433 समुचित सरकार को मूल रूप से लगाए गए दंड के स्थान पर कम कठोर दंड देने की अनुमति देती है।
    • न्यायालय मृत्यु की सज़ा, आजीवन कारावास, कठोर कारावास और ज़ुर्माने की सज़ा के दंडादेश का लघुकरण कर सकता है।

बिलकिस बानो मामले में परिहार पर उच्चतम न्यायालय के क्या विचार थे?  

  • याचिकाकर्त्ता का आधार:
    • याचिकाकर्त्ता ने मुद्दा उठाया कि परिहार देने की शक्ति का प्रयोग बिना सोचे समझे किया गया था, तथा उक्त शक्ति का प्रयोग राज्यपाल द्वारा बाह्य विचारों को ध्यान में रखते हुए और यहाँ तक कि सरकार, अर्थात् संबंधित मंत्री की सहायता व सलाह के बिना भी किया गया था।
  • स्वतंत्रता और पुनर्वास:
    • स्वतंत्रता मनुष्य की सबसे मूल्यवान व पोषित संपत्तियों में से एक है और वह इसे कम करने के किसी भी प्रयास का कड़ा विरोध करेगा।
    • इसी प्रकार, सज़ा के उद्देश्य के रूप में आजीवन कारावास की सज़ा काट रहे अपराधी का पुनर्वास और सामाजिक पुनर्निर्माण एक कल्याणकारी राज्य में सर्वोपरि महत्त्व बन जाता है।
    • राज्य को समाज को अपराधी से बचाने का लक्ष्य हासिल करना होता है और अपराधी का पुनर्वास भी करना होता है।
  • रेमिशन पॉलिसी का उद्देश्य:
    • रेमिशन पॉलिसी एक ऐसे व्यक्ति के पुनर्वास की प्रक्रिया को प्रकट करती है, जो कुछ परिस्थितियों में आपराधिक गतिविधियों में शामिल हो गया था और उसका पुनर्वास किया जाना आवश्यक है।
    • इस प्रकार, सज़ा को अंत नहीं बल्कि केवल अंत का एक साधन माना जाना चाहिये।
    • किसी अपराध के लिये परिस्थितियों की प्रासंगिकता जैसे कि अपराध करते समय दोषी की मानसिक स्थिति, ऐसे कारक हैं जिन पर ध्यान दिया जाना चाहिये।
  • गुजरात सरकार द्वारा दी गई परिहार अमान्य:
    • CrPC की धारा 432 (1) और (2) के साथ पठित धारा 432 (7) के मद्देनज़र, न्यायालय ने माना कि गुजरात राज्य सरकार के पास 11 दोषियों की परिहार की मांग पर विचार करने का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं था क्योंकि यह उपर्युक्त प्रावधानों के अर्थ में समुचित सरकार नहीं थी।
    • इसलिये, 10 अगस्त, 2022 को 11 दोषियों के पक्ष में दिये गए परिहार के आदेशों को अवैध, दूषित घोषित किया गया और इसलिये इसे रद्द कर दिया गया।

बिलकिस बानो मामले में परिहार के ऐतिहासिक मामले क्या थे?

  • गोपाल विनायक गोडसे बनाम महाराष्ट्र राज्य (1961):
    • उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अवलोकन किया गया कि "परिहार एक समय तक सीमित होती है, अभिकलन में सहायता करती है लेकिन कानूनी तौर पर (ipso jure) दोषी की रिहाई के रूप में वैध रूप से कार्य नहीं करती है"।
      • लेकिन, जब न्यायाधीश द्वारा दी गई सज़ा एक निश्चित अवधि के लिये होती है, तो परिहार का प्रभाव सहन की जाने वाली अवधि को कम करना तथा इसे शून्य तक कम करना हो सकता है, जबकि तथ्य और सज़ा को बरकरार रखा जा सकता है।
    • हालाँकि, जब सज़ा आजीवन कारावास की होती है, तो समय में निर्धारित परिहार शून्य के बिंदु तक नहीं पहुँच सकती है। चूँकि CrPC की धारा 433-A केवल आजीवन कारावास की सज़ा से संबंधित है, इसलिये परिहार किसी दोषी को रिहाई का अधिकार नहीं दे सकती।
  • मारू राम बनाम भारत संघ (1980):
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यह सत्य है कि सज़ा को सुधार का रंग देने की एक आधुनिक प्रवृत्ति प्रतीत होती है ताकि अपराधी को जेल में बंद करने के बजाय उसके सुधार पर ज़ोर दिया जा सके जो कि एक आदर्श उद्देश्य है।
    • साथ ही, यह भी नहीं कहा जा सकता कि इस तरह के उद्देश्य को आवश्यक सुविधाएँ, अपेक्षित शिक्षा और उचित माहौल जुटाए बिना हासिल नहीं किया जा सकता है, जिसे एक अपराधी में पश्चाताप एवं पछतावे की भावना को बढ़ावा देने के लिये बनाया जाना चाहिये ताकि वह ऐसी मानसिक या मनोवैज्ञानिक क्रांति से गुज़र सके कि उसे मानव जीवन के साथ खिलवाड़ करने वाले कृत्यों के परिणामों का एहसास हो सके।
  • लक्ष्मण नस्कर बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (2000):
    • इस मामले में, उच्चतम न्यायालय ने उन कारकों को निर्धारित किया जो परिहार के अनुदान को नियंत्रित करते हैं:
      • क्या कोई अपराध बड़े पैमाने पर समाज को प्रभावित किये बिना एक व्यक्तिगत कृत्य है?
      • क्या भविष्य में अपराध की पुनरावृत्ति की कोई संभावना है?
      • क्या अपराधी अपराध करने की अपनी क्षमता खो चुका है?
      • क्या इस दोषी को अब और कारावास में रखने का कोई सार्थक उद्देश्य है?
      • दोषी के परिवार की सामाजिक-आर्थिक स्थिति।
  • ईपुरु सुधाकर बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (2006):
    • उच्चतम न्यायालय ने माना कि परिहार के आदेश की न्यायिक समीक्षा निम्नलिखित आधारों पर उपलब्ध है:
      • यदि आदेश बिना दिमाग लगाए पारित कर दिया जाता है
      • यदि आदेश दुर्भावनापूर्ण है;
      • आदेश बाह्य या पूरी तरह से अप्रासंगिक विचारों पर पारित किया गया है;
      • प्रासंगिक तत्त्वों को विचार से बाहर रखा गया;
      • आदेश मनमानी से दिया गया है।