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आपराधिक कानून

लिव-इन रिलेशनशिप की विधिक स्थिति

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 10-Sep-2024

स्रोत: द हिंदू

परिचय:

भारत में लिव-इन रिलेशनशिप (सहजीवन) का अस्तित्व एक जटिल विधिक एवं सामाजिक परिदृश्य में उपस्थित है। जबकि विधियों ने ऐसे संबंधों को मान्यता देना एवं उनकी रक्षा करना आरंभ कर दिया है, सामाजिक मानदंड एवं न्यायिक व्याख्याएँ प्रायः इस विकल्प को चुनने वाले जोड़ों के लिये चुनौतियाँ उत्पन्न करती हैं। हाल ही में चर्चित मामलों एवं न्यायालयों के निर्णयों ने लिव-इन रिलेशनशिप में व्यक्तियों द्वारा सामना की जाने वाली समस्याओं को प्रकट किया है, जिससे व्यक्तिगत स्वायत्तता, विधिक अधिकारों एवं सांस्कृतिक मूल्यों के विषय में चर्चा होनी प्रारंभ हो गई है।

लिव-इन रिलेशनशिप के प्रमुख मामले क्या हैं?

आफताब अमीन पूनावाला बनाम दिल्ली सरकार (श्रद्धा वालकर केस):

  • यह मामला श्रद्धा वालकर की उनके लिव-इन पार्टनर द्वारा कथित हत्या से जुड़ा था, जिससे लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाले व्यक्तियों के समक्ष आने वाली समस्याओं के कारण यह मामला राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुआ।
  • इस घटना ने कई विधिक एवं सामाजिक मुद्दों को प्रकट किया:
    • लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाले व्यक्तियों के लिये सुदृढ़ विधिक सुरक्षा की आवश्यकता।
    • आपराधिक जाँच के दौरान व्यक्तिगत डेटा एवं गोपनीयता की सुरक्षा का महत्त्व।
    • अंतर-धार्मिक जोड़ों एवं लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वालों पर सामाजिक दबाव तथा विधिक सुरक्षा का अभाव।

चावली बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2015):  

  • इस मामले में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने लिव-इन रिलेशनशिप के संभावित नकारात्मक परिणामों के विषय में चिंता व्यक्त की।
  • न्यायालय की टिप्पणियाँ:
    • न्यायालय ने माना कि सभी लिव-इन संबंधों के परिणाम प्रतिकूल नहीं होते।
    • हालाँकि इसने यह भी कहा कि ऐसे संबंध कभी-कभी आपराधिक गतिविधियों या निर्वासन जैसी स्थितियों को उत्पन्न कर सकते हैं।
  • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाले व्यक्तियों के इरादों का पता लगाने के लिये विधिक मापदंडों का अभाव है।
  • न्यायालय ने कहा कि वैयक्तिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करने वाले मौलिक अधिकारों का उद्धरण "भारतीय परिप्रेक्ष्य" से संबंधित होना चाहिये और विधिक व्याख्याओं के लिये सांस्कृतिक संदर्भ का सुझाव दिया जाना चाहिये।
  • इस निर्णय में गैर-पारंपरिक संबंधों के प्रति रूढ़िवादी दृष्टिकोण को दर्शाया गया तथा भारतीय समाज में विवाह की प्रधानता पर ज़ोर दिया गया।
  • न्यायालय के रुख ने भारत में लिव-इन रिश्तों के संबंध में विधिक अस्पष्टता को प्रकट किया, जहाँ ऐसी व्यवस्थाएँ अवैध नहीं हैं, परंतु विवाह के समान अधिकार तथा सामाजिक स्वीकृति प्रदान नहीं करती हैं।

लता सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2006):  

  • भारत के उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में अंतरजातीय विवाह की वैधता को यथावत् रखा।
  • यह मामला लता सिंह द्वारा उनके पति को उनके परिवार द्वारा दी जा रही धमकियों के विरुद्ध शिकायत से संबंधित था।
  • इस निर्णय ने आगामी निर्णयों के लिये आधार तैयार किया, जिसमें लिव-इन संबंधों में रहने वालों को भी सुरक्षा प्रदान की गई।

लता सिंह मामले के उपरांत उच्चतम न्यायालय के निर्णय:

  • उच्चतम न्यायालय ने लता सिंह मामले में दी गई सुरक्षा के समान ही लिव-इन संबंधों में रहने वालों को भी सुरक्षा प्रदान की।
  • न्यायालय ने कहा: "लिव-इन या विवाह जैसा संबंध न तो अपराध है और न ही पाप, यद्यपि ये संबंध इस देश में सामाजिक रूप से अस्वीकार्य है।"
  • इन निर्णयों से यह स्थापित हुआ कि: क) लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाली महिलाएँ घरेलू हिंसा के विरुद्ध संरक्षण की अधिकारी हैं। ख) ऐसे संबंधों से उत्पन्न हुए बच्चों को संपत्ति का अधिकार प्राप्त है।

X बनाम मध्य प्रदेश राज्य (म.प्र. उच्च न्यायालय मामला 2024):

  • उच्च न्यायालय ने एक अंतरधार्मिक जोड़े की याचिका को अस्वीकार कर दिया, जिसमें (a) महिला के परिवार के विरुद्ध पुलिस सुरक्षा और (b) उनके विवाह के पंजीकरण की मांग की गई थी।
  • न्यायालय ने कहा कि मुस्लिम पुरुष का "अग्नि-पूजक" महिला के साथ संबंध मुस्लिम विधि के अनुसार वैध नहीं है।
  • दंपति यह सिद्ध करने में असफल रहे- a) वित्तीय निर्भरता। b) लंबे समय से एक साथ निवास।
  • विवाह जैसे रिश्ते की स्थापना में इन कारकों को महत्त्वपूर्ण माना गया।
  • इस मामले में दंपतियों के समक्ष अपनी लिव-इन रिलेशनशिप स्थिति को सिद्ध करने में आने वाली चुनौतियों पर प्रकाश डाला गया, जिसके कारण व्यावहारिक कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं, जैसे: a) संयुक्त बैंक खाते खोलना। b) विवाह या पारिवारिक संबंधों के प्रमाण के बिना भारत में किसी किराये के मकान में साथ रहना।

लिव-इन रिलेशनशिप के लिये विधिक प्रावधान क्या हैं?

संवैधानिक आधार:

  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21, जो जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है, लिव-इन रिलेशनशिप को विधिक मान्यता देने के लिये संवैधानिक आधार के रूप में कार्य करता है।
  • भारत के उच्चतम न्यायालय ने अपने व्याख्यात्मक क्षेत्राधिकार का प्रयोग करते हुए अनुच्छेद 21 के दायरे का विस्तार करते हुए, वैवाहिक स्थिति पर ध्यान दिये बिना, व्यक्तियों को अपनी पसंद के साथी के साथ सहजीवन करने के अधिकार को इसमें शामिल कर लिया है।

घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005:

  • अधिनियम की धारा 2(f) में "घरेलू संबंध" को परिभाषित करते हुए "विवाह की प्रकृति वाले" संबंधों को शामिल किया गया है, जिससे लिव-इन संबंधों को भी वैधानिक मान्यता मिल गई है।
  • यह अधिनियम लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाली महिलाओं को घरेलू हिंसा के विरुद्ध उपचार प्राप्त करने का अधिकार प्रदान करता है तथा अधिनियम के प्रयोजनों के लिये उन्हें विवाहित महिलाओं के समान दर्जा प्रदान करता है।

दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973:

  • दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125, जो भरण-पोषण का प्रावधान करती है, की न्यायिक व्याख्या लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाली महिलाओं को भी इसमें शामिल करने के लिये की गई है।
  • चनमुनिया बनाम वीरेंद्र कुमार सिंह कुशवाहा (2011) मामले में भारत के उच्चतम न्यायालय ने माना कि लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाली महिलाएँ दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के अधीन भरण-पोषण का दावा करने की अधिकारी हैं।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872:

  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 114 न्यायालय को दीर्घकालिक सहजीवन के मामलों में विवाह की धारणा सहित कुछ तथ्यों के अस्तित्व की धारणा स्वीकार करने की अनुमति देती है।
  • इस धारणा को न्यायिक रूप से लिव-इन रिलेशनशिप में साझेदारों के अधिकारों और हितों की रक्षा के लिये लागू किया गया है, विशेष रूप से संपत्ति और भरण-पोषण के मामलों में।

लिव-इन रिलेशनशिप में अधिकार और दायित्व क्या हैं?  

भरण-पोषण अधिकार:

  • न्यायिक व्याख्याओं से यह स्थापित हो गया है कि लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाली महिलाएँ घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 और दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के तहत भरण-पोषण पाने की अधिकारी हैं।
  • भरण-पोषण का अधिकार इस बात पर निर्भर करता है कि रिश्ता वैवाहिक रिश्ते के समान कुछ मानदंडों को पूरा करता है, जैसा कि न्यायालयों द्वारा मामला-दर-मामला आधार पर निर्धारित किया जाता है।

संपत्ति अधिकार:

  • हालाँकि भारतीय विधि के तहत लिव-इन पार्टनर के लिये उत्तराधिकार का कोई स्वचालित अधिकार उपस्थित नहीं है, परंतु भारत के उच्चतम न्यायालय ने वेलुसामी बनाम डी. पचईअम्मल (2010) के मामले में माना है कि लिव-इन पार्टनर रिश्ते के अस्तित्व के दौरान संचित संपत्ति पर अधिकार प्राप्त कर सकता है।
  • ऐसे संपत्ति अधिकारों का अधिग्रहण, उक्त संपत्ति के अधिग्रहण में साझेदार के प्रत्यक्ष योगदान पर आधारित होता है।

लिव-इन रिलेशनशिप से उत्पन्न हुए बच्चों के अधिकार:

  • भारत के उच्चतम न्यायालय ने लिव-इन रिलेशनशिप से उत्पन्न हुए बच्चों की धर्मजता एवं उत्तराधिकार का अधिकार प्रदान किया है।
  • तुलसा बनाम दुर्गतिया (2008) के ऐतिहासिक मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि यदि माता-पिता काफी समय तक एक ही घर में रहते हैं, तो लिव-इन रिलेशनशिप से उत्पन्न हुए बच्चों को अधर्मज नहीं माना जा सकता।

 घरेलू हिंसा से सुरक्षा:

  • घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 अपने सुरक्षात्मक दायरे को लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाली महिलाओं तक विस्तारित करता है।
  • अधिनियम के तहत लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाली महिलाओं को निम्नलिखित अधिकार प्राप्त हैं:
    • साझा घर में रहने का अधिकार
    • प्रतिवादी के विरुद्ध सुरक्षा आदेश मांगने का अधिकार
    • घरेलू हिंसा के परिणामस्वरूप हुई हानि के लिये क्षतिपूर्ति का दावा करने का अधिकार

उत्तराखंड समान नागरिक संहिता विधेयक क्या है: लिव-इन रिलेशनशिप के संबंध में प्रमुख प्रावधान?

परिभाषा एवं पंजीकरण:

  • विधेयक में लिव-इन रिलेशनशिप को विवाह के स्वरूप के रिश्ते के माध्यम से एक साझा घर में एक पुरुष और एक महिला के बीच सहजीवन के रूप में परिभाषित किया गया है, बशर्ते कि ऐसे संबंधों पर प्रतिबंध न हो।
  • धारा 378 के अनुसार, उत्तराखंड राज्य में रहने वाले लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाले पक्षों को रिलेशनशिप में प्रवेश करने के एक महीने के भीतर उस रजिस्ट्रार को 'लिव-इन रिलेशनशिप का विवरण' प्रस्तुत करना होगा, जिसके क्षेत्राधिकार में वे रहते हैं।
  • राज्य के बाहर लिव-इन रिलेशनशिप में रह रहे उत्तराखंड के निवासी अपने-अपने क्षेत्र के रजिस्ट्रार के समक्ष यह विवरण प्रस्तुत कर सकते हैं।
  • पंजीकरण की आवश्यकता का पालन न करने पर दण्डात्मक कार्यवाही हो सकती है, जिसमें तीन महीने तक का कारावास, 10,000 रुपए तक का अर्थदण्ड या दोनों शामिल हैं।

रजिस्ट्रार की शक्तियाँ और कर्त्तव्य:

  • धारा 381 रजिस्ट्रार को यह अधिकार देती है कि:
    • प्रस्तुत कथन की विषय-वस्तु की जाँच करें।
    • रिश्ते के विभिन्न पहलुओं की संक्षिप्त जाँच करें, जिसमें साझेदारों की वैवाहिक स्थिति, उनकी आयु और सहमति की प्रकृति शामिल है।
    • सत्यापन के लिये साझेदारों या किसी अन्य व्यक्ति को बुलाएँ।
    • पूछताछ के लिये अतिरिक्त जानकारी या साक्ष्य की आवश्यकता है।
  • धारा 381(4) के अंतर्गत रजिस्ट्रार विवरण प्राप्त होने के तीस दिनों के भीतर:
    • विवरण को निर्धारित रजिस्टर में दर्ज करें और पंजीकरण प्रमाण-पत्र जारी करें, या
    • इस तरह के इनकार के लिये लिखित कारण बताते हुए, बयान दर्ज करने से इनकार करें।
    • यदि लिव-इन रिलेशनशिप में कोई भी पक्ष 21 वर्ष से कम आयु का है, तो रजिस्ट्रार स्थानीय पुलिस स्टेशन और माता-पिता/अभिभावकों को सूचित करने के लिये बाध्य है।

विधिक स्थिति और अधिकार:

  • धारा 382 में प्रावधान है कि निर्धारित रजिस्टर में विवरण को शामिल करना केवल रिकॉर्ड के प्रयोजनार्थ है।
  • धारा 379 में कहा गया है कि लिव-इन रिलेशनशिप से उत्पन्न हुआ बच्चा धर्मज माना जाएगा।
  • धारा 388 में भरण-पोषण का अधिकार दिया गया है:
    • यदि किसी महिला को उसके साथ रहने वाले साथी द्वारा छोड़ दिया जाता है, तो वह भरण-पोषण का दावा करने की अधिकारी होगी।
    • ऐसे दावे उस सक्षम न्यायालय में दायर किये जा सकते हैं जिसका क्षेत्राधिकार उस स्थान पर हो जहाँ वे अंतिम बार सहजीवन में रहते थे।
    • इस संहिता के अध्याय 5, भाग-1 के प्रावधान ऐसे भरण-पोषण दावों पर यथावश्यक परिवर्तनों सहित लागू होंगे।

निष्कर्ष:

भारत में लिव-इन रिलेशनशिप के आस-पास का विधिक ढाँचा अस्पष्ट बना हुआ है, जो अक्सर साझेदारी के अन्य रूपों की तुलना में पारंपरिक विवाह को प्राथमिकता देता है। यह अस्पष्टता, सामाजिक दबावों के साथ मिलकर, कई जोड़ों को भेदभाव और विधिक चुनौतियों के प्रति संवेदनशील बना देती है। अधिक स्पष्ट एवं समावेशी विधानों की आवश्यकता है जो व्यक्तिगत अधिकारों को सांस्कृतिक संवेदनशीलताओं के साथ संतुलित करते हैं तथा आधुनिक भारत में विविध संबंध विकल्पों को समायोजित करने के लिये सामाजिक दृष्टिकोण विकसित करने की आवश्यकता है।